पार / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

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पार
सुशोभित


समरेश बसु की कथा पर एकाग्र गौतम घोष की फ़िल्म। अरसा पहले देखी थी। एक दृश्य रह-रहकर इधर याद आता है। कलकत्ते की बारिश। खुली सड़क पर सोए हैं नौरंगिया और रमा। आधी रात आँख खुलती है। देखते हैं, सड़क पर नाच-गाना चल रहा है। तिरासी का साल। भारत ने क्रिकेट विश्व कप जीता है, उसी का यह जश्न। पर गाँव-जवार के दोनों जन आख़िर तक बूझ नहीं पाते कि जश्न किस बात का है। दोनों भुच्च देहाती, ताकते टुकुर-टुकुर!

यह एक महारूपक था, उस पूर्व-भूमण्डलीकृत भारत का, और हमारे आज के अधीर-अर्वाचीन के लिए भी एक कौतूहल। कि बूझो तो जानें जश्न कौन बात का है- मुसलसल; बदस्तूर; अनवरत- जबकि अभी तो आधी रात, तिस पर नंगे सिर मेह! क्या नहीं?

'पार'। यह उस फ़िल्म का एक गहरा मोटिफ़ था। कि जाना है उस पार। कलकत्ते से जिला मुंगेर। शहर से घर पर गाँठ में दमड़ी नहीं कि मोल ले सकें भात ही और निगल सकें दो कौर। तो लाख टके का उपाय यह है कि पहले बत्तीस सुअरों के एक रेहड़ को हकालकर ले जाना होगा हुगली के उस पार। हरेक का बारह आना, तो बिचौलिये का हिस्सा काटकर बनेगा पूरा बीस रुपया। यह लौटकर जाने लायक़ रसद। पर हाँ, एक सुअरी गाभिन है। उस पर रखनी होगी कड़ी नज़र। गर्भवती तो नौरंगिया की रमा भी है, पर उससे क्या? चार माह का गर्भ और पेट में अन्न नहीं, उससे भी क्या? यह दूसरा बच्चा है, पहला तीन बरस का होकर कुएँ में डूब रहा, तो क्या? जैसे कुएँ का जल वैसे नदी का जल!

जल जल है, पाट पाट है और पार तो जाना ही है, कोई दूसरा छोर नहीं हुआ तो भी क्या?

अपदस्थ कर देने वाली फ़िल्म! असहज-विचलित करने वाली! नसीर और शबाना दोनों ने अपनी मुख्य भूमिकाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता चौरासी के साल में। नसीर तो वेनिस में भी नवाज़े गए थे। तेरासी सरीखी विश्व-विजय का उद्धत उल्लास तो नहीं, जश्न नहीं, पर एक असीम संतोष का आशान्वित क्षण अवश्य ही वह उनके लिए रहा होगा। हम सब के लिए!