पहला दृश्य / एक साम्यहीन साम्यवादी / भुवनेश्वर

Gadya Kosh से
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पात्र

सुंदर: मजदूर

पार्वती: सुंदर की बहू

गोविंद: सुंदर का साथी, मजदूर

मिस्टर मिश्रा: मजदूर नेता

मिस्टर कपूर: मिस्टर मिश्रा के सहयोगी

मनोहरस्वरूप अग्रवाल: मिल मालिक

वृद्ध मजदूर

घर का नौकर

(कानपुर के पार्श्वु भाग में लज्जा से मुँह छिपाए कुलियों के निवास स्थान। नगर का विद्युत प्रकाश यहाँ तक न पहुँच सका; पर सभ्यता का प्रकाश पहुँच गया है। साँझ की धुँधलाहट में तेल और मिलों की कालौंच की सहायता से बाल सँवारे लंबे-लंबे कॉलरों की कमीजें पहने स्वयं अपने फरिश्तों के समान मिल के मजदूर हँसी-ठिठोली कर रहे हैं।

उसी ज्वलन्त नगर के प्रेत के समान एक भाग में एक छोटी-सी दो द्वारों की एक कोठरी, जिसमें सामान के नाम एक टूटा काठ का बक्स, एक टूटी और एक अर्द्ध टूटी चारपाई। कुछ धुएँ के रंग की हाँड़ियाँ, मनुष्य के नाम एक स्वयं अपने से ईर्ष्याअलु हाड़-चाम का मजदूर। प्रकाश के नाम की एक बीस-बाईस वर्ष की युवती, मलिन वस्त्रों में इस प्रकार दीखती है जैसे, आँसुओं की निहारिका में नेत्र)

मजदूर: तुझे मेरी क्या पड़ी पार्वती, तेरे पैरों पर न जाने कितने सिर रगड़ते हैं। कोई भी तुझे पटरानी बनाने को तैयार है।

पार्वती: (अधउठाई हाँड़ी को छोड़ कर) तुम्हें हर घड़ी यही सवार रहती है!

मजदूर: मेरी तो जान मुसीबत में है!

पार्वती: क्या मुसीबत है?

मजदूर: (उत्तेजित हो कर) यही सब छोटे-बड़े, आजा-अदना तेरे पीछे पड़े रहते हैं।

पार्वती: (रोष में) तो मैं यह कब चाहती हूँ?

मजदूर: तो क्या अब लड़ेगी, मैं कब कहता हूँ, तू चाहती है?

हरामखोर!

(उठ कर जाना चाहता है; पर सहसा एक दूसरा मांस और वैमनस्य से बना मजदूर आता है, उसकी दृष्टि में संभावना की मात्रा अधिक और विश्वास की बड़ी कमी प्रतीत होती है। वह आते ही पार्वती की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखना चाहता है; पर विचित्र भाव उसकी आकृति पर अंकित हो जाते हैं, जो उसके पति को देख कर और भी विकृत हो उठते हैं।)

नया मजदूर: सुंदर, तेरे तो मिजाज आसमानी घोड़े पर सवार रहते हैं, जमादार का मुँहलगा हो रहा है न!

सुंदर: मैं ताड़ी पीने न जाऊँगा, तुमसे कहे देता हूँ।

नया मजदूर: अमें ताड़ी की ऐसी-तैसी, बात भी करोगे कि ऐसे ही रस्सी तुड़ाओगे!

(सुंदर भेदपूर्ण दृष्टि से पार्वती की ओर देखता है। दो क्षण गंभीर नीरवता रहती है)

नया मजदूर: सुना, साहब छुट्टी ले कर जा रहा है।

सुंदर: हूँ।

नया मजदूर: अगर पुराना साहब आ जाए, तो अपने मजे हो जाएँ।

सुंदर: हाँ, तब तो मुझे वह फोरमैन बना ही देगा, क्यों रे गोविंद!

