देबशिशु / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
उत्पलेन्दु चक्रबर्ती की फ़िल्म 'देबशिशु' अनेक अर्थों में सत्यजित राय की फ़िल्म 'देवी' की परिपूरक है। 'देवी' में धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड की शिकार एक स्त्री (शर्मिला ठाकुर) है, 'देबशिशु' में इसका शिकार है एक बालक। लेकिन 'देवी' में शोषण का संगठित तंत्र नहीं है, एक विडम्बना भर है। हाँ, चिदानंद दासगुप्ता ने उसमें एक अंडरकरंट को अवश्य लक्ष्य किया है कि वर्जना से उपजी ग्रंथि एक स्त्री को पवित्रता के उच्चतर स्थल पर आरूढ़ कर प्रतिशोध लेती है। लेकिन यह बात तो थोड़ी सूक्ष्म है। इसकी तुलना में 'देबशिशु' में धर्म के नाम पर चलने वाले शोषण की अभिधा स्पष्ट है।
साधु मेहर और स्मिता पाटिल के एक संतान होती है, एक विचित्र बालक, तीन मुँह और चार हाथोंवाला। उसे अनिष्टकारी बताकर धर्म से जुड़ी ताक़तें माँ-पिता से हथिया लेती हैं और बाद में आस्था के सर्कस में उस पर टिकट लगाकर मुनाफ़ा कमाती हैं। फ़िल्म के एक दृश्य में साधु मेहर देवी प्रतिमा से पूछते हैं कि तेरा यह कैसा विधान है? मनुष्य के पुत्र को पहले तो अनिष्टकारी और अपशकुनी बताकर माँ-पिता से छीन लिया जाता है और फिर उसे ही देबशिशु बताकर उससे लाभ कमाया जाता है। मनुज के बेटे दूध को तरसते हैं और देबशिशु पर सिक्के बरसते हैं। ज़ाहिर है, कोई जवाब नहीं मिलना है, सो नहीं मिलता है।
फ़िल्म के अन्त में एक फैंटसी है। स्मिता स्वप्न देखती हैं कि वह देवी का रूप धरकर शोषकों का वध करती हैं और अपनी संतान को पुनः प्राप्त कर लेती है। संकेत है कि देबशिशु को प्राप्त करने के लिए एक स्त्री को देवी ही बनना पड़ेगा। यहाँ पर आकर सत्यजित की फ़िल्म का चक्र जैसे पूरा हो जाता है। एक विडम्बना का वर्तुल।
उत्पलेन्दु चक्रबर्ती की फ़िल्म 'चोख' ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है और सत्यजित राय के संगीत पर उनके द्वारा बनाया गया वृत्तचित्र भी पुरस्कृत है। बंगाल की शस्य-श्यामल भूमि से उपजे वह एक और महान फ़िल्मकार हैं। यह एक लम्बी श्रृंखला है। सत्यजित राय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, तपन सिन्हा, बुद्धदेब दासगुप्ता, अपर्णा सेन, गौतम घोष, उत्पलेन्दु चक्रबर्ती, ऋतुपर्णो घोष- भारत में निर्मित आधी अच्छी फ़िल्में तो इन चंद बंगालियों के ही खाते में दर्ज हैं। शेष जो हैं, उन पर मलयाली, कन्नड़ और मराठीभाषी फ़िल्मकारों का दबदबा है। यक़ीनन, हिन्दी में भी बहुत अच्छी फ़िल्में बनी हैं।
ग्राम-अंचल की सामाजिक-आर्थिकी की पड़ताल करनेवाला नवयथार्थवादी सिनेमा- यह भारतीय समान्तर सिनेमा की 'मुख्यधारा' है। एक लम्बी फ़ेहरिस्त है इस श्रेणी की फ़िल्मों की- 'पथेर पांचाली', 'अशनि संकेत', 'अकालेर शन्धाने', अंकुर', 'निशान्त', 'पार', 'मृगया', 'दामुल', 'सद्गति' इत्यादि। 'देबशिशु' भी उसी कड़ी की है। मेले-ठेलों और हाट बाज़ारों वाला भारत अभी समाप्त नहीं हो गया है, मुख्यधारा के मीडिया की आँख से ओझल जरूर हो गया हो, या मुख्यधारा के संचार माध्यमों ने ही उसका स्वरूप बदकर विद्रूपमूलक कर दिया हो, लेकिन वह आज भी वहाँ पर क़ायम है। ये फ़िल्में हमें उसके अंधेरे कोनों-अन्तरों की याद लगातार दिलाती रहती हैं।