पहला अभिनय / भाग 2 / अशोक तिवारी
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वह घड़ी आ पहुंची जब स्टेज पर हमारे नाटक की बारी थी। स्टेज का संचालन किसी और स्कूल के मास्टर साहब कर रहे थे। हम लोगों ने अपने कास्ट्यूम्स पहन लिए थे। मेरे हाथ में सुदर्शनचक्र था जो हर समय मेरे साथ ही रहना था। कास्ट्यूम्स बदलते वक़्त हरप्रसाद मास्साब बार-बार एक ही बात कह रहे थे कि अच्छे से करना है। संवाद अगर कहीं भूल भी जाओ तो आगे चलना है। दर्शकों की अच्छी ख़ासी भीड़ जमा थी। मेरे पैर कांपने लगे। इतने लोगों के सामने स्टेज पर ...वैसे भी किसी स्टेज पर जाने का यह मेरा पहला मौक़ा था ....मेरा तो कोई अभ्यास भी नहीं हुआ था। संवादों के साथ मेरा तालमेल स्टेज पर जाने से पहले ही गड़बड़ाने लगा। कब कहां और क्या बोलना है... स्टेज के दूसरी ओर कब जाना है... स्टेज के बीचोंबीच कब आना है... मैं याद करने की जितनी कोशिश करता उतना ही भूलता जाता। इस परेशानी को कुछ हद तक हरप्रसाद मास्साब ने मेरे चेहरे से पढ़ लिया। वो मेरे पास आए, मेरे सर पर हाथ फेरा और मुस्कराते हुए बोले -
“तू तो सबसे अच्छा करेगा।”
“जी” मैंने चेहरे पर एक नक़ली आवरण ओढ़ने की कोशिश की, जिसे पढ़ना हर किसी के लिए बहुत आसान था। मेरा सोच मेरे बस में नहीं था ...लो अब सबसे अच्छा भी करना है....रिहर्सल एक भी नहीं ...और सबसे अच्छा...कैसे होगा? मैंने अपना दिमाग़ झटक दिया - कुछ भी हो ये ज़िम्मेवारी अब मेरे ऊपर आई है तो इसे अच्छे से ही करना होगा। मैं एक बार फिर से नाटक के पूरे क्रम को याद करने की कोशिश करने लगा। चीज़ें साफ़तौर पर स्पष्ट होकर सामने आने लगीं। वक़्त कम था। कभी भी नाटक की घोषणा हो सकती थी। उधर मंच पर रामप्रसाद पंडितजी ‘शिक्षा में नैतिकता’ विषय पर अपनी तक़रीर रख रहे थे। रामप्रसाद पंडितजी के बारे में एक ऐसा तथ्य मैं आपको बता सकता हूं जो शायद आपको अविश्वसनीय लगे, पर है जो सोलह आना सच। सुनाऊं, अच्छा तो सुनो - यह रामप्रसाद पंडितजी वो वाले नहीं है जिनका ज़िक्र हमने ऊपर किया है और जो स्कूल के हैडमास्टर थे। ये पंडितजी जात के सवर्ण थे, ब्राह्मण थे । उधर रामप्रसाद हैडमास्साब जाटव थे यानी निम्न वर्ण। मास्टर को पंडितजी कहने का रिवाज नया नहीं हैं; किंतु यह रिवाज सिर्फ़ सवर्ण अध्यापकों के लिए ही था। रामप्रसाद हैडमास्साब को रामप्रसाद पंडितजी कभी भी कहकर नहीं पुकारा जाता था। उन्हें रामप्रसाद मुंशी कहा जाता था। मुंशी ही क्यों ये प्रश्न आपको परेशान कर सकता है। इसका मुख्य कारण ये है कि इससे सवर्ण और अवर्ण के बीच के भेद को बरक़रार रखा जा सकता था। दूसरे रामप्रसाद पंडितजी को पंडित शब्द की गरिमा पर ख़तरा भी महसूस होता था। पंडित - जो विद्वान होता है और विद्वान हो सकता है सिर्फ़ ब्राह्मण और कोई नहीं। मनुवादी व्यवस्था के सारे के सारे मापदंड अपनाए जाते जिन्हें रामप्रसाद हैडमास्साब सरीखे लोग {मेरे हिसाब से सही विद्वान} भी बिना किसी चू-चपड़ के सुनते रहते और चुप रहते। पता नहीं इस मुद्दे पर कुछ बोलते भी थे या नहीं - मुझे जहां तक याद है, मैंने इसके विरोध में उनकी कोई आवाज़ नहीं सुनी। हां, पूरी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के चलते व्यवस्था के प्रति उनकी झुंझलाहट अक्सर मैं देखता था। यह झुंझलाहट कई बार उन्हें उन लोगों के ऊपर भी होती थी जो विद्यालय के अंदर ऊंच-नीच को फैलाने के तमाम तरीक़ों को अपनाने की कोशिश करते। इसी प्रकार की बातों पर वो आर्यसमाज के बहुत से नियमों को उच्चारित करते, उन्हें विस्तार से समझाते।
आप भी सोच रहे होंगे कि मैं आपको कहां-कहां घुमा रहा हूं। मुझे दरअसल यह ज़रूरी लगा कि उन तस्वीरों को स्पष्ट करता चलूं जो दोहरे मापदंडों को अपनाने की आदी होती हैं। कथनी और करनी में जिनके अंदर अंतर स्पष्टतः परिलक्षित होता है। रामप्रसाद पंडितजी उन्हीं लोगों में थे जिन्हें कक्षा में पढ़ाने के नाम पर खर्राटेदार नींद आती थी मगर वही जब चार-पांच अध्यापकों के बीच बैठ जाते तो उनकी सारी नींद रफूचक्कर ही नहीं होती थी बल्कि वो देश की सामाजिक व्यवस्था को कोसते भी नज़र आते। ठहरिए, अभी मैं आपको इन्हींकी एक छोटी-सी घटना और सुनाता हूं। एक बार की बात है रामप्रसाद पंडितजी हमें हिंदी का कोई पाठ पढ़ा रहे थे। उन्होंने एक बालक को खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से बोलकर किताब पढ़ने को कहा। वह बालक जो भी उच्चारित करता, उसे बाक़ी सब बच्चे भी बोलते जाते। हिदायत ये दी गई कि पाठ ख़त्म होने के बाद फिर से पाठ को शुरू किया जाए, जब तक पंडितजी रोकें नहीं। बालकों के ज़ोर-ज़ोर से एक रिदम में बोलते ही पंडितजी को जॅंभाई आने लगी। थोड़ी ही देर में उनकी आंखें भी मुंद गईं। गर्दन कुर्सी की पीठ पर एक ओर झूल गई। पंडितजी गहरी नींद में सो गए। उनकी नींद भी लाजवाब थी - कितनी भी गहरी नींद होती, बच्चों की आवाज़ आनी बंद होते ही उनकी आंखें खुल जाती और भोंहें मटकाते हुए पूछते - ‘क्या बात है, पढ़ना क्यों रोक दिया?’ ख़ैर बच्चों की आवाज़ें ज़ोर-ज़ोर से आ रही थीं। इधर पंडितजी अपने सपनों की दुनिया में मस्त थे। उधर रामप्रसाद हैडमास्साब ने बरामदे से गुज़रते हुए कमरे में सो रहे पंडितजी पर एक दृष्टि डाली। वे कमरे में इस हिदायत के साथ आ गए कि बच्चे अपना पाठ बिना रोके पढ़ते रहें। उन्होंने बच्चों को खड़ा होने से भी मना कर दिया था। हैडमास्साब पंडितजी की कुर्सी के सामने वाली लाइन में सबसे आगे उस सीट पर बैठ गए जो उस बच्चे की थी जो पाठ को ज़ोर-ज़ोर से उच्चारित करने के लिए पंडितजी के बराबर खड़ा हो गया था। बालक ज़ोर-ज़ोर से बोलते जा रहे थे। अचानक हैडमास्साब ने सबको चुप करने के लिए अपने मुंह पर उॅंगली रखी। सभी चुप। सभी के चुप होते ही पंडितजी की नींद झटके से खुली और बोले- ‘क्या बात है, पढ़ना क्यों रोक दिया?’ आंखों के पूरे खुलते ही पंडितजी ने हैडमास्साब को अपने सामने बैठा पाया। उनकी हालत ख़राब। उनकी जीभ ही सूख गई। खिसियानी हॅंसी हॅंसते हुए वे अपनी सीट से उठ गए। उधर हैडमास्साब अपनी हॅंसी को दबाते हुए बोले -
“काक चेष्टा वको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैवच....” श्वान निद्रा पर हैडमास्साब ने ख़ास ज़ोर देकर बोला था।
“जी” पंडितजी की आखें चौड़ गईं।
“पंडितजी कछू तबियत ख़राब है का?” हैडमास्साब ने पूछा।
“नाएं हैडमास्साब ऐसौ कछू नाएं, रात में नेंक सोइ नाएं पायौ”
रामप्रसाद पंडितजी की सोने की आदत से हालांकि वो बाख़बर थे, फिर भी पूछा -
“का बात है गई पंडितजी?”
