दसवाँ दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : गुलाबी का घर।
समय : प्रात: काल।
गुलाबी : जो काम करन बैठती है उसी की हो रहती है। मैंने घर में झाडू लगाई, पूजा के बासन धोए, तोते को चारा खिलाया, गाय खोली, उसका गोबर उठाया, और यह महारानी अभी पांच सेर गेहूँ लिये जांत पर औंघ रही हैं। किसी काम में इसका जी नहीं लगता। न जाने किस घमंड में भूली रहती है। बाप के पास ऐसा कौन-सा दहेज था। कि किसी धनिक के घर जाती । कुछ नहीं, यह सब तुम्हारे सिर चढ़ाने का फल है। औरत को जहां मुंह लगाया कि उसका सिर गिराब फिर उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते। इस जात को तो कभी मुंह लगाए ही नहीं चाहे कोई बात भी न हो¼ पर उसका मान मरदन नित्य करता रहै।
भृगु : क्या करूं अम्मां, सब कुछ करके तो हार गया। कोई बातसुनती ही नहीं ज्योंही गरम पड़ता हूँ, रोने लगती है। बस दया आ जाती है।
गुलाबी : मैं रोती हूँ तब तो तेरा कलेजा पत्थर का हो जाता है, उसे रोते देखकर क्यों दया आ जाती है।
भृगु : अम्मां, तुम घर की मालकिन हो, तुम रोती हो तो हमारा दु: ख देखकर रोती हो, तुम्हें कौन कुछ कह सकता है ?
गुलाबी : तू ही अपने मन से समझ, मेरी उमिर अब नौकरी करने की
है। यह सब तेरे ही कारण न करना पड़ता है ? तीन महीने
हो गए, तूने घर के खरच के लिए एक पैसा भी न दिया । मैं न जाने किस-किस उपाय से काम चलाती हूँ।तू कमाता है तो क्या करता है ? जवान बेटे के होते मुझे छाती गाड़नी पड़े, तो दिनों को रोऊँ कि न रोऊँ। उस पर घर में कोई बात पूछने वाला नहीं पूछो महरानी से महीने-भर हो गए, कभी सिर में तेल डाला, कभी पैर दबाए। सीधे मुंह बात तो करतीं नहीं, भला सेवा क्या करेंगी। रोऊँ न तो क्या करूं ? मौत भी नहीं आ जाती कि इस जंजाल से छूट जाती। जाने कागद कहां खो गया।
भृगु : अम्मां ऐसी बातें न करो। तुम्हारे बिना यह गिरस्ती कौन
चलाएगा? तुम्हीं ने पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है। जब तक जीती हो इसी तरह पाले जाओ। फिर तो यह चक्की गले पड़ेगी ही।
गुलाबी : अब मेरा किया नहीं होता।
भृगु : तो मुझे परदेस जाने दो। यहां मेरा किया कुछ न होगी।
गुलाबी : आखिर मुनीबी में तुझे कुछ मिलता है कि नहीं वह सब कहां उड़ा देता है ?
भृगु : कसम ले लो जो इधर तीन महीने में कौड़ी से भेंट हुई हो,
जब से ओले पड़े हैं, ठाकुर साहब ने लेन-देन सब बंद कर दिया है।
गुलाबी : तेरी मारगत बाजार से सौदा-सुलफ आता है कि नहीं घर में जिस चीज का काम पड़ता है वह मैं तुझी से मंगवाने को कहती हूँ। पांच-छ: सौ का सौदा तो भीतर ही का आता होगी। तू उसमें कुछ काटपेच नहीं करता ?
भृगु : मुझे तो अम्मां, यह सब कुछ नहीं आता।
गुलाबी : चल, झूठे कहीं के मेरे सौदे में तो तू अपनी चाल चल ही जाता है, वहां न चलेगी। दस्तूरी पाता है, भाव में कसता है। तौल में कसता है। उस पर मुझसे उड़ने चला है। सुनती हूँ दलाली भी करते हो, यह सब कहां उड़ जाता है ?
भृगु : अम्मां, किसी ने तुमसे झूठमूठ कह दिया होगी। तुम्हारा सरल स्वभाव है, जिसने जो कुछ कह दिया वही मान जाती हो, तुम्हारे चरण छूकर कहता हूँ जो कभी दलाली की हो, सौदे-सुलुफ में दो-चार रूपये कभी मिल जाते हैं तो भंग-बूटी, पान-पत्ते का खर्च चलता है।
गुलाबी : जाकर चुड़ैल से कह दे पानी-वानी रखे, नहाऊँ नहीं तो ठाकुर के यहां कैसे जाऊँगी ? सारे दिन चक्की के नाम को रोया करेगी क्या ?
