पितृसत्ता को बदलना होगा / संतोष श्रीवास्तव
मनुस्मृति और इस स्मृति के पुरोधा, रचयिता स्त्रियों का दृष्टि में कम सोच वाले, स्त्रियों के लिए अहितकारी मनु ने कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जिन पर आधुनिक विद्वान सिवा खेद प्रगट करने के और कुछ नहीं कर सकते। मनुस्मृति इसलिए बार-बार याद की जाती है कि कुछ प्रथाएँ, कुरीतियाँ समाज से ख्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। ये सारी कुप्रथाएँ कुरीतियाँ बस स्त्री को ही समेटती हैं। पुरुष की ओर बढ़ते उसके चरण हिम्मत नहीं कर पाते होंगे, क्योंकि आज भी पुरुष प्रधान समाज बलवती है। वह पुरुष जो वेश्यागामी है, दुराचारी है, लंपट है, धोखेबाज है, उसके इन अवगुणों को उसका पुरुष स्वभाव कहकर भुला दिया जाता है और स्त्री का एक ग़लत कदम उसे समाज से बहिष्कृत करा देता है। बल्कि पुरुष के इन अवगुणों के लिए दोषी स्त्री ही मानी जाती है। मनु महाराज की समझ को क्या कहिए उन्होंने तो स्त्री को वस्तु की संज्ञा दे, तमाम अधिकारों की पोटली पुरुष को थमा दी है। उन्होंने तो पुरुष जाति को इतना नारकीय बना दिया कि उसके साथ उसकी खुद की बेटी, बहन और माता एकांत में न रहे... बल्कि इसे वर्जित ही करार दिया। न तो स्त्रियों का कोई संस्कार मंत्र है, न स्मृति, धर्मशास्त्र पर उसका कोई अधिकार। वह कम बुद्धि की ऐसी अविश्वसनीय वस्तु है जिसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। मनु स्त्री स्वतंत्रता के घोर विरोधी थे। जन्म से मृत्यु तक स्त्री पुरुष के विभिन्न रिश्तों के संरक्षण में ही रहती आई है। विवाहवेदी पर विराजमान परस्त्रीगामी पुरुष के साथ वह कन्या धर्महीन कहलाकर नकारी जाती है जिसकी योनि अक्षत नहीं है। सम्पूर्ण रूप से कौमार्य युक्त, सहनशील, मृदु भाषी स्त्री ही अपनाने योग्य है। ऐसी स्त्री को पुरुष पूर्णतया अपने अधीन रखे वरना वह काम पीड़ा से इतनी व्याकुल रहती है कि कभी भी बहक सकती है। इसलिए उसे नकेल डालकर घर के अंदर ही रखना चाहिए। कामी स्त्री न आदमी का रंग रूप देखती है न जाति, पद, आयु जबकि सारे धार्मिक ग्रंथ, पुराण पुरुषों के बहकने की घटनाओं से भरे पड़े हैं पर चूंकि सम्पूर्ण शुचिता और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली केवल स्त्री ही मानी जाती है तो उस तक ही आकर सारे नियम-कानून खत्म होते हैं।
मनु के अतिरिक्त अन्य विद्वान मुनियों ऋषियों कात्यायन, बृहस्पति, याज्ञवव्क्य, गौतम आदि ने भी स्त्री को पुरुष के अधीन रहने की सलाह दी है। गौतम ऋषि खुद कैसे थे, वह सर्वविदित है। उनकी पत्नी अहल्या राजा भद्राश्व और अप्सरा मेनका कि अनाथ या त्यागी गई कन्या थी जिसे ब्रह्मा ने एक कन्या के रूप में परवरिश करने के लिए गौतम ऋषि को सौंपा था। गौतम ऋषि ने भी अपने आश्रम में उसे अपनी बेटी की तरह प्रेमपूर्वक पाल-पोसकर बड़ा किया। लेकिन जैसे ही अहल्या जवान हुई उसके बेहद लुभावने शरीर-सौष्ठव और रूप को देखकर पिता समान गौतम का मन डोल गया और उन्होंने उसे अपनी पत्नी बना लिया, इस घोषणा के साथ कि ब्रह्मा ने उन्हें यह अनाथ कन्या भोगने के लिए ही दी थी। अहल्या जिसके हृदय में गौतम के लिए पिता का स्नेह था... जो उनके सामने घुटनों चलकर बड़ी हुई थी, उनके गोद में खेली थी ऐसी पुत्रीवत अहल्या का मन उनके लिए नफरत की आग में कितना न सुलगा होगा जब वृद्ध गौतम ने उसके शरीर को भोगा होगा। क्या अंतर रह गया जानवर और इंसान में? यही अहल्या बाद में गौतम द्वारा शापित हो जाती है। उसका अपराध? इन्द्र से उसका मिलन... वह इन्द्र, गौतम से कहीं अधिक अहल्या के प्रति ईमानदार था। उसके मन में अहल्या को पाने की इच्छा अवश्य थी पर वह उसे बदनाम नहीं करना चाहता था। अत: गौतम का वेश धारण कर वह अहल्या कि कुटी में प्रवेश करता है। पवित्र, पावन अङल्या गौतम के धोखे में इन्द्र के साथ पत्नीव्रत धर्म का पालन करती है। लेकिन बदले में गौतम के कोप का भाजन होती है और अहल्या यानी ऐसी भूमि जो बंजर हो, हल चलाने के योग्य न हो, पानी की एक-एक बूंद को तरसती, हरियाली बिहीन होने का शाप पाती है। क्यों? क्या युवा अहल्या का युवा इन्द्र को अपनाना पाप है और क्या पितातुल्य वृद्ध गौतम का पुत्रीवत पाली अहल्या को पत्नी बनाना पाप नहीं?
पितृसत्तात्मक समाज कहता है कि पत्नी को एक दासी की तरह पति की और पति के परिवार वालों की सेवा में अपना जीवन अर्पण कर देना चाहिए। मिताक्षरा में यही कहा गया है। वैसे मनु बहुत चतुर थे। शकुनि की तरह पासा फैंकने में उस्ताद। उन्होंने नारी के बारे में जमकर अनाप-शनाप लिखा और फिर यह कहकर उस अबला का मुंह बंद कर दिया कि-यत्र नारीस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता और यह भी कि जिस कुल में कुलवधू चिंता ग्रस्त रहती है उस कुल का शीघ्र नाश हो जाता है।
धर्मग्रथों में स्त्री की तुलना पृथ्वी से की गई है। यानी पृथ्वी और स्त्री-पुरुष की है जितने तक वह उनका उपयोग कर सके। वह जैसे चाहे जोते बोये। ऋषि विश्वामित्र के जमाने में जंगलों में बने आश्रम में शिष्य पढ़ने आते थे। ऐसे ही एक शिष्य थे गालव। शिक्षा समाप्ति के पश्चात गुरु दक्षिणा के लिए बार-बार आग्रह करते गालव से कुपित हो विश्वामित्र ने आठ सौ श्याम कर्ण अश्वमेधी घोड़ों की मांग कर डाली।
गालव चकरा गए। इतने घोड़े कहाँ से लायें? वे गरुड़ के बताए उपाय के अनुसार दानवीर राजा ययाति के पास गए। ये वही राजा ययाति थे जिन्होंने अपनी दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा से उत्पन्न अपने पुत्र पुरु से जवानी लेकर उसे अपना बुढ़ापा दे दिया था। ययाति ने अश्वों से स्थान पर अपनी सुंदर कन्या माधवी उसके हवाले कर दी कि इसे जिस भी राजा के पास लेकर जाओगे वह इसके बदले में तुम्हें घोड़े दे देगा। गालव उसे कई राजाओं के पास ले गया। बदले में उसे घोड़े मिले और राजाओं को माधवी