पहचान / भाग 15 / अनवर सुहैल
यूनुस की विद्यालयीन पढ़ार्इ ही खटार्इ में पड़ी थी, किसी विश्वविद्यालय का मुँह देखना उसके नसीब में कहाँ था?
वैसे भी हर किसी के मुकद्दर में विश्वविद्यालयीन पढ़ार्इ का 'जोग' नहीं होता।
फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहाँ व्यावहारिक शास्त्र की तमाम विद्याएँ सिखार्इ जाती हैं।
हाँ, फर्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में 'माल्थस' की थ्योरी पढ़ार्इ जाती है न डार्विन का विकासवाद।
छात्र स्वयमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवं कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।
प्राध्यापकीय योग्यता के लिए शिक्षा और उम्र का बंधन नहीं होता। वे अनपढ़ हो सकते हैं, बुजुर्ग या बच्चे भी हो सकते हैं। कभी-कभी तो पशुओं के क्रिया-व्यापार से भी ये फुटपथिया विद्यार्थी ज्ञान अर्जित कर लेते हैं।
ये अनौपचारिक प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों को जीने की कला सिखाते हैं।
जो विद्यार्थी जितना तेज हुआ, वह उतनी जल्दी व्यावहारिक ज्ञान ग्रहण कर लेता है। संगत के कारण विद्यार्थी निगाह बचा कर गलत काम करने, बहाना बनाने और बच निकलने का हुनर सीख जाता है। यहाँ सिखाया भी तो जाता है कि जो पकड़ा गया वही चोर। जो पकड़ से बचा वह बनता है गलियों का बेताज बादशाह।
इन विश्वविद्यालयों की कक्षाएँ उजाड़-खंडहरात में, गैरेजों में, सिनेमा-हाल और चाय-पान की गुमटियों में लगती हैं।
'प्रेक्टिकल-ट्रेनिंग' के लिए नगर के आवारा-लोफर, गँजेड़ी-भँगेड़ी, दुराचारी-बलात्कारी, युवकों की संगत जरूरी होती है।
बस-ट्रक चालकों और खलासियों से भूगोल, नागरिक शास्त्र और भारतीय दंड विधान का सार सरलता से उनकी समझ में आ जाता है।
मोटर गैरेज में काम सीख कर मेकेनिकल-इंजीनियरिंग और आटो-मोबाइल इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा किया जाता है।
दर्जियों की दुकान में बैठकर 'ड्रेस-डिजाइनर' और 'फैशन-टेक्नोलॉजी' की डिग्री मिल जाती है।
नार्इ की दुकान से 'ब्यूटी पार्लर' का डिप्लोमा मिल जाता है।
सिविल ठेकेदार के पास मुंशीगीरी कर लेने के बाद आदमी आसानी से सिविल इंजीनियर जितनी योग्यता प्राप्त कर लेता है।
विद्युत ठेकेदार के पास काम सीखने पर इलेक्ट्रीशियन का डिप्लोमा मिला समझो।
काम-शास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष से वे कमसिनी में ही वाकिफ हो जाते हैं और प्रेक्टिकल का अवसर निम्न-मध्यमवर्गीय समाजों में उन्हें सहज ही मिल जाता है। चचेरे-ममेरे भार्इ-बहिन, चाचा-मामा, बुआ-चाची-मामी, नौकर-नौकरानी, पिता या अध्यापक, इनमें से कोर्इ एक या अधिक लोग उन्हें वयस्क अनुभवों से मासूम बचपन ही में पारंगत बना देते हैं।
राजनीति-शास्त्र सीखने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं। आजकल हर चीज में 'पोलिटिक्स' की बू आती है।
यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे ऐसे ही विश्वविद्यालयों के छात्र थे।
बड़े भार्इ सलीम की असमय मृत्यु से गमजदा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबाइल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ ने गुरु-गंभीर वाणी में समझाया था - 'बेटा, मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन 'लढ़ा' जरूर हूँ। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ार्इ क्या होती है तो सुनो, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग 'एलेलपीपी' कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ार्इ फर्ज-अदायगी के मदरसे में होती है जहाँ मेहनत की कापी और लगन की कलम से 'लढ़ार्इ' की जाती है।'
यूनुस मन्नू भार्इ की ज्ञान भरी बातें ध्यान से सुना करता।
असुविधाओं से भरपूर अव्यवस्थित घरेलू माहौल में स्कूली शिक्षा की किसे फिक्र!
