पहचान / भाग 11 / अनवर सुहैल

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फिर जमाल साहब खाला के घर अक्सर आने लगे।

खालू घर में हों या न हों, खाला उनकी खूब खातिर-तवज्जो करतीं।

जमाल साहब आते तो टीवी खोलकर बैठ जाते। घर में उर्दू का एक अखबार आता था। खालू सनूबर से उनके लिए भजिए-पकौड़ी तलवातीं। जमाल साहब कड़ी पत्ती और कम चीनी वाली चाय बड़े शौक से पीते। घर में अच्छे कप न थे। खाला ने बर्तन वाले की दुकान से बोन-चायना वाला कीमती कप-सेट खरीदा था।

जमाल साहब का प्रमोशन हुआ तो वह मिठार्इ का डिब्बा लेकर आए।

यूनुस उस दिन घर पर ही था।

रसमलार्इ की दस कटोरियाँ थीं। बनारसी स्वीट्स की खास मिठार्इ।

खाला ने तो रसमलार्इ खाकर ऐलान कर दिया कि अपने इस जीवन में उन्होंने ऐसी उम्दा मिठार्इ कभी न खार्इ थी। खालू ठहरे कंजूस। छेना की मिठार्इ कभी लाते नहीं। फातिहा-दरूद के लिए वही मनोहरा के होटल से खूब मीठे पेड़े ले आते।

कभी कोर्इ आया या किसी के घर गए तो खोवा की मिठाइयाँ या बिस्किट वगैरा से स्वागत होता। रसमलार्इ जैसी मिठार्इ उन्होंने कभी न खार्इ थी।

रसमलार्इ का रस जो कटोरी में बचा था, वे उसे सुड़कते हुए पीने लगीं।

जमाल साहब हँस दिए।

सनूबर, छोटकी और अन्य बच्चों के साथ यूनुस ने भी पूरा स्वाद लेते हुए रसमलार्इ खार्इ।

खाला अपनी देहाती में उतर आर्इं जिसका लब्बोलुआब था कि वाकर्इ दुनिया में एक से एक लजीज चीजें हैं।

इस तरह जमाल साहब उस परिवार में एक सदस्य की तरह शामिल हो गए।

जब उनका मन गेस्ट-हाउस के खाने से ऊब जाता तो वे बिना संकोच खाला के घर आ जाते। वो चाहे कैसा समय हो, खाला और सनूबर, उनके लिए तत्काल कुछ न कुछ खाने की व्यवस्था अवश्य कर देतीं।

जमाल साहब के सामने कभी-कभी खाला सनूबर को डाँटने लगतीं या गरियाने लगतीं तो सनूबर नाराज हो जाती। इस आवाज में सुबकती कि जमाल साहब तक उसके नाक सुड़कने की आवाज पहुँच जाए।

फिर जमाल साहब खाला को समझाते कि इतनी सुघड़-समझदार बिटिया को इस तरह नहीं डाँटा-मारा करते। सनूबर तो घर-रखनी है। सभी का ख्याल रखती है।

सनूबर उन्हें जमाल अंकल कहती।

यूनुस उन्हें साहब ही कहता।

पूरे घरवालों में जमाल साहब की बढ़ती जा रही लोकप्रियता से उसे चिढ़ होने लगी।

चिढ़ का एक और कारण ये भी था कि जमाल साहब के आ जाने से सनूबर अब यूनुस का खास ख्याल नहीं रख पाती।

यूनुस ठेकेदारी मजदूर ठहरा! उसकी ड्यूटी का टाइम बड़ा अटपटा था। कभी अलस्सुबह जाना पड़ता और कभी रात के बारह बजे बुलौवा आ जाता। कभी रात के बारह-एक बजे घर वापस लौटता। कपड़े मैले-कुचैले हो जाते। कपड़ों में ग्रीस-मोबिल के दाग लगे होते।

पहले आदतन वह कपड़े स्वयं धोता था। फिर सनूबर मेहरबानी करके उसके कपड़े धोने लगी। अब ये यूनुस का अधिकार बन गया कि सनूबर ही उसके कपड़े धोए।

जमाल अंकल के कारण सनूबर को अब किचन में कुछ ज्यादा समय देना पड़ता था। खाला तो सिर्फ हा-हा, ही-ही करती रहतीं। कभी पापड़ तलने को कहेंगी, कभी चाय बनाने का आदेश पारित करेंगी।