का शरीर। अंत में दो सौ घोड़े कम पड़े तो स्वयं विश्वामित्र ने उसे अपनी अंकशायिनी बना गालव को दो सौ घोड़ों के ऋण से मुक्त कर दिया। सबसे पहले ययाति ने माधवी को वस्तु समझ दान किया। फिर तमाम राजाओं के हाथों वह वस्तु की तरह बिकती रही, हस्तांतरित की जाती रही। राजघराने में जन्म पाकर भी वह दासी की तरह पुरुष हवस का शिकार होती रही और अंत में गुरु जैसा सम्मानित व्यक्ति भी अपनी गुरु दक्षिणा उसकी देह से वसूलता है। सदियों से स्त्री वस्तु विनिमय में इस्तेमाल की जाती है। पुरुषों ने स्त्रियों को पशु सम्पत्ति समझ उन पर मनमाना अत्याचार किया।
पुरुष सन्तोनोत्पत्ति में स्त्री का कोई हिस्सा नहीं मानता। उसकी कोख पुरुष शुक्राणुओं को सुरक्षित रखने के लिए इस्तेमाल भर की जाती है। इस धारणा ने पूरी दुनिया के परिवारों और आदिवासी काबीलों तक में स्त्री के संतान पर अधिकार को समाप्त कर पूरा श्रेय पुरुष को दे दिया। संतान पिता के नाम से पहचानी जाने लगी। सही पूछा जाए तो स्त्री का निजी कुछ रह ही नहीं गया। मायके की संपत्ति उसके पिता और भाइयों की और ससुराल की संपत्ति पति और बेटों की। जब निजी नहीं रह गया तो वह व्यक्तित्वहीन हो गई। उस जमाने में उनके नाम को कोई नहीं जानता था। पिता के घर वह अवश्य अफने नाम से पहचानी जाती थीं लेकिन ससुराल पहुँचते ही वे मायके के गाँव या शहर के नाम से पुकारी जाती थीं जैसे कानपुर वाली दुलहिन या गजेन्द्र बाबू की बहू, बबली की अम्मा, गुड्डू की चाची, लल्लन की भाभी आदि विशेषणों से सम्बोधित की जाती थी। इसके अलावा कई प्रदेशों में आज भी शादी के मंडप में ही दुल्हन का नाम बदल दिया जाता है यानी पिता के घर की हर पहचान धो-खरोंचकर निकाल दी जाती है। स्वीकार किया जाता है तो उसका शरीर और दहेज। उस शरीर पर पुरुष का ताउम्र अधिकार रहता है भले ही वह बहुविवाह करे, घर के कमरों में उसकी सौत ला बिठाए या घर से बाहर कोई दूसरा घर लेकर अपनी रखैल रखे, पत्नी को मुंह खोलने का अधिकार नहीं। आज आधुनिक युग में भी पत्नी इस पीड़ा से गुजर रही है। गाय-बैल के समान वह अपनी छोटी-सी भूल पर पुरुष के हाथों पिटती है, घर से निकाल दी जाती है। उस जमाने में भी कन्या जन्म बोझ समझा जाता था, आज भी। उस समय नवजात कन्या को दाई गला घोंटकर, खाट के पाए के नीचे दबाकर नुकीले धान निगलवाकर, दूध की बाल्टी में डुबाकर या राजा के हाथी से कुचलवाकर छुटकारा पा लेती थी। आज भी गर्भजल परीक्षण के बाद कन्या भ्रूण नष्ट कर दिया जाता है। औरत अपनी लड़ाई खुद लड़कर चाहे जिस मुकाम पर पहुँची हो, पुरुष उसके लिए हमेशा हिंसक ही रहा।