वह अच्छी तरह जानता था कि अकादमिक तालीम उसके बूते की बात नहीं।
उसे भी अब इस 'लढ़ार्इ' जैसी कोर्इ डिग्री बटोरनी होगी।
इसीलिए वह मन्नू उस्ताद की बात गिरह में बाँध कर रक्खे हुए था।
मन्नू भार्इ की छोटी सी मोटर-साइकिल रिपेयर की गैरेज थी।
नगर के बाहर पहाड़ी नाले के पुल को पार करते ही दुचकिया, तिनचकिया, चरचकिया, छचकिया जैसी तमाम गाड़ियों की मरम्मत के लिए गैरेज हैं। टायरों में हवा भरने वाले बिहारी मुसलमानों की दुकानें भी इधर ही हैं।
मन्नू भार्इ की गैरेज पुल पार करते ही पहले मोड़ पर है।
बन्ने उस्ताद के दर्जीगीरी वाले अनुभव से मायूस यूनुस को गैरेज का माहौल ठीक लगा।
गैरेज के अंदर एक लकड़ी का बोर्ड था, जिस पर क्रम से पाना-पेंचिस आदि सजा कर टाँग दिए जाते। यूनुस का काम होता, सुबह मन्नू भार्इ के घर जाकर उनसे गैरेज की चाभी ले आता। एक बित्ते का एक झाड़ू था, जिससे वह पहले गैरेज के बाहर सफार्इ करता। फिर गैरेज का शटर उठाता। अंदर रिपेयर के लिए आर्इ स्कूटर-मोटर साइकिलें बेतरतीबी से रखी रहतीं। एक-एक कर तमाम गाड़ियों को वह गैरेज से बाहर निकालता। फिर गैरेज के अंदर झाड़ू लगाता। इस बीच कोर्इ नट-बोल्ट, वाशर या कोर्इ अन्य पार्ट गिरा मिलता तो उसे उठाकर यथास्थान रख देता। मन्नू भार्इ के आने से पूर्व यदि कोर्इ कस्टमर आता तो वह उनकी समस्या सुनता और उसके लायक रिपेयर का काम होता तो कर देता।
इस छोटी-मोटी रिपेयरिंग से अपना जेब-खर्च बनाता।
रात गैरेज बंद होने से पहले वह तमाम पाना-पेंचिस को जले मोबिल से धोता, पोंछता और फिर उन्हें दीवार पर टँगे बोर्ड पर क्रमानुसार सजा देता।
मन्नू भार्इ और यूनुस मिलकर मरम्मत के लिए तमाम गाड़ियों को गैरेज के अंदर ठूँसते।
यूनुस जब घर जाने के लिए सलाम करता तो मन्नू भार्इ उसे रोकते और फिर कभी दस, कभी बीस रुपए का नोट पकड़ा देते।
अपनी इस छोटी-मोटी कमार्इ से यूनुस बहुत खुश रहता।
नन्हा यूनुस बड़ा जहीन था...
कहा भी जाता है कि ये सिक्खड़े-सरदार और म्लेच्छ-मुसल्ले बड़े हुनरमंद होते हैं। तकनीकी दक्षता में इनका कोर्इ सानी नहीं।
मेहनत और मरम्मत के काम ये कितनी सफार्इ से करते हैं। नार्इ, दर्जी और सब्जियों की दुकानें अधिकांशतः मुसलमानों की हैं। अंडा, मुर्गा, मछली और गोश्त की दुकानों पर भी मुसलमानों का कब्जा है।
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद नगर में हिंदू कसाइयों ने 'झटका' वाली दुकानें लगार्इं। हमीद चिकवा बताता है कि उन लोगों ने अपनी मीटिंग में फैसला लिया है कि 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय हिंदू यदि मांसाहारी हैं तो वे मुसलमान चिकवों से गोश्त न खरीदें, बल्कि 'झटका' वाली दुकानों से गोश्त खरीदें।
इससे मुसलमानों के इस एकछत्र व्यवसाय पर कुछ तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
सिक्खड़ों को तो सन चौरासी में औकात बता दी गर्इ थी। मुसल्लों को गोधरा के बहाने गुजरात में तगड़ा सबक सिखा दिया गया।
सिख तो समझ गए और मुख्यधारा में आ गए, लेकिन इन म्लेच्छ-मुसलमानों को ये कांग्रेसी और कम्युनिस्ट चने के झाड़ पर चढ़ाए रखते हैं। और वो जो एक ठो ललुआ है, वो चारा डकार कर मुसलमानों का मसीहा बना बैठा है।
यूनूस ने कम उम्र में ही जान लिया था कि उसके अस्तित्व के साथ जरूर कुछ गड़बड़ है।
चौक के तिलकधारी मुनीम जी कहा करते - 'अगर ये हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षवादी नपुंसक हिंदू शांत रहें तो 'आर-पार' की बात हो ही जाए। सेकुलर कहते हैं ये शिखंडी साले खुद को।'
उनके हमखयाल चौबेजी हाँ में हाँ मिलाते - 'हिंदू हित की बात करने वाले को ये चूतिए सांप्रदायिक कहते हैं। हमें अछूत समझते हैं।'
शिशु मंदिर के प्रधानपाठक विश्वकर्मा सर कहाँ चुप रहते, वैसे भी उन्हें गुरूर था कि वह इस कस्बे के सर्वमान्य बुद्धिजीवी हैं, किंतु राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित मुनीम जी और चौबे जी उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं देते - 'अब समय आ गया है कि हम अपना 'होमलैंड' बना लें। इन मुसल्लों को द्वितीय नागरिकता मिले और इन्हें मताधिकार से वंचित किया जाए। तुष्टिकरण की सारी राजनीति स्वमेव खत्म हो जाएगी।'
अपने समय की चुनौतियों से बाखबर और बेखबर यूनुस, मन्नू भार्इ को काम करते बड़े ध्यान से देखा करता।
उनकी हरेक स्टाइल की नकल किया करता।
मन्नू भार्इ चाय बहुत पीते थे।
कोर्इ ग्राहक आया नहीं कि आर्डर कर देते - 'यूनुस, तनि भाग कर चारठो चाय ले आ।'
वहीं यूनुस को चाय की आदत पड़ी।
मन्नू भार्इ को अल्सर हो गया था।
सुनते हैं कि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं।