पुनर्भव / भाग-12 / कमलेश पुण्यार्क
‘नाश्ता बना रही हूँ। ’-हाथ में कलछुल लिए मीना पीछे झांकी। विमल को ठीक पीछे खड़ा हुआ पायी।
‘नास्ते की क्या आवश्यकता है? जल्दी से खाना ही तैयार कर दो। भोजन करके शीघ्र ही चल देने का विचार है, बापू को साथ लेकर। आज लगता है संयोग जुटा है। साहस जुटा कर वर्षों की चाहत उगल सकने का मौका मिला है। अतः लगे हाथ किला फतह कर लेना है। अन्यथा जीवन-यात्रा-भंजक, एकाक्षी-दर्शन का दुर्योग बन जाने का खतरा सिर पर मड़रा रहा है। ’- मुस्कुराते हुए कहा विमल ने, और विलकुल समीप आकर पीढ़े पर बैठ गया।
‘तो इतनी बेताबी हो रही है शादी के लिए? ’-हँसी को जबरन दबाने का प्रयास करती हुयी मीना ने कहा।
‘बेताबी की बात नहीं है मीनू। बापू की चिन्ता और परेशानी सही नहीं जाती है अब। ’
‘बापू की परेशानी की फिक्र है या कि खुदगर्जी की बेसब्री? ’- आँखें मटकाती,
मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा।
‘अब तुम जो भी अर्थ लगाओ। कुछ तो स्वार्थ है ही। निःस्वार्थ होना बड़ा कठिन है। वैसे तुम जानती ही होगी- ब्राह्मण की मूल उपाधि ‘शर्मा’ है। ‘शर्म’ का असली अर्थ भी मालूम ही होगा? ’
‘हाँ...हाँ, मालूम है। शर्म का अर्थ होता है कल्याण, और कल्याण की प्रवृत्ति हो जिसमें, कल्याणकारी है जो- उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है। वैसे ब्रह्म के ज्ञाता को भी ब्राह्मण ही कहते हैं। ’- मीना ने स्पष्ट किया।
‘यानी कल्याण की भावना नहीं है जिसमें वह तो ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। अतः मैं अपने स्वार्थ सिद्धि की आड़ में ब्रह्मणत्त्व सिद्धि के प्रयास में हूँ। ’
‘अच्छा, तो आजकल धर्मशास्त्र के निर्देशानुसार चल रहे हो? क्यों? ’
‘एक बात बतलाओ मीना। ’- विमल ने प्रसंग को थोड़ा मोड़ते हुये पूछा- ‘सच कहना, जरा मेरी ओर देखकर बोलो- तुम मुझसे प्रेम करती हो या नहीं? शादी की इच्छा है या नहीं? ’
‘यह कैसे कह दूं कि तुमसे प्रेम नहीं है। कहने की हिम्मत भी नहीं है। तुम्हारे परिवार का भारी एहसान है मुझ पर। ’
‘छोड़ो भी, एहसान-वेहसान की बात। मैं जो पूछ रहा हूँ उसका जवाब दो। ’
‘वही तो मैं कह रही हूँ। तुम्हारे प्रेम की अस्वीकृति का प्रश्न ही नहीं। नाकारने की साहस ही नहीं। ’
प्रेम-प्रसंग पर अभी कुछ और चर्चा चलती शायद, किन्तु तिवारी जी के
आने की आहट पा विमल उठकर खड़ा हो गया। बाहर झांक कर देखा- आम के तने से बंधी अलगनी पर तिवारीजी अपनी धोती पसार रहे थे।
कमरे में खूँटी पर रखी धोती लेकर विमल आगे बढ़ा। तिवारी जी गीला गमछा लपेटे हाथ में लोटा लिए कमरे में दाखिल हुए।
‘तुम भी स्नान करोगे न विमल बेटे? ’- विमल के हाथ से धोती लेते हुए पूछा तिवारीजी ने।
‘नहीं बापू। मैं तो सुबह में ही स्नान करके चला हूँ घर से। ’
‘ठीक है। तुम बैठो थोड़ी देर। मैं तब तक जरा पूजा कर लूँ। ’-कहते हुए तिवारीजी पास ही तख्त पर आसन बिछा पूजा की तैयारी में लग गए। विमल पुनः अन्दर चला गया मीना के पास; किन्तु मीना को रसोई के काम में व्यस्त देखकर पुनः उसी कमरे में आ गया, जहाँ तिवारीजी पूजा कर रहे थे।
