पानी की सतह पर जमी सच्चाई की काई / संतोष श्रीवास्तव

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विधवा समस्या पर यूं तो कई फ़िल्में बनी हैं और बनती रहेंगी, लेकिन अभी हाल ही में प्रदर्शित फ़िल्म श्वेत, वॉटर, डोर और तालिबान शासन के बाद अफगानिस्तान में बनी प्रथम फ़िल्म ओसामा ने सभी का ध्यान आकृष्ट कर मन को विचलित किया है। फ़िल्म श्वेत में अलग-अलग परिवारों, परिस्थितियों से जूझती वृंदावन की असरण में आई विधवाएँ आरंभ में तो शोषण का शिकार होती हैं लेकिन बाद में मिल जुलकर एक क्लीनिक खोलकर सेवा कि ज़िन्दगी जीने का प्रयास करती हैं। यह ताकत हर विधवा में होना चाहिए तभी वह शोषण से मुक्ति पा सकेंगी। वॉटर फ़िल्म की शूटिंग वाराणसी में दीपा मेहता को नहीं करने दी गई। कुछ निजी स्वार्थों के तहत वहाँ के हिन्दूवादी विचारधारा के लोगों को यह गवारा न था कि विधवा आश्रम की सच्चाई की पोल वॉटर के जरिए दुनिया के सामने रखी जाए। लेकिन दीपा मेहता हारी नहीं, उसने श्रीलंका में वाराणसी हुबहू उतार दिया और तमाम समाज सुधारकों के मानस पर वॉटर की खौलती, उफनती धारा बहा दी। फ़िल्म में 1938 का समय दिखाया है जब भारत में अंग्रेज़ी राज्य था। औरत न समाज में आजाद थी, न घर में, न वह मौजूदा सदी के ग्लैमरस और सफलतम सोपानों पर चढ़कर हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा पाई थी पर इससे क्या? होना तो यह था कि इक्कीसवीं सदी में एक भी विधवश्रम ठूंढ़े न मिलता पर कड़वी सच्चाई यह है कि आज भी विधवाश्रम है और वहाँ की तंग कोठरियों में ठूंस-ठूंस कर भरी विधवाएँ हैं जिन्हें पति की मृत्यु के बाद घर से बेघर कर दुत्कार दिया गया है। दीपा मेहता ने इन्हें कोठरियों के दरवाजे खटखटाए और एक सुलगती सच्चाई का फ़िल्मांकन कर हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम विकास के किस शिखर पर हैं।

अपने नन्हें-नन्हें पैरों में पायल पहने बैलगाड़ी पर बैठी गन्ना चूसती नौ वर्षीया बालिका जिसे न शादी का अर्थ मालूम है न पत्नी का। अभी-अभी ब्याही है लेकिन घर पहुँचते ही उसका बाप आकर कहता है-बेटी, जिससे तुम्हारी शादी हुई थी अब वह नहीं लौटेगा, वह मर गया। फिर एक औरत आकर उसकी चूड़ियाँ तोड़ देती है, सुहाग के चिह्न मिटा डालती है और बालिका विधवा आश्रम भेज दी जाती है। विधवा आश्रम छोड़ने आए बाप से वहाँ के उदास गमगीन, बेरंग माहौल से घबराकर बालिका कहती है-घर चलो।

लेकिन बाप का दिल नहीं पसीजता। वह सर्द आवाज में कहता है-बेटी अब यही तुम्हारा घर है।

यही? लेकिन यहाँ अम्मा कहाँ हैं?

