पश्चिमी घाट का रेलपथ / बावरा बटोही / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पश्चिमी घाट का रेलपथ
सुशोभित


यह तस्वीर देखकर लगा कि अगर ईश्वर आकाश से देखता होगा तो पश्चिमी घाट का रेल पथ उसे ऐसा ही दिखाई देता होगा. कि यह एक सेलेस्टियल विज़न है, गॉड्स ओन पर्सपेक्टिव!

महाराष्ट्र के सातारा ज़िले के अडर्की रेलपथ की यह तस्वीर है. यह रास्ता अपने 'हॉर्स शू कर्व' यानी घोड़े की नाल जैसे 270 डिग्री वाले मोड़ के लिए जाना जाता है. उसी मोड़ से पहले सहयाद्री की किसी चोटी से संध्याकाल को खींचा गया यह चित्र है.

चांदी की धार सी रेल की पटरी है. उस पर से एक रेलगाड़ी चली जा रही है. संध्या का अवसन्न आलोक रेलगाड़ी की सीसे की छत पर पारे की एक लीक की तरह ठहर गया है. समीप ही एक नहर है, या शायद छोटी नदिया. वह रेल की छत की आवृत्ति सी मालूम होती है. जैसे एक दृश्य गूंज रहा हो. वह अपने भीतर दोहरा गया हो.

एक सीमेट्रिकल परफ़ेक्शन, सानुपातिकता की पूर्णता का एक पुंज मन के भीतर बनता है. रेलगाड़ी के चले जाने के बाद का 'कानों को सुन्न कर देने वाला सन्नाटा' आत्मा में भर जाता है, दृश्य में रेलगाड़ी के होने के बावजूद. कि एक स्पष्ट मूवमेंट के बावजूद यह स्थिरचित्र है.

आकाश से ईश्वर को हमारी धरती ऐसी ही बेआवाज़ और बेहलचल मालूम होती होगी!

खरोंचों की बात नहीं करूंगा, ऐड़ी की मोच की भी नहीं, घाट पर पैर फिसलने से जो मिलती है, जाड़े की अनुभूति तक की नहीं, जो कभी कभी भीतर तक इतनी व्याप जाती है कि दिसम्बर की रातों में दौड़ने वाली रेलगाड़ियों की ठंडी, सुन्न त्वचा को सहलाने, उसके इस्पात को जीभ से चखने का मन होने लगे!

तब भी, पहाड़ों जैसे धैर्य और प्रतीक्षा के बिना ऐसी तस्वीरें खींच पाना सम्भव नहीं.

और ईश्वर जैसे अकेलेपन के बिना भी.

ईश्वर जैसी ही आँख से देखता हूँ इसे!

[छायाकार : एक बार फिर, अपूर्व बहादुर]