प्राकृत-काल / हिंदी भाषा की उत्पत्ति / महावीर प्रसाद द्विवेदी
आर्य लोगों की सबसे पुरानी भाषा के नमूने ऋग्वेद में हैं ऋग्वेद के मंत्रों का अधिकांश आर्यों ने अपनी रोजमर्रा की बोल-चाल की भाषा में निर्माण किया था। इसमें कोई संदेह नहीं। रामायण, महाभारत और कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित भाषा में हैं वह भाषा पीछे की हैं, वेदों के जमाने की नहीं। वेदों के अध्ययन, और उनके भिन्न-भिन्न स्थलों की भाषा के परस्पर मुकाबले, से इस बात का बहुत कुछ पता चलता है कि आर्य लोग कौन-सी भाषा या बोली बोलते थे।
विषय सूची
प्राकृत के तीन भेद
अशोक का समय ईसा के 250 वर्ष पहले है और पतंजलि का 150 वर्ष पहले। अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रंथों से मालूम होता है कि ईसवी सन के कोई तीन सौ वर्ष पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित हो गई थी जिसमें भिन्न-भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं। वह पुरानी संस्कृत से निकली थी जो उस जमाने में बोली जाती थी जिस जमाने में कि वेद-मंत्रों की रचना हुई थी। अर्थात् जो पुरानी संस्कृत वैदिक जमाने में बोलचाल की भाषा थी उसी से यह नई भाषा पैदा हुई थी। इस भाषा के साथ-साथ एक परिमार्जित भाषा की भी उत्पत्ति हुई। यह परिमार्जित भाषा भी पुरानी संस्कृत की किसी उपशाखा या बोली से निकली थी। इस परिमार्जित भाषा का नाम हुआ 'संस्कृत' अर्थात् 'संस्कार की गई' - 'बनावटी' और उस नई भाषा का नाम हुआ 'प्राकृत' अर्थात् 'स्वभावसिद्ध' या 'स्वाभाविक'।
वेद-मंत्रों का कुछ भाग तो पुरानी संस्कृत में है और कुछ परिमार्जित संस्कृत में। इससे साबित है कि वेदों के जमाने में भी प्राकृत बोली जाती थी। इस वैदिक समय की प्राकृत का नाम पहली प्राकृत रक्खा जा सकता है। इसके बाद इस पुरानी प्राकृत का जो रूपांतरण शुरू हुआ तो उसकी कितनी ही भाषाएँ बन गईं। पहले भी पुरानी प्राकृत कोई एक भाषा न थी। उसके भी कई भेद थे। पर देशकालानुसार उसकी भेद-वृद्धि होती गई और धीरे-धीरे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं के रूप उसे प्राप्त हुए। इस मध्यवर्ती प्राकृत का नाम दूसरी प्राकृत रख सकते हैं। पहले तो संस्कृत की भी वृद्धि इस दूसरी प्राकृत के साथ ही साथ होती गई। पर वैयाकरणों ने व्याकरण की श्रृंखलाओं से संस्कृत की वर्द्धनशीलता रोक दी। इससे वह जहाँ की तहाँ ही रह गई, पर प्राकृत बढ़ कर दूसरे दरजे को पहुँची। उसका तीसरा विकास वे सब भाषाएँ हैं जो आज कोई 100 वर्ष से हिंदुस्तान में बोली जाती है। हिंदी भी इन्ही में से एक है। उदाहरण के लिए वेदों की बहुत पुरानी संस्कृत पहली प्राकृत, पाली दूसरी प्राकृत, और हिंदी तीसरी प्राकृत है।
प्राकृत भाषाओं के लक्षण
