एक तालाब का फूटना / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
उस दिन भी ठीक साढ़े नौ बजे रोज़मर्रा की मीटिंग के लिए दफ़्तर पहुँच गया था, जहाँ यह फ़ैसला लिया जाता कि आज किस रिपोर्टर को किस दिशा में दौड़ाया जाएगा। इसके लिए बाक़ायदा घंटा-आध घंटा मगज-मंथन चलता। लेकिन उस दिन इसकी कोई गुंजाइश नहीं थी। एक बड़ी ख़बर पहले ही टेबल पर मौजूद थी- बीती रात बड़नगर रोड पर एक गाँव में तालाब फूट गया था। बोलो कौन कवर करने जाएगा? मैंने झट हाथ खड़ा कर दिया कि मैं जाऊँगा।
मुझे विभागीय और दफ़्तरी रिपोर्टिंग की तुलना में वैसी रिपोर्टिंग में ज़्यादा रुचि थी, जिसमें किसी गाँव-खेड़े जाना पड़े। इसी सिलसिले में एक बार महिदपुर गया था, एक बार उन्हेल, एक बार सिलोदा रावल, एक बार चिंतामण जवासिया। एक बार का क़िस्सा तो बहुत दिलचस्प है। साँवेर-रोड स्थित ग्राम डेंडिया-मेंडिया से ख़बर आई कि एक पेड़ को कटने से बचाने की ख़ातिर ग्रामीण एकत्र हो गए हैं। मेरे ब्यूरो चीफ़ ने रवाना करते समय कहा कि बोस, फ्रंट पेज की बॉटम है, और अगर सलीक़े से लिख दोगे तो ऑल एडिशन छपेगी। मैं उत्साह से पहुँचा। लेकिन वहाँ एक दूसरी ही कहानी मिली। पता चला कि वास्तव में वह एक विवादित भूमि का मसला था और वो पेड़ उस ज़मीन पर मौजूद था, जिस पर कोर्ट-कचहरी चल रही थी। हम अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। फ्रंट पेज की बॉटम मारी गई।
लेकिन इस बार की ख़बर पुख़्ता और संगीन थी। बड़नगर रोड पर सच में ही एक बड़ा तालाब फूटा था। यह अगस्त का महीना था, भरपूर मौसम था तालाब फूटने का। हर साल इस मौसम में अंचल से वैसी ख़बरें आती थीं। तालाब फूटना यानी उसकी पाल का टूट जाना, जिसके बाद उसमें जमा पानी गाँव की आबादी के लिए ख़तरा बन जाता है। मैंने कहा, मैं जाऊंगा। ब्यूरो चीफ़ ने कहा, लेकिन जल संयंत्र विभाग तुम्हारी बीट नहीं है। मैंने कहा, पर रूरल तो मेरी ही बीट है। इस पर उनके पास कोई जवाब नहीं था। सच में ही रूरल मेरी बीट थी, उज्जैन ज़िले की तमाम तहसीलों से आने वाली डाक की ख़बरों का प्रभार मेरे पास था। देवासगेट गाड़ी अड्डे पर समाचार-पत्र के डाक-बक्से में इंगोरिया, तराना, खाचरौद, नजरपुर, घोसला के समाचार लिफाफे में बंद होकर पहुँचते, इस ताक़ीद के साथ कि सक्तावत जी को मिले। फिर वो मेरी डेस्क पर नमूदार होते। जिनसे फिर पुल-आउट एडिशन का पेज नम्बर दो यानी डाक का पन्ना बनाया जाता- गाँव-खेड़े की ख़बरें।
मैं एक फ़ोटोग्राफ़र को लेकर चला। रुद्रसागर लाँघा, फिर हरसिद्धि पाल से नीचे उतरा। शिप्रा नदी की छोटी रपट से उजड़खेड़ा की ओर चल पड़ा। कोई दसेक किलोमीटर मुख्य सड़क से चलने के बाद फिर एक रास्ता अंदर की तरफ़ कटा। कच्ची डार थी। इस पर भी कोई चारेक किलोमीटर चलना हुआ कि गाँव दिखलाई दिया, फिर दिखलाई दी तालाब की पाल और तब धीरे-धीरे उभरकर सामने आए जलप्लावन के दृश्य।