गोविंद: (झेंप कर) न बना देगा तो क्या, इस तरह रोज जरीमाना तो न देना होगा। अब की इस महीने में पाँच रुपये कट गए, चार मिले, दो भैरों को दे दिए, अब दो रुपये से कैसे काम चलेगा, बतलाओ?

सुंदर: मुझसे क्या पूछते हो, मैं आज ही तीन रुपये उस हलवाई से उधार लाया हूँ-आज खाने को साग भी नहीं था।

गोविंद: आखिर इसका होगा क्या?

सुंदर: अबे, सब किस्मत के खेल हैं! हमारी तकदीर खोटी है, तो किसी को क्या दोष देना। अभी देखो, गंगा के लड़के ही को देखो, गंगा ने किस मुसीबत से उसे पढ़ाया, अभी कल तक यहाँ उसका बाप मेरे साथ ताड़ी पिया करता था; पर आज वह बड़ा आदमी है।

गोविंद: यह तो सब कुछ है, क्या हम आदमी नहीं हैं? हमारे भी तो हाथ-पाँव हैं। हमारे भी तो बीबी-बच्चे हैं, हम भी तो आराम से रहना चाहते हैं, हम भी तो बीमार-ऊमार होते हैं। ईश्वर ने सबको खाने को तो दिया है, यह क्या है कि रईस हजारों रुपया नाच-मुजरे, मेले-तमाशे में उड़ा दें, दस रुपये के पान खा कर थूक दें, और हम पेट भर खाने को भी न पावें। हमें भी तो अपने बच्चे इतने प्यारे हैं, जितने उन्हें। उनके लड़के अलल्ले-तलल्ले करें, घी-दूध में नहाएँ और हमारे बच्चे पेट भर खाना भी न पा सकें, लज्जा छिपाने के लिए कपड़े भी न मिले!

सुंदर: बस-बस, क्या कांग्रेसी बन गया है?

गोविंद: कांग्रेसी का क्या, तुम क्या यह नहीं जानते हो? जब तुम्हारा लड़का मरा, कौन-से वैद-हकीम आए थे, कौन-सी तुमने उसकी दवा-दारू, करवाई थी, बेचारा सिसक-सिसक कर मर गया और उस दिन बड़े बाबू की लड़की को ही देखो, मामूली जूड़ी थी, डॉक्टरों से घर भर दिया। क्या तम लड़का कहीं से उठा लाए थे, कि तुम्हारी आत्मा नहीं कलपती?

(सुंदर एक दीर्घ नि:श्वास लेता है और पार्वती की ओर यह कल्पना करके देखता है कि वह रो रही है।)

पार्वती: तुम लोगों को कुछ धंधा नहीं है? बेकार की बातें किया करते हो!

गोविंद: इसे ठलुआव समझती है, जरा अपने दिल पर हाथ रख!

पार्वती: तो क्या करूँ, सिर टकरा दूँ? मरते हुए की टाँग कौन पकड़ लेता है।

गोविंद: (उत्साहित हो कर) यह बात नहीं, सुंदर की बहू, मजूरी करते-करते तो हम मरे जाते हैं...!

सुंदर: (हँस कर) भालू तो हो रहे हो!

गोविंद: (कुछ झेंप कर) तीन मन का क्या, सोलह बरस में अपने से दुगुने को कुछ नहीं समझता था। चार मन की गाय अकेले यूँ उठा ली थी, साहब कहने लगा- 'वेल, टुम मर जाटा, टो हम क्या करटा' ससुरे ने दो रुपया फैन किया।

सुंदर: हाँ, तो फिर।

गोविंद: तुम्हें ठिठोली सूझ रही है, यहाँ रोआँ-रोआँ जल रहा है। न-जाने तुम कैसे बिसासघाती आदमी हो!

