पहला अभिनय / भाग 1 / अशोक तिवारी
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मैं हक्का-बक्का रह गया। हरप्रसाद मास्साब ने मुझे बुलवाया है? आख़िर क्यों? क्या सचमुच मुझे नाटक में शामिल कर लिया गया है? कैसे? यह कैसे संभव हुआ? मगर आज तो नाटक होना ही है। जो मास्साब कल तक मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखते थे वो आज मेरे प्रति इतने नम्र और उदार कैसे हो गए? कल तक मुझे रिहर्सल देखने आने पर भी दुत्कार दिया जाता था। ‘चल भाग’कहकर मुझे रिहर्सल के कमरे से निकाल दिया जाता था। यहां तक कि मास्साब की नज़रों में चढ़े कुछ लड़के मेरा पीछा करते और मुझे मेरी क्लास तक ही ठेलकर आते। मन मारकर मैं कुछ देर तो क्लास में बैठता; मगर मेरा ध्यान तो उन आवाज़ों की ओर होता जो रिहर्सल के कमरे से आ रही होतीं। विषयाध्यापक की नज़र बचते ही मैं फिर वहीं पहुंच जाता था।
आप भी सोच रहे होंगे कि मैं आख़िर कहां की और कब की बात कर रहा हूं? ठीक है, बताता हूं। 1975 का था वो साल। मैं आठवीं में पढ़ता था। जूनियर हाईस्कूल में छठी से आठवीं तक की क्लास ही हुआ करती थीं। इस लिहाज से मेरी क्लास बाक़ी दोनों क्लासों से बड़ी थी। जी हां, तबके सरकारी स्कूलों की पढ़ाई आज की तरह नहीं थी। प्रशासन में ज़रा सी भी गहमा-गहमी हुई - पूरा तंत्र सचेत हो जाता। इमरजेंसी का दौर शुरू हो चुका था। इमरजेंसी का कोई राजनैतिक अर्थ हम बच्चों की पहुंच से कोसों दूर था। हां, हमें अपने अध्यापकों के काम में मुस्तैदी और तत्परता ज़रूर दिखाई पड़ती थी। स्कूल समय से पूर्व और बाद में एक्स्ट्रा क्लासेज़़ चला करती थीं। तभी एक दिन ख़बर आई कि स्कूल का मुआयना करने डिप्टी साहब सदल-बल तशरीफ़ लाएंगे। साथ ही यह भी कि इस बार का डिप्टी थोड़ा केंड़ा है। मुआयने में कुछ भी नुख़्स निकाल सकता है। लिहाजा उन्हें प्रसन्न करने की तमाम ज़ोर आजमाइश की जाने लगी। आसपास के गांवों के सभी जूनियर हाईस्कूलों को यह ख़बर भेजकर चेता दिया गया। स्कूल की सफ़ाई और पढ़ाई पर जमकर ध्यान दिया जाने लगा। तमाम तरह के काम विभिन्न अध्यापकों के सुपुर्द कर दिए गए। कुछ प्रतियोगिताओं को आयोजित करने की योजना बनाई गई - लेज़म, पीटी, अंताक्षरी और प्रहसन प्रदर्शन {लघु नाटिका} आदि।
नाटक तैयार करने की ज़िम्मेवारी हरप्रसाद मास्साब की थी। हरप्रसाद मास्साब ने प्रार्थना सभा में इस बात की घोषणा कर दी कि जो कोई भी नाटक में भाग लेना चाहता है वो आधी छुट्टी से पहले उन्हें नाम लिखा दे। कई बालकों की तरह मैं भी नाम लिखे जाने वाली लाइन में था। मास्साब की उद्घोषणा आग्रहों से जितनी मुक्त थी उतनी ही आग्रहयुक्त थी उनके नाम लिखने की प्रक्रिया। उन्होंने जिन जिनके नाम लिखे उनमें ज़्यादातर बच्चे वो थे जो अपनी लच्छेदार भाषा में हरप्रसाद मास्साब को लुभा लेते थे। कुछ पढ़ने में होशियार भी थे औैर कुछ खेलकूद में और दूसरों की नक़ल उतारने में बहुत माहिर थे। इन्हीं बालकों में एक था नरेंद्र केंड़ा। वो वाकई बहुत केंड़ा था। उमर में वो हम सबसे बड़ा था। उसके हाथ की थाप अगर किसी की पीठ पर पड़ जाती तो वो कई दिनों तक सेंकता ही रहता। उससे हाथ मिलाते वक़्त उसका मिजाज़ देखना बहुत ज़रूरी होता था। कहीं ऐसा न हो कि वो हाथ को ही पकड़कर मसल दे। एक बार की बात है, मैं झक सफ़ेद लट्ठे का पाजामा पहनकर आया था। मेरे लिए वह पाजामा नया बना था। नई चीज़ को पहनकर स्कूल जाना हर बच्चे के लिए अपने आपमें एक चार्म हुआ करता था, आज भी होता है। लट्ठा का कपड़ा बहुत मोटा था। नरेंद्र केंड़ा मेरे पास आया, बोला-
“वाह क्या ज़बरदस्त पाजामा है!”
मेरे ही एक और सहपाठी दिनेश ने कह दिया “बहुत मोटा कपड़ा है बेटा। जाय कोई नाएं फाड़ सकतुई!”
“अबे जा जा ऐसौउ नांय हतु। जाय तौ एकई बार में फाड़ दुंगो।”
“तू का सारे दारासिंह है जो ऐसौ दम भर रौ है”
“दारासिंह की ऐसी तैसी, अबई दिखांतूं”
अब नरेंद्र था और उसके हाथ में मेरा पाजामा। मुझे समझ ही नहीं आया कि आख़िर बात क्या हुई । हां, हम सब तब सन्न रह गए जब नरेंद्र ने मोहरी की ओर से मेरा पाजामा घुटने तक फाड़ दिया। मैं तो समझ ही नहीं पाया था कि मैं आख़िर करूं तो क्या करूं। नरेंद्र मुझे दर्जी की दुकान पर लेकर गया था । पाजामा सिलाया। मुझसे माफ़ी मांगी।
नरेंद्र केंड़ा के साथ-साथ दो और लड़कों को मुख्य किरदारों के लिए लिया गया। वो भी दिखने में लंबे तगड़े थे। एक और था रामपाल सिंह - वह बहुत ही ख़ूबसूरत बालक था। गोरा - चिट्टा। नाक-नक्श बहुत ही तीखे। रामपाल मेरी क्लास के कमज़ोर बच्चों में से एक था मगर एक ख़ूबी उसके साथ थी कि वो विधायक राजेंद्र सिंह का भतीजा था। क्या कहा, आपको इस बात का विश्वास ही नहीं होता। अब विश्वास तो करना ही पड़ेगा। उस ज़माने में पब्लिक स्कूलों का कोई ट्रेंड शुरू नहीं हुआ था। सबका एक ही स्कूल हुआ करता था। अखाड़ेबाज़ी का एक ही अड्डा हुआ करता था। सब एक ही जगह पढ़ते, एक ही जगह खेलते, लड़ते-झगड़ते। हां कुछ अध्यापकों का व्यक्तिगत स्वार्थ जब विधायक साहब की चौखट की धूल को लेने को मजबूर हो जाता तो ज़ाहिर है ज़मींदार साहब के लाढ़ले के लिए विशेष सुविधाएं जुट जातीं। स्कूल का हर शिक्षक उससे बड़े ही प्यार और अदब से पेश आता था।
मैं बड़े ही बेअदबी के साथ नाटक के चुनाव से निकाल दिया गया। मुझे लगने लगा कि मेरे निकाले जाने के पीछे मेरे काले बदन की भूमिका रही है। इसका प्रत्यक्ष कारण भी था। मेरी बारी आने के साथ ही हरप्रसाद मास्साब ने कह दिया “जा जा तू का नाटक करैगौ कारे-करूटे।” आसपास खड़े सभी बालक खिलखिलाकर हॅंस पड़े। मेरा सारा उत्साह फीका पड़ गया। मेरी बोलती भी बंद हो गई। मुझे एक सेकंड भी वहां रहना दूभर मालूम पड़ने लगा। ये बात यहीं तक ही रहती तो ठीक भी था। अगले ही दिन स्कूल में आते ही आते एक लड़के ने हाथ के अॅंगूठे को चिड़ाने के अंदाज़ में हिलाते हुए कहा “ले ले नाटक कल्लै।”
नाटक के अंदर तीन सीन थे। यह विवरण महाभारत की कहानी से था। कौरवों द्वारा निहत्थे अभिमन्यु को घेरकर मार डालने पर अर्जुन द्वारा की गई प्रतिज्ञा कि सूरज ढलने से पहले अगर वह जयद्रथ को नहीं मार पाया तो युद्धस्थल में ही चिता बनाकर भस्म हो जाएगा।
