पहला दृश्य / अंक-3 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : कंचनसिंह का कमरा।

समय : दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा चल रहा है।

कंचन : (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था।, भाई साहब आड़ में छिप गए थे।अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते, कहां जा रहे हो, मेरा माथा उसी वक्त ठनका था। जब मैंने उन्हें नित्यप्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हांकते सैर करने जाते देखा । उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलते?जुलते हैं। पत्रों से भी रूचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक-न -एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी, यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूकी वायु चलती है तो बहुत प्रचण्ड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरूष जब विचलित होता है, यह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है। न किसी की सुनता है, न किसी के रोके रूकता है, न परिणाम सोचता है। उसके विवेक और बुद्वि पर पर्दा-सा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहां देख लिया। इसीलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनों के लिए हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे।मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वान, गंभीर पुरूष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : बाबूजी, आज सोए नहीं ?

कंचन : नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था।भाई साहब ने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता। असामियों से कुछ रूपये वसूल होते, लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया ।

ज्ञानी : वह तो मुझसे कहते थे दो-चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊँगा। डारुक्टर ने कहा है, यहां रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगी। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबूजी एक बात पूछूं, बताओगे। तुम्हें भी इनके स्वभाव में कुछ अंतर दिखायी देता है ? मुझे तो बहुत अंतर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे।अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो, मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूं। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक-पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता है, उसी प्रकार आजकल पके हुए गोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना ह्दयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।

कंचन : (मन में) वही बात है। किसी बच्चे से हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयों से फुसला देते हैं। भाई साहब ने भाभी से अपना प्रेम-रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणय से इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेम-मूर्ति का अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रकट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया । स्त्रियां सूक्ष्मदर्शी होती हैं

खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है।

कंचन : क्या काम है ?

खिदमतगार : यह सरकारी लिगागा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।

कंचन : (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छा, गांव वालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं मेरे रूपये वसूल हो गए। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रूपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ उनकी गांठ नहीं खुलती। औरों पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बात-की-बात में सब रूपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूं, उसके रंग-ढ़ंग देखूं, कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है ? अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहां से हटा दूं। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूं। (फिर खिदमतगार आता है।) क्या बार-बार आते हो ? क्या काम है? मेरे पास पेशगी देने के लिए रूपये नहीं हैं।

खिदमतगार : हुजूर, रूपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है।

कंचन : (मन में) मेरा तो दिल धक-धक कर रहा है, न जाने क्यों बुलाते हैं ! कहीं पूछ न बैठें, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो,

उठकर ठाकुर सबलसिंह के कमरे में जाते हैं।

सबल : तुमको एक विशेष कारण से तकलीफ दी है। इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहती, रात को नींद कम आती है और भोजन से भी अरूचि हो गई है।

कंचन : आपका भोजन आधा भी नहीं रहा।

सबल : हां, वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिए मेरा विचार हो रहा है कि तीन-चार महीनों के लिए मंसूरी चला जाऊँ।

कंचन : जलवायु के बदलने से कुछ लाभ तो अवश्य होगा।

सबल : तुम्हें रूपयों का प्रबंध करने में ज्यादा असुविधा तो न होगी ?

कंचन : उसपर तो केवल पांच हजार रूपये होंगे।चार हजार दो सौ पचास रूपये मूलचंद ने दिये हैं, पांच सौ रूपये श्रीराम ने, और ढाई सौ रूपये हलधर ने।

सबल : (चौंककर) क्या हलधर ने भी रूपये दे दिए ?

कंचन : हां, गांव वालों ने मदद की होगी।

सबल : तब तो वह छूटकर अपने घर पहुंच गया होगा?

कंचन : जी हां।

सबल : (कुछ देर तक सोचकर) मेरे सफर की तैयारी में कै दिन लगेंगे?

कंचन : क्या जाना बहुत जरूरी है ? क्यों न यहीं कुछ दिनों के लिए देहात चले जाइए। लिखने-पढ़ने का काम भी बंद कर दीजिए।

सबल : डारुक्टरों की सलाह पहाड़ों पर जाने की है। मैं कल किसी वक्त यहां से मंसूरी चला जाना चाहता हूँ।

कंचन : जैसी इच्छा।

सबल : मेरे साथ किसी नौकर-चाकर के जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलने के लिए आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलने से खर्च बहुत बढ़ जाएगी। नौकर, महरी, मिसराइन, सभी को जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं ।

कंचन : अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी।

सबल : (खीझकर) क्या संसार में अकेले कोई यात्रा नहीं करता ? अमरीका के करोड़पति तक एक हैंडबैग लेकर भारत की यात्रा पर चल खड़े होते हैं, मेरी कौन गिनती है। मैं उन रईसों में नहीं हूँ जिनके घर में चाहे भोजन का ठिकाना न हो, जायदाद बिकी जाती हो, पर जूता नौकर ही पहनाएगा, शौच के लिए लोटा लेकर नौकर ही जाएगा। यह रियासत नहीं हिमाकत है।

कंचनसिंह चले जाते हैं।

सबल : (मन में) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरी से चलने को कहूँ और कल प्रात: काल यहां से चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे संदेह हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी। ज्ञानी आसानी से न मानेगी । उसे देखकर दया आती है। किंतु आज ह्रदय को कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा।

अंचल का प्रवेश।

अचल : दादाजी, आप पहाड़ों पर जा रहे हैं, मैं भी साथ चलूंगा।

सबल : बेटा, मैं अकेले जा रहा हूँ, तुम्हें तकलीफ होगी।

अचल : इसीलिए तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि खूब तकलीफ हो, सब काम अपने हाथों करना पड़े, मोटा खाना मिले और कभी मिले, कभी न मिले। तकलीफ उठाने से आदमी की हिम्मत मजबूत हो जाती है, वह निर्भय हो जाता है। जरा-जरा-सी बातों से घबराता नहीं, मुझे जरूर ले चलिए।

सबल : मैं वहां एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहां, कभी वहां।

अचल : यह तो और भी अच्छा है। तरह-तरह की चीजें, नये-नये दृश्य देखने में आएंगी। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किए अनुभव नहीं होता, और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है । नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है ! मैं इस मौके को न जाने दूंगा।

सबल : बेटा, तुम कभी-कभी व्यर्थ में जिद करने लगते हो, मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँ, यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगी। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगी। रूपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगा, प्रात: काल हम दोनों यहां से चले जाएं। प्रेम-पाश में फंसकर देखा, नीति का, आत्मा का, धर्म का कितना बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं ।