पुनर्भव / भाग-11 / कमलेश पुण्यार्क

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किवाड़ यूंही भिड़काया हुआ था। तीखे दस्तक के प्रहार को सह न सका, और सपाट खुल गया।

सामने की चौकी खाली पड़ी थी, जिसने बताया कि तिवारीजी कहीं बाहर गये हुए हैं। चौकी के बगल में सदा बिछी रहने वाली खाट- जो मीना की स्थायी शैय्या थी- उसे भी खाली ही पाया विमल ने अपने सूने दिल की तरह। फलतः धड़कन बढ़ जाना स्वभाविक ही था। घर में इधर-उधर अस्त-व्यस्त पड़ी सामग्रियों ने भी धड़कनों का ही पक्ष लिया। भीतर रसोई में झांक कर देखा- वहाँ भी वही नीरवता, वही विश्रृंखलता, चौके के बरतन कुछ धोये, कुछ अनधोये- जूठे पड़े....बेतरतीब सिसकते साज की तरह, जिनका वादक किसी विकट वादियों में कहीं खो गया हो- ऐसा प्रतीत हुआ।

विमल समझ न पा रहा था- यह सब क्या मामला है? तिवारीजी कहाँ चले गये? हालाकि उनका विस्तर इस बात की गवाही दे रहा था कि रात वह अछूता ही रहा है- स्वामी-शरीर से। हाँ, मीना की खाट के साथ यह शिकायत नहीं थी। पर उठ कर वह गयी कहाँ- सवाल यह था- जो विमल को बेचैन किये हुए था।

एक बार फिर आवाज लगायी विमल ने-‘ मीना...ऽ...ऽ! कहाँ हो मीना? ’-और बढ़ चला भीतर आंगननुमा घेरे की ओर।

वहाँ पहुँच कर जो कुछ भी देखा उसने, आँखों पर विश्वास न हुआ। थोड़ी देर तक पाषाण-प्रतिमा सा स्तम्भित खड़ा रह गया।

....आंगन के मध्य में एक खाट- जिसे सिर्फ खाट कहा ही जा सकता है, पर पड़ी थी मीना। वदन पर पड़े कपड़े अस्त-व्यस्त स्थिति में- साड़ी ऊपर चढ़ कर कदली थम्म सी सुचिक्कन जघन को दर्शा रही थी। सिर के बाल उन्मुक्त होकर खाट से नीचे लटक, भू चुम्बन कर रहे थे। सीने का आवरण- ब्लाउज भी सरक कर, अपने स्वामिनी के प्रति बेवफाई जता रहा था। फेफड़ा धौंकनी सा चल रहा था। उदर-प्रान्त गहन गह्नर का रूप लिए बैठा था, कृश कटि पर। खाट के नीचे पड़ा था एक लोटा, मुंह औंधा किए हुए। उसके बगल में एक गिलास भी था। शायद उसमें अभी भी थोड़ा जल रहा हो, कारण कि वह सीधा खड़ा था- तन कर।

कुछ देर तक तो विमल दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा निहारता रहा।

इस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए- समझ न पा रहा था। मीना के पास जाय या शोर मचाये- किसी को बुलाये; किन्तु अधिक देर तक उसकी यह जढ़ स्थिति न रह सकी। उसकी प्राण- प्यारी, आह्लादिनी मीना इस अवस्था में न जाने कब से और क्यों पड़ी है; और वह नालायक इस कदर खड़ा तमाशा देखता रहे....हो न सका।

‘मीना...मीना...., आवाज लगाते हुए बढ़ आया खाट तक, यह सोच कर कि शायद बेहोश हो। पर समीप आने पर साश्चर्य उसने देखा कि मीना की आँखें खुली हैं एक टक शून्य में निहारती हुयी। धूप का एक छोटा सा टुकड़ा पिछवाड़े लगे नीम की टहनियों से छिप-छिप कर मीना के मुख मण्डल को टटोल रहा था।

क्षण भर में ही यह सब देख, झपट कर बगल में पड़ी पतली सी जीर्ण चादर को उठा कर ढक दिया मीना को गर्दन से नीचे तक जिससे उसकी नग्न यष्ठि पर झीना आवरण पड़ गया।

विमल ने देखा- मीना के होठ फड़फड़ा रहे हैं। उसके कानों में कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ भी प्रवेश की, जिनकी स्पष्टी हेतु और समीप हो आया। टूटे-फूटे शब्द घुसने लगे विमल के कानों में- ‘छोड़ दो...जाने दो...मरने...मेरा कौन...तुम... यहाँ... मीना...निवास....मीना का....पापा...आप....’

