चश्मेबद्दूर का एक दृश्य / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
कुल जमा ये अफ़साना है कि दीप्ति नवल फ़ारूख़ शेख़ के यहाँ चमको साबुन का 'डेमंस्ट्रेशन' देने आई हैं। वे फ़ारूख़ को बारम्बार बताती हैं कि "कपड़ों में चकाचौंध चमक लाने के लिए ख़ुशबूदार झागवाला चमको" ही सबसे बेहतर विकल्प है। फ़ारूख़ को ये सबक़ अच्छी तरह याद हो जाता है। अब आधी बाल्टी पानी में चमको मिलाकर तौलिया उसमें छोड़ दिया गया है और पाँच मिनट इंतज़ार करना है। लेकिन फ़ारूख़ नर्वस हैं और दीप्ति भी शरमा रही हैं तो ये पाँच मिनट कैसे कटें?
दीप्ति कमरे में नज़र दौड़ाती हैं और एक कोने में एक पिनअप गर्ल का भड़कीला पोस्टर देखकर झेंप जाती हैं। फ़ारूख़ दौड़कर जाते हैं और एक दूसरे तौलिये से उसे ढाँक देते हैं। कहते हैं, "हम तीन दोस्तों ने अपनी-अपनी दीवारें बाँट रखी हैं, लेकिन ये मेरी दीवार नहीं है, मेरी दीवार तो वो है, गाँधीजी वाली!"
असहज करने वाली चुप्पी को तोड़ने के लिए फ़ारूख़ रेडियो चला देते हैं। रेडियो पर छूटते ही गाना बजने लगता है : "हम तुम एक कमरे में बंद हों"। अबकी फ़ारूख़ घबरा जाते हैं। दौड़कर जाते हैं और कमरे के दरवाज़े को पूरा खोल देते हैं। दीप्ति उनके इस भोलेपन पर मन ही मन मुस्करा देती हैं।
फ़ारूख़ दीप्ति को चाय के बड़े-से मग में सहेजकर रखा गया बेसन का लड्डू लाकर खिलाते हैं (नारियल के टूटे खोल को वो तीनों दोस्त एशट्रे और चाय के मग को बर्तन की तरह वापरते हैं)। वे उन्हें अख़बार से ख़बरें पढ़कर सुनाते हैं। अपने अर्थशास्त्र-प्रेम और शर्मीले मिजाज़ के बारे में बताते हैं। दीप्ति कहती हैं, अब तौलिया निकाल लेना चाहिए। बाल्टी से साफ़ शफ़्फ़ाक तौलिया निकलता है। दीप्ति गर्व से कहती हैं, "देखा, मेरे चमको का कमाल!" फ़ारूख़ कहते हैं, "ये तो होना ही था, मैंने आपको लॉन्ड्री का धुला तौलिया ही दिया था।" दीप्ति चौंककर कहती हैं, "क्या!" फ़ारूख़ कहते हैं, "आप भी कमाल करती हैं, ऐसे कैसे मैं आपको गंदा तौलिया दे देता!" दीप्ति मुस्करा देती हैं। दूध में मखाने की तरह गलने वाला मन!
अब वे फ़ारूख़ को एक पैकेट चमको सैम्पल बतौर मुफ़्त देती हैं और जाते-जाते मुड़कर कहती हैं, "और हाँ, इसमें एक छोटा-सा गिफ़्ट भी है।" वो गिफ़्ट क्या है? एक छोटा-सा सीटी वाला फुग्गा। दीप्ति के चले जाने के बाद फ़ारूख़ पूरा चमको साबुन पानी में घोल देते हैं और बच्चों की तरह सीटी वाला फुग्गा बजाते हुए उसके झाग से खेलते हैं। उनके घने बालों में झाग के बादल ठहर जाते हैं। पृष्ठभूमि में दीप्ति की आवाज़ गूँजती है : "कपड़ों में चकाचौंध चमक लाने के लिए ख़ुशबूदार झागवाला चमको!" इसी दृश्य को ध्यान में रखकर मैंने अपनी एक कविता में यह पंक्ति लिखी थी :
"फेन के फूलों को /
हिमकिरीट की तरह /
सिर पर बाँधेगा तुम्हारा प्रेयस /
जब तुम मुस्कराओगी।"
इतना कोमल, इतना मासूम है यह, दिल को मृगशावक की आँख जैसा वध्य और निष्कवच कर देने वाला। इतना सुंदर कि अकारण उदास कर देने वाला।
ये सई परांजपे की 'चश्मेबद्दूर' है- निर्मलता का एक तुहिन-बिंदु!