आसनासीन तिवारीजी प्रारम्भ किए- भगवत चिन्तन और वहीं खाट पर बैठा विमल डूब गया- भूत से भविष्य तक के प्रेम- चिन्तन में। और इसी में गुजर गया समय करीब डेढ़ घंटा। तिवारीजी कवच, स्तोत्र और सहस्रनामों के पन्ने पलटते रहे; और विमल कल्पनाओं की रंगीन वादियों में विचरण करता रहा। स्वर्णिम भविष्य की कल्पना रग-रग में गुदगुदी पैदा करती रही। मीना- उसके सपनों की रानी...कल्पना का स्वर्ग...दिल की धड़कन...धमनियों की उष्ण धारा ...आँखों की ज्योति...न जाने क्या-क्या। उसका सब कुछ एक मात्र मीना के आँचल में अर्पित है। दुनियाँ-जहान की खुशियाँ समेट कर उसकी सूनी आंचल में शिरीष के कोमल फूलों की तरह उढेल देना चाहता है। विमल की पूरी दुनियाँ बस इतने में ही सिमट आयी है।
‘खाना निकालो मीना। पूजा समाप्त हो गयी। ’-आसन समेटते हुए कहा तिवारीजी ने, और आवाज सुन विमल ऊतर आया, सीधे ठोस धरा पर- कल्पना के सुरम्य गगन से।
विमल खाट से उठ कर चौकी पर आ बैठा। खाट खड़ी कर दी गयी, क्रोधी बकरी की तरह- दो पैरों पर; और उस रिक्त भाग पर ‘ठांव’ देकर आसन लगाया गया, भोजन करने हेतु- भावी स्वसुर-दामाद के लिए।
आसन पर दोनों विराज गये। मीना थाली लगाने लगी।
भोजन बनाने की हड़बड़ी में स्नान के बाद मीना अपने के्य भी न संवार पायी थी। फलतः निगड भंजित उन्मुक्त अलकें, काली सर्पिणी की तरह उसके गौर पृष्ठ प्रदे्य पर बलखा रही थी। धानी रंग की साड़ी में लिपटा मीना का गौर गात विमल को बड़ा ही मनोहर लग रहा था। जी में आया- बाहें पसार कर समेट ले उसे अपने आगोश में। किन्तु मचलते मनचले मन को किसी प्रकार समझाया, धीरज बँधाया- ‘क्यों बेचैन हो रहे हो? अब तो वह तुम्हारी ही है, बिलकुल तुम्हारी। दुनियाँ के सारे बन्धनों से मुक्त, तुम्हारी कल्पनाओं की साकार प्रतिमूर्ति..। ’
भोजन परोसने के क्रम में मीना कई बार आयी उस कमरे में- कभी लोटे में जल लेकर, कभी गिलास, कभी थाली और तस्तरी लेकर। हर बार विमल की चंचल शोख निगाहें उसके रूप-यौवन- सम्पदा को चुराने का प्रयत्न करती रही।
भोजन क्रम में कोई विशेष बातचित का प्रश्न ही नहीं था, क्यों कि तिवारीजी मौन भोजन के नियमावलम्बी ठहरे। यह उनकी पुस्तैनी आदत है। उनके मौन ने वाध्य कर दिया, विमल को भी मौन ही रहना पड़ा।
भोजन समाप्त कर दोनों तैयार हो गये, चलने के लिए।
विमल ने कहा-‘आते वक्त पाप ने कहा था, साथ में मीना को भी लेते आने के लिए। ’
‘जाने को तो बराबर जाती ही रही है। आज भी जा सकती है; किन्तु इस समय हमलोग जिस उद्देश्य से जा रहे हैं, मीना को साथ लेकर जाना उचित नहीं लग रहा है। वैसे तुम्हारा विचार हो तो लिए चल सकते हो। ’-कहते हुए तिवारीजी कमरे से बाहर आम्र तल में आकर कुछ सोचने लगे।
‘ठीक ही है। जैसा आप कहें। ’-कहता हुआ विमल एक बार पीछे मुड़ कर रसोई घर की दीवार की ओट में खड़ी मीना का मुखमंडल निहारा, जिस पर लज्जा, संकोच, चिन्ता और भय के विभिन्न भाव बारीबारी से आ जा रहे थे। ‘अच्छा मीना अब चल रहा हूँ। ’- कहते हुए विमल भी बाहर आ गया।
