पहचान / भाग 17 / अनवर सुहैल
प्लेटफार्म के मुख्य-द्वार पर एक लड़की दिखी।
यूनुस चौंक उठा।
कहीं ये सनूबर तो नहीं।
वैसी ही पतली-दुबली काया।
उस लड़की के पीछे एक मोटा आदमी और ठिगनी औरत थी, जो शायद उसके माँ-बाप हों।
वे प्रथम श्रेणी के प्रतीक्षालय की तरफ जा रहे थे।
यूनुस सनूबर को बड़ी शिद्दत से याद करने लगा।
उसे याद आने लगीं वो सब बातें, जिनसे शांत जीवन में हलचल मची।
जमाल साहब का खाला के घर में प्रभाव बढ़ता गया। हरेक मामलात में उनकी दखलंदाजी होने लगी।
रमजान के महीने में वह रात को खाला के घर में ही रुकने लगे। रमजान में सुबह सूरज उगने से पूर्व कुछ खाना पड़ता है, जिसे सेहरी करना कहते हैं। गेस्ट हाउस में कहाँ ताजा रोटी रात के दो-तीन बजे बनती। इसलिए खाला की कृपा से ये जमाल साहब शाम को जो घर आते तो फिर सुबह फजिर की नमाज के बाद ही वापस गेस्ट-हाउस जाते।
र्इद में वह नागपुर जाते, लेकिन खाला और खालू की जिद के कारण वह अपने माता-पिता और भार्इ-बहनों के पास नहीं जा पाए।
जाने कैसा जादू कर रखा था खाला ने उन पर...
असली कारण तो यूनुस को बाद में पता चला।
हुआ ये कि इस बीच एक ऐसी बात हुर्इ कि यूनुस को खाला के घर अपनी औकात का अंदाजा हुआ।
उस दिन उसने जाना कि यदि यहाँ रहना है तो अपमानित होकर रहना होगा।
उसने जाना कि पराधीनता क्या होती है?
उसने जाना कि गरीबी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उसने जाना कि पराश्रित होकर जीने से अच्छा मर जाना है।
और उसी समय उसके मन में अपने परों के भरोसे अपने आकाश में उड़ने की इच्छा जागी।
हुआ ये कि सनूबर ने यूनुस के कपड़े बिना धोए यूँ ही फींच-फाँच कर सुखा दिए थे। कपड़ों में साबुन लगाया ही नहीं था।
ग्रीस-तेल और पसीने की बदबू कपड़े में समार्इ हुर्इ थी।
यूनुस का पारा सातवें आसमान में चढ़ गया।
उसने आव देखा न ताव, सनूबर की पिटार्इ कर दी।
सनूबर चीख-चीख कर रोती रही।
खाला ने यूनुस को जाहिल, गँवार, खबीस, राच्छस, भुक्खड़, एहसान-फरामोश और भगोड़ा आदि जाने कितनी उपाधियों से नवाजा।
यूनुस उस दिन ड्यूटी गया तो फिर घर लौटकर न आया। उसने कल्लू के घर रहने की ठान ली थी। जैसे अन्य लड़के जीवन गु़जार रहे हैं, वैसे वह भी रह लेगा। खाला के घर में हुर्इ बेइज्जती से उसका मन टूट चुका था।
दूसरे दिन जब वह घर न लौटा तो खालू स्वयं एमसीए की वर्कशाप में आए। उन्होंने यूनुस को घूरकर देखा।
फिर पूछा - 'घर काहे नहीं आता बे!'
