भारत की एक भोर / बावरा बटोही / सुशोभित

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भारत की एक भोर
सुशोभित


यह तस्वीर देखकर पहले-पहल क्या अनुभूति होती है?

श्वास में शीत : यही ना?

क्योंकि मध्य भारत में गर्मियों के मौसम में भी भोरे-भोरे एक कोमल, कातर, अन्यमनस्क-सा शीत पवन में होता है, त्वचा पर किसी लहर की तरह तैरता है!

यह जाड़ों का मौसम तो नहीं है, होता तो साइकिल से स्कूल जा रही वो दो छात्राएं स्वेटर पहने होतीं। किंतु निश्चय ही यह सुबह का समय है, बहुत से बहुत सात बजे होंगे! परिवेश में पसरा वैसा समतल उजाला सुबहों के ही तो समय मिलता है!

दो गोधूलि होती हैं।

सुबह की संधि, जिसमें एक क़िस्म का कच्चापन, उनींदापन, दोलायमान प्राण-तुला और आरम्भ की नर्वस एनर्जी। और सन्ध्या की गोधूलि, एक पकी हुई, चुकी हुई चीज़- गम्भीर, संतुष्ट, क्लान्त, उन्मन!

यह संधिकाल तो है किंतु यह संध्या नहीं है-

यह तो भारत की एक भोर है!

इसीलिए, इस तस्वीर को देखते ही जो दूसरी बात ध्यान में आती है, वह है जाना-पहचानापन। क्योंकि अपने देश को हम अपने रुधिर में पहचानते हैं ना।

यह महाराष्ट्र के दौंड़ज गाँव की तस्वीर है।

बहुत सम्भव है, हममें से कोई भी वहाँ कभी नहीं गया हो, फिर भी पहचानने में हमें भूल नहीं होती, कि यह तो भारतभूमि का एक आत्मीय बिम्ब है!

दूसरे देश के वासी इस चित्र को देखेंगे तो कौतूहल से परखेंगे। किंतु हमें यह तस्वीर देखते ही अपने भीतर एक अनिर्वचनीय सी तसल्ली होगी, कि यह दृश्य कितना तो अपना है, कि ये मेरे देश की सुपरिचित छवि है!

तो, पहली चीज़ होगी त्वचा के रोमकूपों में शीत की अनुभूति, और एक गहरी ठंडी उसांस।

दूसरी होगी जान-पहचान का मनोगत संतोष।

तीसरी चीज़ होगी- गंध!

डीज़ल और पेशाब की मिली-जुली गंध, कि रेल की पटरियाँ इतने समीप से साँप की तरह लहराकर जा रही हैं। इस भोर की शीतोष्ण वानस्पतिकता में बलात् अतिक्रमण करती एक तीखी सी गंध!

और तब हमें दिखेगी पटरियों और सड़क की वह अनूठी समवर्ती लय! मानो पटरियाँ सड़क की अनुगूँज हों-- जैसे वायु का वलय, पोखर की जलउर्मियाँ! एक ही बांक पर मुड़तीं, एक राग में डूबतीं, अनवरत में एक साथ ही गुम हो जातीं ये मायावी पटरियाँ और सड़क तब हमें सम्मोहित भी कर सकती हैं!

उतना ही मंत्रमुग्ध करता है चित्र में हरे और भूरे का वह सहगायन कि जी हाँ, यह भारतभूमि के पठारों का सुपरिचित पोर्ट्रेट है! मध्यभारत की केंद्रीय रंगत भूरी है, जिसमें विधाता ने हरे रंग की कूची से जहाँ-तहाँ गीले रंग भर दिए हैं।

इस तस्वीर में कुछ भी विशिष्ट नहीं, किंतु तब भी यह साधारण चित्र नहीं है! कि यह तस्वीर जैसे बोल रही है, अगर अपनी त्वचा से हम सुन सकें तो।

ईश्वर ने इस संसार को इतने कौतूहल और अनुराग से बनाया है कि मुक्त होने का मन नहीं करता!

[यह श्री अपूर्व बहादुर की वर्ष 2011 की क्लिक है। अपूर्व भारत के रेलपथ के अनूठे छायाचित्रकार और वृत्तांतकार हैं]