पितृप्रधान समाज जब हर जगह अपनी जड़ें जमा चुका तो स्त्री का अस्तित्व समाप्त हो गया। कहने को आज स्त्री अंतरिक्ष तक पहुँच चुकी है सफलता के सोपान चढ़ती वह हर वह मुकाम हासिल कर चुकी है जिस पर केवल पुरुष वर्चस्व ही था लेकिन आज भी 60 प्रतिशत निरक्षर, अपने अधिकारों से अनभिज्ञ औरतें वही पुरातन परंपरा का निर्वाह कर रही हैं। आज भी गीता प्रेस गोरखपुर से छपे कम दामों वाले साहित्य ने पुरुषों का दिमाग खराब करके रख दिया है। ये पुस्तकें उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक आसानी से खरीदी पढ़ी जाती हैं। गीता प्रेस नारी शिक्षा गृहस्थ कैसे रहें, स्त्रियों के लिए कर्त्तव्य शिक्षा और कल्याण नामक पुस्तकों का प्रकाशन सफलतापूर्वक हो रहा है। ये सभी पुस्तकें स्त्री को कमजोर, पराधीन मानती हैं। जब वे पिता के घर में कन्या स्वरूप रहती हैं तो उन्हें यह मानकर रहना चाहिए कि वे तो पराया धन हैं। आज नहीं तो कल पति के घर जाना ही है और अपने को पति के अनुकूल बनाने के लिए हर कार्य में दक्षता प्राप्त करने का संकल्प लेना चाहिए। विवाह के बाद पिता कि संपत्ति पर उसे हक भी नहीं जताना चाहिए क्योंकि भाई उसके अपने हैं। कल मुसीबत पड़ी तो वे ही काम आएंगे। संपत्ति पर हक जताकर भाइयों से मनमुटाव उचित नहीं। पति के घर में वह अपना तन, मन, धन (दहेज) श्रम, जीवन अर्पित कर उन्हें सुख पहुँचाएँ। पति यदि मारपीट करे तो यह मानकर सह लेना चाहिए कि यह पूर्व जन्म का ऋण है जिसके भुगतान इस रूप में हो रहा है। पिटकर उन कर्मों की शुद्धि ही हो रही है। यदि वह संतान पैदा करने योग्य नहीं है तो पति को पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने के लिए दूसरे विवाह की अनुमति देनी चाहिए। स्त्री को पुनर्विवाह की इसलिए अनुमति नहीं है क्योंकि उस पर कोई पितृऋण है ही नहीं। यदि पति उसे त्याग दे तो वह उसे अपने कर्मों का फल मानकर संयमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जीवन के शेष दिन बिताए और यदि पति नपुंसक है तो वह कृत्रिम गर्भादान (पति की आज्ञा अनुसार) करके उसे पितृ ऋण से मुक्त करे।
स्त्री पति की वामांगी मानी जाती है। बायाँ अंग किसी काम का नहीं। पुरुष अपने मित्र के लिए कहता है यह तो मेरा दाहिना हाथ है और स्त्री के लिए? यह विचारधारा विश्व के हर देश में है तभी तो पेरिस की चित्र गैलरी (म्यूजियम) में रखी मोनालिजा कि पेंटिंग बायीं तरफ से थोड़ी बड़ी है और दाहिनी तरफ से छोटी। इस विश्व विख्यात पेंटिंग को बायीं तरफ से बड़ी बनाने का मकसद था स्त्री की स्थिति को ऊंचा उठाना। जिसे नीचा मान पुरुष ने वामांगी माना। वह विश्व विख्यात चित्रकार था द विंची। गौरतलब है कि स्त्री मुक्ति का श्रीगणेश भी फ्रांस से ही सीमोन द बोउवार के लेखन से हुआ। द विंची कोड नामक उपन्यास में लेखक डेन ब्राउन ने रोंगटे खड़े कर देने वाला इतिहास लिखा है। ईसाई पेगन्स रोम के उतार-चढ़ाव की दास्तान कहते हुए वह उस दौर में पाठक को ले चलता है जब औरतें बेहद बुद्धिमान होती थीं। बुद्धि में वे पुरुषों से कहीं आगे थीं। वे ऐसी जड़ी-बूटियाँ जानती थीं जिससे प्रसव पीड़ा कम हो, वे तमाम रोगों के उपचार जड़ी-बूटियों से मिनटों में कर लेती थीं। यह बात भला पुरुष