‘फिर कब आओगे? ’ - प्रश्न मीना की बतीशी में उलझा ही रह गया। शर्मीली जिह्वा उसे ठेल कर बाहर न निकाल सकी। पांव के अंगूठे से मिट्टी कुरेदती, चुपचाप खड़ी रही, सिर झुकाये।
कुछ देर बाद, जब आहट से यकीन हुआ कि वे लोग गाड़ी में बैठ चुके हैं, तब लपक कर बाहर दरवाजे तक आ गयी।
गाड़ी जब बढ़ चुकी आगे, तो तब तक उसे पीछे से निहारती रही, जब तक कि आँखों से ओझल न हो गयी। कच्ची सड़क की धूल उड़ाती गाड़ी चली गयी, मीना के अरमानों को ठूढ़ने, प्रीतमपुर की ओर।
अपराह्न करीब दो बजे, तिवारी जी पहुँचे, विमल सहित प्रीतमपुर।
उपाध्याय जी भोजन कर, विश्राम कर रहे थे। अहाते में गाड़ी की आवाज सुनायी पड़ी, तब यह सोचकर उठ बैठे कि शायद मीना आ गयी। अतः कमरे से बाहर निकल, वरामदे में आए। गाड़ी तब तक बगल के पोर्टिको में जा लगी थी।
विगत सम्पर्कों ने मीना के प्रति निर्मल जी के दिल में अटूट स्नेह का सोता प्रवाहित कर दिया था। मीना को अपनी बेटी से जरा भी कम न समझते थे। जब कभी भी मीना आती, उन्हें ऐसा प्रतीत होता मानों ससुराल प्रवासिनी पुत्री आयी हो।
मीना के आगमन की प्रतीक्षा में वे वरामदे में आकर बैठ चुके थे। गाड़ी से उतर कर आये सिर्फ तिवारी जी और विमल। साथ में मीना को न देख, पल भर के लिए उनका मुख मुरझाये प्रसून सा म्लान पड़ गया।
‘आइये तिवारीजी। ’- कुछ औपचारिक सा स्वर निकला। फिर चकपक इधर-उधर देखते हुये बोले- ‘क्यों मीना बेटी नहीं आयी? ’- स्वर में उदासी थी।
‘किंचित विशेष उद्देश्य से मैं चला हूँ। फलतः उसे न ला सका। ’- कहते हुए तिवारीजी ऊपर वरामदे में आकर निर्मलजी के बगल में कुर्सी पर बैठ गए। विमल सीधे भीतर चला गया।
‘और सब ठीक ठाक है न? मीना बेटी कैसी है? उसकी तवियत की चिन्ता बनी रहती है। ’-पान की गिलौरी मुंह में दबाते हुए उपाध्याय जी ने कहा।
‘आपके आशीष से ठीक है सब कुछ। मीना ठीक ही है। उस दिन मैंने आपसे कहा ही था, इधर महीने भर से ऊपर हो गये, दौरा नहीं आया है। किन्तु कल सुबह ही मैं चला गया था वरान्वेषण के चक्कर में नौबतपुर। उधर से वापस लौटा आज
सुबह, तो उसे बेहोश पाया। ’- तिवारी जी ने एक ही क्रम में मीना की सम्प्रति
स्थिति स्पष्ट करने के साथ-साथ भावी वार्ता की भी भूमिका बना डाली।
‘देखिये तिवारीजी!’-पान का पीक फेंकते हुए उपाध्यायजी बोले- ‘मीना बेटी को बीमारी-उमारी कुछ नहीं है। आप देख ही रहे हैं कि वचपन से ही वह कितना भाउक है। उम्र की तुलना में वह कितना अधिक समझदार है। इसीका सब नतीजा है। रात-दिन उसके दिमाग में अभाव-ग्रस्त जीवन की दयनीय स्थिति चक्कर काटती रहती है। आपको देख ही रही है, हमेशा उसके लिए वर ढूढ़ने में बेहाल हैं। इन्हीं बातों को सोच-सोच कर कुंढ़ती रहती है, जिसके कारण इस तरह से मानसिक दौरे पड़ रहे हैं। ’