कुछ देर तक खाट के समीप सिर झुकाए अस्फुट वाणी का अर्थ जोड़ता रहा। किन्तु कुछ पल्ले न पड़ा- किसे छोड़ने कह रही है? पापा कौन है....? ’-

सोचता रहा। अर्थ हीनता पर सिर खपाता रहा। फिर ध्यान आया- गिलास में रखे पानी को चुल्लु में भर कर मीना के चेहरे पर दो-तीन छींटे मारा। फिर आवाज लगायी- ‘मीना उठो मीना, क्या हो गया है तुझे? ’

जल के छिड़काव से उसकी बड़बड़ाहट बन्द हो गयी, साथ ही खुली पड़ी आँखें भी मर्यादित होकर बन्द हो गयी। फैले- पसरे दोनों हाथों को समेट कर सीने पर रख ली।

विमल ने फिर पानी ढाला चुल्लु में, और पुनः एक छींटा मार कर, जेब से रूमाल निकाल, पोंछने लगा मीना के मुख सरोज को। साथ ही आवाज भी लगायी- ‘मीनू...ऽ...ऽ....। ’

इस बार विमल की आवाज मीना के गहरे मानस में प्रवेश कर आभ्यान्तर झकझोर गयी। आँखें खुल गयी। कुछ देर तक विमल के चेहरे को गौर से निहारती रही, मानों पहचान को स्वीकृति नहीं दे पा रहा है उसका मन। फिर एकाएक हड़बड़ा कर उठ बैठी। चादर की मर्यादा का उलंघन कर सुपुष्ट उरोज पुनः उन्मुक्त हो गये- वक्ष-तड़ाग में खिले दो सरोज की तरह। पर इसकी परवाह कहाँ थी उसे? उसे भय कहाँ था कि इन पंकज-प्रसूनों पर कोई उन्मादी भ्रमर न आ बैठे। वैसे पल भर के लिए विमल की चंचल निगाहें वहाँ तक गयी जरूर, पर शीध्र ही वापस उड़ कर मुख सरोज पर लौट अयी।

पल भर के निरीक्षण ने शायद बतला दिया कि यह वही है, जिसे तुम ढूढ़ रही हो। फलतः लपक कर लिपट पड़ी, बाहें फैला कर। विमल के गले में वर्तुलाकार अपनी वाहुलतिका डाल कर उल्लास भरे स्वर में बोली- ‘आ गए मेरे प्रियतम? ’ और उसके प्रसस्त सीने में सिर छिपा कर रोने लगी।

विमल आनन्द विभोर हो उठा। उसे समझ न आ रहा था- आज क्या हो गया है मीना को। कोई ढाई-तीन वर्षों बाद मिल रहा है आज अपनी हृदयेश्वरी से; पर कल्पना भी न की थी उसने कि इस प्रकार हृदय खोल कर रख देगी उसकी प्राण वल्लभा। फलतः आलिंगन का जवाब उसने भी दृढ़ आलिंगन से दिया। मुखड़े को ऊपर उठा, चूम लिया जवाकुसुम की कोमल पंखुडि़यों को, जो पहले से भी ज्यादा आरक्त हो आयी थी अब।

उसके होठों को परे हटा कर ठुनकती हुयी मीना ने कहा- ‘धत् ! बेवफा कहीं के...नहीं बोलूँगी तुमसे...कहाँ चले जाते हो छोड़कर? इतने दिन हो गये... वायदा कर गये थे, जल्दी आने के लिए....। ’

मीना कहती रही, और चिपकी रही विमल के सीने से, जो अब और रोमश हो आया था। विमल भी सहज भाव से चिपकाये रहा; और सुनता रहा चुपचाप- मीठे उलाहनों को, क्यों कि उसे इस वक्त बातों के जवाब में वक्त जाया करना फिजूल सा लग रहा था। अच्छा है, मीना इसी तरह उसके बेताब धड़कते सीने से घंटों लिपटी रहे, और शिकवे करती रहे। वह सुनता रहे। दुनियाँ अपनी धुन पर चलती रहे, उससे क्या मतलब?

