पहचान / भाग 14 / अनवर सुहैल
खाला का दबाव था, सो खालू को 'एक्शन' में आना ही था।
खालू उसे 'मदीना टेलर' के मालिक बन्ने उस्ताद के पास ले आए।
मस्जिद पारा में स्थित यतीमखाना के सामने अंजुमन कमेटी की तरफ से तीन दुकानें बनार्इ गर्इ हैं। इन दुकानों से यतीमखाना के प्रबंध के लिए आय हो जाती है। ये सभी दुकानें मुसलमान व्यापारियों को ही दी जातीं। एक दुकान में आटा चक्की थी, दूसरे में किराने का सामान और तीसरी दुकान के माथे पर टँगा बोर्ड - मदीना टेलर, सूट-स्पेशलिस्ट
मदीना टेलर के मालिक थे बन्ने उस्ताद। बन्ने उस्ताद एक पारंपरिक दर्जी थे। कहते हैं शुरू में वे लेडीज टेलर के नाम से जाने जाते थे। पैसे कमाकर स्वयं कारीगर रखने लगे, और तब अचानक नाम वाले बन गए। आजकल शादी-ब्याह के अवसर पर मध्यमवर्गीय परिवार दूल्हे के लिए कोट-पैंट जरूर बनवाते हैं। शादी मे जो एक बार थ्री-पीस सूट लड़का पहन लेता है, फिर अपनी जिंदगी में अपने खर्चे से वह कहाँ एक भी सूट सिलवा पाता है। यदि किस्मत से बेटे का बाप बना तो फिर भावी समधी के बजट पर बेटे की शादी में कोट सिलवा सके तो उसका भाग्य! बन्ने उस्ताद शहर से अच्छे कारीगर उठा लाए थे, जिसके कारण उनकी दुकान ठीक चला करती।
उनकी वेशभूषा बड़ी हास्यास्पद रहती। अलीगढ़ी पाजामे पर कढ़ार्इ वाला बादामी कुर्ता। आँखें इस तरह मिचमिचाते ज्यों बहुत तेज धूप में कहीं दूर की चीज को गौर से देख रहे हों। हँसते-बोलते तो ऊबड़-खाबड़ मैले दाँतों के कारण चेहरा चिंपैंजी सा दिखार्इ देता।
यूनुस, बन्ने उस्ताद का हुलिया देख बमुश्किल-तमाम अपनी हँसी रोक सका।
खालू के सामने उन्होंने यूनुस को बड़े प्यार से अपने पास बुलाया। यूनुस ने उन्हें सलाम किया तो बन्ने उस्ताद ने मुसाफा के लिए हाथ बढ़ाया।
यूनुस का हाथ अपने हाथों में लेकर बड़ी देर तक नसीहतों की बौछार करते रहे।
'दर्जीगिरी आसान पेशा नहीं बरखुरदार! टेढ़े-मेढ़े कपड़े सिलकर आज कोर्इ भी दर्जी बन जाता है, हैना...! बड़ा मुश्किल हुनर है टेलरिंग, समझे। शहर के तमाम नामवर टेलर मेरे शागिर्द रहे हैं। 'पोशाक-टेलर्स' वाला मुनव्वर अंसारी हो या 'माडर्न-टेलर' वाले कासिम मियाँ, सभी इस नाचीज की मार-डाँट खाकर आज शान से कमा-खा रहे हैं, हैना...'
खालू उनकी बात के समर्थन में सिर हिला रहे थे।
यूनुस का हाथ उस्ताद ने छोड़ा नहीं था, कभी उनकी पकड़ हल्की पड़ती कभी सख्त। यूनुस चाहता उसके हाथ पकड़ से आजाद हो जाएँ, लेकिन उसने महसूस किया कि उसकी जद्दोजहद को बन्ने उस्ताद भाँप रहे हैं।
वे बड़ी व्यग्रता से अपना यशोगान कर रहे थे और यूनुस की हथेली पसीने से भींग गर्इ। उसने खालू को देखा जो निर्विकार बैठे थे।
अचानक बन्ने उस्ताद ने उसे अपने समीप खींचा। यूनुस ने सोचा कि कहीं ये गोद में बिठाना तो नहीं चाहते।
उसके जिस्म ने विरोध किया।
उसके बदन की ऐंठन को उस्ताद ने महसूस किया और हाथ छोड़ यूनुस की पीठ सहलाने लगे - 'देखो बरखुरदार, हाँ क्या नाम बताया तुमने अपना... हाँ यूनुस। यहाँ कर्इ लड़के काम सीख रहे हैं, हैना... उनसे गप्पबाजी मत करना। जैसा काम मिले, काम करना। सिलार्इ मशीन चलाने की हड़बड़ी मत दिखाना। सीनियरों की बातें मानना। मुझे शिकायत मिली तो समझो छुट्टी हैना...। यदि लगन रहेगी तो एक दिन तुम भी नायाब टेलर बन जाओगे, हैना...'
