आक्रोश / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
रघुवीर सहाय ने 'दिनमान' में इस फ़िल्म की आलोचना की थी। रघुवीर की आलोचकीय दृष्टि को चुनौती देने की धृष्टता भला कौन कर सकता है? फिर भी यह एक सशक्त फ़िल्म है, इसमें ऐतिहासिक अन्यायों की प्रभावी अभिव्यक्ति है और गोविंद निहलानी की पहली ही फ़िल्म होने के बावजूद इसके क्राफ़्ट की कसावट भी पसंद करने योग्य है। गोविंद निहलानी श्याम बेनेगल के छायाकार थे। उनके लिए कोई आधा दर्जन फ़िल्मों का छायांकन उन्होंने किया। फिर उनका आशीर्वाद लेकर 'आक्रोश' बनाई। जाहिर है, नसीर, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, मोहन अगाशे को इसमें होना ही था। यह बेनेगल की कोर टीम थी। लेकिन यह ओम पुरी की ब्रेक थ्रू फ़िल्म थी और स्मिता का भी इसमें एक कैमियो है। गोविंद निहलानी-ओम पुरी की जोड़ी कई मायनों में श्याम बेनेगल-नसीरुद्दीन शाह की जोड़ी की ही तरह है। बेनेगल ने नसीर के साथ अपनी प्रारम्भिक श्रेष्ठ फ़िल्में बनाई थीं, तो निहलानी ने ओम पुरी के साथ अपनी श्रेष्ठ फ़िल्में बनाई हैं- 'आक्रोश', 'अर्द्धसत्य', 'पार्टी', 'आघात', 'तमस।' यह सेकंड-टियर समान्तर सिनेमा है।
लेकिन, नसीर! उन्नीस सौ अस्सी के नसीर! दाढ़ी वाले, पतले-दुबले। साइकिल चलाने वाले आदर्शवादी वकील की भूमिका में, जो पूरी निष्ठा से एक आदिवासी युवक का केस लड़ना चाहता है। इस फ़िल्म में नसीर को देखना सुखद है। यह विंटेज नसीरुद्दीन शाह है, अपने तमाम आरोह-अवरोहों के साथ। अगर आपको इसमें नसीर का लुक और उनके बोलने का लहजा कुछ-कुछ 'स्पर्श' की याद दिलाता हो, तो यह अकारण नहीं है। 'स्पर्श' और 'आक्रोश' एक के बाद एक फ़िल्माई गई थीं, महज़ एक दिन के फ़ासले पर। नसीर दिल्ली से 'स्पर्श' की शूटिंग करके लौटे थे और अगले ही दिन अलीबाग़ में 'आक्रोश' की शूटिंग के लिए रवाना हो गए थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस 'कल्चरल शॉक' को दर्ज किया है- कहाँ तो 'स्पर्श' का संवेदनशील अभिव्यक्तियों और कोमल अहसासों का परिवेश और कहाँ 'आक्रोश' की शोषण, भ्रष्टाचार और कुंठाओं की अंधेरेभरी दुनिया। लेकिन यह नसीर का कमाल है कि उन्होंने अनिरुद्ध परमार और भास्कर कुलकर्णी को एक के बाद एक निभा दिया!