पहचान / भाग 16 / अनवर सुहैल
मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ के बाद उसे एक और उस्ताद मिला - 'डाक्टर'। यह कोर्इ एमबीबीएस या झोला छाप डाक्टर का जिक्र नहीं, बल्कि सरदार शमशेर सिंह डोजर ऑपरेटर का किस्सा है।
सरदार शमशेर सिंह कहा करता - 'सर दर्द, कमर दर्द, बुखार की दवा लिखने वाला जब डाक्टर कहलाता है तो तमाम रोगों को दूर भगाने वाली दारू की सलाह देने वाले को डाक्टर क्यों नहीं कहा जाता?'
दूसरे डाक्टर वह होते हैं जो किसी खास विषय पर शोध करते हैं और विश्वविद्यालय से उन्हें 'डाक्टरेट' की डिग्री मिलती है। अधिकांश लोगों को यह डिग्री गहन अध्ययन के पश्चात मिलती हैं और कुछ लोगों को उनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण विश्वविद्यालय स्वयं 'डीलिट' की मानद उपाधि से सम्मानित करता है।
सरदार शमशेर सिंह को दारू के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त थी, इसलिए फुटपथिया विश्वविद्यालय के कुलपतियों ने उसे मानद 'डाक्टरेट' की उपाधि से सम्मानित किया था। डाक्टर की शागिर्दी में यूनुस 'बुलडोजर' और 'पेलोडर' चलाना सीख गया। 'पोकलैन' भी वह बहुत बढ़िया चलाता।
'पोकलैन' हाथी की सूँड़ की तरह का एक खनन-यंत्र है, जिसके 'बूम' और 'बकेट' का 'मूवमेंट' ठीक हाथी के सूँड़ के जैसा है। जिस तरह से कोर्इ हाथी अपनी सूँड़ की मदद से ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से हरी-भरी डालियाँ तोड़कर उसी सूँड़ की सहायता से ग्रास अपने मुँह में डालता है, उसी तरह से 'पेलोडर' मशीन काम करती है।
शायद दुनिया के तकनीशियनों, अभियंताओं, सर्जकों और वास्तुकारों ने प्राकृतिक तत्वों और जीव-जंतुओं की उपस्थिति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी कुशलता और दक्षता में वृद्धि की है।
कोयला की खुली खदानों और धरती की काया-कल्प कर देने वाली परियोजनाओं की जान हैं ये भीमकाय उपकरण। चाहे विशालकाय पहाड़ कटवा कर चटियल मैदान बना दें या बड़ी-बड़ी नहरें खोद डालें।
यूनुस के हुनर की सभी तारीफ करते। वह 'डाक्टर' का चेला जो ठहरा!
'डाक्टर' अब रिटायर हो चुका है।
अपने खालू का यूनुस इसीलिए अहसान माना करता कि उन्होंने 'डाक्टर' से उसके लिए सिफारिश की। 'डाक्टर' के कारण ठेकेदारों में आज उसकी अपनी 'मार्केट-वैल्यू' है।
खाला ने उसे काफी समझाया था कि वह अपनी जिंदगी को खुद एक नए साँचे में ढाले। अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह हड़बड़ी न करे।
जो भी काम सीखे पूरी लगन और र्इमानदारी के साथ सीखे। खाला कहा करती थी - 'सुनो सबकी, लेकिन करो मन की। दूसरों के इशारे पर नाचना बेवकूफी है।'
इसीलिए काम सीखने के लिए यूनुस ने खाला की सलाह मानी।
उसने 'डाक्टर' की दारू या अन्य ऐब नहीं बल्कि उसके हुनर को आत्मसात किया। यही यूनुस की पूँजी थी।
