पहचान / भाग 12 / अनवर सुहैल
तभी दूसरी घंटी बजी।
टनननन टन्न टनन...
सिंगरौली के एक स्टेशन पहले से गाड़ी छूटने का सिग्नल। यानी अगले पंद्रह मिनट बाद गाड़ी प्लेटफार्म पर आ जाएगी। यात्रीगण मुस्तैद हुए।
यूनुस के अंदर घर बना चुका डर अभी खत्म न हुआ था। खालू कभी भी आ सकते हैं। उनके सहकर्मी पांडे अंकल इन सब मामलात में बहुत तेज हैं। खालू कहीं उनकी बुल्लेट में बैठ धकधकाते आ न रहे हों। एक बार गाड़ी पकड़ा जाए, उसके बाद 'फिर हम कहाँ तुम कहाँ!'
प्लेटफार्म पर वह ऐसी जगह खड़ा था, जहाँ ठंड से बचने के लिए रेलवे कर्मचारियों ने कोयला जला रखा था। इस जगह से मुख्य द्वार पर आसानी से नजर रखी जा सकती थी। उसने सोच रखा था यदि खालू दिखार्इ दिए तो वह अँधेरे का लाभ उठाकर प्लेटफार्म के उस पार खड़ी माल गाड़ी के पीछे छिप जाएगा। इस बीच यदि पैसेंजर आर्इ तो चुपचाप चढ़कर संडास में छिप जाएगा। फिर कहाँ खोज पाएँगे खालू उसे।
उसे मालूम नहीं कि अब वह घर लौट भी पाएगा या अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह इस संसार रूपी महासागर में कहीं खो जाएगा।
यूनुस को सलीम की याद हो आर्इ...
उसे यही लगता कि सलीम मरा नहीं बल्कि हमेशा की तरह घर से रूठ कर परदेस गया है। किसी रोज ढेर सारा उपहार लिए हँसता-मुस्कराता सलीम घर जरूर लौट आएगा।
सलीम, यूनुस की तरह एक रोज घर से भाग कर किसी 'परदेस' चला गया था। 'परदेस' जहाँ नौजवानों की बड़ी खपत है। 'परदेस' जहाँ सपनों को साकार बनाने के ख्वाब देखे जाते हैं। वह 'परदेस' चाहे दिल्ली हो या मुंबर्इ, कलकत्ता हो या अहमदाबाद। उच्च-शिक्षा प्राप्त लोगों का 'परदेस' वाकर्इ परदेस होता है, वह यूएसए, यूके, गल्फ आदि नामों से पुकारा जाता है।
यूनुस अपने गृह-नगर की याद कब का बिसार चुका है। उस जगह में याद रहने लायक कशिश ही कहाँ थी? मध्य प्रदेश के पिछड़े इलाके का एक गुमनाम नगर कोतमा...
आसपास के कोयला खदानों के कारण यहाँ की व्यापारिक गतिविधियाँ ठीक-ठाक चलती हैं।
नगर-क्षेत्र में बाहरी लोग आ बसे और नगर की सीमा के बाहर मूल शहडोलिया सब विस्थापित होते गए। यहाँ रेल और सड़क यातायात की सुविधा है। एक-दो पैसेंजर गाड़ियाँ आती हैं। पास में अनूपपुर स्टेशन है, जहाँ से कटनी या फिर बिलासपुर के लिए गाड़ियाँ मिलती हैं।
कोतमा इस रूट का बड़ा स्टेशन है। लोग कहते हैं कि सफर के दौरान कोतमा आता है तो यात्रियों को स्वयमेव पता चल जाता है। कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़-मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह किस्म के हैं। हल्ला-गुल्ला, अनावश्यक लड़ार्इ-झगड़े की आवाज से यात्रियों को अंदाज हो जाता है कि महाशय, कोतमा आ गया। रेल में पहले से जगह पा चुकी सवारियाँ सजग हो जाती हैं कि कहीं दादा किस्म के लोग उन्हें उठा न फेंकें।
कोतमा में हिंदू-मुसलमान सभी लोग रहते हैं किंतु नगर के एक कोने में एक उपनगर है लहसुर्इ। जिसे कोतमा के बहुसंख्यक 'मिनी पाकिस्तान' कहते हैं। जिसके बारे में कर्इ धारणाएँ बहुसंख्यकों के दिलो-दिमाग में पुख्ता हैं। जैसे लहसुर्इ के बाशिंदे अमूमन जरायमपेशा लोग हैं। ये लोग स्वभावतः अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके पास देसी कट्टे-तमंचे, बरछी-भाले और कर्इ तरह के असलहे रहते हैं। लहसुर्इ मे खुले आम गौ-वध होता है। लहसुर्इ के निवासी बड़े उपद्रवी होते हैं। इनसे कोर्इ ताकत पंगा लहीं ले सकती। ये बड़े संगठित हैं। पुलिस भी इनसे घबराती है।
लहसुर्इ और कोतमा के बीच की जगह पर स्थित है यादव जी का मकान। उसी में किराएदार था यूनुस का परिवार।
इमली गोलार्इ के नाम से जाना जाता है वह क्षेत्र।
यादव जी कोयला खदान में सिक्यूरिटी इंस्पेक्टर थे। वे बांदा के रहने वाले थे। घर के इकलौते चिराग। शायद इसीलिए नाम उनका रखा गया था कुलदीप सिंह यादव।