कहाँ पचा पाते। उन्होंने औरतों की हत्या करनी शुरू कर दी। उन्हें डायन, पिशाचिनी, चुड़ैल आदि मानकर, इसी रूप में उनका प्रचार कर उन्हें कुएँ में फएंका, जमीन में जिंदा गाड़ा। तीन सौ वर्षों के अंदर तीन लाख औरतों की हत्या कर दी गई। बची-खुची औरतों को लेकर नाइट्स सुरंगों में छुप गए। द विंची खुद समलैंगिक था पर उशने औरतों को बढ़ावा दिया। उस समय का समाज माता को ही भगवान मानता था। वीनस का देवी रूप में अवतरित होना साक्ष्य है लेकिन बस देवी तक ही... पितृसत्ता के निर्धारित मूल्यों को यदि स्त्री ने अपनाया तो समझो उसका विनाश निश्चित है। जॉन आॅफ आर्क इसीलिए जिंदा जलाई गई क्योंकि उसने राजनीति में पड़कर हथियार उठाए थे और अपनी सेना तैयार की थी जो पितृसत्ता के उसूलों के खिलाफ था।
भारत में भी स्त्री को देवी मानकर पूजा गया है। शायद यह परंपरा मातृसत्तात्मक समाज से उत्पन्न हुई हो जब स्त्री के नाम से वंश चला करते थे और पुत्र को माता का नाम मिलता था। कुंती पुत्र को कौंतेय, कृष्ण को देवकीनंदन आदि। स्त्री को धरती मानकर प्रजनन का पूरा श्रेय मिलता था। धरती रूपा स्त्री यानी देवी वंदनीय थी। बेटियों को संपत्ति में अधिकार मिलता था। स्त्री को परिवार के फैसले लेने का पूरा हक था। वंश उसी के नाम से चलता था। पूरे परिवार की कर्ता-धर्ता वही थी। आज भी जनजातियों, आदिवासियों में मातृसत्ता के उदाहरण मौजूद हैं। यहाँ शादी के लिए वर का चुनाव कन्याएँ ही करती हैं। राजघरानों में स्वयंवर की परंपरा थी। शादी के बाद लड़के को लड़की के घर जानकर रहना पड़ता था। धार्मिक उत्सवों, आयोजनों में स्त्रियाँ पुरुषों से आगे ही रहती थीं। कहीं-कहीं वे एक से अधिक शादियाँ भी कर सकती थीं। पूर्वी भारत में खासी, गारो, जयंतिया जनजातियाँ, दक्षिण में नायर, कादर, इरुला, पुलायन जनजातियाँ आज भी मातृसत्तात्मक हैं। इनके अपने रीति-रिवाज हैं। खासी जनजाती में माता कि मृत्यु के बाद धनसंपत्ति की वारिस परिवार की सबसे छोटी बेटी ही होती है। वही पंडित पुरोहित भी होती है। गारो नाक्रोम में बेटी की अगर मृत्यु हो गई है तो सास दामाद से शादी कर लेती है।
ईसाई धर्मावलंबी वर्जिन मेरी को देवी मानते हैं। यूनान में आइसिस को, बलूचिस्तान में चाल्डियन अब्राहिम से एक हजार वर्ष पहले से नानै के उपासक रहे हैं। इस तरह अनेक स्थानों पर देवी के रूप पूजे जाते हैं।
उत्तर वैदिक काल से पितृसत्ता कि जड़ें जो गहरी जमीं तो स्त्री देवी की जगह पुरुष देवता का प्रादुर्भाव हुआ और यहीं से स्त्री के दुर्भाग्य का उधय भी जो आज तक अस्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लेकिन एक किरन है जो उजाले की उम्मीद जगाती है। कुछ युवा आगे आए हैं जो पितृसत्ता कि लीक से अलग हटकर चल रहे हैं। ब्राजील में एक नया फेमिनिस्ट फैशन शुरू हुआ है। वहाँ पुरुष आजकल अपने सरनेम की जगह पत्नी का नाम या सरनेम लगाने लगे हैं। वहाँ के रजिस्ट्रार आॅफिस में पिछले तीन महीनों में 540 युवा अपनी पत्नी का सरनेम अपना चुके हैं। भारत में भी दो इसी तरह के युवक मुझे याद आ रहे हैं। एक प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता संजय लीला भंसाली और दूसरे लेखक दिनेश पाठक शशि। दिनेश ने अपनी पत्नी के नाम शशि को अपना उपनाम बनाया।
युवा दिलों के आदर्श रोमियो का पूरा नाम रोमियो मोंटेग था। लेकिन वह प्रसिद्ध हुआ जूलियट्स लवर के नाम पर लेकिन ब्रिटेन के कंजरवेटिव समाज में आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह प्रेयसी के नाम पर अपना नाम बदल ले। वहाँ आज भी माय गर्ल का कंसेप्ट बरकरार है... यानी जब तक लड़की कुंवारी है नाम के साथ पिता का सरनेम रहेगा। शादी के बाद पति का। वहाँ भी लड़की के वजूद से पुरुष समाज को परहेज है। इधर कुछ महिलावादी संगठनों ने यह सवाल उठाना शुरू किया है कि बच्चे के नाम के साथ पिता का ही नाम क्यों हो, माँ का नाम क्यों न हो। लेकिन अभी इस विचार से समाज पर अपना कोई असर नहीं दिखाया है। सिंगल पैरेंटिंग करने वाली कुछ महिलाएँ अपने बच्चों को अब अपना नाम ज़रूर देने लगी हैं लेकिन सरनेम देने का सामाजिक अधिकार अभई भई उनके पास नहीं है।
पितृसत्ता के घेरे से बाहर निकलकर जिन औरतों ने समाज में मनचाहा मुकाम हासिल किया है उनका जिक्र करना यहाँ आवश्यक है। उन्होंने तमाम बंधनों, परंपराओं की जकड़न से बहुत अधिक संघर्ष करके लानत मलामत, अपमान सहकर खुद को आजाद किया और यह सिद्ध किया और यह सिद्ध कर दिया कि वे सचमुच शक्ति का प्रतीक हैं। जिस मारवाड़ी समाज में बेटी का जन्म अभिशाप माना जाता है वहाँ जन्म से मोतियाबिन्द की शिकार, शादी कैसे होगी, ज़िन्दगी कैसे पार होगी के ताने सुनती आरती ने न केवल विजन स्क्रीन सॉफ्टवेयर सएका बल्कि नेत्रहीनों के लिए वाइस विजन कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र ही खोल डाला।
टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा ने क्रिकेट के दीवाने देश की दिलचस्पी टेनिस में जगाई। उन्नीस वर्षीय सानिया के खेल के दौरान पहने जाने वाले कपड़ों पर आपत्ति जताते हुए एक धार्मिक नेता ने फतवा जारी किया-उसे मुस्लिम लड़की की तरह कपड़े पहनने चाहिए। सानिया का जवाब था-खेल के दौरान मुझे जो पहनना पड़ता है वह मेरी पसंद नहीं बल्कि खेल की मांग है। मैं खुदा से डरती हूँ और रोज नियमित रूप से नमाज अदा करती हूँ। उसकी मुझ पर मेहरबानी है।
मालिनी जन्म से विकलांग थी। एक तो लड़की का जन्म, फिर विकलांग। समाज हाहाकार कर उठा। परिवार वालों के लिए यह बोझ पहाड़ जैसा था। लेकिन लड़की की माँ ज़रा भी विचलित नहीं हुई। साधारण घराने की उसकी माँ मीठू अलूर ने जीवट से काम लिया। न तो आंसू बहाएँ, न बेटी के दुर्भाग्य को कोसा, न ईश्वर से कोई शिकायत की। उसने विकलांग बेटी की बेहतरीन परवरिश के लिए प्रशिक्षण लिया और स्पेस्टिक सोसाइटी आॅफ इंडिया कि स्थापना करके दूसरों की मदद करनी शुरू कर दी। इस संस्था के अब 16 केंद्र हो गए हैं। उसने विकलांग बच्चों को मुख्यधारा के साथ रखने के संकल्प की श्ुरूआत मालिनी से ही की। मालिनी अब पी-एच.डी. है और व्हील चेयर पर बैठकर सोसाइटी के सेंटर संचालित करती है।