‘बात तो ठीक ही कह रहे हैं आप। ’-सिर हिलाते हुए तिवारी जी बोले-‘मैं भी यही सोचता हूँ। इसकी बीमारी का मुख्य कारण- मानसिक अवसाद ही है- ऐसा ही वैद्यजी ने भी कहा था। सब समझ रहा हूँ, किन्तु कर ही क्या सकता हूँ? भगवान ने उसे बुद्धि दे ही दी है, उम्र से ज्यादा। लड़कियाँ कुछ तो स्वाभाविक ही भाउक हुआ करती हैं। तिस पर तो यह विशेष है। धन-जन, हर कुछ का अभाव है ही। इतना दौड़ रहा हूँ। पर शादी तय हो नहीं पा रही है। तीन साल से तो चक्कर मार रहा हूँ। कहीं योग्य वर नहीं तो कहीं घर नहीं योग्य। योग्यायोग्य की बात जहाँ नहीं है, वहाँ है- अभी दो-चार साल शादी न करने की बीमारी। सब कुछ सलट भी गया यदि तो खड़ा मिलता है- विकराल दहेज-दानव। क्या करूँ, समझ में कुछ आ नहीं रहा है। इसीलिए चला हूँ आज आपके पास। आप हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, बुद्धिमान, देश-दुनियाँ देखे हुए व्यक्ति हैं। भले ही उम्र में कम हों, पर अनुभव हमसे बहुत ज्यादा है। आप ही कोई रास्ता सुझाइये। ’
‘उम्र में तो आपसे काफी छोटा हूँ ही; तिस पर पुलिस विभाग का खफ्त दिमाग। पुलिस वालों को दिमाग की कितना हुआ करता है। ’-हँसते हुए कहा निर्मलजी ने और पान का पीक फेंकते हुए जरा तन कर बैठते हुए बोले-‘सच पूछिए तो जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है, तिवारीजी। रूढ़ीवादी संकीर्ण परम्परायें भी काफी कष्टप्रद हो रही हैं। एक ओर जातिवाद के जीर्ण लवादे को हटाने का प्रयास किया जा रहा है। परम्परागत उपाधियों का कर्तन हो रहा है-नाम पर अकारण बोझ समझ कर, तो दूसरी ओर हम और भी संकीर्ण होते जा रहे हैं....। ’
उनकी बात को बीच में ही काटते हुए तिवारीजी ने कहा- ‘जाति-उन्मूलन का तो अच्छा तरीका अपनायी है, हमारी सरकारें। मेरे विचार से आरक्षण छब्बीस प्रतिशत से बढ़ाकर छियासठ प्रतिशत कर दिया जाय तो और अच्छा। देश का भी कल्याण होगा। ’
‘खैर यह तो राजनयिकों की कवायद है। वोट बटोरने का बेजोड़ अनोखा नुस्खा है। वास्तविक कल्याण कहाँ तक हो पाता है, भगवान जाने। अब देखिये न- हमारे इस्लाम भाई परिवार नियोजन के बन्धन से मुक्त हैं। भारत तो एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ गणराज्य है न, और कुरान शरीफ इजाजत नहीं देता ‘नियोजन’का। पता नहीं ‘वेदों’ ने दिया होगा आदेश, जिसे नेताओं ने सिर्फ पढ़ा होगा। ’
‘वैसे जहाँ तक मुझे पता है- राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे, दक्ष प्रजापति की साठ हजार कन्यायें। कश्यप-पत्नी कद्रु ने सहस्र बलशाली पुत्रों की कामना की थी। हमारी बड़ी-बूढि़याँ ‘एक से इक्कीश’ होने का आशीष दिया करती हैं। ’
बातें हो ही रही थी, तभी नौकरानी चाय ले आयी। प्याला पकड़ते हुए तिवारीजी ने कहा-‘इस तरह की तो कितनी ही बातें हैं, जिन पर विचार भी तभी किया जा सकता है, जब पेट भरा और तन ढका हो साथ ही सिर पर कम से कम छप्पर तो जरूर हो...। ’
चाय की चुस्की लेते हुए उपाध्यायजी ने कहा-‘कथन तो आपका सही है तिवारीजी। मैं भी जरा विषयान्तरित हो गया था। व्यक्ति, समाज और तब बारी आती है- राष्ट्र की। स्वयं को सुधारने का ठिकाना नहीं, और चल देते हैं सुधारने राष्ट्र को। हम संकल्प पूर्वक स्वयं को सुधारें। फिर अपने बाल-बच्चे परिवार को सुधारें, सुसंस्कृत करें, सुशिक्षित करें। धीरे-धीरे एक नये समाज का जन्म होगा। आप तो शिक्षक रह चुके हैं तिवारीजी। शिक्षक की महिमा और गरिमा के बारे में मैं क्या समझाऊँ आपको। किन्तु धीरे-धीरे शिक्षा का जो स्तर गिर रहा है, या कहें सुनियोजित ढंग से गिराया जा रहा है, उसका परिणाम भी नजर आने लगा है चन्द वर्षों में ही। ‘वोट-बैंक’ बनाने के चक्कर में ये हमारे नेता गण कौन-कौन सा कुकर्म नहीं कर रहे हैं, कुछ बाकी भी रहा है इन बेशरमों से? ’
‘ठीक कह रहे हैं उपाध्यायजी आप। किसी अनुभवि ने ठीक ही कहा है-
‘हंसा रहा सो मरि गया, सुगना गया पहाड़, अब हमारे मंत्री भये कौआ और सियार। ’ शिक्षक की तरह ही नेता का भी पद कितना गरिमामय है, कितनी जिम्मेवारी वाला है, ये बात हमारे आज के नेता कहाँ समझ पा रहे हैं? बस सिर्फ अपना उल्लु सीधा करने में पांच साल बिता देते हैं; और फिर बेहयायी पूर्वक भोली जनता को सब्जबाग दिखाने चले आते हैं- अगले चुनाव के लिए। ’
‘दरअसल, सत्चरित्र आगे आयेंगे, तब न जिम्मेवारी निभायेंगे। पर आते हैं छंटे धब्बेदार, जिन्हें किसी ‘डिटर्जेंट’ से स्वच्छ नहीं किया जा सकता। इक्के-दुक्के महान, चरित्रवान, सत् नायक आते भी हैं, तो खलनायकों की जमात में उनकी विसात ही क्या रह जाती है? कौन सुनता हैं उनकी बातें? ’-निर्मलजी ने बड़े मायूसी से कहा-‘गांधी से सारा संसार प्रभावित हुआ। अंग्रेज घुटने टेके; किन्तु जरा गहराई में झांक कर देखें- गांधी का दर्द! सच कहें तो गांधी को सबसे ज्यादा दर्द तथाकथित गांधीवादियों ने ही दिया। ’- जरा ठहर कर उपाध्यायजी ने फिर कहना शुरू किया-‘खैर, इन दूर की बातों को थोड़ा जाने भी दें। हम अपनी आसन्न समस्या पर ही विचार करें। ’
‘हाँ-हाँ, अपनी समस्या से पहले उवरें, तब कुछ और सोचें...। ’- सिर हिलाते हुए तिवारीजी ने कहा।
‘आज आप परेशान हो रहे हैं मीना बेटी की शादी के लिए। पर बन्धे हुए हैं- ‘वर्ण’ के भीतर, जाति की भी तह में प्रजाति, और उपजाति के तंग फंदों में भटक रहे हैं। ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं, गुण कर्म विभागशः’’ दूर रहा। हम ढूढ़ रहे हैं- फलां शाकद्वीपीय है, तो फलां क्रौंच द्वीपीय है, गौढ़ है, तो फलां कान्यकुब्ज, वह सरयूपारी है, तो वह मैथिल। इतना ही नहीं, मजे की बात तो यह है कि हर कोई स्वयं को श्रेष्ठ और शेष को अपने से हीन सिद्ध करने को उतारू है। जब कि सीधा सा उत्तर है कि पूर्व काल से ही दस ‘भूदेव’पृथ्वी लोक के ब्राह्मण थे। कृष्ण पुत्र शाम्ब ने अपने ‘सौर यज्ञ’ में शाकद्वीप से भी ब्राह्मणों को आमंत्रित किया, जिन्हें बाद में छल पूर्वक यहीं रोक लिया गया। यानी कुल जमा ग्यारह हो गये। ये सभी ब्राह्मण समान हैं। इनमें जतिगत विभेद नहीं है। क्रिया लोप भले है सिर्फ। स्वाभाविक है कि कोई पुत्र पिता तुल्य ही हो, और पिता पुत्र तुल्य ही हो यह आवश्यक नहीं। क्रिया हीनता से संस्करों में कमी अपरिहार्य है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम उनके साथ ‘बेटी-रोटी’ का सम्बन्ध न रखें....। ’
जरा ठहर कर उपाध्यायजी फिर बोले-‘ब्राह्मण, ब्राह्मण है। उसका नियत कर्तव्य
है, जो अनिवार्य रुप से पालनीय है। अन्यथा उष्मा रहित आग का क्या औचित्य?
कहा गया है- ‘‘शमो दमस्तपः शौर्यं क्षान्तिरार्जवमेव च,
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजं। ’’......
निर्मलजी की बातों का आंशिक समर्थन करते हुए तिवारीजी बीच में ही बोल उठे-‘यह तो आपने बहुत बड़ी बात कह दी। विशाल कर्तव्य बोझ लाद दिया बेचारे आज के निरीह ब्राह्मणों पर, जबकि मनु महाराज ने किंचित सहज संकेत दिये हैं- ‘‘अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा,
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत। ’’
पर आज बेचारों को मनुस्मृति प्रणीत छः कर्मों में सिर्फ तीन ही याद रह गये हैं। स्वयं अध्ययन से कोसों दूर रहते हैं और ‘परोपदेशे पाण्डित्यं’ को चरितार्थ करते हैं। यजन में दिलचस्पी नहीं, पर याजन याद है। स्वयं भिखारी को भीख देने से भी परहेज, और यजमान से दान लेने के हजारों तरीके...। ’
तिवारीजी को स्वयं की व्याख्या पर ही हँसी आ गयी। उनके मानस पटल पर उभर आया- पदारथ ओझा का निरीह ब्रह्म-रूप। और इसी क्रम में याद आयी अपनी दयनीय स्थिति के साथ यहाँ आने का उद्देश्य। वार्ताक्रम में न जाने कहाँ से कहाँ भटक गये थे; और दूसरे के कर्तव्यों पर टिप्पणी करते, अपना ही कर्तव्य बिसार बैठे थे।
दीवारघड़ी ने जोर का घंटा बजाया... एक...दो...तीन...। और दोनों मित्रों का ध्यान खिंच आया लम्बे भटकाव से।
पान की दूसरी गिलौरी मुंह में धरते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘हमलोग अनावश्क गप में उलझ गए, आपके आगमन का उद्देश्य तो अधर में ही लटका रह गया। मैंने पूछा ही नहीं। ’
कुछ देर तक तिवारीजी मौन रहे। सोचने लगे कि बात किस ढंग से शुरू करें। भूमिका तो लम्बी-चौड़ी हो गयी। फिर भी असल बात सीधे कह सकने की साहस नहीं जुटा पा रहे थे, जबकि विमल पूरे तौर पर विश्वास दिला चुका था। फिर भी राजा भोज और भोजुआ तेली जैसी बात थी।
उनके दीर्घ मौन पर उपाध्यायजी ने आपत्ति जतायी। उनकी पुलिसिया निगाहें भांप गयी थी कि तिवारी जी के मन-मस्तिष्क में भारी द्वन्द्व छिड़ा हुआ है। अतः बोले-‘ क्यों किस उधेड़ बुन में पड़े हैं? क्या सोच रहे हैं? कोई और समस्या है क्या? यह तो जान ही रहा हूँ कि आप शादी के लिए परेशान हैं। क्या कहीं बात बनने के आसार हैं? कुछ अर्थ याचना के विचार से संकुचित हो रहे हैं? ’
‘बात तो कुछ संकोच वाली ही है। विषय भी याचना ही है; किन्तु ‘अर्थ’ नहीं...। ’- अति संकोच में होठ काटते हुए तिवारीजी बोले।
‘अर्थ नहीं, तब और....? ’- आश्चर्य पूर्वक पूछा निर्मलजी ने।
‘कर्ण सदृश्य महादानी के द्वार पर अर्थ जैसी तुच्छ याचना के लिए क्या पधारना। ? ’- तिवारी जी की लक्ष्णात्मक वाणी थोड़ी मुखरित हुयी। उनके मुंह से धन के लिए तुच्छ विशेषण सुन कर निर्मलजी स्वयं में गौरवान्वित हो उठे। वस्तुतः सरस्वती का उपासक लक्ष्मी को प्रायः तुच्छ ही समझता है।
‘तो मांगिये, जो भी मांगना हो। ’- गौरव पूर्वक कहा उपाध्यायजी ने- ‘जहाँ तक सम्भव होगा अवश्य पूरा करूँगा। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो रहते हुए भी न दे सकूँ आपको। ’
‘याचित वस्तु तो है ही आपके पास। ऐसी कोई वस्तु मैं आपसे मांग ही नहीं
सकता जो आपके पास न हो। ’-मुस्कुराते हुए तिवारी जी ने कहा।
‘तब देर किस बात की। जल्दी कहिये। फिर कहीं दान मुहुर्त निकल न जाये। ’- उपाध्यायजी के इस कथन के साथ दोनों ही मित्र हठा कर हँस पड़े।
‘जिस तरह आप हमेशा कहा करते हैं- मीना को बेटी मानते आ रहे हैं। ’-तिवारीजी ने फिर भूमिका बनायी-‘उसी प्रकार मैं भी विमल को अपने बेटे के समान मानता आ रहा हूँ। ’
‘इसमें क्या संदेह है। मीना मेरी बेटी बन कर उसी दिन मेरे हृदय में आ बसी, जिस दिन बीमार होकर पहली बार मेरे घर आयी थी। अब तो उसे हृदय से निकालने की कल्पना भी नहीं कर सकता। सच कहता हूँ, यदि आपको कोई और सन्तान होती, तो मैं ही याचना कर बैठता आपसे मीना बेटी के लिए। ’-निर्मलजी ने पुलकित होते हुए अपने दिल की बात कही।
‘सो तो आप आज भी कर सकते हैं, मगर....। ’
‘मगर क्या? स्पष्ट कीजिये। ’-प्रसन्न मुद्रा में उपाध्यायजी ने कहा।
‘....कुछ प्रतिफल के साथ। ’- हँसते हुए तिवारीजी बोले।
‘प्रतिफल’ मैं कुछ समझा नहीं। ’-कहते हुए निर्मलजी के माथे पर किंचित सिलवटें उभर आयी।
‘जी हाँ। प्रतिफल ही। आप मुझे दे दें- विमल बेटे को। बेटी आपकी, बेटा हमारा। मुझे भी तो चाहिये न बुढ़ापे का कुछ अवल्म्ब। आप मीना को अपने घर ले आवें बहू बनाकर, और विमल मेरा....। ’
तिवारी जी की बात पर उपाध्यायजी ठहाका लगाकर हँसने लगे- ‘ वाह! तब तो हम ही फायदे में रहे। बेटा तो बेटा है ही। बेटी भी मुफ्त में मिल जायेगी। ’
‘बेटी तो वैसे भी छोड़कर चली ही जाती है। ’- तिवारी जी ने धीरे से कहा।
उपाध्यायजी जरा गम्भीर होकर बोले- ‘इतनी सी बात के लिए आप इतना संकुचित हुए जा रहे थे? आप सीधे भी यदि मांगते मेरे विमल को तो भी एतराज न होता। सो तो आप दामाद के रूप में मांग रहे हैं, इसमें मुझे आपत्ति ही क्यों कर हो सकती है? सच पूछिये तो आपने मेरे अन्तर में सोयी एक भावना को जागृत कर दिया आज। कभी-कभी मैं सोचा करता था- इस विषय पर, जिसे आपने आज स्वयं ही सम्भव बना डाला। खैर, मैं तो राजी हूँ ही, जरा एक बार विमल से भी राय ले लूँ। वैसे इसमें उसे क्यों एतराज होगा? दोनों एक दूसरे को बचपन से जान रहे हैं। ’-कहते हुए पीछे मुड़ कर आवाज लगायी-‘विमल बेटे! जरा बाहर आना। ’
हालाकि विमल बगल कमरे में ही बैठा उन लोगों की बातें सुन रहा था; किन्तु जानबूझ कर बाहर निकलने में थोड़ी देर लगा दी, मानों कहीं दूर से आना हो।
तिवारीजी की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। उन्हें आज अप्रत्याशित खुशियों का खजाना जो मिल गया था। वे सोच भी न पाये थे कि एक करोड़पति इतना उदार हो सकता है। महादानी कर्ण ने तो चार पांडवों को ही अभयदान दिया था। आज मीना को जीवनदान देकर उपाध्यायजी ने मानों दुनियाँ को जीवनदान दे दिया। उनकी आँखों में अपार आनन्द के आंसू छलक आए। कुर्सी पर से अचानक उठकर, कटे रूख की तरह गिर पड़े- उपाध्यायजी के पुनीत पाद पंकज
पर- ‘धन्य हैं आप। धन्य हैं। इस घोर कलिकाल में आप सा दानवीर हो सकता है, मैं तो कल्पना भी न कर पाया था.....। ’
हड़बड़कर उपाध्यायजी झुक पड़े अपने पैरों की ओर। ‘हैं..ऽ...हैं ! यह क्या कर रहे हैं आप? आप बुजुर्ग हैं। शिक्षक हैं। समाज के गुरू हैं। मेरे पैरों पर पड़ कर मुझे पाप चढ़ा रहे हैं। ’-कहते हुए उन्हें उठाकर अपने सीने से लगा लिए।
कुछ देर तक तिवारीजी उनके सीने से चिपके रहे, बच्चों की तरह। अपने खुशियों के अश्रुधार से पखारते रहे उनके स्कन्ध प्रदेश को। फिर अपनी कुर्सी पर आसीन होते हुए बोले- ‘ मुझे बुजुर्गियत का खिताब देना, गुरू कहना, आपकी महानता है। पर मैं तो बेटी का बाप ठहरा, जिसका स्थान बेटे के बाप के चरणों में ही हुआ करता है। ’