सो गाँव में धर्म-पत्नी खेत और घर की देखभाल किया करतीं। यादव जी इसी कारण परदेस में अकेले ही जिंदगी बसर करने लगे। शुरू में थोड़े अंतराल के बाद छुट्टियाँ लेकर घर जाया करते थे। फिर कोयला खदान क्षेत्र में आसानी से मुँह मारने का जुगाड़ पाकर उनके देस जाने की आवृत्ति कम होती गर्इ।
कुलदीप सिंह यादव जी स्वभाव से चंचल प्रकृति के थे। देस में 'बावन बीघा पुदीना' उगाने वाले यादव जी का, इधर-उधर मुँह मारते-मारते, एक युवा विधवा के साथ ऐसा टाँका भिड़ा कि उनकी भटकती हुर्इ कश्ती को किनारा मिल गया।
वह विधवा पनिका जाति की स्त्री थी। उसने भी कर्इ घाट का पानी पिया था। लगता था कि जैसे वह भी अब थक गर्इ हो। दोनों ने वफादारी की और आजन्म साथ निभाने की कसमें खार्इं।
पनिकाइन, यादव जी के नाम से खूब गाढ़ा सिंदूर अपनी माँग में भरने लगी।
यादव जी भी छिनरर्इ छोड़कर उस पनिकाइन के पल्लू से बँध गए।
धीरे-धीरे उनका छटे-छमाहे देस जाना बंद हुआ और फिर देस में भेजे जाने वाले मनी-आर्डर की राशि में भी कटौती होने लगी।
यादव जी के प्रतिद्वंदियों ने यादव जी की अपने परिजनों से विरक्ति की खबर देस में यादवाइन तक पहुँचार्इ।
यादवाइन बड़ी सीधी-सादी ग्रामीण महिला थी। उसने घर में मेहनत करके बाल-बच्चों को पाला-पोसा था। गाँव-गिराँव के गाय-गोबर, कीचड़-कांदों और बिन बिजली बत्ती की असुविधाओं को झेला था। यादव जी की बेवफार्इ उसे कहाँ बर्दाश्त होती। उसने अपने जवान होते बच्चों के दिलों में पिता के खिलाफ नफरत के बीज बोए।
बच्चे युवा हुए तो उन्हें नाकारा बाप को सबक सिखाने कोतमा भेजा।
बच्चे कोतमा आए और उन्होंने अपने बाप को नर्इ माँ के सामने ही खूब मारा-पीटा।
जब यादव जी लड़कों से दम भर पिट चुके तब कोयला-खदान में बसे उनके जिला-जवारियों ने आकर बीच-बचाव किया।
इस घटना से यादव जी की खूब थू-थू हुर्इ।
मजदूर यूनियन के नेतागण, खदान के कर्मचारीगण और यादव जी के बच्चों के बीच पंचइती हुर्इ। यादव जी की वैध पत्नी के त्याग और धैर्य की तारीफें हुर्इं। यादव जी के चंचल चरित्र और नर्इ पत्नी की वैधता पर खूब टीका-टिप्पणी हुर्इ। फिर सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बैंक में यादव जी के खाते से प्रत्येक महीने तीन हजार रुपया बांदा में उनकी पत्नी के खाते में स्थानांतरित होगा।
यदि यादव जी इससे इनकार करेंगे तो फिर अंजाम के लिए स्वयं जिम्मेदार होंगे। लड़के जवान हो ही गए हैं।
पनिकाइन छनछनाती रह गर्इ। यादव जी ने इन नर्इ परिस्थितियों से समझौता कर लिया। यादव जी सोच रहे थे कि ये बला कैसे भी टले, टले तो सही।
बैंक मैनेजर ने व्यवस्था बना दी। तनख्वाह जमा होते ही तीन हजार रुपए कोतमा से निकलकर बांदा में उनकी पत्नी के खाते में जमा होने लगे। इस तरह सारे भावनात्मक संबंध खत्म करके बच्चे गाँव वापस चले गए।
यादव जी बाल काले न कराएँ तो एकदम बूढ़े दिखें। दाँत टूट जाने के कारण गाल पिचक गए हैं और चेहरा चुहाड़ सा नजर आता है। बनियाइन-चड्ढी में मकान के बाहर बने खटाल में गाय-भैंस को घास-भूसा खिलाते रहते हैं। पानी मिले दूध के व्यापार की देखभाल स्वयं करते हैं।
पनिकाइन की जवानी अभी ढल रही है। कहते हैं कि स्त्री अपनी अधेड़ावस्था में ज्यादा मादक होती है। यह फार्मूला पनिकाइन पर फिट बैठता है। पाँच फुट ऊँची पनिकाइन। जबरदस्त डील-डौल। भरा-भरा बदन। दूध-घी सहित निश्चिंत जीवन पाकर पनिकाइन कितना चिकना गर्इ है। कहते हैं कि यादव जी को एकदम 'चूसै डार' रही है ये नार!
यूनुस जब बच्चा था तब उसने उन दोनों को खटाल में बिछी खाट पर विवस्त्र गुत्थम-गुत्था देखा था।
ये था यूनुस के फुटपाथी विश्वविद्यालय में कामशास्त्र का व्यवहारिक पाठ्यक्रम...