यूनुस ने कोर्इ कसर न छोड़ी काम सीखने में।
'डाक्टर' को स्वीकार करना पड़ा कि उसने आज तक इतने चेले बनाए किंतु इस 'कटुए' जैसा एक भी नहीं। बहुत से शागिर्द बने, जिनने उससे शराब पीनी सीखी। नशे में धुत रहना सीखा। रंडीबाजी सीखी किंतु काम न सीखा।
इसीलिए यूनुस को वह कहा करता - 'ये बड़ा लायक चेला निकला।' यूनुस को अब भी सिहरन होती है, जाड़े की उन कड़कड़ाती अँधेरी रातों को यादकर। जब कोयले की ओपन-कास्ट खदान के 'डंपिंग-एरिया' में वह डाक्टर के साथ काम सीखने जाया करता था।
सिंगरौली क्षेत्र मे कोयले की बड़ी-बड़ी खुली खदानें हैं।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर कोयले का अकूत भडार है सिंगरौली क्षेत्र में। रिहंद नदी पर बांधा गया विशालकाय बाँध। कोयले और पानी के योग से बिजली बनाने के बड़े-बड़े विद्युत-गृह। लाखों टन कोयले से बनने वाली हजारों मेगावाट बिजली। इस बिजली की राष्ट्रीय पूर्ति में सिंगरौली क्षेत्र की पर्याप्त हिस्सेदारी है।
सिंगरौली क्षेत्र देश का एक प्रमुख ऊर्जा-तीर्थ है।
एक बार में एक सौ बीस टन कोयला ढोकर चलने वाले भीमकाय डंपर। सैकड़ों टन बारूद की ब्लास्टिंग से चूर-चूर चट्टानों का पहाड़ अपनी पीठ पर उठाए, अलमस्त हाथी की तरह झूम-झूम कर चलते डंपर। उन डंपरों के चलने से ऐसा शोर होता ज्यों सैंकड़ों सिंह दहाड़ रहे हो। एक-एक डंपर एक बड़ी फैक्टरी के बराबर हैं।
डंपर के चलने के लिए चौड़ी सड़कें बनार्इ जाती हैं। इन्हें हाल-रोड कहा जाता है। हाल-रोड पर डंपर चलने के पूर्व पानी के टैंकर से जल-सिंचन किया जाता है ताकि धूल के बादल न उठें। बालुर्इ पत्थर की धूल फेफड़े के लिए नुकसानदेह होती है। फेफड़े के छिद्रों में कोयला और पत्थर की धूल के असुरक्षित सेवन से खदान-कर्मियों को न्यूमोकोनियोसिस, सिलकोसिस जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं।
सिंगरौली क्षेत्र की कोयला खदानों में बड़ी-बड़ी ड्रेगलाइनें हैं। जमीन की सतह से डेढ़ सौ फीट तक गहरे से मिट्टी खोदकर तीन सौ फीट की दूरी पर ले जाकर 'डंप' करने वाला यंत्र 'ड्रेगलाइन'। यूनुस बड़े शौक से उस भीमकाय यंत्र को चलते हुए देखा करता, एकदम मंत्रमुग्ध होकर। रस्सों के सहारे 'बकेट' का संचालन। लंबे-लंबे 'बूम' पर घिर्रियों के सहारे रस्सों का अद्भुत खेल। 'डाक्टर' उर्फ शमशेर सिंह एक दिन यूनुस को ड्रेगलाइन दिखाने ले गए। पास जाकर उसे डर लगा था। रात का समय। सैकड़ों बल्बों के प्रकाश से ड्रेगलाइन का चप्पा-चप्पा प्रकाशमान था। इतनी रोशनी कि आँखें चुंधिया जाएँ। इतने बल्ब कि गिना न जा सके। मार्चिंग पैड से लेकर बूम के टॉप तक तेज रोशनी के सर्चलारइटें। 'डाक्टर' उसे एक जीप में बिठाकर ड्रेगलाइन तक ले गया था। जीप पाँच सौ मीटर की दूरी पर रोक दी गर्इ। वहाँ से अब पैदल जाना था। उतनी बड़ी ड्रेगलाइन के समक्ष इंसान कितना बौना नजर आता है। हाथी के समीप चींटी की सी हैसियत। ड्रेगलाइन एक घंटे में एक हजार मजदूरों के एक माह काम के बराबर मिट्टी हटाती है। इसे मात्र एक आदमी चलाता है। ड्रेगलाइन-आपरेटर। जिसका वेतन खदान के सभी श्रमिकों से ज्यादा होता है।