‘......तुम्हारी राह देखते-देखते मेरी आँखें पथराने लगी। जी घबराने लगा। कोई

उपाय न सूझा। तुमने समाचार का कोई पत्र भी न दिया। दिल तड़प-तड़प कर रह गया मेरा। अन्त में लाचार होकर कल गयी थी काली माँ के मन्दिर में मन्नत मानने तुम्हारे आने के लिए। आह! माँ काली कितनी दयालु हैं- कल मन्नत की, और आज तुम आ गए। चलो, आज फिर चलूँगी- मन्दिर तुम्हें साथ लेकर। माँ के सामने तुमसे कसम खिलवाऊँगी- कभी जुदा न होने की। क्यों कि तुम बहुत ही कठोर दिल हो। ....ओफ कितना तड़पाया है तुमने मुझे...छली, बेवफा पुरुष! ओफ! एक असहाय औरत को...ओफ क्या हो गया है मुझे आज, समझ नहीं आता। पर मैं अबला नहीं हूँ। मुझे स्वयं....। ’- कहती हुयी मीना एकाएक चुप हो गयी।

क्षण भर में ही उसका शरीर अकड़ गया। बाहु-बन्धन शिथल पड़ गया। फलतः विमल ने भी अपना आलिंगन ढीला कर दिया। गोद से हट कर सुला लिया अपनी जंघा पर।

उसने देखा- मीना पुनः बेहोश हो गयी है। धूप का साम्राज्य पूर्णरूप से कब्जा जमा लिया है आंगन पर। अतः अपनी जंघा से मीना का सिर नीचे उतार दिया। स्वयं खाट से उतर पड़ा। झुक कर उठाया गोद में, और ला सुलाया भीतर कमरे में उसकी खाट पर।

घड़े में पानी रखा हुआ था। गिलास में ढालकर चुल्लु भर, छींटा मारा मुंह पर। एक...दो...तीन...चार...। पर कोई असर नहीं।

मीना लम्बी सांस खींच रही थी, पर आँखें ज्यों के त्यों बन्द ही रही। फिर एक दो छींटा लगाया। साथ ही लगायी जोर की आवाज- ‘मीना। ’

तभी द्वार पर पदचाप का आभास मिला। पीछे मुड़ कर देखा तो तिवारीजी नजर आए।

‘तुम कब आए विमल बेटे? क्या हुआ मीना को? ऐसे क्यों पड़ी है? ’- एक ही साथ तीन प्रश्न कर डाला तिवारीजी ने।

आगे बढ़, चरण स्पर्श के साथ विमल ने कहा- ‘पता नहीं क्या हुआ है इसे। मैं तो अभी-अभी ही आया हूँ। आप थे नहीं। आवाज लगाते भीतर आंगन में गया, तो वहाँ इसे बेसुध पड़ी पाया। धूप था, इस कारण उठाकर अन्दर ले आया। लगता है गहरी बेहोशी है, पर क्यों...समझ नहीं आता। ’

‘घबराने की कोई बात नहीं मैं अभी इसे ठीक किये देता हूँ। इसी तरह की बेहोशी एक दो बार हो गयी थी- पहले भी। प्यारेपुर के वैद्यजी से दिखलाकर दवा खिला रहा हूँ। कहा है उन्होंने कि घबराने की कोई बात नहीं। मानसिक तनाव के कारण ऐसा हो जाया करता है। ’- कहते हुए तिवारी जी सामने दीवार में बने छोटे से आले पर से एक नन्हीं सी शीशी उठा लाये, जिसमें कोई अर्क भरा हुआ था। वहीं पास रखे रूई के फोये में थोड़ा सा अर्क लेकर मीना के दोनों नथुनों में सुंघाये। और फिर इत्मिनान से अपनी चौकी पर बैठते हुये बोले- ‘थोड़ी ही देर में पूरी तरह ठीक हो जायेगी। ’