नाटक की रिहर्सल शुरू हो गई थी। नाटक में मौजूद सभी बच्चों को स्कूल के सभी छात्र और अध्यापक इज़्ज़त भरी निगाहों से देखते थे। नाटक वाले बच्चों को एक कमरे में इकट्ठा कर लिया जाता। संवाद कापी पर लिखा दिए गए थे। संवादों को ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ कमरे की दीवारों और किवाड़ों को चीरकर हमारे कमरे तक आसानी से पहुंच जाती। संवादों को सुनकर मेरे पैरों में हलचल हो जाती जो मौक़ा पाते ही रिहर्सल वाले कमरे के इर्द गिर्द चक्कर लगाने लग जाते। मैं कमरे की सॅंधों से भी झांकता। कमरे की खिड़की थोड़ी ऊंची थी। उस पर चढ़ना बहुत मुश्किल काम था। मुश्किल था असंभव नहीं । मैंने और दिनेश ने सलाह की कि क्यों न हम एक दूसरे के कंधों पर चढ़ते हुए अंदर झांककर देखें। मुझे नहीं मालूम यह सलाह किसकी ओर से आई थी पर यह तय ज़रूर हो गया।
हम कमरे की खिड़की के आसपास पहुंचे तो दिनेश बोला कि वो मेरे कंधों पर पहले चढ़ेगा। मैंने ज़रा सी भी आनाकानी न करके उसकी बात मान ली। वो मेरे कंधों पर चढ़ गया। कंधों पर चढ़कर वो अंदर हो रही रिहर्सल का मज़ा लेने लगा। वो नाचने सा भी लगा। मेरे कंधे टूटे जा रहे थे; मगर वो था कि किसी भी सूरत नीचे उतरने को राजी ही नहीं हो रहा था। थोड़ा-सा और, थोड़ा-सा और कहते हुए वो मेरे कंधों को पीसे डाल रहा था। कोई दस मिनट तक अंदर का लुत्फ़ उठा लेने के बाद वो उतरा। मुझे अपने कंधों पर चढ़ाने की बारी में वो कहने लगा कि मास्साब न आ जाएं। मैं जब नहीं माना और अपनी बारी लेने के लिए ज़िद करने लगा तो उसे हारकर अपने कंधों पर बैठाना ही पड़ा। दरअसल हम दोनों का क़रार लंबा था - रोज़ाना के लिए। मैं उसके कंधों पर चढ़ने लगा। वो बैठा हुआ ही था। मैंने दीवार पकड़कर अपना बेलैंस सॅंभाला भी न था कि उसने सामने से आ रहे अंसारी मास्साब को देख लिया और वो मुझे गिराकर भाग गया। मैं मुँह के बल ज़मीन पर ओंधा गिर पड़ा। ठोड़ी पर गूंमरा उभर आया। मैंने सामने देखा कि अंसारी मास्साब अपने हाथ में लंबी सी संटी लेकर चले आ रहे हैं। अच्छी ख़ासी पिटाई हुई। मगर नाटक के प्रति लगाव किसी सूरत कम नहीं हो रहा था। संवाद रिहर्सल रूम में चल रहे होते मगर मैं उन्हें अपने मन ही मन दुहरा रहा होता।
अब ज़रा कास्टिंग भी जान लें। रामपाल कृष्ण और नरेंद्र जयद्रथ था। अर्जुन भीमसिंह था जो अर्जुन से ज़्यादा भीम ही नज़र आ रहा था। तीन और बच्चे थे जो सिपाहियों{योद्धा} की भूमिका में कास्ट किए गए थे। हफ़्ते भरके अंदर नाटक अपनी शक्ल ले चुका था। संवाद धड़ाधड़ निकलकर आ रहे थे। “हे अर्जुन! सामने देखो सूरज छिपा नहीं बल्कि अपने पूरे तेज़ पर है, उठाओ अपना गांडीव और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो!”
