दूसरा दृश्य / एक साम्यहीन साम्यवादी / भुवनेश्वर
(दिन वही , समय आठ बजे रात्रि)
(परेड पर कॉमरेड उमानाथ मिश्र का भव्य; पर साधारणतया सज्जित बँगला। उसके सिंहद्वार पर एक स्वस्तिक चिन्ह बना है, जो एक बीते हुए स्वप्न की भाँति पूर्वजों के धार्मिक विश्वास का द्योतक है। भीतरी प्रवेश द्वार पर 'हँसिया और हथौड़ी' का खूनी चिन्ह अंकित है; पर वर्तमान दशा में यह कुछ गोचर नहीं होता। एक कमरे में घर के मिश्र जी बाहर के कॉमरेड मिश्रा रिपोर्टों, ड्राफ्टों और अखबारों में फँसे बैठे हैं। मिस्टर मिश्रा की आयु 30 वर्ष के दाहिनी ओर। राजनीतिक विचार सहिष्णुता के बार्इं ओर। खद्दर के कायल नहीं; कांग्रेस को 'महात्मा गाँधी एंड को. लिमिटेड' माननेवाले। रुपये से जहाँ तक उसे कमाने का प्रश्न है निर्लिप्त। नाम और काम दोनों के लोलुप)
मिस्टर मिश्रा: (धीमे स्वर में) मिस्टर कपूर!
(एक गोरे, गंभीर चुस्त और चालाक आँखों में अविश्वास की आभा लिये एक अधेड़ मनुष्य का प्रवेश)
मिस्टर मिश्रा: (एक क्षण उनकी ओर देख कर) देखिए, उस मेनिफेस्टो को टाइप होते ही मिस्टर रंगनाथन के पास कवर एड्रेस से भेज दीजिए और देखिए, कुली-बाजार में बड़ी-बड़ी दुकानों पर जा कर उन कुलियों के नाम नोट कर लीजिए, जिन पर पाँच या पाँच रुपए से ज्यादा कर्जा है। समझे आप, फिर बाद को...
मिस्टर कपूर: (कुछ चिढ़ कर) जी हाँ आज शाम को चला जाऊँगा।
मिस्टरर मिश्रा: और सारे जरूरी और ऐसे-वैसे कागजात मेज पर ही रखिएगा, छिपा कर नहीं, शायद आज तलाशी आवे। रिपोर्ट सब गैरेज की अलमारी में डाल दीजिए।
(सहसा कार्ल मार्क्सस के आशीर्वाद के स्व र में उनके तैलचित्र के नीचे की घंटी बजती है। मिस्ट र कपूर और उनके मालिक दोनों चौंक उठते हैं और बाहर की ओर देखते हैं। दो क्षण में ब्येररा आ कर एक कार्ड देता है। मिस्टर मिश्रा उसे दूर से ही देख कर सन्तोैष की एक श्वाेस लेते हैं, पर अपने आन्तडरिक भाव को भरसक छिपा कर आगन्तुदक को लिवा लाने को इंगित करते हैं)
मिस्टर कपूर: जुगलकिशोर मिल का बखेड़ा तै हो गया?
मिस्टरर मिश्रा: तै कैसे हो? पूँजीपतियों के तो दाँत तले हराम दब गया है! रुपए की बहुतायत होने से उसकी असली कीमत उन्हेंक कैसे मालूम हो। 18 घंटे 16 साल के बच्चे से काम लेते हैं। मेरे पीछे गुंडे लगवा दिए हैं, सेठ हैं, रायबहादुर हैं, धर्म के ठेकेदार हैं, फैसला कैसे हो?
(अंतिम वाक्य के समाप्त होते ही सफेद सूट और सफेद हैट लगाए, व्यवसाय की बुद्धिमत्ता और जटिल आकृति के मि. मनोहरस्वरूप अग्रवाल का प्रवेश। मि. मश्रा बड़े रुखे मन से उनका स्वागत करते हैं और उससे अधिक रूखे भाव से मि० कपूर से कहते हैं)
मिस्टर मिश्रा: तो फिर आप जाइए। शाम को वहाँ जाना न भूलिएगा।
मि. अग्रवाल: (मि. कपूर की ओर देख कर) मि. मिश्रा क्या अपने ऑफिस में हैं?
मिस्टर मिश्रा: (स्तंभित हो कर) क्या है जनाब, कहिए? मैंने आपको नहीं पहचाना। मिस्टर मिश्रा तो मैं ही हूँ, शायद...
मि. अग्रवाल: (अविचलित भाव से) मुझे अत्यंत खेद है, मैंने आपकी कुछ और ही कल्पना कर रखी थी।
मिस्टर मिश्रा: (अप्रतिभ हो कर) मुझे खेद है।
मि. अग्रवाल: खैर, मैं जुगुलकिशोर मिल्स का प्रमुख पार्टनर हूँ, मेरा धर्म है-रुपया, मेरा ध्येय है-संसार में अपने को निरापद और सुखी बनाना।
मिस्टर मिश्रा: मुझे बड़ा खेद है, मेरे जीवन में भावुकता का तनिक भी स्थान नहीं है।
मि. अग्रवाल: सच! पर साम्यवाद तो एक वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक भावुकता ही है।
मिस्टर मिश्रा: आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि जो कुछ भी आप कह रहे हैं, उसका अर्थ आप तनिक भी नहीं समझते।
मि. अग्रवाल: (जैसे भविष्यवाणी कर रहे हों) ठीक है। आप बड़े चतुर हैं। आपने मेरे जीवन का एक भेद जान लिया; पर क्या आप समझते हैं; रुपया कमाने के लिए उसके अर्थ समझने की भी आवश्यकता है?