ड्रेगलाइन के पीछे दो डोजर लगातार चल रहे थे। वे ड्रेगलाइन की अगली 'सिटिंग' के लिए समतल जगह बना रहे थे।
डाक्टर ने यूनुस से कहा कि घूमती हुर्इ ड्रेगलाइन में चढ़ना होगा। ड्रेगलाइन का मार्चिंग-पैड ही जमीन से बीस फुट ऊँचा था। उस पर सीढ़ी लगी थी। डाक्टर उचक कर उस सीढ़ी पर चढ़ गया और जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने लगा। यूनुस ने भी उसका पीछा किया। अब वे मार्चिंग-पैड पर थे। ड्रेगलाइन अपनी जगह पर बैठे-बैठे घूम-घूम कर मिट्टी उठाकर फेंक रहा था। फिर डाक्टर पचास फुट ऊँचे मशीन-रूम की तरफ जाने वाली सीढ़ी पर चढ़ने लगा। यूनुस भी पीछे-पीछे चढ़ गया। मशीन-रूम से गरम हवा निकल रही थी, जिससे अब ठंड लगनी कम हो गर्इ थी। मशीन-रूम का दरवाजा बंद था। डाक्टर ने धक्का मारकर दरवाजा खोला तो यंत्रों के चलने से उत्पन्न भयानक शोर से लगा कि कान के पर्दे फट जाएँगे। यूनुस ने कान हाथों से बंद कर लिए। मशीन-रूम में बड़े-बड़े मोटर, जेनेरेटर और जाने कितने उपकरण लगे थे। जिनके चलने से वहाँ शोर था।
डाक्टर युनुस को ड्रेगलाइन की क्रियाविधि के बारे में बताने लगा। डंप-रोप को घुमाने के लिए ड्रम लगा हुआ है। ड्रेग-रोप घुमाने के लिए ड्रम किधर है। यूनुस ने जाना कि आठ-दस फैक्टरियों के बराबर ड्रेगलाइन में मोटर-जेनेरेटर लगे हैं।
फिर वे लोग आपरेटर केबिन की तरफ गए। दो दरवाजा खोलने पर एक कारीडार मिला। जिस पर कालीन बिछा हुआ था। यहाँ तकनीशियन आराम कर रहे थे। डाक्टर ने यहाँ अपना जूता उतारा। यूनुस ने भी जूते उतारे। फिर एक काँच का दरवाजा खोल कर वे आपरेटर केबिन में जा पहुँचे। एकदम वातानुकूलित कमरा। काँच का घर। पीछे तरफ वायरलैस-सेट। बीच में आपरेटर की सीट। जिस पर एक सरदार जी आराम से बैठकर हाथ और पैर के संचालन से ड्रेगलाइन चला रहे थे। यूनुस को लेकर डाक्टर सामने की तरफ आ गया। यहाँ से नीचे कोयले की परत दिखलार्इ दे रही थी। जिसके ऊपर के ओवर-बर्डन को ड्रेगलाइन की बकेट से उठाकर सरदार जी तीन सौ फुट दूर किनारे डाल रहे थे। इस फेंकी हुर्इ मिट्टी का एक नया पहाड़ बनता जा रहा था। बड़ी लय-ताल बद्ध क्रिया थी ड्रेगलाइन की।
ड्रेगलाइन-आपरेटर के सामने और दोनों तरफ जाने कितने लीवर, बटन और सिग्नलिंग-लाइट्स लगे हुए थे। बीच-बीच में सरदारजी कंट्रोल-रूम से वायरलेस के जरिए बात करता जाता था। फिर सरदारजी ने डाक्टर की फरमाइश पर असिस्टेंट से कहा कि डाक्टर को 'पाँगड़ा' सुनवा दे यारा!