इसका निर्णय करना कठिन है कि कब से कब तक किस प्राकृत का प्रचार रहा और प्रत्येक का ठीक-ठीक लक्षण क्या है। दूसरी तरह की प्राकृत का शुरू-शुरू में कैसा रूप था, यह भी अच्छी तरह जानने का कोई मार्ग नहीं। वह उस समय की है जब उसे युवावस्था प्राप्त हो गई थी। फिर, दूसरी प्राकृत का रूपांतर तीसरी में इतना धीरे-धीरे हुआ कि दोनों के मिलाप के समय की भाषा देख कर यह बतलाना असंभव सा है कि कौन भाषा दूसरी के अधिक निकट है और कौन तीसरी के। परंतु प्रत्येक प्रकार की प्राकृत के मुख्य-मुख्य गुणधर्म बतलाना मुश्किल नहीं। प्रारंभ काल में प्राकृत काल का रूप संयोगात्मक था। व्यंजनों के मेल से बने हुए कर्णकटु शब्दों की उसमें प्रचुरता है। दूसरी अवस्था में उसका संयोगात्मक रूप तो बना हुआ है, पर कर्णकटुता उसकी कम हो गई है। यहाँ तक कि पीछे से वह बहुत ही ललित और श्रुति-मधुर हो गई है। यह बात दूसरे प्रकार की प्राकृत के पिछले साहित्य से और भी अधिक स्पष्ट है। इस अवस्था में स्वरों का प्रयोग बहुत बढ़ गया है और व्यंजनों का कम हो गया है। प्राकृत की तीसरी अवस्था में स्वरों की प्रचुरता कम हो गई है। दो-दो तीन-तीन स्वर, जो एक साथ लगातार आते थे, उनकी जगह नए-नए संयुक्त स्वर और विभक्तियाँ आने लगीं। इसका फल यह हुआ कि भाषा का संयोगात्मक रूप जाता रहा और उसे व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हो गया। अर्थात् शब्दों के अंश एक से अधिक होने लगे। एक बात और भी हुई। वह यह कि नए-नए रूपों में संयुक्त व्यंजनों के प्रयोग की फिर प्रचुरता बढ़ी।
दूसरे प्रकार की प्राकृत
इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि शुरू-शुरू में दूसरे प्रकार की प्राकृत एक ही तरह से बोली जाती थी या कई तरह से। अर्थात् उससे संबंध रखने वाली कोई प्रांतिक बोलियाँ भी थीं या नहीं। परंतु इस बात का पक्का प्रमाण मिलता है कि वैदिक काल की प्राकृत के कई भेद जरूर थे। जुदा-जुदा प्रांतों के लोग उसे जुदा-जुदा तरह से बोलते थे। उसके कई आंतरिक रूप थे। जब वैदिक समय की प्राकृत में कई भेद थे तब बहुत संभव है कि आरंभ-काल में दूसरे प्रकार की प्राकृत के भी कई भेद रहे हों। उस समय इस भाषा का प्रचार सिंधु नदी से कोसी तक था। वह बहुत दूर-दूर तक बोली जाती थी। अतएव यह संभव नहीं कि इस इतने विस्तृत देश में सब लोग उसे एक ही तरह से बोलते रहे हों। बोली में जरूर भेद रहा होगा। जरूर वह कई प्रकार से बोली जाती रही होगी। अशोक के समय के शिलालेख और स्तंभलेख ईसा के कोई 250 वर्ष पहले के हैं। वे सब दो प्रकार की प्राकृत में हैं। एक पश्चिमी प्राकृत, दूसरी पूर्वी। यदि उस समय उसके ऐसे दो मुख्य भेद हो गए थे जिनमें अशोक को अपनी आज्ञाएँ तक लिखने की जरूरत पड़ी, तो बहुत संभव है, और भी कई छोटे-छोटे भेद उसके रहे हों, और उस समय के पहले भी उनका होना असंभव नहीं। बौद्धधर्म के प्रचार से इस दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। इस धर्म के अध्यक्षों ने अपने धार्मिक ग्रंथ इसी भाषा में लिखे और वक्तृताएँ भी इसी भाषा में कीं। इससे इसका महत्व बढ़ गया। आज कल यह दूसरी प्राकृत, पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका धीरे-धीरे विकास होता गया, क्योंकि भाषाएँ वर्धनशील और परिवर्तन शील होती हैं। वे स्थिर नहीं रहतीं। कुछ समय बाद पाली के मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि कई भेद हो गए। आज कल इन्हीं भेदों को प्राकृत कहने का रवाज हो गया है। पाली को प्रायः कोई प्राकृत नहीं कहता और न वैदिक समय की बोलचाल की भाषाओं ही को इस नाम से उल्लेख करता। प्राकृत कहने से आज कल इन्हीं मागधी आदि भाषाओं का बोध होता है।