मिस्टर मिश्रा: (घबरा कर) मिस्टर...
मि. अग्रवाल: (कृत्रिमता से) मनोहरस्वरूप अग्रवाल करोड़पती!...
मिस्टर मिश्रा: मैं आपसे मतलब की बात करना चाहता हूँ।
मि. अग्रवाल: मैं राई को राई कहता हूँ और पर्वत को पर्वत। मेरे-आपके मध्य कोई मतलब की बात अस्वाभाविक है, मैं एक करोड़पती हूँ, आप एक कवि हैं।
मिस्टर मिश्रा: (चकित हो कर) मैं कवि!
मि. अग्रवाल: हाँ कवि। एक साम्यवादी या तो एक पर्वत को राई में देखने वाला कवि है, या मुँहचढ़ा बालक!
मिस्टर मिश्रा: (व्यस्त होने की चेष्टा करके) मि. अग्रवाल, मुझे आजकल समयाकाल है...
मि. अग्रवाल: अहा, अकाल! आप एक ट्रेड यूनियन बनाइए!
मिस्टर मिश्रा: मि. अग्रवाल, आप तो विचित्र पुरुष हैं! क्या आप यहाँ मेरा उपहास करने आए हैं? मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तनिक भी अप्रतिभ न हूँगा। आप कटु-से-कटु बातें कह सकते हैं। मेरे सिद्धांत मेरे जीवन के अंग हैं; नहीं, नहीं, वे एक आवश्यक अवयव हैं... मैंने शब्दों के माध्यम में विचार नहीं किया है, मैंने एक समस्या को दूसरी समस्या से हल नहीं किया है।
मि. अग्रवाल: (व्यंग्य स्वर से) हाँ, यह ओजस्विनी कविता है!
मिस्टर मिश्रा: मि. अग्रवाल!
मि. अग्रवाल: अच्छा-अच्छा, आप कहिए।
मिस्टर मिश्रा: (दो क्षण रुक कर) मैं समाज का संगठन केवल एक शुद्ध आर्थिक रीति से चाहता हूँ।
मिस्टर कपूर: (जोश में) 'संसार के श्रमजीवियों' एक हो जाओ!'
मि. अग्रवाल: (उसी जोश से) संसार के जुआरियों, एक हो जाओ! संसार के शराबियों, एक हो जाओ! संसार के सूदखोरों, एक हो जाओ!
मिस्टर मिश्रा: होपलेस (बेकार)।
मि. अग्रवाल: मि० मिश्रा ऐसी कोई बात नहीं है, हम लोग केवल आपका वाक्य पूरा कर रहे थे।
मिस्टर मिश्रा: (उत्तेजित हो कर) क्या आप समझते हें कि चोर आर्थक दृष्टि से एक विलग वर्ग हैं।
मि. अग्रवाल: अवश्य चोर तो एक आर्थिक जीव हैं। जीव-शक्ति को निरंतर विकसित हो कर लोकोत्तर होना है और इसलिए मनुष्य के बराबर नहीं है।
मिस्टर मिश्रा: खैर, अगर यह भी मान लें...
मि. अग्रवाल: अहा! यह कविता है-अगर हम यह कल्पना कर लें!
मिस्टर मिश्रा: (कठोर स्वर में) मुझे मालूम हो गया, मैं आपकी मिल में हड़ताल करवा रहा हूँ, आप इसके लिए मुझे...
मि. अग्रवाल: नहीं-नहीं मि. मिश्रा, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम लोग मिल कल बंद कर सकते हैं और बड़े-बड़े जुएखाने या शराबखाने खोल सकते हैं और तब फिर यह (मि. कपूर की ओर इंगित करके) चिल्लाएँगे, संसार के जुआरियों, एक हो जाओ!
मिस्टर मिश्रा: (बरबस) आप पागल हैं।
मि. अग्रवाल: इस छत के नीचे सभी पागल हैं।
मिस्टर मिश्रा: (हताश हो कर) आप मुझसे क्या चाहते हैं?
मि. अग्रवाल: (औपन्यासिक ढंग से) तो आप क्या चाहते हैं?
मिस्टर मिश्रा: (अत्यधिक उत्तेजना से) पूँजीपतियों का नाश! संसार को यह बतलाना कि एक श्रमजीवी की असली मजूरी उसकी मेहनत का फल है। कोई टैक्स नहीं, कोई लगान नहीं, कोई टिकट नहीं!
मि. अग्रवाल: (गंभीर स्वर में) सुनता हूँ, ऐसी कविता अमेरिका के किसी कवि ने की है, भला-सा नाम है-वाल्ट...
मिस्टर मिश्रा: (लाल-लाल हो कर) आप यहाँ से निकल जाइए!