नवाँ दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : मधुवन, हलधर का मकान, गांव के लोग जमा हैं।
समय : ज्येष्ठ की संध्या।
हलधर : (बाल बढ़े हुए, दुर्बल, मलिन मुख) फत्तू काका, तुमने मुझे नाहक छुड़ाया, वहीं क्यों न घुलने दिया । अगर मुझे मालूम होता कि घर की यह दशा है तो उधर से ही देश-विदेश की राह लेता, यहां अपना काला मुंह दिखाने न आता। मैं इस औरत को पतिव्रता समझता था।देवी समझकर उसकी पूजा करता था।पर यह नहीं जानता था। कि वह मेरे पीठ फेरते ही यों पुरखों के माथे पर कलंक लगाएगी। हाय!
सलोनी : बेटा, वह सचमुच देवी थी। ऐसी पतिबरता नारी मैंने नहीं देखी। तुम उस पर संदेह करके उस पर बड़ा अन्याय कर रहे हो, मैं रोज रात को उसके पास सोती थी। उसकी आंखें रात-की-रात खुली रहती थीं।करवटें बदला करती। मेरे बहुत कहने-सुनने पर भी कभी-कभी भोजन बनाती थी, पर दो-चार कौर भी न खाया जाता। मुंह जूठा करके उठ आती। रात-दिन तुम्हारी ही चर्चा, तुम्हारी ही बातें किया करती थी। शोक और दु: ख में जीवन से निराश होकर उसने चाहे प्राण दे दिए हों पर वह कुल को कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उस पर यह दोख लगाएं तो मुझे उन पर बिसवास न आएगी।
फत्तू : काकी, तुम तो उसके साथ सोती ही बैठती थीं, तुम जितना जानती हो उतना मैं कहां से जानूंगा, लेकिन इससे गांव में सत्तर बरस की उमिर गुजर गई, सैकड़ों बहुएं आई पर किसी में वह बात नहीं पाई जो इसमें है। न ताकना, न झांकना, सिर झुकाए अपनी राह जाना, अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।
हलधर : काका, किसी तरह मन को समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में फिर गई तो यह सोचकर क्यों न मन को धीरज दूं कि उसका नग कच्चा था।हाय, अब घर में पांव नहीं रखा जाता।ऐसा जान पड़ता है कि घर की जान निकल गई।
सलोनी : जाते-जाते घर को लीप गई है। देखो अनाज मटकों में रखकर इनका मुंह मिट्टी से बंद कर दिया है। यह घी की हांड़ी है। लबालब भरी हुई बेचारी ने संच कर रखा था।क्या कुल्टाएं गिरस्ती की ओर इतना ध्यान देती हैं ? एक तिनका भी तो इधर-उधर पड़ा नहीं दिखाई देता।
हलधर : (रोकर) काकी, मेरे लिए अब संसार सूना हो गया। वह गंगा की गोद में चली गई। अब फिर उसकी मोहिनी मूरत देखने को न मिलेगी। भगवान बड़ा निर्दयी है। इतनी जल्दी छीन लेना था। तो दिया ही क्यों था।
फत्तू : बेटा, अब तो जो कुछ होना था। वह हो चुका, अब सबर करो और अल्लाताला से दुआ करो कि उस देवी को निजात दे। रोने-धोने से क्या होगा ! वह तुम्हारे लिए थी ही नहीं उसे भगवान ने रानी बनने के लिए बनाया था।कोई ऐसी ही बात हो गई थी कि वह कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में आई थी। वह मियाद पूरी करके चली गई। यही समझकर सबर करो।
हलधर : काका, नहीं सबर होता। कलेजे में पीड़ा हो रही है। ऐसा जान पड़ता है, कोई उसे जबरदस्ती मुझसे छीन ले गया हो, हां, सचमुच वह मुझसे छीन ली गयी है, और यह अत्याचार किया है सबलसिंह और उनके भाई ने। न मैं हिरासत में जाता, न घर यों तबाह होता। उसका वध करने वाले, उसकी जान लेने वाले यही दोनों भाई हैं ? नहीं, इन दोनों भाइयों को क्यों बदनाम करूं, सारी विपत्ति इस कानून की लाई हुई है, जो गरीबों को धनी लोगों की मुट्ठी में कर देता है। फिर कानून को क्यों कहूँ। जैसा संसार वैसा व्यवहारब
फत्तू : बस, यही बात है, जैसा संसार वैसा व्यवहार। धनी लोगों
के हाथ में अख्तियार है। गरीबों को सताने के लिए जैसा
कानून चाहते हैं, बनाते हैं। बैठो, नाई बुलवाए देता हूँ, बाल बनवा लो।
हलधर : नहीं काका, अब इस घर में न बैठूंगा। किसके लिए घर-बार
के झमेले में पडूं। अपना पेट है, उसकी क्या चिंता ! इस अन्यायी संसार में रहने का जी नहीं चाहता। ढाई सौ रूपयो के पीछे मेरा सत्यानास हो गया। ऐसा परबस होकर जिया ही तो क्या ! चलता हूँ, कहीं साधु-वैरागी हो जाऊँगा, मांगता-खाता फिरूंगा।
हरदास : तुम तो साधु-बैरागी हो जाओगे, यह रूपये कौन भरेगा ?