“पानी लगायो खेत में”
“तो?” हैडमास्साब ने थोड़ा और टहोका।
“जई मारें नेंक आंख लग गई”
“स्टाफ़ रूम में थोड़ी देर जाइकें आराम कल्लेउ”
“नाएं-नाएं अब ठीक है”
हैडमास्साब को भी अच्छी तरह मालूम था कि यह तो पंडितजी की रोज़ की ही बात है।
वही पंडितजी आज मंच पर थे। बच्चों की शिक्षा के स्तर में आई गिरावट पर अपना तफ़सरा रख रहे थे। उनके भाषण के ख़त्म होते ही हरप्रसाद मास्साब मंच पर आए। हमारे नाटक की बारी आ गई थी। नाटक की भूमिका बांधते हुए हरप्रसाद मास्साब ने नाटक के शुरू होने की घोषणा की। उनकी घोषणा मेरे कलेजे में एक तीर की तरह लगी। दरअसल इसका मुख्य कारण था मेरा बग़ैर रिहर्सल स्टेज पर जाना। दूसरे इस तरह किसी मंच से कभी भी मुझे कोई मौक़ा हाथ नहीं लगा था। थोड़ा-सा सब्र और करें तो एक साल पहले की घटना भी आपको बता दूं।
अंताक्षरी प्रतियोगिता थी। तीन विद्यालयों की तीन-तीन छात्रों की टीम थीं। हमारे विद्यालय से तीन छात्र तैयार किए गए। मैं भी उनमें से एक था। जिन मास्साब ने इसके लिए हमें तैयारी कराई उन्होंने हमें हर अक्षर पर तीन-तीन चौपाई, दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया या कोई अन्य कविता याद करने को कहा। ज़्यादा याद करने को उन्होंने व्यर्थ बताया और कहा कि एक अक्षर पर तीन से ज़्यादा तोड़ नहीं होता है। हरेक की बारी सिर्फ़ चार बार आनी थी। अंताक्षरी शुरू हुई। पहले राउंड में मुझे अक्षर मिला-‘ह। दूसरे राउंड का अक्षर भी रहा ‘ह। तीसरे राउंड में भी जब मुझे ‘ह’अक्षर मिल गया तो मुझे चिंता हुई कि कहीं चौथे और आख़िरी राउंड में भी ‘ह’ न आ जाए। मेरी चिंता फलीभूत हुई। ‘ह’ ही आया। अब मैं क्या करूं - ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने भी साफ़गोई से काम लेना उचित समझा। कह दिया-
“हमें तो मास्साब ने तीन ही तीन याद करबे कूं कह्योओ।”
मास्साब की हालत भी देखने लायक थी। उनके चेहरे पर मुझे काट खाने वाले दांत उग आए थे जो मुझे चेता रहे थे कि अब मेरी ख़ैर नहीं। दूसरी टीमों के सभी लोगों के चेहरों पर ख़ुशी की लहर थी वहीं दूसरी ओर हमारे स्कूल के अध्यापकों के चेहरे सुन्न पड़ गए थे। ‘भोंदू है’ कहते हुए मास्साब ने अपनी झेंप मिटाई। मेरी वजह से जाने वाले अंक से ही हमारी टीम हारी - यह मुझे बताया गया, जबकि मेरे बाद हमारी टीम का ही एक और छात्र भी चौथे राउंड के ‘न’ पर आए तोड़ को नहीं उठा पाया था। मगर मास्साब ने हारने का श्रेय मेरे हिस्से यह कहकर रखा कि अगर मैं अपना चौथे राउंड का तोड़ उठा लेता तो उस छात्र पर जिसने मेरी तरह ‘न’ पर अपनी जान तोड़ दी थी वह अक्षर न आता। मास्साब का तर्क मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया था। जानते हैं ये मास्साब कौन थे - ये थे रामप्रसाद पंडितजी।