जयद्रथ वध का पूरा का पूरा दृश्य रोंगटे खड़ा कर देने वाला था। रामपाल कृष्ण की भूमिका में जॅच रहा था। नरेंद्र जयद्रथ के रौल में थर्राहट भरी आवाज़ इतनी ज़ोर से निकालता कि एक बार को अर्जुन की सांस ही थम जाती। वो ज़ोर का अट्टहास लगाते वक़्त अपनी पूरी ताक़त झोंक देता। रिहर्सल में चिता तैयार करते हुए अर्जुन के चेहरे पर आत्मविश्वास की जगह अनिश्चितता तो देखी ही जा रही थी बल्कि वो अपने संवाद भी ज़रूरत से ज़्यादा भूल रहा था। हरप्रसाद मास्साब कई बार तेज़ चीख़ पड़ते। और कई बार तो अपने बेंत को ही रसीद कर देते। ख़ैर नाटक तैयार हो गया।
अगले ही दिन डिप्टी साहब के सम्मान में यह नाटक खेला जाने वाला था। देर शाम तक रिहर्सल चलती रही थी। मैं अपने खेल के वक़्त में वहीं आकर बैठ गया था। दरअसल मेरा घर स्कूल के बहुत पास था। हम सब खेलने के लिए भी जूनियर हाईस्कूल में ही आया करते थे। उस दिन जब नरेंद्र अपने संवाद भूल रहा था। मैं उसके संवादों को बोल-बोलकर याद दिला देता। कई पात्रों के संवाद मुझे रट गए थे। मेरे बोलने पर एक दो बार तो हरप्रसाद मास्साब ने अचरज के साथ मुझे देखा मगर बार-बार बोलने पर उन्होंने मुझे डपट दिया –“ तिवड़िया तू भागैगौ कि नाएं।” यक़ीनन उन्हें पात्रों के संवाद याद न होने पर एक चिंता तो रही होगी।
अगले दिन मैं सुबह ही सुबह जब शौच के लिए खेतों की ओर जा रहा था। मैंने देखा स्कूल का चपरासी जिसका नाम भी दिनेश ही था, नसैनी पर चढ़-चढ़कर कागज़ की रंग-बिरंगी झंडियां लगा रहा है - तिकोनी, रस्सी में बॅधी हुई। ये झंडियां बहुत ही ख़ूबसूरत लग रही थीं। रामप्रसाद हैडमास्साब हिदायत देते जा रहे थे। ऐसे लगाओ, यहां लगाओ, नहीं, यहां नहीं, यहां से कील उखड़ जाएगी। तभी देखा कि बशीर मास्साब साइकिल पर तेज़ पैडल मारते हुए चले आ रहे हैं। गुनगुनी ठंड में भी पसीने से तर-बतर हैं। मोहम्मद बशीर पास के ही गांव करथला में रहते थे।
हैडमास्साब ने उन्हें देखा। दुआ सलाम हुई।
“सबेरे के पांच बज गए बशीर तुम्हारे?”
“हैडमास्साब का करूं, रात में काउनै साइकिल के अगले पहिया की हवाई ही निकार दई।”
बशीर मास्साब भी टेंट लगवाने के काम में लग गए। हम सब बच्चों को 12 बजे स्कूल पहुंचना था। प्रतियोगिताओं की शुरूआत 12 बजे से होनी थी। मैं अपने घर में छज्जे पर कुछ काम करने के लिए बैठा था। घर में मेरे एक भाई की हिदायत मुझे मिल गई थी कि मैं 11 बजे तक अपना काम कर लूं। परीक्षा आने वाली है और स्कूल में जाकर मैं वक़्त फालतू बर्बाद करूंगा। अब मुझे नहीं मालूम कि मेरा ध्यान पढ़ाई में कितना लग रहा था और कितना स्कूल में होने वाली हलचल में। कोई साढ़े दस बजे का वक़्त होगा कि किसी ने मुझे दरवाज़े पर आवाज़ दी। मेरे कान खड़े हो गए।
“हरप्रसाद मास्साब ने तू बुलवायौए” बुलाने आए लड़कों के झुंड में से एक ने कहा।
“का बात है?” मेरे बड़े भाई ने उनसे पूछा।
लड़कों ने कंधा उचका दिए कि उन्हें कुछ नहीं मालूम। मेरी मां ने नीचे से ही आवाज़ लगाते हुए मुझे नीचे बुलाया। मैंने सुन तो सब कुछ लिया था पर मैं ये सोच रहा था कि आख़िर वजह क्या हो सकती है हरप्रसाद मास्साब के बुलाने की।
ख़ैर मैं लड़कों की पूरी पलटन के साथ स्कूल की ओर चला। हरप्रसाद मास्साब द्वारा बुलाना अपने आपमें किसी भी बालक के लिए बहुत बड़ी बात थी। मैं एक गर्वयुक्त अहसास के साथ जैसे ही स्कूल के प्रांगण में पहुंचा, जयद्रथ मिला, मेरा मतलब नरेंद्र, बोला -
“यार गड़बड़ है गई है”
“का भयौ?”
