नाम में खिड़कियाँ / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
चीन देश के एक कवि ने बेटी से कहा था-- 'तुम्हारे नाम में दो खिड़कियाँ हैं!'
यान्ग्त्से नदी के किनारे वाली भाषा में उसका नाम वैसे ही लिखा जाता होगा. मेरी लिपि में होता तो शायद 'क' अक्षर उसके नाम में होता. 'क' में भी दो खिड़कियाँ हैं. अगर ठीक से दिखाई ना दें तो सम्भव है कोई उसमें पेंसिल से बना दे.
'क' कितना सुंदर था. तीर सी सीधी रेखा पर दो गोल घेरे. एक पूरा हो चुका, दूसरा उस पूरे की लय से तरंगायित किंतु अभी अधूरा. एक खुली तो एक बंद खिड़की. इनमें नारंगी रंग भर दिया जाता तो वो अक्षर चित्र बन जाता. चित्रों को पढ़ना अधिक सरल था.
स्कूल के नाम में भी 'क' होता लेकिन स्कूल में दो से ज़्यादा खिड़कियाँ होतीं. 'क' से किताब भी होती, हज़ार झरोखों वाली. किताब में चित्र भी होते. कविता की किताब में तो सबसे ज़्यादा. किताब के आख़िरी पन्ने पर लेखक का चित्र होता. स्कूल जाने वाली जो उम्र अभी कविता नहीं पढ़ सकती, किताब भी नहीं, वो भी चित्र को पहचानती. तब लेखक बेटे को अपनी किताब यों उलटकर सौंपता कि आख़िरी पन्ना पहले दिखाई दे.
चीन देश के कवि की बिटिया के नाम में दो खिड़कियाँ थीं, लेकिन हरेक उस पिता के नाम में आकाश होता, जिसे उसकी पुस्तक पर छपी तस्वीर से पुकारकर पहचाना जाता.
ये पुकार नीले रंग की होती. नीला एक दरवाज़ा था.
ये दरवाज़ा भीतर खुलता तो पिता कवि कहलाता.
ये दरवाज़ा बाहर खुलता तो कवि पिता.