परिणीता से प्रणय / पवित्र पाप / सुशोभित

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परिणीता से प्रणय
सुशोभित


उपहार जया भादुड़ी की दूसरी हिंदी फ़िल्म थी। इससे पहले गुड्डी ही आई थी, अलबत्ता उपहार से पहले बांग्ला में दो फ़िल्में वो कर चुकी थीं। गुड्डी और उपहार ही नहीं, जया की अनेक महत्वपूर्ण फ़िल्मों, यथा- कोशिश, बावर्ची, अभिमान, मिली और यहाँ तक कि शोले में भी- हम एक यात्रा देखते हैं। एक स्त्री की यात्रा- बालिका, किशोरी, नवयौवना से लेकर प्रौढ़, परिपक्व और सुचित्त होने तक। यह यात्रा फ़िल्म के भीतर ही घटित होती है। अगर आप इन फ़िल्मों में जया के अवतरण की पहली फ्रेम और अंतिम फ्रेम को आमने-सामने रखें तो पाएंगे कि फ़िल्म के भीतर उन्होंने एक युग जीया है। खिलंदड़ भूमिकाएं निभाना जया के लिए सहज था, उनकी उम्र ही तब वैसी थी और स्वभाव भी चंचल था। किंतु इन फ़िल्मों में जया के अभिनय का उत्तरार्ध जब हमें दिखलाई देता है तो हम चकित रह जाते हैं, क्योंकि तब हम एक बालिका के भीतर एक गम्भीर, प्रगल्भ और भावप्रवण स्त्री का अन्वेषण करते हैं। फ़िल्म के साथ हम भी इस यात्रा में प्रौढ़ होते चले जाते हैं।

अजातशत्रु ने जो कभी गीता बाली के लिए कहा था, वही मैं जया के लिए कहना चाहूंगा- आप कभी नहीं जान सकते कि बेर की गुठलियां थूकने वाली या ईख की छाल दांतों से भींच लेने वाली यह किशोरी सहसा किस क्षण में संजीदा होकर स्त्री बन जावेगी, किंतु जब वैसा होगा, तब आपके पास उस पर हठात विश्वास करने के सिवा कोई चारा नहीं होगा।

उपहार रबींद्रनाथ ठाकुर की एक लोकप्रिय कहानी समाप्ति पर आधारित है। दस साल पहले साल इकसठ में सत्यजित राय इस पर फ़िल्म बना चुके थे। उसमें नायक सौमित्र चटर्जी और नायिका ओपर्णा सेन थीं। बिमल रॉय के कला-निर्देशक और पटुशिष्य सुधेन्दु रॉय ने इस कहानी को निर्देशक के रूप में अपनी पहली फ़िल्म के रूप में चुना। चुनौती कठिन थी। उन्हें सत्यजित राय से बेहतर करके दिखाना था। कहना ना होगा, सुधेन्दु ने समाप्ति का अपना एक निजी संस्करण रचा है और वो भावना की तीव्रता को रूपांकित करने में अपने अग्रजों से उन्नीस सिद्ध नहीं हुए।

कहानी यह थी कि मृण्मोयी अनगढ़ ग्रामबालिका है और दिनभर गाँव के किशारों के साथ खेलती और आम्रकुंज से आम चुराती रहती है। यह भूमिका जया ने अपने व्यक्तित्व के सुबोध गुणों के साथ निभाई है। अनूप बाबू कलकत्ते में वकालात की पढ़ाई करते हैं और गाँव में छुटि्टयां बिताने आए हैं, जहाँ उनकी मां उनके ब्याह के अरमान संजोए बैठी हैं। अनूप बाबू की भूमिका स्वरूप दत्त ने निभाई है, और यह उन्होंने इतने ठहराव से किया है कि उन पर अनुराग हो आता है। फ़िल्म में स्वरूप के आंगिक अभिनय, उच्चारण और देहभाषा की किफ़ायत श्लाघनीय है। मृण्मोयी और अनूप दो विपरीत ध्रुव हैं, फिर भी कलकत्ते के सुशिक्षित मोशाय-बाबू और बांग्ला भद्रलोक के प्रतिनिधि युवक अनूप बाबू उस अल्हड़ कन्या के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं।

