पहली फिल्म / अशोक कुमार शुक्ला
( यार तारे नहीं दिखाई दे रहे हैं?)
मेरे शहर में आज की सुबह कोहरे में लिपटी है। इस धुंध से पटी सुबह को देखकर मुझे बचपन में देखी उस "धुंध" की याद हो आयी जो पंद्रह बीस दिन तक मेरे दिलोदिमाग पर कुछ इस तरह छाई रही थी कि सोते-जागते, उठते-बैठते, खेलते-कूदते बस वही दिखाई देती थी। दरअसल ये इक्यासी के दौर के शुरुआती वर्ष की बात है जब मैंने " धुंध" फिल्म को देखा था....इसे देखना भी एक संयोग था ... मेरे पिता राजकीय स्थानान्तरण पर नए नए पिथौरागढ़ आये थे और हम बच्चों ने नए नए स्कूल पाए थे.... नए सहपाठी थे.. परन्तु ऐसा कोई नहीं जिसे दोस्त कहा जा सके....ऐसे में एक सहपाठी ने बताया कि यहाँ पिथौरागढ़ में एक सिनेमाहाल है जिसमें दिन में तारे दिखलाई देते हैं ...मेरे बालमन में भरी दोपहरी में तारे देखने का मोह जाग्रत हुआ तो इंटरवेल से क्लास बंक करने का कार्यक्रम बनाया गया.... मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे पास पांच रूपये थे और दो रूपये पच्चीस पैसे के हिसाब से सिनेमा के दो टिकट लेने के बाद भी अठन्नी बची थी जिससे इंटरवेल में दो समोसे खाने का पूरा इंतजाम था... जी हाँ! उस जमाने में समोसा चार आने का ही आता था.... खैर दोनों लोग स्कूली बस्ते सहित हाल में पहुचे तो पाया कि हाल में हमारे जैसे स्कूली बस्ताधारी कई और बालक भी थे....मन में संतोष हुआ कि हम अकेले नहीं थे...मैंने सीट पर बैठने के साथ ही हाल की छत की ओर देखा और वहां कोई सितारा नजर नहीं आया तो साथ आये मित्र से पूछा... " यार तारे नहीं दिखाई दे रहे हैं?" साथी ने शंका समाधान किया- "जब हाल में अन्धेरा होगा और फिल्म शुरू होगी तब दिखेंगे.." मैंने मन ही मन सोचा कि तब फिल्म देखेंगे या तारे? हाल में अन्धेरा होने से पहले ही फिल्म शुरू हो गयी ... एक मर्डर मिस्ट्री थी ... ज्यों ज्यों फिल्म आगे बढ़ी मैं उन पात्रो के बीच पहुचता गया ....किसी से सहानुभूति ...किसी से द्वेष और किसी पर क्रोधित होता रहा... मुझे याद नहीं पडता कि हाल की छत में जगमगाते सितारे देख पाया की नहीं परन्तु यह सच है कि पूरी फिल्म देखने के तीन घंटे के बाद जब हाल से बाहर निकला तो मैं वह बालक नही था जो क्लास बंक करके फिल्म देखने आया था.. मैं बदला हुआ अशोक था....वो अशोक जो "धुंध" के पात्रो के बीच पहुच गया था .....फिल्म नायिका के प्रति न जाने कितनी सहानुभूति... और कुछ पात्रो के प्रति अथाह क्रोध ..भर गया था मन में ....घर पहुच कर एक एक द्रश्य का मनन करता रहा ...खाकर लेटा तो फिर वही द्रश्य..आँखों में तैरने लगे....यह खुमारी लगभग पंद्रह दिन रही...और वह "धुंध" एक पखवारे तक छाई रही। ...आज सोचता हूँ कि नयी पीढ़ी के लिए इस तरह की धुंध का छाना शायद यह एक कौतुहल जैसा ही होगा.. कल मैंने छात्र जीवन में देखी उस पहली फिल्म "धुंध" का जिक्र किया था जो मेरे दिलो दिमाग पर एक पखवारे से भी ज्यादा समय तक नशा बनकर छाई रही थी ....हालांकि लम्बे अरसे तक अपना प्रभाव छोड़ने वाली यह फिल्म मेरे द्वारा अपने जीवन में देखी हुयी पहली फिल्म नहीं थी.... अपने जीवन में जो पहली फिल्म मैंने देखी थी उसका नाम था " फ़ाइव रायफल्स"..... ठीक से याद नहीं पड़ता.....शायद उन दिनों मैं छठी या सातवीं दर्जे में पढता था....डी0ऐ0वी0 इंटर कालेज पौडी में....विद्यालय प्रबंधन की ओर से हमारी कक्षा को यह फिल्म दिखाने की व्यवस्था की गयी थी...पूरी क्लास पैदल मार्च करते हुई कंडोलिया की ओर बने उस "फट्टा टाकीज" (नाम याद नहीं आ रहा) तक गयी थी....वह फिल्म देखना कौतुहल जैसा था.....मेरे मन में राष्ट्र भक्ति जैसी कोई समझ तब तक विकसित नहीं हुई थी.....बस फिल्म में एक बन्दर के करतब देखकर आनन्दित होता रहा..... एक दो दोस्त थे.....गगन शर्मा, आशुतोष और विवेक.....जिनसे जुड़े किस्से फिर कभी...आज तो बस आभार कमल गोयल साहेब का Kamal Goyal जिन्होंने मेरी कल की पोस्ट पर फिल्म "धुंध" के डैनी के किरदार का व्हील चेअर पर बैठे बैठे जीनत की और प्लेट उछालने वाले द्रश्य की याद दिलाई....दरअसल उस फिल्म में डैनी का यह किरदार मेरे इतने अन्दर तक घुस गया था कि जब मैं दाढ़ी मूंछ वाला हुआ तो अपना प्रारंभिक लुक मैंने उस फिल्म में डैनी के जैसा ही जैसा यानी फ्रंच कट ही रखा था..... वो तो धीरे धीरे आलस ने अपना रंग दिखाया और हम क्लीन शेव के रास्ते से निकलते निकलते ऐसे हो गए.....