पानी ही पानी। बरखा हो रही थी और डबरे भर गए थे। तिस पर फूटे तालाब की बाढ़। कबीरदास जी याद आए कि जल भरि कुम्भ कुम्भ माहिं जल है, बाहिर भीतर पानी। एक सीमा के बाद मोटरसाइकिल के पहिये ने घूमने से इनकार कर दिया तो बाइक को मेन स्टैंड पर टिकाकर आगे बढ़े। तालाब की पाल पर चढ़कर विहंगम दृश्य देखा। अगाध जलराशि में कुछ अदम्य तत्व होता है, जो प्राणों को हुलसा देता है। फूटा तालाब रातभर बहता रहा था, पर अब भी उसमें जलराशि कम ना थी। आँखों के सामने लहलहाती थी। बहुत बड़ा तालाब था और बहुत पुराना था।
समीप ही एक पटेल-बा खड़े थे। उनका घर गाँव के सीमान्त पर था। पड़ोस में गेंदे की क्यारी थी और पीछे बबूल का झाड़ खड़ा था। गाँव में इने-गिने ही टेलीफ़ोन थे, जिनमें से एक उनके यहाँ था। मैंने झट नम्बर दर्ज किया, कि रात-बिरात ज़रूरत पड़ने पर फोन करके ख़बर लूँगा। उनसे तफ़्तीश के अंदाज़ में पूछा कि- कित्तो पुरानो तलाव है? उन्होंने बतलाया कि अंग्रेज़-बहादुर के ज़माने का। फिरंगियों के गजेटियर में शायद कहीं इसकी इत्तेला होगी।
जितना पुराना तालाब, उतनी पुरानी पाल। सालों की धूप-बारिश से धीरे-धीरे छीजने वाली मिट्टी-गारे की खड़ी दीवार, जिसके इस तरफ़ गाँव की भीनी डगर, दूसरी तरफ़ पानी की जमापूँजी। यह पूँजी अब बह रही थी। कूड़न-किसान को एक नेक राजा ने तालाब खोदने की कला को पारस पत्थर के समान बतलाते हुए अच्छा अच्छा काज करने की शिक्षा दी थी, वैसी ही किसी भावना के वशीभूत होकर जाने किस स्वर्णकार ने जाने कब धरती पर खोदा होगा यह तालाब- जो अब रिस रहा था।
तालाब से आबादी कोई आधा कोस दूर होगी, पर पूरे अंचल में पिंडलियाँ डुबाने जितना पानी भर चुका था। जूते कीचड़ में धंसने लगे थे, चप्पलों की बद्दियाँ टूटने लगी थीं। एक डबरी दीखी तो पतलून के पैताने धोए, पाँव पखारे। इसी उपक्रम के बीच फिर डायरी निकाली, ब्योरे दर्ज किए, बयान लिए, तालाब का नक़्शा बनाया- कैसी पाल है, कहाँ फूट हुई, किस रास्ते पानी बहकर गया, देहातियों ने कैसे रातभर हाड़ तोड़कर एक नहर बनाई कि पानी बहकर उस डगर जा निकले, गाँव में ना घुसे- इसका पूरा विवरण। तस्वीरें उतारीं। दूर-दूर तक किसी और अख़बार का बाशिंदा यहाँ मौजूद नहीं था। क्या इस रिपोर्ट को मैं एक्सक्लूसिव कहूँगा, इस पर मुझको फ्रंट पेज की बायलाइन मिलेगी- मैंने ख़ुद से पूछना चाहा, लेकिन आवाज़ भीतर घुट गई। आया तो इसी लोभ में था कि एक नायाब ख़बर लेकर लौटूँगा, किन्तु यहाँ कीच में धँसकर वो इरादे हिरन हुए। फूटे तालाब से मन जुड़ा गया। एक संजोई पूँजी यों ही अयाचित बही जा रही है, इस हानि की चेतना ने भी कम नहीं कचोटा। जब चला था, तब नगर प्रतिनिधि था, यहाँ आकर गाँव का हरकारा बन गया था। अब गाँव का संवाद ले जाकर नगर-कोतवाल को सुनाना था।