फत्तू : रूपये-पैसे की कौन बात है, तुमको इससे क्या मतलब? यह
तो आपस का व्यवहार है, हमारी अटक पर तुम काम आए,
तुम्हारी अटक पर हम काम आएंगी। कोई लेन-देन थोड़ा ही किया है !
सलोनी : इसकी बिच्छू की भांति डंक मारने की आदत है।
हलधर : नहीं, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। फत्तू काका, मैं तुम्हारी नेकी को कभी नहीं भूल सकता। तुमने जो कुछ किया वह अपना बाप भी न करता। जब तक मेरे दम-में-दम है तुम्हारा और तुम्हारे खानदान का गुलाम बना रहूँगी। मेरा घर-द्वार, खेती-बारी, बैल-बधिये, जो कुछ है सब तुम्हारा है, और मैं तुम्हारा गुलाम हूँ। बस, अब मुझे बिदा करो, जीता रहूँगा तो फिर मिलूंगा, नहीं तो कौन किसका होता है। काकी, जाता हूँ, सब भाइयों को राम-राम !
फत्तू : (रास्ता रोककर गद्गद कंठ से) बेटा, इतना दिल छोटा न करो। कौन जाने, अल्लाताला बड़ा कारसाज है, कहीं बहू का पता लग ही जाये। इतने अधीर होने की कोई बात नहीं है।
हरदास : चार दिन में तो दूसरी सगाई हो जाएगी।
हलधर : भैया, दूसरी सगाई अब उस जनम में होगी। इस जनम में तो अब ठोकर खाना ही लिखा है। अगर भगवान को यह न मंजूर होता तो क्या मेरा बना-बनाया घर उजड़ जाता ?
फत्तू : मेरा तो दिल बार-बार कहता है कि दो-चार दिन में राजेश्वरी का पता जरूर लग जाएगी। कुछ खाना बनाओ, खाओ, सबेरे चलेंगे, फिर इधर-उधर टोह लगाएंगी।
हरदास : पहले जाके ताला। में अच्छी तरह असनान कर लो।चलूं, जानवर हार से आ गए होंगे।(सब चले जाते हैं।)
हलधर : यह घर गाड़े खाता है, इसमें तो बैठा भी नहीं जाता । इस वक्त काम करके आता था। तो उसकी मोहनी सूरत देखकर चित्त कैसा खिल जाता था।कंचन, तूने मेरा सुख हर लिया, तूने मेरे घर में आग जल दी। ओहो, वह कौन उजली साड़ी पहने उस घर में खड़ी है। वही है, छिपी हुई थी। खड़ी है, आती नहीं (उस घर के द्वार पर जाकर) राम ! राम ! कितना भरम हुआ, सन की गांठ रखी हुई है अब उसके दर्शन फिर नसीब न होंगे।जीवन में अब कुछ नहीं रहा। हा, पापी, निर्दयी ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया, मुट्ठी भर रूपयों के पीछे ! इस अन्याय का मजा तुझे चखाऊँगा। तू भी क्या समझेगा कि गरीबों का गला काटना कैसा होता है
लाठी लेकर घर से निकल जाता है।