यूनुस ने उस दिन वहाँ चाय भी पी। आपरेटर की सुख-सुविधा की वहाँ पूरी व्यवस्था थी। यदि वह थक जाए या उसे हाजत लगी हो तो असिस्टेंट मौजूद रहता, जो ड्रेगलाइन आपरेशन जारी रखता।
ऐसी ही एक और हैरत-अंगेज मशीन है ड्रिलिंग-मशीन। ये जमीन में एक सौ पचास फुट गहरे और एक फुट व्यास के छेद करती है, जिनमें डेढ़ से दो टन बारूद डालकर ब्लास्टिंग की जाती है। एक बार में चार-पाँच सौ टन बारूद की ब्लास्टिंग होती है। आस-पास का इलाका दहल जाता है। धूल और रंग-बिरंगी गैसों के बादल काफी देर तक छाए रहते हैं। कहते हैं कि सिंगरौली क्षेत्र में खदान खुलने से पहले हर तरह के जंगली जानवर रहा करते थे। यह एक अभयारण्य की तरह था। खदान खुलने से जंगलात कम हुए। नगर बसे। जानवर जाने कहाँ गायब हो गए। आज भी सियार, मोर, लोमड़ी और बनमुर्गियाँ यहाँ नजर आते हैं। कर्इ लोग बाघ आदि देखने का दावा भी करते हैं।
धरती के गर्भ में सदियों से छिपी हैं कोयले की मोटी परतें।
कोयले की परत के ऊपर सख्त बालुर्इ परतदार तलछट चट्टानें हैं।
यूनुस ने ओवरमैन मुखर्जी दा से एक बार पूछा था कि दादा, ये कोयला बना कैसे?
बांग्लादेश से राँची आकर बसे मुखर्जी दा के सामने के दो दाँत टूटे हुए हैं। वह कुछ भी कहें, 'हत् श्शाला' कहे बिना अपनी बात पूरी न करते।
उन्होंने बताया कि करोड़ों बरस पूर्व यहाँ घने जंगल हुआ करते थे। फिर महाजलप्लावन हुआ होगा और वे सारे जंगलात पानी में डूब गए होंगे। पेड़-पौधे, वन्य जंतु, वनस्पतियाँ आदि सड़-गलकर कार्बनिक पदार्थों में तब्दील हो गए। कालांतर में उन पर बालू-मिट्टी की परतें जमती चली गर्इं। धीरे-धीरे उच्च ताप और दाब सहते-सहते जंगलात कोयले में बदल गए होंगे। इसीलिए अभी भी इन कोयले की परतों में वृक्षों के फासिल्स यानी जीवाश्म पाए जाते हैं।
कोयला कहीं-कहीं धरती की सतह के काफी नीचे मिलता है। उसकी क्वालिटी अच्छी होती है। उस कोयले को निकालने के लिए सुरंगें बनार्इ जाती हैं या चानक खोदे जाते हैं। ऐसी खदानों को अंडर-ग्राउंड खदानें कहा जाता है।
जिन स्थानों में कोयले की परत धरती की सतह से थोड़ा-बहुत नीचे मिलती है, उन कोयले की परतों का खनन 'ओपन-कास्ट' विधि से किया जाता है। ऐसी खदानें ओपन-कास्ट माइन या खुली खदानें कहलाती हैं।
ब्लास्टिंग के बाद चूर्ण हुर्इ चट्टानों को शावेल जैसे उत्खनन यंत्र खोदकर डंपरों पर लाद देते हैं। इन चट्टानों के चूर्ण को खनन-शब्दावली में 'ओवर-बर्डन' कहा जाता है। ओवर-बर्डन को डंपरों के जरिए डंपिंग एरिया में भेजा जाता है। 'डंपिंग एरिया' में ओवर-बर्डन डंप होते-होते एक पहाड़ सा बन जाता है।
सदियों पुराने पहाड़ कटकर ओवर-बर्डन के नए पहाड़ों में बदल जाते हैं। ओवर-बर्डन के पहाड़ इंसान के हाथ की रचना हैं। इन नए पहाड़ों की चोटियों को समतल कर उन पर वृक्षारोपण किया जाता है।
कोयला निकल जाने के बाद बाकी बचे गड्ढे को कृत्रिम झील में बदल दिया जाता है। इसी डंपिंग-एरिया में बुलडोजर चला करते हैं, जो डंपर द्वारा लार्इ गर्इ चट्टानों को 'डोज' कर समतल बनाता है, ताकि उन पर दुबारा डंपर आकर ओवर-बर्डन की डंपिंग कर सकें।
यूनुस उसी बुलडोजर की आपरेटरी सीखने खदान आया करता।
डंपिंग-एरिया में शेर की तरह दहाड़ते डंपर आते तो उन्हें देख कलेजा दहल जाता। डंपर आपरेटर जब रिवर्स-गियर लगाता तो उसका आडियो-विजुअल अलार्म बजने लगता -पीं पाँ पीं पांकृ...