बन्ने उस्ताद की नसीहतें उसकी समझ में न आर्इं।
हाँ, उनके मुँह से निकलती पायरिया की बदबू से उसका दम जरूर घुटने लगा था।
यूनुस ने उस्ताद के हाथों को अपने जिस्म की बोटियों का हिसाब लगाते पाया। उसने देखा कि दुकान के कारीगर और लड़के मंद-मंद मुस्करा रहे हैं।
लिहाजा उसने 'मदीना टेलर' जाना शुरू कर दिया।
वह सुबह खाला के घर नाश्ता करके निकलता था। दुपहर दो से तीन बजे तक खाना खाने की मुहलत मिलती और रात आठ बजे लड़कों को छुट्टी मिलती। कारीगर ठेका के मुताबिक काफी रात तक काम में व्यस्त रहते। तीज-त्योहार या शादी-ब्याह के अवसर पर तो सारी रात मशीनें चलती रहतीं।
यूनुस का मन दुकान में रमने लगा था। धीरे-धीरे सहकर्मी लड़कों से उसे बन्ने उस्ताद के बारे में कर्इ गोपनीय सूचनाएँ मिलने लगीं।
दुकान में चार सिलार्इ मशीनें और एक पीको-कढ़ार्इ की मशीन थी। सामने एक तरफ बन्ने उस्ताद का काउंटर था। मशीनों के पीछे फर्श पर दरी बिछी हुर्इ थी, जिस पर शागिर्दों का अड्डा होता। यहाँ काज-बटन, तुरपार्इ और तैयार कपड़े पर प्रेस करने का काम होता।
तीनों शागिर्दों से यूनुस का परिचय हुआ। ये सभी बारह-तेरह बरस के कमसिन बच्चे थे।
नाटे कद का बब्बू गठीले बदन का था और यतीमखाने में हाफिज बनने आया था। यतीमखाने की जेल और कठोर अनुशासन से तंग आकर वह बन्ने उस्ताद के यहाँ टिक गया।
दूसरे का नाम जब्बार था जो पास के गाँव की विधवा का बेटा था।
तीसरा बड़ा हीरो किस्म का लड़का था। बिहार के छपरा जिले का रहने वाला। भुखमरी से तंग आकर अपने मामू के घर आया तो फिर यहीं रह गया। गोरा-चिकना खूबसूरत शमीम। बन्ने उस्ताद का मुँहलगा शागिर्द।
शमीम के पीठ पीछे जब्बार और बब्बू उसे 'बन्ने उस्ताद का लौंडा' नाम से याद करते और अश्लील इशारा करके खूब हँसते।
बब्बू से यूनुस की खूब पटती।
उसने यूनुस को अपनी रामकहानी कर्इ खंडों में बतार्इ थी। उनके बीच में खूब निभती। बन्ने उस्ताद उन्हें सिर जोड़े देखते तो काउंटर से चिल्लाते - 'ए लौंडो! गप मारने आते हो का इहाँ?'