निरुत्तर हो, बाप चला जाता है। औरत की यह कैसी विडम्बना है कि पति के बिना न मायका उसका न ससुराल। औरत मर्द की अर्धांगिनी होती है। जब पति मर जाता है तो औरत भी आधी मर जाती है। विधवा को दर्द कैसा? नन्हीं बालिका से लेकर, षोडशी विधवा, प्रौढ़ विधवा और वयोवृद्ध विधवा से भरे इस आश्रम की सच्चाई ये है कि ये सभी विधवाएँ अमीरों, सामंतों की विलासी सेज तक एक हिजड़े के द्वारा पहुँचाई जाती रही हैं। घुटा हुआ सिर, बिना ब्लाउज के सफेद धोती का परिधान, शरीर पर एक भी जेवर नहीं, मिठाई, पूड़ी, कचौरी को तरसती इन औरतों को थाली में परोसा गया उबला भोजन और मनोरंजन के नाम पर पंडितों, महंतों, मठाधीशों के उपदेश-कि विधवाओं के लिए तीन मार्ग है। पहला तो पति की चिता में भस्म हो जाना, दूसरा मोहमाया को त्यागकर संन्यासिनी का जीवन जीते हुए खुद को प्रभुसेवा में अर्पित कर देना (देवदासियों का नारकीय जीवन शायद यहीं से शुरू होता है) और तीसरी यदि परिवार की आज्ञा हो तो मृत पति के छोटे भाई या विधुर बड़े भाई से विवाह कर लेना। ऐसे परिवेश में खपती षोडशी कन्या जब अपने प्रेमी से विवाह का फैसला करती है तो खुद आश्रम की औरतें ही उसके खिलाफ हो जाती हैं। आश्रम की मुखिया उसे कोठरी में बंद कर ताला जड़ देती है लेकिन विद्रोह की आग में सुलगती एक दूसरी विधवा मुखिया से चाबी छीन षोडशी को भाग जाने का परामर्श देती है। वह आंगन में खड़ी तमाम विधवाओं के बीच से रास्ता बनाती निकल जाती है। लीक को नकारते हुए, तमाम अंतर और बाह्य विरोधों के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम या पहल या ताकत या फिर हौसला जो हर विधवा में होना चाहिए लेकिन जब उसे पता चलता है कि वह उसके प्रेमी के सामंती पिता कि हवस का शिकार हो चुकी है तो आहत टूटी वह गंगा कि गोद में समा जाती है। उसकी जलती चिता के पास डबडबायी आंखें लिए उसके प्रेमी का खड़ा होना उस सामंती समाज पर प्रहार है जो स्वयं तो औरत को भोगता, मसलता, कुचलता है और खुद का पल्ला झाड़ धर्म की डोर औरत के हाथ में थमा देता है। यह समाज नन्हीं बालिका को भी जिसके यौन अंग अभी पूर्ण विकसित नहीं हुए हैं, हलवा-पूड़ी की लालच दे अपनी सेज तक खींच लेता है। यथार्थ की फांस काठ मान ली गई विधवाओं के अंदर ज़िन्दगी के लिए सुलगता लावा ही इस फ़िल्म की कामयाबी है। इसमें समय 1938 का बताया गया है। इस बीच 69 बरस गुजर चुके हैं लेकिन विधवाओं की स्थिति जस की तस है।

सद्य प्रदर्शित फ़िल्म डोर में भी इसी समस्या को उठाया गया है लेकिन थोड़ा आधुनिकता का पुट देकर ... नायिका के पति की हत्या सऊदी अरब में अजीबो-गरीब परिस्थितियों में हुई है। सहनायिका का पति हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है और उसे मौत की सजा सुनाई जाती है। उस सजा से बचने का एक ही तरीका है कि उसके पति को नायिका लिखित माफी दे दे। नायिका कि ज़िन्दगी ससुराल में वही विधवाश्रम जैसी है। सिर से पैर तक उबाऊ फीकी स्याही जैसे रंग का परिधान, उबला सादा भोजन और हंसने-बोलने पर पाबंदी... वह घर से बाहर भी चौबीस घंटे में बस एक बार ही आधे घंटे के लिए मंदिर तक जा सकती है। यही आधा घंटा सहनायिका जो कि हिमाचल प्रदेश से उसके पास राजस्थान में माफी की अपील करने आई थी, से दोस्ती का सबब बनता है। उसके अंदर जीने की प्रेरणा जगाती है, हौसला भरती है। उदासी की परतों में लिपटी नायिका का बदन अंगड़ाइयाँ लेने लगता है। मिठाई के लिए तरसती उस युवा विधवा को सहनायिका जब चुपचाप दीवार की आड़ में से रसगुल्ला खिलाती है तो तृप्त हुआ उसका मन कराह उठता है।

क्या अंतर है वॉटर और डोर के कथानक में? 69 वर्ष का फासला और विधवा होने की त्रासदी झेलती औरत। क्यों समय थम गया है विधवा का? क्रूरतम समय का यथार्थ जहाँ औरत की आजादी के दावे करता है वहीं औरत की असहायता विचलित करती है। जेहन में बस एक ही प्रश्न, ऐसा क्यों? विधवा आश्रम नहीं तो ससुराल का कठोर जीवन। वॉटर में आश्रम की विधवाओं की देह का सौदा होता है तो डोर में नायिका का ससुर ही उसे बेच डालने की नीयत बना लेता है जबकि सारे पहरे धर्म की आड़ ले ससुर ही बिछाता है। डोर की नायिका में हिम्मत थी जिसे आंच दी सहनायिका ने। उसने हालात को चुनौती मान मुकाबला किया और चल पड़ी एक नई राह की ओर। विधवा हो चुकी और विधवा होने जा रही औरत का दर्द, बिना माफीनामे के लौटती सहनायिका को नायिका के द्वारा न केवल माफीनामे का लिखित पत्र देना बल्कि खुद भी उसके संग नई राह पर चल पड़ने का हौसला दिखाना यह सिद्ध करता है कि अब विधवा के नाम पर शोषण नहीं होने देना है।

