पहचान / भाग 8 / अनवर सुहैल

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ऐसी बात नहीं है कि खालू की बूढ़ी माँ कलकलहिन थी या कि खाला पर कोर्इ झूठा इल्जाम लगाया गया था।

यूनुस को भी खाला की गैर-जरूरी चंचलता पसंद न आती। उसे लगता कि एक उम्र के बाद इंसान को गंभीर हो जाना चाहिए।

खाला जब गैर मर्दों से ठिठोलियाँ करतीं तो यूनुस का दिमाग खराब हो जाता।

यूनुस अक्सर खाला की दिनचर्या के बारे में सोचा करता। खाला जमाने से बेपरवाह सिर्फ अपनी ही धुन में लगी रहतीं। लगता उन्हें किसी प्रकार की कोर्इ चिंता ही न हो। सिर्फ अपने लिए जीना...

सुबह उठते ही सबसे पहले खाला आर्इने के सामने आ खड़ी होतीं।

होंठ पर बह आए लार और आँख की कीचड़ गमछे के कोर साफ करतीं।

अपने बिखरे बालों को सँवारतीं।

चेहरे को कर्इ कोणों से देखतीं।

फिर आँगन में जाकर टंकी के पानी से कुल्ला करतीं और चेहरे पर पानी के छींटें मारकर तौलिए से रगड़कर चेहरा साफ करतीं।

उसके बाद टूथ-ब्रश में ढेर सारा पेस्ट लगाकर बाहर आँगन में आ जातीं। टूथ-पेस्ट खालू मिलेटरी कैंटीन से लाया करते थे।

बाहर फाटक के पास खड़े होकर अड़ोस-पड़ोस की झाड़ू बुहारती औरतों से गप्प का पहला दौर चलातीं। जिसमें बीती रात के मनगढ़ंत अनुभवों पर दाँत निपोरा जाता। पेस्ट से उत्पन्न झाग क्यारी में थूकते हुए खाला तेज आवाज में हँसतीं।

खाला का सीना और कूल्हे भारी हैं।

बिना अंतर्वस्त्रों के मैक्सी के लबादे में उनके जिस्म के उभार-उतार स्पष्ट दीखते।

खाला का मैक्सी पहनना यूनुस को फूटी आँख न भाता। वैसे भी उनका जिस्म किसी ढोल के आकार का था। ऐसे जिस्म पर सलवार-कुर्ता या फिर साड़ी ठीक रहती। मैक्सी वैसे तो तन ढाँपने का विकल्प होता है। ठीक है कि उसे रात में सोते समय पहना जाए या फिर घर के काम-काज करते हुए जिस्म पर डाल ले इंसान। किसी पराए मर्द के सामने या फिर घर से बाहर निकलने की दशा में इंसान को शालीन पोशाक पहननी चाहिए। या फिर मैक्सी जरूरी ही हो तो किसी के सामने आने से पूर्व दुपट्टा डाल लेना चाहिए।

सनूबर को भी अपनी मम्मी का ये पहनावा पसंद न आता। वह अक्सर उन्हें टोका करती कि मम्मी मैक्सी पहन कर बाहर न निकला करो। मैक्सी तो बेडरूम-ड्रेस होती है।

लेकिन खाला किसी की सही सलाह मान लें तो फिर खाला किस बात की!

मुँह धोने के बाद खाला किचन की तरफ जातीं, जहाँ सनूबर के संग नाश्ता बनाने लगतीं।

नाश्ता-वास्ता के बाद सनूबर बर्तन धोने भिड़ जाती और खाला टंकी के पास टब भर कपड़े लेकर बैठ जातीं। कपड़े धोने के बाद वे वहीं नहाने लगतीं। खाला बाथरूम में कभी नहीं नहाया करतीं थी।

नहा-धोकर खाला बेड-रूम आ जातीं। फिर श्रृंगार-मेज और आलमारी के दरमियान उनका एक घंटा गुजर जाता।

इस बीच सनूबर बर्तन धोकर नहा लेती और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती।

तभी खाला की आवाज गूँजती - 'अरे हरामी, हीटर में दाल चढ़ार्इ है या अइसे ही स्कूल भाग जाएगी?'

सनूबर स्कूल ड्रेस पहने बड़बड़ाती हुर्इ किचन में घुसती और कुकर में दाल पकने के लिए चढ़ा देती।

कुकर पुराना हो चुका है, उसका प्रेशर ठीक से बनता नहीं, इसलिए उसमें दाल पकने मे समय लगता है।

सभी बच्चे स्कूल चले जाते और खाला बन-ठन कर बाहर निकल आतीं।

तब तक एक-दो पड़ोसिनें भी खाली हो जातीं।

फिर उनमें गप्पें होतीं तो समय जैसे ठहर जाता।

एक-दो बच्चे हॉफ-टाइम पर घर आते तो भी खाला टस से मस न होतीं। बच्चे स्वयं खाने का सामान खोजकर खाते।

दुपहर के एक बजे के आस-पास औरतों की सभा विसर्जित होती।

घर आकर खाला भात के लिए अदहन चढ़ातीं और जल्दी-जल्दी चावल चुनने बैठ जातीं। चावल पसाकर फुर्सत पातीं, तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से लौटने लगते। दुपहर के खाने में सब्जी कभी बनी तो ठीक वरना अचार के साथ दाल-भात खाना पड़ता। देहाती टमाटर के दिनों में सनूबर जब स्कूल से लौटती तो खालू के लिए टमाटर की चटनी सिल में पीसती थी।

दुपहर खाना खाकर खाला टीवी देखते-देखते सो जातीं।

शाम को नींद खुलती तो फिर वही आर्इने के सामने वाला दृश्य दुहरातीं।

फिर फ्रेश होकर साड़ी-ब्लाउज पहनतीं। साड़ी पहनने का उनका सलीका किसी अफसराइन की तरह का होता। चेहरे को पाउडर-लिपिस्टिक-काजल से सजातीं।

तब तक उन्हीं की तरह उनकी कोर्इ सहेली आ जाती और उसके साथ बाजार निकल जातीं। सब्जियाँ या अन्य सामान वह स्वयं खरीदा करतीं थीं।

खालू तो गेहूँ पिसवाने और चावल-दाल लाने जैसे भारी काम करते।

सात-आठ बजे तक खाला लौटतीं।

फिर सनूबर के साथ बैठकर रात के खाने की तैयारी में लग जातीं।

इस बीच कोर्इ मिलने वाला या वाली आ जाए तो फिर पूछना ही क्या?

बच्चे पढ़ें या फिर उधम-बाजी करें, खाला पर कोर्इ असर न पड़ता।

उन्हें तो हामी भरने वाला मिल जाए तो आन-तान की हाँकती रहेंगी।

सनूबर इसीलिए बड़बड़ाया करती कि मम्मी के कारण घर में इतना हल्ला-गुल्ला मचा रहता है कि पढ़ार्इ में दिल नहीं लग पाता। गप्पें हाँकने के क्रम में खाला घर आए लोगों को चाय-नमकीन भी कराया करतीं। जिसके लिए सनूबर को परेशान होना पड़ता।

ऐसे घर में अनुशासन की कल्पना भी व्यर्थ थी।