पिता का जाना / अशोक कुमार शुक्ला

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मोबाइल की घंटी
क्या हुआ पिताजी को?

4 फरवरी मैं कभी नहीं भूल सकता क्योकि यही वो रात है जब ठीक चार साल पहले रात के तीसरे पहर यानी लगभग तीन बजे मेरे मोबाइल की घंटी बजी थी। इस घंटी ने मुझे गहरी नींद में जगा दिया था .....देखा मेरे छोटे भाई मनोज का फोन था.....मुझे याद आया.... दो या तीन दिन पहले मनोज से बात हुई थी तो यह बताया था की वो माजी और पिताजी के साथ अल्मोड़ा - नैनीताल की ओर धार्मिक पर्यटन पर निकला है... फोन उठाया तो उस तरफ से मनोज मुझे संबोधित कर ....दद्दा जी ...दद्दा जी...कहकर रोये जा रहे थे ..... मेरी नींद तो उड़ ही गयी थी.....मैं समझा कि मनोज के सम्मुख कोई बड़ी परेशानी आ गयी है ...मैंने उसे ढाडस बंधाते हुए तिखार कर पूछा - "क्या हुआ मनोज! परेशान क्यों हो? बताओ तो सही..! मैं हूँ ना...!" "मैं हूँ ना..!" यह शब्द मैंने स्वयं कांपते हुए इसीलिये कहे थे कि छोटा भाई परेशानी में कुछ राहत महसूस करेगा ...परन्तु वह अपनी बात पूरी करने की बजाय उसी तरह रोता रहा- "दद्दा जी....पिताजी...." "हाँ ...हाँ ...बोलो ना ...क्या हुआ पिताजी को?" कहने को तो कह गया परन्तु किसी बुरी आशंका से कांप गया.... मोबाइल पर हो रही बातचीत सुनकर अब तक सुमन भी जाग चुकी थी....उन्होंने भी ...क्या हुआ ....क्या हुआ...पूछना आरम्भ कर दिया.... अब मनोज ने रोते रोते अपना वाक्य पूरा किया- "दद्दा जी....पिताजी नहीं रहे...." अब मेरी स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो गयी... ...क्या..?.कब?...कैसे....? ....आदि अनेक सवाल पूछ डाले। मनोज ने जो बताया उसमे से कुछ सुना और कुछ नहीं सुन पाया...माथा पकड़ बैठ गया ...क्या करूँ कुछ सूझ नहीं रहा था ....बस इतना याद आया कि दो दिन पूर्व मांजी से बात हुयी थी तो माँ ने ये बताया था कि आठ फरवरी का रिजर्वेशन है...वो लोग नौ तारीख की सुबह आयेंगे.... ये क्या हो गया....जिसने मुझे चलना सिखाया... ....वो ऐसे मुझसे मिले बगैर हमेशा के लिए चले गए.... मैं कितना दुर्भाग्यशाली हूँ कि अंतिम क्षणों में उनके पास भी न रहा.... और....यह सुनकर मुझ अभागे का रोना भी नहीं फूटा...मित्रो! आज पिता को गए चार साल पुरे हो गए ....