चिन्ता व्यक्त करते हुए विमल ने कहा- ‘ऐसी स्थिति में इसे छोड़कर कहीं आना-जाना भी अनुचित ही है। ’

‘सो तो तुम ठीक कह रहे हो। काफी दिनों से कहीं आ-जा न रहा था। जब कि जाना भी इसीके चलते है। इधर दो माह से बिलकुल ठीक थी। एक बार भी दौरा न पड़ा था। दवा चल ही रही है। सोचा कि ठीक हो चुकी है। परसों ही एक लड़के का पता चला नौवतपुर में। यहाँ से सिर्फ दो कोस है। सुबह ही गया था कल। यह सोचकर कि शाम तक तो वापस आ ही जाऊँगा। यह भी बार-बार कहा करती थी- ‘‘आप जायें, अपना काम देखें। मुझे घेरे कब तक बैठे रहेंगे। ’ यही सोच कर चल दिया। आखिर लड़का ढूढ़ना भी तो जरूरी है। जवान बेटी को घर में बिठा कर कब तक चैन पा सकता है कोई बाप? ’

‘सो तो है ही। समय पर शादी तो जरूरी है। पर...। ’- विमल ने सिर हिलाते हुये कहा।

‘वहाँ पहुँचा तो यात्रा कर फेर, लड़के के पिता से भेंट ही नहीं हुयी। मालूम चला कि शाम तक आयेंगे। और फिर शाम की प्रतीक्षा में रात भी होगयी। आये। बातें भी हुयी। पर बात बनी नहीं। स्पष्ट शब्दों में कहा उन्होंने- ‘सम में सम्बन्ध होता है, तब समधी बनते हैं। हम दोनों में काफी विषमता है। ’ अब सम हों या विषम, रात तो किसी तरह बितानी ही थी। सुबह होते ही चल दिया.....। ’- कह ही रहे थे तिवारीजी कि विमल बीच में ही टोक दिया-

‘देखिये न वापू, लगता है मीना होश में आ रही है। ’

तिवारीजी ने देखा, सही में मीना आँखें खोल, कमरे में इधर-उधर देख रही थी। एक बार जोरों से अंगड़ाई लेकर उठ बैठी।

‘आ गये वापू? ’- कहा मीना ने बिलकुल स्वस्थ की तरह। फिर विमल की ओर देखते हुए चट से उठ खड़ी हुयी- ‘वाह! धन्य भाग्य मेरे कि आज पधारे आप। मैं तो समझी थी कि हिन्दुस्तान के नक्शे से माधोपुर गायब ही हो गया है.....। ’ मीना कह रही थी। विमल सोच रहा था-

‘अजीब बीमारी है। इसे देख कर क्या कोई कह सकता है कि बीमार भी है? अभी-अभी गहरी बेहोशी से उठी है? ’

‘.....कहो कैसे याद आ गयी? या फिर रास्ता भूल गये? ’- कहती हुयी मीना कमरे में इधर-उधर देखने लगी- ‘ ओफ! आज बड़ी देर तक सोयी रह गयी। अभी

तक झाड़ू-पोतन भी नहीं कर पायी। ’

मीना के कथन से तिवारी जी के होठों पर फीकी मुस्कान विखर आयी। विमल आश्चर्य करता रहा, उसकी मानसिकता पर। कुछ सोचते हुये मीना की ओर देख कर बोला- ‘भूलने और याद आने की बात नहीं है मीना।

सच तो यह है कि मैं आया ही कहाँ? निश्चय कर रखा था कि अब एक ही बार पायलट बन कर ही जाना है तुम्हारे घर, ताकि कोई अड़चन न आये। ’

विमल की बातों की गहराई तक मीना तो सहज ही पहुँच गयी, पर तिवारीजी ने कोई विशेष ध्यान न दिया।

‘हाँ-हाँ, ठीक सोचा तुमने। गाड़ी से आने-जाने में बड़ी परेशानी होती है। अब जहाज से ही जाया करूँगी प्रीतमपुर। कहती हुयी मीना इधर-उधर झांकने लगी, मानों कमरे में ही कुछ ढूढ़ रही हो- ‘अरे! कहीं दीख नहीं रहा है। कहाँ रखे हो अपना पुष्पक विमान? ’