साहित्य की प्राकृत
धार्मिक और राजनैतिक कारणों से प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। धार्मिक व्याख्यान उसमें दिए गए। धार्मिक ग्रंथ उसमें लिखे गए। काव्यों और नाटकों में उसका प्रयोग हुआ। प्राकृत में लिखे गए कितने ही काव्य-ग्रंथ अब तक इस देश में विद्यमान हैं और कितने ही धार्मिक ग्रंथ सिंहल और तिबत में अब तक पाए जाते हैं। नाटकों में भी प्राकृत का भी बहुत प्रयोग हुआ। प्राकृत के कितने ही व्याकरण बन गए। कोई एक हजार वर्ष से ही अधिक समय तक प्राकृत का प्रभुत्व भारतवर्ष में रहा। ठीक समय तो नहीं मालूम, पर लगभग 1000 ईसवी तक प्राकृत सजीव रही। तदनंतर उसके जीवन का अंत आया। उसका प्रचार, प्रयोग, सब बंद हुआ। वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस प्राकृत की कई शाखाएँ थीं - इसके कई भेद थे। उनके विषय में जो कुछ हम जानते हैं वह प्राकृत के साहित्य की बदौलत। यदि इस भाषा के ग्रंथ न होते, और यदि इसका व्याकरण न बन गया होता, तो इससे संबंध रखने वाली बहुत कम बातें मालूम होतीं। पर खेद इस बात का है कि प्राकृत के जमाने में जो भाषाएँ बोली जाती थीं उनका हमें यथेष्ट ज्ञान नहीं। साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती। प्राकृत-ग्रंथ जिस भाषा में लिखे गए हैं वह बोलने की भाषा न थी। बोलने की भाषा को खूब तोड़-मरोड़ कर लेखकों ने लिखा है। जो मुहाविरे या जो शब्द उन्हें ग्राम्य, शिष्टताविघातक, या किसी कारण से अग्राह्य मालूम हुए उनको उन्होंने छोड़ दिया और मनमानी रचना करके एक बनावटी भाषा पैदा कर दी। अतएव साहित्य की प्राकृत बोलचाल की प्राकृत नहीं। यद्यपि वह बोलचाल ही की प्राकृत के आधार पर बनी थी, तथापि दोनों में बहुत अंतर समझना चाहिए। इस अंतर को जान लेना कठिन काम है। साहित्य की प्राकृत, और उस समय की बोलचाल की प्राकृत का अंतर जानने का कोई मार्ग नहीं। हम सिर्फ इतना ही जानते हैं कि अशोक के समय में दो तरह की प्राकृत प्रचलित थी - एक पश्चिमी, दूसरी पूर्वी। इनमें से प्रत्येक का गुण-धर्म जुदा-जुदा है - प्रत्येक का लक्षण अलग-अलग है। पश्चिमी प्राकृत का मुख्य भेद शौरसेनी है। वह शूरसेन प्रदेश की भाषा थी। गंगा-यमुना के बीच के देश में, और उसके आस पास, उसका प्रचार था। पूर्वी प्राकृत का मुख्य भेद मागधी है। वह उस प्रांत की भाषा थी जो आज कल बिहार कहलाता है। इन दोनों देशों के बीच में एक और भी भाषा प्रचलित थी। वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी और अर्द्ध-मागधी कहलाती थी। सुनते हैं, जैन-तीर्थं कर महावीर इसी अर्द्ध-मागधी में जैन-धर्म का उपदेश देते थे। पुराने जैन ग्रंथ भी इसी भाषा में हैं। अर्द्ध-मागधी की तरह की और भी भाषा प्रचलित थी। उसका नाम था महाराष्ट्री। उसका झुकाव मागधी की तरफ अधिक था, शौरसेनी की तरफ कम। वह बरार और उसके आस पास के जिलों की बोली थी। यही प्रदेश उस समय महाराष्ट्र कहलाता था। प्राकृत-काव्य विशेष करके इसी महाराष्ट्री भाषा में है।