“हरप्रसाद मास्साब बतांगे। तोय देख रहें।”
“कहां हैं?”
“हैड मास्साब के कमरा में”
मैं जब तक हैड मास्साब के कमरे की ओर जाता तब तक बालकों के झुंड ने मेरे आने की सूचना उन्हें दे दी थी। मास्साब लगभग दौड़ते हुए मेरी ओर आ रहे थे। वे बिल्कुल निरीह नज़र आ रहे थे। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर एक गहरी मुस्कान और आत्मतुष्टि के भाव मुझे दिखाई दिए।
“आयगौ भैया”
मैंने बड़े अदब से उन्हें नमस्ते की।
‘नमस्ते नमस्ते’ और ‘आजा-आजा बेटा’कहते हुए मुझे रिहर्सल के कमरे में लेकर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ फेरा और कहा -
“रामपाल बीमार पड़गौ है। बुखार आयगौ बायै। बाकौ रौल तोय करनौएं।”
मेरे चौंकने की बारी थी ......मेरे कुछ भी कहने से पहले वो फिर बोल उठे -
“तू तौ कल्लेगौ। नाटक चार बजे है। तोय डायलौग तौ याद हैं ना। थोड़े से और याद कल्लियो। उन्नैंईं बोल दियो। बस है जायगौ काम।”
मुझे कृष्ण का रौल करना था जो नाटक का केंद्रीय पात्र था। मुझे अजीब सा लगा कि एक रौल को बिना किसी पूर्वाभ्यास के स्टेज पर खेलना है। कैसे होगा मैं कुछ नहीं समझ पा रहा था। पर न जाने क्यों मैंने सुनते ही ‘हां’ कर दी। अब ‘हां’ करने के पीछे के भी कई कारण थे जिन पर गौर किए बिना इस विषय को आगे बढ़ाना कहानी के हिसाब से ठीक नहीं होगा। पहला नंबर तो ये कि जो अवसर इतने तरसने के बाद हाथ आया हो उसे कैसे गॅवाया जाय। एक बार मिला अवसर न जाने फिर कब हाथ आए, और आएगा भी इस बात की भी क्या गारंटी है। नंबर दो, जो अध्यापक मुझे तरजीह नहीं देते थे वो सब आज इतने दयालु हो गए {यह विषय सोचने का है कि दयालु वे थे या मैं}, तो उनके इस आमंत्रण को ठुकराया कैसे जाय। नंबर तीन, स्कूल की प्रतिष्ठा का सवाल था जो भगवान कृष्ण के बीमार पड़ जाने की वजह से दॉव पर लगी थी और जिसे उबारने का ज़िम्मा मेरे हिस्से आया था।
हरप्रसाद मास्साब ने मुझे एक कागज़ पर पहले से ही उतारे गए संवादों के दो पर्चे पकड़ा दिए। मुझे एक ओर तो बहुत ही अच्छा लग रहा था मगर दूसरी ओर हरप्रसाद मास्साब के व्यवहार में आए एकाएक बदलाव को देखकर मैं एक अजीब तरह के भाव से ग्रसित हो गया। अब मेरे हाथ में संवाद के पर्चे थे और मैं था। रटता रहा। एक बार हरप्रसाद मास्साब ने बाक़ी सबके साथ रिहर्सल भी कराई जो महज औपचारिकता बनकर रह गई। कहां से कहां जाना है, कहां बैठना है, कहां खड़े होकर अपने सुदर्शन चक्र के साथ संवाद बोलने हैं - यह सब हरप्रसाद मास्साब ने इशारातन बता दिया और मुझसे कह दिया कि इसको मैं बार-बार दुहराता रहूं। संवाद के पर्चे को लेकर मैं रिहर्सल के उस कमरे में इधर-उधर घूमता रहा जिसमें कभी झांकने पर मेरी पिटाई हुई थी। कुछ बच्चे थे जो अब मुझे उसी खिड़की से देखने की कोशिश कर रहे थे। घूमने के पीछे मेरी एक मंशा शायद यह भी थी कि जो बच्चे मेरी मज़ाक उड़ाते थे कि ‘देखो-देखो ये एक्टिंग करेगा’वो देख लें कि हरप्रसाद मास्साब ने उसे घर से बुलाकर ऐसा-वैसा नहीं, कृष्ण का रौल दिया है। ख़ैर......
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