मीना की मुद्रा और भाव-भंगिमा पर तिवारीजी के साथ-साथ विमल भी हँसने लगा। मीना रसोई घर की ओर चली गयी, कहती हुयी- ‘अच्छा, तब तक उड़ाओ तुम अपना हवाई जहाज। मैं जरा चाय-वाय का इन्तजाम करती हूँ। ’

मीना अन्दर आयी, जहाँ रात के जूठन अभी भी विखरे विलख रहे थे। उन्हें उठा कर आंगन में ले लायी- नहलाने-धुलाने।

इधर विमल मुखातिव हुआ तिवारीजी की ओर- ‘तब बापू! अभी तक तो असफल ही रहे। कहीं काम न बना? ’

‘हाँ बेटे! घूमते-घामते कई जोड़ी जूतियाँ घिस गयी, पर बला विवाह कहीं तय न हो पाया। सच पूछो तो आज के जमाने में सतत परिश्रम से भगवान को ढूढ़ना आसान है- वर की अपेक्षा। ’- उदासी की मुद्रा में कहा तिवारीजी ने, और तकिए का ढासना लगा कर पड़ गये चौकी पर। विमल, जो अब तक साथ में ही बैठा था, उठ कर मीना वाली खाली खाट पर जा बैठा।

‘वैसे तो मैं विलकुल ही बच्चा हूँ। आप मेरे पिता क्या पितामह तुल्य हैं, अतः कुछ कहने में जुवान सटती है....। ’- संकोच पूर्वक कहा विमल ने।

‘सो तो है। तुम्हारे पापा से मैं काफी बड़ा हूँ। किन्तु वयस्क बालक मित्रवत होता है। अतः निःसंकोच कहो, जो कुछ कहना चाहते हो। ’

तिवारीजी की बातों से हिम्मत बढ़ा विमल का। उसने कहा- ‘ बहुत दिनों से मेरे मन में एक बात घूम रही है, किन्तु अब तक न मैं इस योग्य था और न समय ही अनुकूल; परन्तु अब लगता है कि इस आकांक्षा को प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं। आप मेरी धृष्टता समझें, किन्तु मैं अब कहे बिना रह नहीं सकता...। ’

‘कहो...कहो। इतना संकोच क्यों? धृष्टता की क्या बात है? यह तो अपनेपन की बात है। कुछ सलाह मशविरा ही तो देना चाहते हो मुझे। ’-मुस्कुराते हुये तिवारीजी बोले।

‘हाँ, सलाह ही समझें, या अनुरोध। आपकी परेशानी अब मुझसे देखी नहीं जाती। इतने दिनों से आप भटक रहे हैं, पर अभी तक कोई योग्य वर न मिल पाया मीना के लिये। कहीं लड़का ही अयोग्य तो कहीं आपकी अर्थ व्यवस्था। अतः मैं कहना चाहता हूँ कि क्या यह सम्भव नहीं हो सकता कि......। ’-स्पष्ट कहने में विमल की जीभ सटने लगी। पता नहीं तिवारीजी क्या सोचेंगे इसका प्रस्ताव सुनकर।


‘मीना के लिए परेशान तो हो ही रहा हूँ विमल बेटे, किन्तु कर ही क्या सकता हूँ। यदि कोई उपाय हो तो बतलाओ। प्रयास करूँगा उस पर पहल करने का। ’-आशान्वित होते हुए तिवारीजी बोले- ‘सम्भव-असम्भव की क्या बात है। कहो, तुम कहना क्या चाहते हो? कभी-कभी बच्चों की बातें भी महत्त्वपूर्ण और विचारणीय हो जाती हैं। ’

साहस बटोर, अतिशय भाउक हो विमल ने कहा- ‘मीना हेतु योग्यता की मापदण्ड में क्या मैं नहीं आ सकता? ’

विमल की बात पर तिवारीजी को अपने कानों पर विश्वास न हुआ। क्या यह विमल का प्रस्ताव है? निर्मल उपाध्याय के सुपुत्र विमल का? इतने बड़े खानदान का- इतने दौलत वाला, क्या मेरी बेटी- एक अतिधनहीन की बेटी को स्वीकार कर सकता है अपनी पत्नी के रूप में? - तिवारीजी सपने भी न सोच पाये थे।