डंपर पीछे चलकर बुलडोजर से बनार्इ गर्इ मेड़ पर आकर रुकता। फिर डंपर आपरेटर 'डंप लीवर' उठाता और ओवर-बर्डन का ढेर भरभराकर सैकड़ों फुट नीचे गहरार्इ में गिर जाता। कुछ माल मेड़ पर बच जाता जिसे डोजर-आपरेटर, डोजर की सहायता से साफ करता, ताकि अगला डंपर उस जगह पर आकर सुरक्षित 'अनलोड' कर सके।
डंपिंग क्षेत्र में किनारे की मेड़ बनाना ही असली हुनर का काम है। उस मेड़ को 'बर्म' कहा जाता है। अगर ये बर्म कमजोर बने तो डंपर के अनियंत्रित होकर नीचे लुढ़कने का खतरा बना रहता है। असुरक्षित डंपिंग-क्षेत्र में कर्इ दुर्घटनाएँ घट चुकी हैं।
इससे करोड़ों रुपए की लागत से आयातित डंपर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और कर्इ बार आपरेटर की जान भी जाती है। बुलडोजर से डोजिंग करना एक तरह की कला है। जिस तरह मूर्तिकार छेनी-हथोड़ी से बेजान पत्थरों पर जान फूँकता है, उसी तरह कुशल डोजर-आपरेटर, डोजर की ब्लेड के कलात्मक इस्तेमाल से ऊबड़-खाबड़ धरा का रूप बदल देता है।
यूनुस अपनी बेजोड़ मेहनत और लगन से जल्द ही इस हुनर में माहिर हो गया।
इससे उसके पियक्कड़ उस्ताद 'डाक्टर' का भी लाभ हुआ।
सेकेंड शिफ्ट की ड्यूटी में शाम घिरते ही यूनुस को बुलडोजर पकड़ा कर 'डाक्टर' दारू-भट्टी चला जाता।
कोयला खदान के श्रमिकों और कुछ अधिकारियों के मन में ये धारणा है कि दारू-शराब फेफड़े में जमी कोयले की धूल को काट फेंकती है। साथ ही एक नारा और गूँजता कि दारू के बिना खदान का मजदूर जिंदा नहीं रह सकता।
इसीलिए कोयला-खदान क्षेत्र में दारू के अड्डे बहुतायत में मिलते हैं।
लोक कहते कि मरने के बाद कोयला खदान के मजदूरों को जलाने में लकड़ी कम लगेगी, क्योंकि उनके फेफड़े में वैसे भी कोयले की धूल जमी होगी, जो स्वतः जलेगी।
मुखर्जी दा कहते - 'ये आदमी भी श्शाला गुड क्वालिटी का कोयला होता है।'
यूनुस ने कभी दारू नहीं पी।
हो सकता है इसके पीछे खाला-खालू का डर हो, या मन में बैठी बात कि मुसलमानों के लिए शराब हराम है। ठीक इसी तरह यूनुस बिना तस्दीक के बाहर गोश्त नहीं खाता। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए कि गोश्त हलाल है, झटका नहीं। दोस्तों के साथ पार्टी-वार्टी में वह मछली का प्रोग्राम बनवाता या फिर शाकाहारी खाना खाता।
ओपन कास्ट कोयला खदान की हैवी मशीनों को चलाना सीखने के बाद उसमें आत्मविश्वास जागा।
सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, हाँ अब वह बड़ी आसानी से किसी प्राइवेट नौकरी में तीन-चार हजार रुपए महीना का आदमी बन गया था।
खालू ने यूनुस के लिए कोयला-परिवहन करने वाली कंपनी 'मेहता कोल एजेंसी' यानी 'एमसीए' के मैनेजर से बात की।
मैनेजर ने जवाब दिया कि जगह खाली होने पर विचार किया जाएगा।
खालू जान गए कि प्राइवेट में भी हुनर की बदौलत नौकरी का जुगाड़ कर पाना उनके बस की बात नहीं, इसलिए वह हार मान गए।
लेकिन खाला कहाँ हार मानने वाली थीं।
मजदूर यूनियन के नेता चौबेजी से खाला की अच्छी बोलचाल थी। चौबेजी उनके मैके गाँव के थे। कॉलरी में इस तरह के संबंध काफी महत्व रखते हैं।
खाला के निमंत्रण पर चौबेजी एक दिन क्वाटर आए तो यूनुस दौड़कर उनके लिए दो बीड़ा पान ले आया। पान चबाते हुए चौबेजी ने कहा था - 'सबेरे दस बजे मेहतवा के आफिस पर लइकवा को भेज दें। आगे जौन होर्इ तौन ठीकै होर्इ।'
और वाकर्इ, चौबेजी की बात पर उसे अस्थायी तौर पर काम मिल गया।
'परमानेंट' के बारे में चौबेजी को विश्वास दिलाया गया कि काम देखकर जल्द ही बालक को परमानेंट कर दिया जाएगा।
एक बात जरूर यूनुस को सुना दी गर्इ कि कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार, काम पड़ने पर अपने कर्मचारियों को देश के किसी भी हिस्से में काम करने भेज सकती है। एमसीए का कारोबार बिहार, बंगाल, झारखंड, एमपी और छत्तीसगढ़ में फैला है। इनमें से किसी भी प्रांत में उन्हें भेजा जा सकता है।
मरता क्या न करता, यूनुस ने तमाम शर्तें मान लीं।
इसके अलावा कोर्इ चारा भी तो न था।
भीमकाय सरकारी डंपरों में लदकर कोयला कोल-यार्ड तक पहुँचता।
वहाँ उनमें से शेल-पत्थर आदि को छाँटा जाता है। कोल-यार्ड को पहली निगाह में कोर्इ बाहरी आदमी कोयला-खदान ही समझेगा। सैकड़ों एकड़ में फैले विस्तृत-क्षेत्र में कोयले के टीले। इन्हें अब प्राइवेट दस-टनिया डंपरों में भरकर रेलवे साइडिंग तक पहुँचाने का काम एमसीए का था। इन दस-टनिया डंपरों से सीधे ग्राहकों तक भी कोयला पहुँचाया जाता।
कोयला-यार्ड में पेलोडर मशीन से दस-टनिया डंपरों में कोयला भरा करता था यूनुस। उसकी कार्यकुशलता, लगनशीलता, कर्मठता और मृदु व्यवहार के कारण मुंशी-मैनेजर उसे बहुत मानते थे। कोर्इ उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।
न जाने क्यों ऐसे हालात बने कि उसे खाला का घर छोड़ने को निर्णय लेना पड़ गया।
वैसे भी उसे लग रहा था कि उसका दाना-पानी अब उठा ही समझो। वो तो अच्छा हुआ कि बड़े भार्इ सलीम की तरह अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में उसकी गिनती नहीं थी। उसकी एक 'मार्केट वैल्यू' बन चुकी है। उसे मालूम था कि इस बहुत कुछ पाने के लिए वह ढेर सारा खो भी रहा है। यानी तपती-चिलचिलाती धूप में घनी आम की छाँह जैसी अपनी सनूबर को...
वह सनूबर को दिल की गहराइयों से प्यार करता था।
फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' का एक मशहूर गाना वह अक्सर गुनगुनाया करता -'ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना।' बिग बी अमिताभ की तर्ज पर इसे यूँ भी कहा जा सकता है - 'सनूबर के बिना जीना भी कोर्इ जीना है लल्लू, अंय...'
क्या अब वह सनूबर से कभी मिल पाएगा?
यूनुस जानता है कि वह सनूबर के लायक नहीं।
मखमल में टाट का पैबंद, यही तो खाला ने उसके बारे में कहा था।
खाला जानती थी कि वह सनूबर को चाहता है। सनूबर भी उसे पसंद करती है, लेकिन सिर्फ एक-दूसरे को चाह लेने से कोर्इ किसी की जीवन-संगिनी तो बन नहीं सकती।
यूनुस के पास सनूबर को खुश रखने के लिए आवश्यक संसाधन कहाँ?
'माना कि दिल्ली मे रहोगे, खाओगे क्या गालिब?'
अब सनूबर उसकी कभी न हो पाएगी!
दुनिया में कुछ इंसान भाग्यवश स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ सी इच्छाएँ भी पूरी नहीं हो पाती हैं... क्यों?
ऐसे ही कितने सवालों से जूझता रहा यूनुस...