लौटकर वहीं आएं जहां अभी नाटक होने वाला है। अर्जुन ने एंट्री ले ली। अभिमन्यु के मारे जाने पर उसका विलाप नहीं, उद्घोषणा हुई कि आज वह सूरज डूबने से पहले अगर जयद्रथ को ख़त्म नहीं कर पाया तो वो इसी रणभूमि में चिता जलाकर सबके सामने ख़ुद को ख़त्म कर लेगा। रणभेरी बज गई थी। हाथ में गांडीव थामे अर्जुन मंच के इधर-उधर घूम रहा था। मेरी एंट्री आई। हाथ में सुदर्शन चक्र थामे मुझे चेहरे पर शालीनता और स्थिरता लानी थी। मगर मेरे चेहरे पर दूर-दूर तक न तो कहीं शालीनता थी और नहीं स्थिरता बल्कि एक हड़बड़ी थी, एक यांत्रिक भाव था। मूवमेंट्स को मैंने फ्री रखा जो दूसरे पात्रों के लिए परेशानी का सबब बन रहा था क्योंकि उन्हें अपने संवाद मूवमेंट्स के साथ ही बोलने थे, जैसे उन्होंने याद भी किए थे। एक-दो बार तो अर्जुन ने मुझे ठेल भी दिया क्योंकि मैं उसकी जगह पर खड़े होकर अपने संवाद बोल रहा था। मुझे मेरी सही जगह पता ही नहीं थी अतः वहां से छिटककर जब मैं दूसरी जगह जाता तो वहां से फिर ठेला जाता। बार-बार मुझे ठेला जाना - मतलब कृष्ण को ठेला जाना, मुझे चरित्र के प्रतिकूल लगता। मगर किया भी क्या जा सकता था। नाटक आगे बढ़ रहा था।
“हे तात! प्रातःकाल से शाम होने को आई परंतु अभी तक मुझे अपनी प्रतिज्ञा पूरी होती नज़र नहीं आती....”
“अर्जुन तुम अपना कर्म करो, आगे क्या होगा इसकी चिंता तुम मुझ पर छोड़ दो।”
मैं स्टेज से बाहर आ गया। हरप्रसाद मास्साब मेरे पास आए। मुझ पर शाबासी का हाथ रखा। नाटक का प्रवाह सही था। उन्होंने मुझे और आत्मविश्वास के साथ अपने संवाद बोलने को कहा। भूलने की स्थिति में मैं अपने आपसे उसी आशय का संवाद बोल दूं - यह हिदायत भी उन्होंने दी।
नाटक का आख़िरी दृश्य। शाम हो चुकी है, सूरज डूब चुका है। कृष्ण मंच के एक भाग में खड़ा है। दूसरे भाग में अर्जुन अपने लिए एक चिता तैयार कर रहा है। युद्ध एक तरह थम गया है। कौरव और पांडवों के कई वीर योद्धा खड़े हैं। जयद्रथ भी खड़ा है - अट्टहास लगाता हुआ। प्रतिज्ञा के अनुसार अर्जुन अब उसे नहीं मार सकता है क्योंकि मारने की प्रतिज्ञा सिर्फ़ सूरज डूबने से पहले की थी। अर्जुन ने भारी और थके मन से चिता पर आख़िरी लकड़ी रखी और कृष्ण की ओर देखा। कृष्ण मंद-मंद मुस्करा रहा था। अर्जुन ने अपना गांडीव कमर से उतारकर नीचे रखा। जयद्रथ के चेहरे पर ख़ुशी साफ़ झलक रही थी। अर्जुन चिता की ओर बढ़ा कि कृष्ण के रूप में मैंने एक आह्वान किया जो मंच पर गूंज उठा -
”हे जयद्रथ! देखो अभी सूरज छिपा नहीं है - वो तो बादलों के बीच आ गया था। हे धनुर्धर! उठाओ यह गांडीव और कर दो छलनी-छलनी सीना अर्जुन का।“
‘जयद्रथ नहीं अर्जुन’ किसी ने पीछे से फुसफुसाया।
एक बार तो सभी में चुप्पी छा गई। मगर दूसरे ही क्षण दर्शकों में हॅंसी का एक फव्वारा फूट पड़ा। डिप्टी साहब की हॅंसी का ठहाका साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा था। मुझे लगा मेरे संवाद का जोश काम कर गया। इस संवाद को मैंने पूरी गहराई के साथ बोला था। वैसे भी यह संवाद पूरे नाटक का एक केंद्र बिंदु माना जाता था। मैंने अपना संवाद अभी ख़त्म किया भी नहीं था कि देखा हरप्रसाद मास्साब दाहिने विंग में से मुझसे कुछ कह रहे हैं। मैं विंग के पास आया तो मास्साब फुसफुसाए - ‘अर्जुन से कहना है गांडीव उठाने को’
‘क्या?’ मैं उनकी बात सुन ही नहीं पाया था।
हरप्रसाद मास्साब फिर बोले - ‘अर्जुन से कहो कि जयद्रथ को मारे।’
मुझे लगा कि कहीं कुछ ग़लत हो गया। मैंने हरप्रसाद मास्साब की प्रॉक्सी ज्यों की त्यों बोल दी। संवाद का सुर थोड़ा ऊंचा रखा।
“अर्जुन से कहो कि जयद्रथ को मारे।”
‘सत्यानाश हो तेरा।’ हरप्रसाद मास्साब ने अपना माथा पीटा। मैंने उसे भी प्रॉक्सी समझा।
“सत्यानाश हो तेरा अर्जुन” भोंहें चढ़ाकर मैंने अपना संवाद बोल दिया।
‘अरे सत्यानाश तेरा हो अर्जुन का नहीं’ हरप्रसाद मास्साब लगभग चीख़ते स्वर में बोले। हालांकि उनका यह बोलना माइक ने पकड़ लिया था।
“अरे सत्यानाश तेरा हो अर्जुन का नहीं” मैंने प्रकट तौर पर यह संवाद के रूप में जयद्रथ से बोल दिया। पर तभी मुझे ख़याल आया कि नहीं, यह संवाद तो पेपर में था ही नहीं। मुझे हरप्रसाद मास्साब की टिप्पणी याद आ गई कि कहीं भूल जाऊं तो उसी आशय का कोई संवाद बोल दूं।
“सत्यानाश किसी का भी हो आगे बढ़ो......”
मगर आगे बढ़े कौन? मैंने वाक्य पूरा किया-“....अर्जुन”
मगर अर्जुन मेरी ओर ताक रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करे। सच कहूं तो मेरी भी ख़ुद समझ में नहीं आ रहा था। हरप्रसाद मास्साब फिर से फुसफुसाए -
‘अबे अर्जुन से बोल कि जयद्रथ को मारे’
सारी चीज़ें गड़बड़ाने लगी थीं। मुझे समझ में नहीं आया कि कौन किसे मारेगा। कुछ संवाद छूट गए थे। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। हरप्रसाद मास्साब की फुसफुसाहट भी पूरी तरह सुनाई नहीं दे रही थी। मैं मंच के उस हिस्से में आया जिसमें अर्जुन और उसकी चिता थी। मैं बोला -
“अबे अर्जुन बोल तू जयद्रथ को मारेगा या नहीं मारेगा या जयद्रथ तुझे मारेगा? वैसे भी इस दुनिया में कौन किसको मारता है, सबको मारने वाला मैं हूं, जिलाने वाला मैं हूं।”
यह आख़िरी संवाद मुझे नाटक के अंत में बोलना था। सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया। अर्जुन ने गड़बड़ होते देख ख़ुद ही अपना गांडीव उठा लिया और जयद्रथ के पीछे-पीछे दौड़ता हुआ मंच के पार्श्व भाग में चला गया। मंच पर उपस्थित बाक़ी योद्धाओं को भी उन्हींके पीछे जाना था। आख़िर में कृष्ण को {मुझे} मंच पर रुककर नाटक का अंतिम संवाद बोलना था जो मैंने तो पहले ही बोल दिया था। अतः मैं भी सबके साथ भागकर मंच से रफूचक्कर हो गया और उससे पीछा छुड़ाया।
दर्शकों की हँसी के ठहाके और तालियां मुझे अपनी पीठ पर पड़ती मालूम दे रही थीं।
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