उठ कर तो पहले ही बैठ चुके थे। अब थोड़ा और झुक आए आगे की ओर। हो सकता है विमल के कथन का आशय न समझ आया हो। अतः बोले- ‘क्या कहा तुमने विमल बेटे? क्या मेरे भाग्यपट खोलने की बात कह रहे हो? क्या मेरी मीना का हाथ मांग रहे हो? तुम...विमल बेटे...तुम....? ’- भावोद्रेक में तिवारीजी की डबडबायी आँखें विमल को अपलक निहारने लगी। जी चाहा था- झपटकर उस देवदूत के श्रीचरणों में गिर पड़ने को।

ओफ! क्या होता है कन्या-पिता का हृदय! यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता! और उस नारी के जनक की इतनी हीन स्थिति? क्या कन्या सही में ‘दुहिता’ है? पिता का धन-मान सर्वस्व दोहन करने को ही आती है?

क्या यह... नहीं...नहीं..., ऐसी बात नहीं। जिस पृथ्वी पर विमल सरीका देवदूत अवतरित हुआ है, उस धरा की कन्या कभी ‘दुहिता-दुर्विशेषण’ से लांछित नहीं हो सकती। - तिवारीजी सोच रहे थे। फटी आँखों से विमल को देखे जा रहे थे।

विमल कह रहा था- ‘हाँ बापू! मैं हाथ ही मांग रहा हूँ आपकी मीना का, वशर्ते कि योग्यता के माप दण्ड में सही आ सकूँ। ’

‘ओह! कितना भाग्यवान हूँ मैं। मेरी मीना कितनी भाग्यवान है। ’- आनन्दा-

तिरेक में कह उठे तिवारीजी। फिर जरा संयत होकर बोले- ‘सच पूछो तो विमल बेटे! मीना के लिये योग्य वर का मापदण्ड इतना छोटा है कि उससे तुम्हारी महानता, कई आवृत्तियों में भी मापना मुश्किल है। कहाँ आरक्षी अधीक्षक, करोड़ों की औकाद वाले, खानदानी जमींदार तुम्हारे पिता; और कहाँ निरा निपट देहाती, गंवार, कंगला, अकिंचन एक अदना सा मास्टर! मैं तो उनकी चरण पादुका के क्षुद्र रज कण की बराबरी भी नहीं कर सकता। ’

प्रफ्फुल्लित विमल ने कहा- ‘आपकी दौलत की क्षुद्रता का सवाल ही नहीं है बापू। बात है आपके हृदय की विशालता का, जहाँ इतनी जगह है कि सारा जहाँ समा जाय। दौलत के तुच्छ बटखरे से इसे कतयी तौला ही नहीं जा सकता। आपने उस दिन प्यारेपुर वाले ओझाजी की बात बतलायी थी, जिसे सुनकर मुझे घृणा हो आयी। आप निश्चत जाने- मेरा परिवार इस संकीर्णता से बिलकुल विलग है। अतः यह न सोंचें कि मेरे पापा दौलत के भूखे हैं...। ’

विमल कहता रहा। तिवारीजी सुनते रहे। उन्हें लग रहा था कि पूर्वजन्म के किसी महान पुण्य का पुनीत फलोदय हुआ है। याचक बन कर स्वर्ग जाने की आवश्यकता नहीं, वरन् स्वर्ग स्वयं ही आया है उनके द्वार याचना करने। ऐसे ही एक दिन आया था स्वर्ग- इस भू पर। देवराज इन्द्र आये थे, भिक्षुक की तरह, तुच्छ कवच-कुण्डल के लिए’ और वह निष्कलुश भू-वासी कहाँ चूका था महादान के पुण्य फल को प्राप्त करने में!