भृगु : अम्मां, तुम्हीं जाकर कहो, मेरा कहना न मानेगी।
गुलाबी : हां, तू क्यों कहेगा ! तुझे तो उसने भेड़ बना लिया है। ऊंगलियों पर नचाया करती है। न जाने कौन-सा जादू डाल दिया है कि तेरी मति ही हर गई। जा, ओढ़नी ओढ़ के बैठब
बहू के पास जाती है।
क्यों रे, सारे दिन चक्की के नाम को रोएगी या और भी कोई काम है ?
चम्पा : क्या चार हाथ-पैर कर लूं ? क्या यहां सोयी हूँ!
गुलाबी : चुप रह, डाकून कहीं की, बोलने को मरी जाती है। सेर-भर गेहूँ लिए बैठी है। कौन लड़के-बाले रो रहे हैं कि उनके तेल- उबटन में लगी रहती है। घड़ी रात रहे क्यों नहीं उठती? बांझिन, तेरा मुंह देखना पाप है।
चम्पा : इसमें भी किसी का बस है ? भगवान नहीं देते तो क्या अपने हाथों से गढ़ लूं ?
गुलाबी : फिर मुंह नहीं बंद करती चुड़ैल। जीभ कतरनी की तरह चला करती है। लजाती नहीं तेरे साथ की आई बहुरियां दो-दो लड़कों की मां हो गई हैं और तू अभी बांठ बनी है। न जाने कब तेरा पैरा इस घर से उठेगी। जा, नहाने को पानी रख दे, नहीं तो भले परांठे चखाऊँगी। एक दिन काम न करूं तो मुंह में मक्खी आने-जाने लगे। सहज में ही यह चरबौतियां नहीं उड़ती।
बहू : जैसी रोटियां तुम खिलाती हो ऐसी जहां छाती गाडूंगी वहीं मिल जाएंगी। यहां गद्दी-मसनद नहीं लगी है।
गुलाबी : (दांत पीसकर) जी चाहता है सट से तालू से जबान खींच लें। कुछ नहीं, मेरी यह सब सांसत भगुवा करा रहा है, नहीं तो तेरी मजाल थी कि मुझसे यों जबान चलाती । कलमुंहे को और घर न मिलता था। जो अपने सिर की बला यहां पटक गया। अब जो पाऊँ तो मुंह झौंस दूं।
चम्पा : अम्मांजी, मुझे जो चाहो कह लो, तुम्हारा दिया खाती हूँ, मारो या काटो, दादा को क्यों कोसती हो ? भाग बखानो कि बेटे के सिर पर मौर चढ़ गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। ऐसा हुस्न नहीं बरसता था। कि देख के लट्टू हो जाता।
गुलाबी : भगवान को डरती हूँ, नहीं तो कच्चा ही खा जाती। न जाने कब इस अभागिन बांझ से संग छूटेगी।
चली जाती है। भृगु आता है।
चम्पा : तुम मुझे मेरे घर क्यों नहीं पहुंचा देते, नहीं एक दिन कुछ खाकर सो रहूँगी तो पछताओगे। टुकुर-टुकुर देखा करते हो, पर मुंह नहीं खुलता कि अम्मां, वह भी तो आदमी है, पांच सेर गहूँ पीसना क्या दाल-भात का कौर है ?
भृगु : -तुम उसकी बातों का बुरा क्यों मानती हो, मुंह ही से न कहती है कि और कुछ। समझ लो कुतिया भूंक रही है। दुधार गाय की लात भी सही जाती है। आज नौकरी करना छोड़ दें तो सारी गृहस्थी का बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा कि और किसी के सिर ? धीरज धरे कुछ दिन पड़ी रहो, चार थान गहने हो जाएंगे, चार पैसे गांठ में हो जाएंगी। इतनी मोटी बात भी नहीं समझती हो, झूठ-मूठ उलझ जाती हो,
चम्पा : मुझसे तो ताने सुनकर चुप नहीं रहा जाता। शरीर में ज्वाला-सी उठने लगती है।
भृगु : उठने दिया करो, उससे किसी के जलने का डर नहीं है। बस उसकी बातों का जवाब न दिया करो। इस कान सुना और उस कान उड़ा दिया ।
चप्पा : सोनार कंठा कब देगा ?
भृगु : दो-तीन दिन में देने को कहा है। ऐसे सुंदर दाने बनाए हैं कि देखकर खुश हो जाओगी। यह देखो
चम्पा : क्या है ?
भृगु : न दिखाऊँगा, न।
चम्पा : मुट्ठी खोलो।यह गिन्नी कहां पाई ? मैं न दूंगी।
भृगु : पाने की न पूछो, एक असामी रूपये लौटाने आया था।खाते में दो रूपये सैकड़े का दर लिखा है, मैंने ढाई रूपये सैकड़े की दर से वसूल किया।
बाहर चला जाता है।
चम्पा : (मन में) बुढ़िया सीधी होती तो चैन-ही-चैन था।