बब्बू झारखंड का रहने वाला था। उसके अब्बा बचपन में मर गए थे। वह पेशे से धुनिया थे। नगर-नगर फेरी लगाकर रजार्इ-गद्दे बनाया करते। उनका कोर्इ पक्का पड़ाव न था। खानाबदोशों सी जिंदगी थी।
अब्बा के इंतकाल के दो साल बाद उसकी अम्मी ने दूसरी शादी कर ली। सौतेला बाप बब्बू और उसकी बहिन से नफरत करता। बहिन तो छोटी थी। उसे नफरत-मुहब्बत में भेद क्या पता? हाँ, बब्बू घृणा से भरपूर आँखों का मतलब समझने लगा था। अल्ला मियाँ से यही दुआ माँगा करता कि उसे इस दोजख से जल्द निजात मिल जाए।
तभी गाँव आए मौलवी साहब ने उससे मध्यप्रदेश चलने को कहा। बताया कि वहाँ मुसलमानों की अच्छी आबादी है। एक यतीमखाना भी अभी-अभी खुला है। बच्चे वहाँ कम हैं। यतीमखाने में खाने-रहने की समस्या का समाधान हो जाएगा, साथ ही दीनी तालीम भी वह हासिल कर लेगा।
कहते हैं कि खानदान में यदि कोर्इ एक व्यक्ति कु़रआन मजीद को हिफ्ज (कंठस्थ) कर ले तो उसकी सात पुश्तों को जन्नत में जगह मिलती है। इससे दुनिया सध जाएगी और आखिरत (परलोक) भी सँवर जाएगी। बब्बू की अम्मा मौलवी साहब की बातों से प्रभावित हुर्इं और इस तरह बब्बू उनके साथ यहाँ आ गया।
मस्जिद की छत पर बड़े-बड़े तीन हाल थे।
एक हाल में मौलवी साहब रहा करते। दूसरे हाल में मदरसा चलाया जाता। तीसरा हाल यतीम बच्चों के लिए था।
नहाने-धोने के लिए मस्जिद के बाहर एक कुआँ था, जिसमें तकरीबन दस फुट नीचे पानी मिलता था। यह बारहमासा कुआँ था जो कभी न सूखता। संभवतः समीप के नाले के कारण ऐसा हो।
पेशाब और वजू के लिए तो मस्जिद ही में व्यवस्था थी, किंतु पाखाने जाने के लिए डब्बा लेकर मस्जिद के उत्तर तरफ लिप्टस के जंगल की तरफ जाना पड़ता था। शुरू के कुछ दिन बब्बू का मन वहाँ खूब लगा, किंतु वह गाँव के उस आजाद परिंदे की तरह था जिसे पिंजरे में कै़द रहना नापसंद हो।
वहाँ की यांत्रिक दिनचर्या से उसका मन उचट गया।
फजिर की अजान सुबह पाँच बजे होती। अजान देने से पहले मुअज्जिन चीखते हुए किसी जिन्नात की तरह आ धमकता - 'शैतान के बहकावे में मत आओ लड़कों। जाग जाओ।'
सुबह के समय ही तो बेजोड़ नींद आती है। ऐसी नींद में विघ्न डालना शैतान का काम होना चाहिए। मुअज्जिन खामखा शैतान को बदनाम किया करता। उन मासूम बच्चों की नींद के लिए शैतान तो वह स्वयं बन कर आता।
मुअज्जिन मरदूद आकर जिस्म से चादरें खींचता, और बेदर्दी से उन्हें उठाता। बड़े हाफिज्जी के डर से लड़के विरोध भी न कर पाते। जानते थे कि यदि मुअज्जिन ने बड़े हाफिज्जी से शिकायत कर दी तो गजब हो जाएगा।
किसी तरह मन मारकर लड़के उठते।
आँखें मिचमिचाते कोने में पर्दा की गर्इ जगह पर जाकर ढेर सारा मूतते।
हुक्म था कि नींद में यदि कपड़े या जिस्म नापाक हो गया हो तो नहाना फर्ज है। नापाक बदन से नमाज अदा करने पर अल्लाह तआला गुनाह कभी माफ नहीं करते। ये गुनाह-कबीरा है। उसने किसी लड़के को सुबह उठने के साथ नहाते नहीं देखा था। हाँ, मुअज्जिन या हाफिज्जी जरूर किसी-किसी सुबह नहाया करते थे। इसका मतलब वे रात-बिरात नापाक हुआ करते थे।