यूनुस खालू से बहुत डरता था।
उसकी रूह काँप गर्इ।
उसने कहा - 'ओवर-टाइम कर रहा था। आज आऊँगा।'
खालू मुतास्सिर हुए।
उसकी जान बची।
शाम ड्यूटी से छूटने पर उसने मनोहरा के होटल से गर्मागर्म समोसे खरीदे। साथ में इमली की खटमीठी चटनी रखवार्इ। सनूबर को समोसे बहुत पसंद हैं।
वाकर्इ, उसे किसी ने कुछ न कहा।
सभी ने दिल लगाकर समोसे खाए।
खाला के कहने पर सनूबर ने दो समोसे अपने जमाल अंकल के लिए रख दिए।
उस रात सभी ने लूडो खेली।
जमाल अंकल, खाला, सनूबर और यूनुस।
यूनुस के बगल में सनूबर थी और उसके बगल में जमाल अंकल। टी-टेबल के चारों तरफ बैठे थे वे।
यूनुस ने खेल के दरमियान महसूस किया कि टेबल के नीचे एक दूसरा खेल जारी है। जमाल अंकल के पैर सनूबर के पैर से बार-बार टकराते हैं। ऐसे संपर्क के दौरान दोनों बात-बेबात खूब हँसते हैं।
उसके पल्टे हुए गुलाबी होंठ जब हँसने की मुद्रा में होते तो यूनुस को दीवाना बना जाते थे, लेकिन आज उसे वे होंठ किसी चुड़ैल के रक्त-रंजित होठों की तरह दिखे।
उसे सनूबर की बेवफार्इ पर बड़ा गुस्सा आया।
उस रात खालू की नाइट-शिफ्ट थी।
खालू खाना खाकर ड्यूटी चले गए।
जमाल साहब भी जाना चाहते थे कि टीवी पर गुलाम अली की गजलों का कार्यक्रम आने लगा।
'चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है'
मुरकियों वाली खनकदार आवाज में गु़लाम अली अपनी सुरों का जादू बिखेर रहे थे। यूनुस भी गुलाम अली को पसंद करता था, लेकिन जमाल साहब की रुचि जानकर उसे जाने क्यों गुलाम अली की आवाज नकियाती सी लगी। आवाज ऐसे लगी जैसे पान की सुपारी गले में फँसी हुर्इ हो।
जैसे जुकाम से नाक जाम हो।
वह टीवी के सामने से हट गया।
अंदर किचन में उसका बिस्तर बिछता था।
चटार्इ के साथ गुदड़ी लिपटी रहती। सुबह चटार्इ लपेट दी जाती और रात में वह सोने से पूर्व चटार्इ बिछा लेता। ओढ़ने के लिए एक चादर थी। तकिया वह लगाता न था।
किचन की लाइट बंद हो तब भी बाहर आँगन की रोशनी खिड़की से छनकर किचन में आती। उसे उस धुँधली रोशनी में सोने की आदत थी।
टीवी वाले कमरे से ठहाके गूँज रहे थे।
यूनुस के कान में कुछ अफवाहें पड़ चुकी थीं कि जमाल साहब बड़ा शातिर आदमी है। नागपुर में 'डोनेशन' वाले इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर निकला है जमाल साहब। सुनते हैं कि वहाँ वह गुंडा था गुंडा।
उसकी खूब चलती थी वहाँ।
बाहरी लड़कों से महीना वसूली करता था जमाल साहब।
खालू ने उसे घर घुसा कर अच्छा नहीं किया है।
एक के मुँह से यूनुस ने सुना कि जमाल साहब की नजर खुली बोरी और बंद बोरी की शक्कर, दोनों में है।
खुली बोरी और बंद बोरी की बात यूनुस समझ सकता था, क्योंकि फुटपाथी विश्वविद्यालय के कोर्स के मुहावरों में ये भी था।
खुली बोरी यानी खाला और बंद बोरी माने सनूबर!
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
गुलाम अली की आवाज किसी तेज छुरी की तरह उसकी गर्दन रेत रही थी -
'तुम्हारे खत में नया इक सलाम किसका था
न था रकीब तो आखिर वो नाम किसका था'
'वफा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कि ये कलाम किसका था'
सनूबर की खिलखिलाहट सुनकर यूनुस का दिल रो रहा था।
उसने करवट लेकर अपने कान को कुहनी से दबा लिया।
आवाज मद्धम हो गर्इ।
नींद लाने के लिए कलमे का विर्द करने लगा -
'ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह।'
पता नहीं उसे नींद आर्इ या नहीं, लेकिन रात अचानक उसे अपना पैजामा गीला लगा।
हाथ से टटोला तो गीली-चिपचिपी हो गर्इं उँगलियाँ, यानी...