उत्तर तालिबान अफगानिस्तान में तालिबान के अत्याचारी शासन से आजाद हो पहली फ़िल्म बनी ओसामा। यह फ़िल्म तालिबानियों के शासनकाल में औरतों पर हुए अत्याचार और शोषण की झांकी प्रस्तुत करती है। उस दौर में बिना पुरुष के संरक्षण में औरत घर से बाहर कदम भी नहीं रख सकती थी। उन्हें सिर से पैर तक खुद को ढंककर बुर्के में रहना पड़ता था। उस समय की यह दास्तान एक विधवा स्त्री के अजीबोगरीब फैसले को दर्शाती है। जब घर में दाने-दाने को मोहताज विधवा औरत अपनी सास और बेटी के साथ बस मौत का इंतजार कर रही है। तालिबानी कट्टरपंथियों के शासनकाल में अफगानिस्तान की महिलाओं ने जो कुछ भुगता वह मौत से भी बदतर था। विधवा औरत पेट भरने के लिए अपनी लड़की के लड़कों जैसे बाल कटवाकर, उसकी वेशभूषा लड़कों जैसी बनाकर उसे उन्हीं भयानक, क्रूर लोगों के बीच रोटी कमाने भेजती है जिनके अत्याचारी आदेश से औरतें घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं। लड़की को डर लगता है कि कहीं तालिबान उसे पहचान गए तो जान से मार डालेंगे। लेकिन अगर वह काम नहीं करेगी तो उसकी मां, दादी और वह स्वयं भूख से मर जाएंगे।

धीरे-धीरे वह छोटे-मोटे काम करके कमाई घर लाने लगती है। लड़कों के साथ लड़कों जैसा आचरण व्यवहार करना, उसके लड़की होने पर हमेशा प्रहार करता रहता है। लड़कियों के लिए मदरसे में पढ़ने जाना अवैध होने के बावजूद उसे लड़कों के साथ मदरसे पढ़ने जाना पड़ता है। अंतत: उसे अपना लड़की होने का राज एक भिखारी लड़के को बताना पड़ता है। लड़का उसे ओसामा बुलाता है क्योंकि उसकी नजर में ओसामा बिन लादेन से बढ़के पुरुषार्थ का प्रतीक कोई है ही नहीं। लड़की ने भी तो लड़की होने के बावजूद लड़का बनने का पुरुषार्थ दिखाया। लेकिन उसका यह पुरुषार्थ उसे जिन भयावह स्थितियों से गुजारता है उसे देख कलेजा मुंह को आता है। यह वह समाज है जहाँ औरत की लगाम पूर्णतया पुरुष के हाथों में है। वह उसे अपने मनमाफिक कठपुतली-सा नचाता है और लगाम का सिरा भूलकर भी नहीं छोड़ता। फ़िल्म के एक दृश्य में आसमानी बुर्के में ढंकी औरतें काम करने का अधिकार पाने के लिए मोर्चा निकालती हैं और कच्ची पहाड़ी सड़क से उतरती नजर आती है। ये सारी औरतें-विधवाएँ हैं जो युद्ध और तालिबानी अव्यवस्था में अपने शौहर खो चुकी है। इन औरतों के हाथों में जो पोस्टर्स हैं उन पर लिखा है-हम राजनीतिक नहीं हैं, हम विधवाएँ हैं, हमें रोजगार चाहिए। लेकिन तालिबान समझते हैं कि ये औरतें पश्चिमी शिक्षा से प्रेरित हैं। जहाँ राजनैतिकों को व्यक्तिगत मानकर खास पहल की जाती है। वे उन पर पाइप से पानी की तेज बौछार कर उन्हें भाग जाने पर मजबूर करते हैं। उसके भाग जाने के बाद बहते पानी में एक फटा चिथड़ा बुर्का भर नजर आता है जो अपने साथ हुए अत्याचार का गवाह खुद बन जाता है। पूरी फ़िल्म में विधवा औरतों का टूटना-बिखरना मूक बने रहने की मजबूरी उनकी पीड़ा का एक लम्बा सिलसिला नजर आती है।