उसे तो वजू करना भी अखरता था। कर्इ बार उसने कायदे से आँख-मुँह धोए बगैर नमाज अदा की थी। बाद में दुआ करते वक्त वह अल्लाह तआला से अपनी इस गलती के लिए माफी माँग लिया करता था।
एक सुबह उसने पाया कि उसका पाजामा सामने की तरह गीला-चिपचिपा है। उसने अपने साथी महमूद को यह बात बतलार्इ थी। फिर उसी हालत में बिना नहाए उसने नमाज अदा की थी।
महमूद मुअज्जिन का चमचा था।
उसने मुअज्जिन को सारी बात बतार्इ और मुअज्जिन ने उसकी पेशी हाफिज्जी के सामने कर दी।
हाफिज्जी ने उसके बदन पर छड़ी से खूब धुलार्इ की।
वह खूब रोया।
उसने यतीमखाना से भाग जाने की योजना बनार्इ।
बन्ने उस्ताद की दुकान में लड़कों को काम करते देख वह 'मदीना टेलर' गया। बन्ने उस्ताद ने उसे काम पर रख लिया। मौलवी साहब और हाफिज्जी ने बारहा चाहा कि बब्बू यतीमखाना लौट आए, किंतु बब्बू ने उस मस्जिद में जाना क्या जुमा की नमाज पढ़ना भी बंद कर दिया। वह जुमा पढ़ने एक मील दूर की मस्जिद में जाया करता था।
वहाँ चार कारीगर थे। उनमें से तीन पतले-दुबले युवक थे, जो चौखाने की लुंगी और बनियाइन पहने सिर झुकाए मशीन से जूझते रहते। घंटे-डेढ़ घंटे बाद कोर्इ एक बीड़ी पीने दुकान से बाहर निकलता। बाकी दो उसके लौटने का इंतजार करते। वे एक साथ दुकान खाली न करते। दुकान में काम की अधिकता रहती।
चौथा कारीगर सुल्तान भार्इ थे। इन्हें बन्ने उस्ताद फूटी आँख न सुहाते, लेकिन सुल्तान भार्इ बड़ी 'गुरू' चीज थे।
बन्ने उस्ताद की अनुपस्थिति में सुल्तान भार्इ के हाथों दुकान की कमान रहती।
जब बन्ने भार्इ दुकान में मौजूद रहते तब अक्सर सुल्तान भार्इ के लिए उस्तानी का घर से बुलावा आता। कभी बन्ने भार्इ स्वयं सुल्तान भार्इ को यह कह कर रवाना किया करते कि मियाँ घर चले जाओ, बेगम ने आपको याद किया है। हैना...
सुल्तान भार्इ तीस-पैंतीस के छरहरे युवक थे। हमेशा टीप-टाप रहा करते।
धीरे-धीरे यूनुस ने जाना कि सुल्तान भार्इ का बन्ने उस्ताद की बीवी के साथ चक्कर चलता है। बन्ने उस्ताद अपने चिकने शागिर्द छपरइहा लौंडे शमीम के इश्क में गिरफ्तार हैं और जागीर लुटाने को तैयार रहते हैं।
'मदीना टेलर' में तीन माह गुजारे थे उसने। इस अवधि मे उससे काज-बटन, तैयार कपड़ों में प्रेस और तुरपार्इ के अलावा कोर्इ काम न लिया गया। काज-बटन लगाते और तुरपार्इ करते उसकी उँगलियाँ छिद गर्इं। सुर्इ के बारीक छेद में धागा डालते-डालते आँखें दुखने लगीं, लेकिन उस्ताद उसे कैंची और इंची टेप पकड़ने न देते।
कारीगर सत्तर-अस्सी की रफ्तार में सिलार्इ मशीन दौड़ाते। जाने कितने मील सिलार्इ का रिकार्ड वे बना चुके होंगे। यूनुस का मन करता कि उसे भी 'एक्को बार' सिलार्इ मशीन चलाने का मौका मिल जाता।
ऐसा ही दुख उसे तब भी हुआ था जब तकरीबन साल भर दिल लगाकर फील्डिंग करवाने के बाद भी उन नामुराद लड़कों ने उसे बल्लेबाजी का अवसर प्रदान नहीं किया था।
हुआ ये कि मुहल्ले में मुगदर के बल्ले और कपड़े की गेंद से क्रिकेट खेलते-खेलते उसके मन में आया कि वह भी असली क्रिकेट क्यों नहीं खेल सकता है?