खालू आ जाते तो वह भी पूछा करते कि साहब की खिदमत में कोर्इ कसर तो नहीं रह गर्इ है।

यूनुस ने यह भी गौर किया कि खाला जमाल साहब के सामने सनूबर को कुछ ज्यादा ही डाँटती हैं।

इससे जमाल साहब उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं। कहते हैं कि बच्चों को प्यार से समझाना चाहिए।

अक्सर इस बात पर सनूबर सुबकने लगती।

जमाल अंकल उसे अपने पास बुलाते और बिठाकर समझाते कि माँ-बाप की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। साथ ही साथ वह खाला को भी समझाते कि बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें।

फिर वह दिन भी आया कि जमाल साहब ने आफीसर्स गेस्ट हाउस के मेस में खाना बंद कर दिया और खालू के घर में उनका खाना बनने लगा।

जीप आती और सुबह का नाश्ता करके वह खदान चले जाते। दुपहर के खाने का पक्का नहीं रहता। यदि देर हो जाती तो वे वहीं कहीं केंटीन वगैरा में कुछ खा-पी लेते। रात का खाना वह खालू के घर ही खाते। उन्होंने संकोच के साथ कुछ पैसे भी देने चाहे, लेकिन खाला ने मना कर दिया।

इसके बदले वह स्वयं कभी गोश्त और कभी अन्य सामान के लिए जेब से पैसे निकालकर देते।

कुल मिलाकर वह भी घर के स्थायी सदस्य बन चुके थे।

रात के दस-ग्यारह बजे तक वह घर में डटे रहते। कभी टीवी देखते और कभी बच्चों को पढ़ाने लगते। बच्चों के साथ वह हँसी-मजाक बहुत करते, जिससे बच्चों का मन लगा रहता।

अड़ोसियों-पड़ोसियों के सामने खाला-खालू का सीना चौड़ा होता रहता कि एक अधिकारी उनका रिश्तेदार है। खाला जमाल साहब को अपना दूर का रिश्तेदार बतातीं, उधर खालू उन्हें अपना रिश्तेदार सिद्ध करते। वैसे वह उन दोनों के रिश्तेदार किसी भी कोण से हो नहीं सकते थे क्योंकि खाला-खालू तो एमपी के थे और जमाल साहब नागपुर तरफ के रहने वाले।

लोगों को इससे क्या फर्क पड़ता।

आप अपने घर में जिसे बुलाओ, बिठाओ, खिलाओ-पिलाओ या सुलाओ। इससे मुहल्ले वालों की सेहत में क्या फर्क पड़ सकता है। बस, फुर्सत में सभी उस घर में पनप रहे किसी नए रिश्ते की, किसी नर्इ कहानी के पैदा होने की उम्मीद टाँगे बैठे थे।

यूनुस को जमाल साहब का इस तरह घर में छा जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह देख रहा था कि खाला भी जमाल साहब के सामने खूब चहकती रहती हैं। सनूबर के भी हाव-भाव ठीक नहीं रहते हैं। सभी जमाल साहब को लुभाने की तैयारी में संलग्न दिखते हैं।

एक दिन यूनुस ने खाला के मुँह से सुना कि वह जमाल साहब को अपना दामाद बनाना चाह रही हैं।

अरे, ये भी कोर्इ बात हुर्इ। कहाँ जमाल साहब और कहाँ फूल सी लड़की सनूबर। दोनों के उम्र में सोलह-सत्रह बरस का अंतर...

क्या ये कोर्इ मामूली अंतर है?

खाला कहने लगीं - 'जब तेरे खालू से मेरा निकाह हुआ तब मैं बारह साल की थी और तेरे खालू तीस बरस के जवान थे। क्या हम लोग में निभ नहीं रही है?'

यूनुस क्या जवाब देता।

सनूबर ने भी तो उस मंसूबे का विरोध नहीं किया था। कहीं उसके मन में भी तो अफसराइन बनने की आकांक्षा नहीं?

यूनुस के पास खानाबदोशी जीवन और असुविधाओं-अभावों का अंबार है जबकि जमाल साहब का साथ माने पाँचों उँगलियाँ घी में होना।