80 वर्षीया प्रेमा पुरब जब युवा थीं तो गोवा मुक्ति आंदोलन की सर्वेसर्वा थीं। वे जिस परिवार की थीं उसके कड़े कायदे कानून थे। औरतों को घर की शोभा समझा जाता था। बाहर की दुनिया मर्दों की थी। लेकिन प्रेमा पुरब ने पितृसत्ता को नकारते हुए घर की देहलीज लांघी और अपने गजब के आत्मविश्वास और जोश को लेकर वे उन कारनामों को अंजाम देने लगीं जो पुलिस की आंखों की किरकिरी थे। पुलिस ने उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन्हें बुरी तरह टॉर्चर किया। यहाँ तक कि उनके पैर में गोली भी मार दी। पर जिसके दिल में साहस का समंदर ठाठें मार रहा हो वहाँ टटकी बंदूकों का क्या काम? उन्हें झुकाने में नाकाम प्रशासन ने उन्हें गोवा से निर्वासित कर दिया। निर्वासन के बाद प्रेमा मुंबई आ गई। उन्होंने देखा कि मुंबई को मिलें बंद हो रही है और तमाम महिला श्रमिक दाने-दाने को मोहताज। उन्होंने 14 महिलाओं को साथ लिया और बैंक ऋण दिलाकर अन्नपूर्णा महिला मंडल की स्थापना की। महिलाओं की यह संस्था आज देश की जानी मानी संस्था है। जिसने भोजन, इरेडिएटेड मसाले आदि बनाकर कई क्षेत्रों में काम का विस्तार किया। सातारा जिले में भी मंडल का एक ट्रेनिंग सेंटर चल रहा है। आज करीब 2 लाख महिलाएँ मंडल की सदस्य हैं। प्रेमा पुरब पद्मश्री सहित 40 पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं।
ऐसी ही मजलिस नामक संस्था है जिसकी स्थापना 1990 में प्लैविया एग्नेस ने इस उद्देश्य से की थी कि यह संस्था घरेलू हिंसा, शोषण आदि से पीड़ित औरतों की मदद करेगी। फ्लेविया एग्नेस, खुद घरेली हिंसा कि शिकार थी। दिन रात पति के द्वारा मारपीट और अपमान उसकी ज़िन्दगी के अंग बन गए थे। आधी-आधी रात गए बच्चों के साथ घर से निकाल देना भी कोई नई बात नहीं थी। तेरह सालों तक अत्याचार सहने के बाद फ्लेविया के अंदर स्वाभिमान जागा। न ऊंची शिक्षा, न जेब में फूटी कौड़ी... सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मविश्वास की पूंजी लेकर कूद पड़ी कुछ करने को... अपनी पहचान बनाने को, स्वाभिमान से जीने को। उसने एल.एळ।बी. किया और अपनी ही तरह पीड़ित महिलाओं को जगाने के लिए मजलिस संस्था कि स्थापना की।