पुरुष के मन में निर्दोष युवती के प्रति जो अभेद आकर्षण है, वो एक दूसरी ही कथा है। यह पुरुष के व्यक्तित्व के महान विरोधाभासों में से एक है कि उसके लिए स्त्री के निर्दोष व्यक्तित्व में विश्वास किए बिना उसके प्रेम में डूबना सम्भव नहीं होने पाता। अनूप बाबू आँख ही आँख में मृण्मोयी को परख लेते हैं। यह लड़की सुघड़, सुडौल और सुंदर तो है ही, उसमें वह भोलापन भी है, जिस पर वो नि:संकोच अपना संचित अनुराग उड़ेल सकते हैं। इस अनुराग को किसी अपात्रा को नहीं दिया जा सकता था। कविवर सुमित्रानंदन पंत ने ग्राम युवती का जो चित्र खींचा है- (‘हँसती खलखल अबला चंचल / ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल’), वह उसके सर्वथा अनुरूप है। उसमें और अनूप बाबू में वर्ग और पृष्ठभूमि का जो भेद है, उसका अर्थ नहीं रह जाता। अनूप बाबू जानते हैं कि इस स्वप्न को छुआ जा सकता है, मृण्मोयी के घर ब्याह की पाती भर भेजने की देर है, उसके माता-पिता तो इसे अपना सौभाग्य ही समझेंगे।

अनूप बाबू और मृण्मोयी का विवाह तो हो जाता है, किंतु मृण्मोयी का मन जीतना दुष्कर है। मृण्मोयी के भीतर यह भावना जम गई है कि अनूप बाबू ने उससे उसका निश्चिंत बचपन छीन लिया, उसके हँसी-ठट्ठे, खेलकूद पर प्रतिबंध लग गया और उसे बड़े घर की नववधू के रूप में बंधक बन जाना पड़ा। इसके लिए वह अनूप बाबू को क्षमा नहीं कर पाती। दूसरी तरफ़ अनूप बाबू उसे पाने के लिए अधीर नहीं हैं, वो प्रतीक्षा करना जानते हैं। वो उस किशोरी को स्त्री बनने का पूरा समय देने को तैयार हैं।

तब यह फ़िल्म दो बिंदुओं को हमारे सामने रखती है- एक, क्या पुरुष अपनी परिणीता का प्रेम जीतने के लिए प्रतीक्षा कर सकता है? और दो, क्या उस पुरुष की यह धैर्यपूर्ण चेष्टा उस स्त्री के भीतर अनुराग जगा सकती है? सुधेन्दु रॉय ने इस वस्तु को भरी-पूरी काव्यात्मकता के साथ चित्रित किया है।

पुरुष को स्त्री पर अधिकार कब मिलता है- यह एक बड़ा प्रश्न है। नियम तो यह है कि पुरुष को स्त्री का प्रेम जीतना होगा, तब उसे उस पर अधिकार मिलेगा। किंतु लोक की धारणा यह है कि विवाह की रीति से परिणीता पुरुष की हो जाती है। विवाह इसीलिए इतना लोकप्रिय है, क्योंकि उसमें पुरुष को प्रेम अर्जित करने के परिश्रम से छुट्टी मिल जाती है और स्त्री को भी वह दुविधा से मुक्त कर एकनिष्ठ होकर प्रयोजन-भावना से भर जाने का अवसर देता है। विवाह की इस लोकोपयोगिता के बावजूद मूल नियम बदल नहीं जाता। उपहार का नायक इस मूल नियम में विश्वास रखता है और अपनी परिणीता के अधिकार को अर्जित करने की संयमपूर्ण तपस्या करता है। बहुत साहस करके एक आलिंगन उससे उपहार में माँगता है और इनकार किए जाने पर मुस्कराकर कलकत्ता लौट जाता है। उसकी यह निर्वैयक्तिकता किशोरी को स्त्री बना देती है। ग्लानि से वह प्रणयिनी हो जाती है। प्रतीक्षा और आकुलता से भर जाती है। यह कल्पना तब कालान्तर में उसे सुख से भरने वाली है कि जिस पर उसका मन रीझ आया है, वह कोई और नहीं, उसका सहचर ही है, जीवन-साथी है।

प्रेम में एक दूरी से परिप्रेक्ष्य मिलता है। दो जन साथ हों, तो उस तत्व को परख नहीं पाते। बीच में अवकाश आ जाए, तो प्रेम की भावना विकसती है। फिर लौटकर जब मिलना होता है तो उस वापसी में एक आवेग होता है, उत्कंठा होती है। यह वही उत्कंठा है, जिसे फ़िल्म के अंतिम दृश्य में सुधेन्दु रॉय ने चित्रित किया है- बरखा हो रही है, कविता पढ़ी जा रही है, आँगन गीला है, अहाते के एक छोर पर अनूप बाबू हैं, दूसरे छोर पर मृण्मोयी- वो एक दूसरे को निहारते हैं और आलिंगन के एक आवेग में लहरों की तरह एक-दूसरे की ओर उमड़ पड़ते हैं। प्रेम? वह सम्भव है। और उससे भी बड़ा अचरज यह कि वह लोकमान्य भी है- उस पर कोई आक्षेप नहीं है।

यह परिणयजन्य प्रणय है, जिसे प्रेम की त्वरा के साथ दोनों ने अर्जित किया है-

पुरुष ने संयम से, स्त्री ने उत्कंठा से!