वह नगर के अमीर लड़कों की जी-हुजूरी करते-करते उनके साथ क्रिकेट खेलने जाने लगा था।
डाक्टर चतुर्वेदी का लड़का बंटी और दवा दुकान वाले गोयल का लड़का सुमीत क्रिकेट टीम के सर्वेसर्वा थे। बाहर से उन लोगों ने क्रिकेट का काफी सामान मँगवाया था। मैदान के पीछे चपरासी का घर था, जहाँ वे लोग खेल का सामान रखते थे। उन लोगों के पास असली बेट, बॉल, स्टंप्स, ग्लब्स, हेलमेट और लेग गार्ड आदि सामान थे।
जब उसने साल भर के निष्ठापूर्ण खेल सहयोग के एवज में बल्लेबाजी का अवसर पाने की बात कही तो वे सभी हँस पड़े।
बंटी ने कहा कि यदि वह वाकर्इ क्रिकेट के लिए सीरियस है तो उसे एक सौ रुपए महीने की मेंबरशिप देनी होगी।
'झोरी में झाँट नहीं सराए में डेरा' - यही तो कहा था सुमीत ने।
मन मसोस कर रह गया था यूनुस।
वहाँ बल्लेबाजी करने को न मिली और यहाँ बन्ने उस्ताद के सख्त आदेश के कारण सिलार्इ मशीन पर हाथ साफ करने का मौका न मिल पा रहा था।
घर में हाथ से चलने वाली सिलार्इ मशीन है। अम्मा को सिलार्इ आती नहीं थी। अब्बू ही कभी सिलार्इ करने बैठते तो यूनुस या बेबिया से हैंडल घुमाने को कहते। उस मशीन में सिलार्इ बहुत धीमी गति से होती। पैर से चलने वाली मशीन यूँ फर्र...फर्र... चलती कि क्या कहने!
बन्ने उस्ताद कभी मूड में होते तो बताते कि बड़े शहरों में आजकल बिजली के मोटर से 'एटोमेटिक' मशीनें चलती हैं। ऐसी-ऐसी दुकानें हैं जहाँ सैकड़ों मशीनें घुरघुराती रहती हैं।
यहाँ जैसा नहीं कि एक दिन में एक कारीगर दो जोड़ी कपड़े सिल ले, तो बहुत। वहाँ एक आदमी एक बार में कोर्इ एक काम करता है। जैसे कुछ लोग सिर्फ कालर सिलते हैं। कुछ आस्तीन सिलते हैं। कुछ आगा तैयार करते हैं। कुछ पीछा तैयार करते हैं। कुछ कारीगरों के पास आस्तीन जोड़ने का काम रहता है। कुछ के पास कालर फिट करने का काम। कुछ कारीगर 'फाइनल टच' देकर कपड़े को तैयार माल वाले सेक्शन भेज देते हैं। जहाँ कपड़े पर प्रेस किया जाता है और उन्हें डब्बों में बंद किया जाता है। एकदम किसी फैक्ट्री की तरह होता है सारा काम।
यूनुस इच्छा जाहिर करता कि कपड़ा कटिंग का काम मिल जाए या सिलार्इ मशीन में ही बैठने दिया जाए।
बन्ने उस्ताद हिकारत से हँसकर जवाब देते - 'अभी तो मँजार्इ चल रही है मियाँ, इतनी जल्दी उस्तादी सिखा दी तो मेरी हँसार्इ होगी। लोग कहेंगे कि बन्ने उस्ताद ने कैसा शागिर्द तैयार किया है।'
इसके अलावा बन्ने उस्ताद की एक आदत उसे नापसंद थी। बन्ने उस्ताद काम सिखाते वक्त उसकी जाँघ पर चिकोटियाँ काटते, पीठ थपथपाते और उनका हाथ कब बहककर कमर के नीचे पहुँच जाता उन्हें खयाल ही न रहता।
उनकी अनुपस्थिति में लड़के उस्ताद की हरकतों पर खूब मजाक किया करते।
चुँधियार्इ आँखों और मैले दाँतों वाले बन्ने उस्ताद के मुँह से बदबू फूटा करती थी।
जल्द ही बन्ने उस्ताद की 'शागिर्दी' से उसने स्वयं को आजाद कर लिया। उसने जान लिया था कि टेलर मास्टर कभी लखपति बनकर ऐश की जिंदगी नहीं गुजार पाता। वह तो ताउम्र 'टेलरर्इ' ही करता रह जाता है।
इससे कहीं अच्छा है कि यूनुस मन्नू भार्इ से स्कूटर, मोटर-साइकिल की मिस्त्रीगिरी सीखे।