वैसे ही आज तिवारीजी का भी पुण्य फल उदित हुआ है। वे भी आज चूकेंगे नहीं। स्वीकार कर ही लेंगे। एक और महादान का अवसर आ ही जायेगा।

विमल ने कहा- ‘....आप आज ही चलें, मेरे साथ में ही। पापाजी के पास मेरे सम्बन्ध का प्रस्ताव रखें। मुझे विश्वास है कि वे कदापि अस्वीकार नहीं करेगे। यदि कर भी दिये तो फिर मैं अपना ‘वीटो’ इस्तेमाल कर राजी तो करा ही लूँगा। ’

‘ठीक है, तुम जैसा कहोगे, किया जायेगा। ’

‘मेरी जल्दबाजी का भी एक कारण है बापू’- विमल कह रहा था कि बीच में ही तिवारी जी बोल पड़े- ‘जल्दबाजी तो मुझे करनी चाहिये। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? ’

‘यही तो बतलाना चाहता हूँ। ’- विमल ने स्पष्ट किया- ‘आपके मित्र पदारथ ओझाजी की विशेष कृपा दृष्टि आजकल हमारे ऊपर है। कल भाभी द्वारा मालूम हुआ- रामदीन पंडित जो मुझे दौलत से खरीदना चाहते हैं। ओझाजी भी काफी जोर लगा रहे हैं। पगली-काली- कानी सर्वगुण सम्पन्ना पुत्री को दौलत की डोली में चढ़ा कर मेरी ड्योढ़ी में उतारना चाहते हैं। भला आप ही सोंचे- मेरा जीवन गर्क करने पर ही तो तुले हैं ओझा जी? ’

विमल की बातों पर तिवारीजी रोमांचित हो उठे। सपने में भी जिस बात की कल्पना न हुयी होगी, आज साकार-साक्षात् है। प्रसन्नता और आशा के अद्भुत मोती तैरने लगे उनकी आँखों में।

मीना चाय लिये आ पहुँची। रसोई में बैठी चाय बनाती, काफि देर से इनकी

बातें सुन रही थी। उसके दिल में प्रसन्नता की सुरभि प्रवाहित हो रही थी; किन्तु साथ ही एक अज्ञात तूफान भी उठ रहा था, जिसका कोई भी वजह उसे समझ न आ रहा था।

कांपते हाथों में प्याला थामे जा खड़ी हो गयी वापू और विमल के सामने। आज विमल के सामने आने में उसे अजीब सी सिहरन होने लगी थी। लाज रूपवती होकर उसके श्यामल पलकों पर आ बैठी थी, जिसके कारण बोझिल पलकें झुक आयी थी। उर्ध्व भार के वजह से पाटल पंखुडि़यों सा कोमल कपोल कुछ और सुर्ख हो आया था। धमनियों में रक्त दाब ‘स्फैगनोमैनोमीटर’ के माप से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था।

‘अब तबियत तो विलकुल ठीक है ना मीना? ’- उसके हाथ से प्याला पकड़ते हुए विमल ने पूछा।

मधुर ध्वनि सुन, मदिर नयनों के रक्षक कुछ निमीलित से हो गये। हृदय की धड़कन थोड़ी और बढ़ गयी, और साथ ही बढ़ा ले गयी गालों की लालिमा; और उतर आयी होठों पर थिरकन बनकर शब्दों की नाई-

‘ठीक हूँ। ’- अति संक्षिप्त सा उत्तर था मतवाली का। दूसरा प्याला पिता को देकर, झटपट वापस लौट पड़ी रसोई की ओर। भय था कि कहीं विमल कुछ और न पूछ बैठे।

किन्तु विमल को फुरसत ही कहाँ थी कुछ और पूछने की। वह तो चाय की चुसकी लेने लगा होठों से, क्यों कि आज की चाय में कुछ अजीब सी मादकता थी। मिठास था। लग रहा था मानों चाय की प्याली नहीं वरन् दिल के बोतल में ममता, स्नेह और प्यार का सोमरस भरा हो, जिसे होठों के ‘निपल’से प्रेमक्षुधातुर विलखते निरीह बालक को पिलाया जा रहा हो। काफी देर तक चाय की मधुर चुस्की लेता रहा विमल।

तिवारीजी चाय का खाली प्याला नीचे रख, माथे में गमछा और कान में जनेऊ लपेट, लोटा उठाकर बाहर निकल गये, कहते हुये- ‘मैं अभी आया। तुम बैठो तब तक। ’

तिवारीजी चल दिये ‘हाजतरफा’ को और विमल उठ खड़ा हुआ- दिल के हाजत में इजहार करने। आवाज लगायी दरवाजे पर खड़ा होकर-‘मीना क्या कर रही हो मीना? ’