और संवाद बख़ूबी सुनाया। बड़ी मेहनत से कॉपी लिखी, और एक ज़मीनी रपट प्रस्तुत की। ब्यूरो चीफ़ प्रसन्न हुए। फ्रंट पेज पर एक डबल कॉलम न्यूज़ देकर सिटी एडिशन के पहले पन्ने पर उसको छह कॉलम में फैलाया- जैसे फूटे तालाब का पानी गाँव में फैल गया था। ख़बर को भली तरह से सजाया, जैसे गाँव के घर-आँगन में कीच सज गया था। उसमें मेरा नाम टाँक दिया। देखना कल ये ख़बर क्या असर करेगी- उन्होंने कहा। जो होना था वह तो पहले ही हो चुका- मेरे भीतर एक आवाज़ गूँजी। तालाब फूट गया, पानी बह गया- अब क्या होगा? हम ख़बरनवीसों को लगता है कि रपट प्रस्तुत करके हम कुछ बड़ा कर रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उससे हम केवल ख़ुद को ही मना पाते हैं कि हमने कुछ किया है। दुनिया जिस तौर-तरीक़े से चलती है, उस पर यथास्थिति इतनी हावी रहती है कि वो मशीनरी हरगिज़ बदलने नहीं पाती। बीच-बीच में किसी हादसे से भले उसको दचके लगते रहें।
लेकिन उस रात सोया तो लगा आँखों से नींद रिस जा रही है, जैसे तालाब से पानी रिसता है। मोरी में नल टपक रहा था। जलबिंदु ही थे, कोई बड़ी जलराशि नहीं, किंतु नींद में ख़लल पैदा करते थे। जिनकी दहलीज़ पर तालाब फूटा हो, वो फिर कैसे सोएँगे- सोचने लगा।
ख़बर छपी। सराहना मिली। सरकारी मशीनरी हरकत में आई। नगर मुख्यालय से जीपों का काफ़िला रवाना हुआ। कलेक्टर-बहादुर भी दुपहर-साँझ तक एक चक्कर काटेंगे- वैसा सुनकर मुतमईन हुआ। आज फिर नई ख़बरों के आखेट में निकलना था। फिर भी फ़ॉलोअप लेने की गरज़ से जेब से पर्स निकाला और पर्ची पर लिखा नम्बर घुमाया। देर तक घंटी बजती रही। फोन नहीं उठा। फिर लगाया, फिर नाकामी हाथ लगी। डायरी उठाकर जेब में रखी और आज की रिपोर्टिंग पर चला गया। सन्ध्यावेला में दफ़्तर पहुँचा। सान्ध्य-दैनिक की एक ख़बर ने ध्यान खींचा- परसों रात बड़नगर रोड के जिस गाँव में तालाब फूटा था, उसमें घुटने-घुटने पानी भरा। गाँव की चौपाल डूब गई। अनाज के कोठार गल गए। देहाती अपना आटा-दाल लेकर उठंगी धरती की ओर चले गए। गाँव के सीमान्त पर बबूल के नीचे वाला पटेल का मकान बह गया।
इससे आगे मैं पढ़ ना सका। एक चलचित्र आँखों के सामने चलने लगा- बहते घर में हिचकियों के साथ विलाप करती टेलीफोन की घंटी, जो जवाब नहीं देने पर विवश थी, मटमैले पानी में तैरती गेंदे की कुँआरी पंखुड़ियाँ, और चिरनिद्रा में चुभते बबूल के काँटे।