ये कुछ उदाहरण राजनीति, कानून, चिकित्सा, ज्ञान विज्ञान, खेल, कला, संस्कृति, सौंदर्य, तकनीकी, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में अपनी योग्यता, संघर्ष और दृढ़ निश्चय के बल पर पहुँचकर सफलता के परचम लहरा रहे हैं। निश्चय ही इन्होंने पितृसत्ता के अभेद्य दुर्ग को अपने मनोबल से तोड़ा है, परिवार की लानत मलामत सहन की है लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पितृसत्ता क्षीण हुई है या बदली है। बल्कि पुरुष और हिंसक हो गया है। सदियों से स्थापित अपनी तानाशाही को डगमगाते देख वह बौखला उठा है। यही वजह है कि यौन शोषण, घरेलू हिंसा, बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है। स्वयं को औरत से उत्कृष्ट, सुपीरियर समझने वाला पुरुष हर अत्याचार के लिए अघ्रसर है। तभी तो जेसिका लाल जैसी निर्दोष, मासूम युवती को गोली मार दी जाती है... उसका गुनाह? बिगड़े रईसजादे को मांगने पर शराब नहीं परोसना क्योंकि नियमानुसार बार का समय खत्म हो चुका था। जिस पर ताकतवर हत्यारा पुरुष भन्नाया कि ऐ कमजोर लड़की, तेरी ये हिम्मत, ये अकड़, हमारी ऐसी तौहिन। नहीं देती तो ले खा गोली। जा... सो आराम से और उन तमाम लड़कियों को जगा जो पुरुष सत्ता को नकारती हैं ताकि वे कभी अपने जीवन में ऐसी जुर्रत न करें।
लेकिन लड़कियों का हौसला कि वे ऐसी जुर्रत करती हैं। शायद उस दिन की चाह में जब जीवन को आगे बढ़ाने के लिए समान योग्यता, समान आवश्यकता, समान महत्त्व रखने वाले स्त्री-पुरुष एक होकर आगे बढ़ेंगे। जब दोनों के बीच ताकतवर और कमजोर का भेदभाव नहीं रह जाएगा, बुद्धिमान और मूर्ख का भ्रम नहीं रह पाएगा। लड़कियाँ सेना में भर्ती हो रही हैं। नेपाल की शाही सेना में पहली बार योद्धाओं के रूप में लड़कियों को भर्ती करने का ऐतिहासिक कदम उठाया गया। वे लेफ्टिनेंट कमांडर के पद पर आसीन हो रही हैं और आतंकवादियों का मुकाबला कर रही हैं... एक पैर हादसे में खोकर भी अनवरत नृत्य कर रही हैं और ये उंगलियों पर गिने जाने वाले नाम नहीं हैं... इन क्षेत्रों में लगभग पुरुषों की बराबरी ही नहीं बल्कि कई क्षेत्रों में पुरुषों से भी बढ़कर गिनती है औरतों की।
दूसरी ओर इलेक्टॉनिक और प्रिंट मीडिया ने औरत को बाज़ार में ला खड़ा किया है। यह उपभोक्तावादी वह संस्कृति है जिसने औरत के सौंदर्य और सुडौल देह के प्रदर्शन से अपने उत्पादनों को बाज़ार में उतारा है। धन और यश कमाने की लालसा ने औरतों को पुन: पितृसत्ता कि डुगडुगी पर नाचते रहने को विवश किया है। यह भंवर उसे न जाने किस तलहटी में ले जाकर छोड़ेगा।
लोकतंत्र के प्रहरी मानवीय अधिकारों के सामान्य कर्त्तव्यों को भी शायद भूल चुके हैं। युवा दर्शक मीडिया द्वारा प्रदर्शित नारी छवि से अन्यथा किसी छवि से परिचित ही नहीं है। औरत का यह नग्न, अश्लील रूप उनमें औरत के प्रति एक रुग्ण वासना पैदा कर रहा है। अब प्यार... सच्चा, शुद्ध, वासना रहित प्यार सेक्स बन गया है। यह प्यार होठों से शुरू होकर औरत की जांघों तक जाता है और जैसे ही देह का नशा खत्म होता है नदी की बाढ़-सा उतर जाता है। पूरी आधुनिक संस्कृति ने युवा पीढ़ी के दिमाग को धूमिल कर रखा है और यही वजह है कि परिवार टूट रहे हैं, आपसी समझौते से बिना किसी बंधन के जोड़े रह रहे हैं... और इस आधुनिक परंपरा को नाम दिया है लिव इन रिलेशनशिप।