सुंदर: (गंभीर हो कर) तो मैं क्या करूँ? साहब कुछ सौ-सौ रुपये तो दे ही न देगा। और वह क्यों दे, जब हमारे ही भाई आठ और सात में जाने को तैयार हैं। मुझे भी नौ ही मिलते हैं, राजी मत जानो लाला गोविंद...।

गोविंद: सौ तुम माँगते होगे, मैं तो खाने भर को माँगता हूँ।

पार्वती: क्यों माँगते हो, तुम्हारा कुछ इजारा है, भागो यहाँ से, धूरी साझ किल-किल मचा रखी है!

गोविंद: तू और बटलोई की तरह उबल रही है!

पार्वती: उबलूँ न तो क्या, बातें करने के सिवा कुछ और होता है? क्यों नहीं खेती करते, क्यों नहीं हल जोतते? लाट साहबी कैसे करो, ताड़-दारू कैसे पियो, मूलगंज कैसे जाओ। चल दिए बड़ी-बड़ी बातें करने!

गोविंद: देख सुंदर की बहू! तू इन बातों को क्या समझे, खेती में क्या धरा है, छाती फाड़ कर धरती से अन्न पैदा करो; पर खाने तक को तो मिलता नहीं। परसाल चाचा के चार बीघे गेहूँ हुए; पर अबकी बीज तक उधार लिया! कितना लगान पड़ता है और फिर उन पर नजराना, मिटौनी और महाजन...

सुंदर: सच कहना गोविंद, कितनी पी है?

गोविंद: (रोष में) लो मैं जाता हूँ! समझे न बूझे, कठौती तरे जूझे।

सुंदर: (कृत्रिम रोष के साथ) जा, तू बड़ा लायक है!

पार्वती: सुने जाइए! हम सब आपका कहा मानेंगे, ओ लपटन साहब!

(पाँच मिनट की नीरवता के पश्चात् बाहर से कोई भर्राई हुई आवाज में पुकारता है-)

'सुंदर ओ बे सुंदर!'

सुंदर: हाँ, गुरू, निकल आओ!

(चेहरे से 40 का; पर शरीर से 60 वर्ष के एक बूढ़े का प्रवेश। देखने से पहली विशेषता उसमें यह जान पड़ती है कि बीती हुई को पूर्णतया भुला देने में वह दक्ष है और भविष्य की चिंता उसे कभी चिन्तित नहीं करती)

वृद्ध: अबे, दिन भर घर ही में पड़ा रहता है? जोरू का...

(पार्वती को देख कर चुप हो जाता है)

पार्वती: निकल मेरे घर से खूसट!

सुंदर: अभी गोविंद इधर से गया है!

वृद्ध: कौन गोविंद, मेरा गोविंद? वह तो लीडर हो रहा है, आज तीन दिन से उन वकील साहब की बड़ी बातें सुनता है और रात-दिन वाही-तबाहियों की तरह बकता रहता है।

सुंदर: कौन वकील साहब? वही जो परेड पर रहते हैं, लड़कौधे से?

वृद्ध: वही चिबिल्ला, न जाने क्या कहता है। कहता है-हम सब बराबर हैं, भाई-भाई हैं, यह सब इनकी चालें हैं, भइया हमने जमाना देखा है। भाई-भाई हैं, तो ब्याह दें अपनी बहन मेरे लड़के के साथ।

पार्वती: अपने साथ क्यों नहीं कहता बुड्ढे?

वृद्ध: कहते हैं एका करो, एक करो, एका क्या खाक करें! तुम तो एका कर लो-तुम ऐसी बातें करो और तुम्हारे भाई खून चूसने को तैयार!

पार्वती: तुमने अच्छी जान चाटी है-बढ़ाओ अपनी सवारी यहाँ से, उठो!

सुंदर: क्या है री!

वृद्ध: है क्या, पागल है, सिर फिर गया है (धीरे से, सुंदर को जैसे संसार का भेद बता रहा हो) वकील साहब की ताक-झाँक है!

सुंदर: हूँ!

वृद्ध: चलो घूम आएँ।

पार्वती: हाँ-हाँ जाओ, आग लगे इस ताड़ी में!

सुंदर: (आग्नेय नेत्रों से) बहुत जी न जला, ताड़ी की नानी!