उसका दिमाग खराब हो गया।
नींद उचट गर्इ।
पेशाब का दबाव मसाने पर था।
वह उठा।
खिड़की के पल्लों से छनकर पीली रोशनी के धब्बे कमरे में फैले हुए थे। ठीक उसके पैजामे में उतर आए धब्बों की तरह।
उसे कमजोरी सी महसूस हो रही थी। जाने क्यों स्वप्न में हुए स्खलन के बाद उसकी हालत पस्त हो जाती है।
उठने की हिम्मत न हुर्इ।
वह कुछ पल बैठा रहा।
तभी उसके कान खड़े हुए।
पहले कमरे से फुसफुसाने की आवाज आ रही थी। तख्त भी हौले-हौले चरमरा रहा था।
यूनुस ने किचन से लगे बच्चों के कमरे में झाँका। वहाँ सनूबर अपने अन्य भार्इ-बहनों के साथ सोर्इ हुर्इ थी।
इसका मतलब पहले कमरे में खाला हैं। फिर उनके साथ कौन है? खालू की तो नाइट शिफ्ट है।
यूनुस के मन में जिज्ञासा के साथ भय भी उत्पन्न हुआ।
वह दबे पाँव पहले कमरे के दरवाजे की झिर्रियों से अंदर झाँकने लगा।
पहले कमरे में भी अँधेरा ही था।
हाँ, रोशनदान के जरिए सड़क के खंभे से रोशनी का एक बड़ा टुकड़ा सीधे दीवाल पर आ चिपका था।
अँधेरे की अभ्यस्त उसने तख्त पर निगाहें टिकार्इं।
देखा खाला के साथ जमाल साहब आपत्तिजनक अवस्था में हैं।
उसकी टाँगें थरथराने लगीं।
उसका कंठ सूख गया।
हाथ में जुंबिश होने लगी।
दिल की धड़कनें तेज क्या हुर्इं कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया।
इसी ऊहा-पोह में वहाँ से भागना चाहा कि उसके पैरों की आहट सुनकर खाला की दबी सी चीख निकली।
यूनुस तत्काल अपने बिस्तर पर आकर लेट गया।
पहले कमरे की गतिविधि में विघ्न पैदा हो चुका था। वहाँ से आने वाली आहटें बढ़ीं। फिर बाहर का दरवाजा खुलने की आवाज आर्इ। फिर स्कूटर के स्टार्ट होने की आवाज आर्इ और लगा कि फुर्र से उड़ गर्इ हो स्कूटर।
यूनुस को काटो तो खून नहीं।
आँखें बंद किए, करवट बदले वह अब खाला की हरकतों का अंदाजा लगाने लगा।
लगता है खाला ने पहले बच्चों के कमरे की लाइट जलाकर वहाँ का जायजा लिया है।
अब वह किचन की तरफ आ रही हैं।
लाइट जलाकर यहाँ भी वह यूनुस के पास कुछ देर खड़ी रहीं।
उनका शातिर दिमाग माजरा समझना चाह रहा था।
फिर वह पुनः पहले कमरे में चली गर्इं।
यूनुस की जान में जान आर्इ।
वह उसी तरह पड़ा रहा जबकि पेशाब के जोर से मसाने फटने को थे।
जमाल साहब और खाला की हकीकत, सनूबर का जमाल साहब की तरफ झुकाव और सनूबर के साथ जमाल साहब के रिश्ते को लेकर खाला-खालू के ख्वाब...
पूरी पहेली यूनुस के सामने थी।
उस पहेली का हल भी उसके सामने था।
लेकिन उसमें यूनुस का कोर्इ रोल न था...
इस स्थिति से निपटने के लिए यूनुस के दिमाग में एक बात आर्इ।
क्यों न सनूबर को वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाए! उसके बाद जो होगा, सो होगा।