कृतज्ञ भाव से तिवारीजी के दोनों हाथ जुड़े हुए थे। नकारात्मक सिर हिलाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘ये क्या कह रहे हैं आप? यही आत्महीनता तो हमारी सोच को प्रभावित कर रही है। विकसित सोच तो यह है कि पुत्र या पुत्री के पिता का प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न है- मानव और मानवता का। आज यही भावना बेटे वालों का दिमाग सातवें आसमान में चढ़ाये हुए है। किन्तु मैं उन पातकियों में नहीं हूँ। आपने सुना ही होगा- मैंने दो लड़कों की शादियाँ की पर किसी से लेन-देन की सौदेवाजी न हुयी। अपनी सामर्थ्य और खुशी से जो कुछ भी बन पड़ा बेटी-दामाद को दिया, उन लोगों ने। लड़की वाले से चूस कर कोई धनी और इज्जतदार हुआ है क्या आज तक? शादी सम्बन्ध के मामले में बस एक ही बात मैं देखना चाहता हूँ- जोड़ी योग्य है या नहीं। धन-दौलत तो आने-जाने वाला है। पानी के बुदबुदे सा जब जीवन ही क्षणभंगुर है, फिर दौलत तो और भी तुच्छ है। अब देखिये न, उसी दिन रामदीन पंडित आये थे। लाखों का प्रलोभन दे रहे थे। हालांकि मुझे खुटका तो उसी दिन हुआ था। यही कारण था कि टाल मटोल कर दिया था। बाद में पता चला कि उनकी लड़की कुछ विकृत मस्तिष्क की है, साथ ही एकाक्षी भी। अब आप ही सोचिये, उस तरह की लड़की का हाथ विमल के हाथ में देकर बेचारे का जीवन कैसे बरबाद कर सकता हूँ? उस दिन यदि जल्दबाजी में निर्णय ले लिया होता तो आज पछताने के सिवा कोई चारा न रहता। ’
‘यह सोचना-समझना तो अभिभावक का कर्तव्य है ही, पर लड़की वालों को अपनी...। ’कह ही रहे थे तिवारीजी कि बगल दरवाजे से निकल कर विमल बाहर वरामदे में आ गया।
‘क्या बात है पापा? ’-विषय से बिलकुल अनजान बनता हुआ पूछा विमल ने।
‘आओ बेटे, बैठो। तुमसे कुछ सलाह लेनी है। ’- बगल कुर्सी की ओर इशारा करते हुए निर्मलजी ने कहा-‘तुम्हारा प्रशिक्षण तो पूरा हो गया न? ’
‘जी हाँ। ’
‘अब आगे का क्या कार्यक्रम है? ’
‘और आगे पढ़ने का विचार नहीं है मेरा। बस, स्नातक स्तरीय प्रतियोगिताओं की तैयारी करना, सफलता के अनुसार प्रशासनिक सेवा अथवा फिर उड्डयन विभाग में सेवा का प्रयास करना- अभी तो यही दो उद्देश्य है मेरा। वैसे आपकी जो राय। जो सम्मति देंगे, किया जायेगा। ’-पिता की ओर देखते हुए विमल ने कहा।
‘सो सब तो होगा ही। इधर कई लोग बराबर आ-जा रहे हैं, तुम्हारे विवाह की चर्चा लेकर। आखिर कब तक लड़की वालों को परेशान किया जाय? इस सम्बन्ध में तुम्हारी क्या इच्छा है? ’-कहते हुए निर्मलजी ने बहुत गौर से देखा विमल के चेहरे पर, मानों उसके आभ्यन्तर भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहे हों अपनी अधीक्षकीय निगाहों से।
‘इस विषय में मैं क्या कह सकता हूँ? आप जैसा उचित समझें करें। ’-सिर झुकाये हुए विमल ने कहा।
‘उचित-अनुचित की बात नहीं है। अब तुम बच्चे नहीं हो। अपने बारे में सोच-समझ सकते हो। शादी एक स्थायी निर्णय है। आजीवन-सम्बन्ध है। सोच-विचार कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। अब उसी दिन पदारथ ओझा के फेरे में पड़ कर रामदीन पंडित को वचन दे दिया रहता तो कितना ही अनर्थ हो जाता। ’-कहा निर्मलजी ने विमल की ओर देखते हुये।
‘वे तो जन्मजात दुष्ट हैं। ’- धीरे से कहा विमल ने, और तिरछी नजरों से तिवारी जी की ओर देखने लगा, उनके मनोंभावों को परखने के प्रयास से।
‘वैसे तो तिवारीजी से मुझे सम्पर्क कराने का श्रेय पदारथ ओझा को ही है। ये दोनों घनिष्ट मित्र भी हैं। किन्तु, दोनों में कोई तुलना नहीं है। स्पष्ट शब्दों कहा जाय तो कह सकते हैं कि पदारथ ओझा घृणा के पात्र हैं, तो दूसरी ओर तिवारी जी श्रद्धा, प्रेम, और दया के पात्र हैं। ’
निर्मलजी की बातों पर संकुचित तिवारीजी दोनों हाथ जोड़, रगड़ते हुए अंदाज में कह उठे- ‘आप भी मुझे इतना बनाने लगे। मुझ अधम को इतनी महत्ता....। ’
‘नहीं...नहीं तिवारीजी, यह कोई मुंह देखी बात नहीं है। ’-कहा निर्मलजी ने। फिर विमल की ओर देखते हुए बोले- ‘हाँ तो बेटे! मुझे इन्हीं के बारे में सलाह लेनी थी तुमसे। बिचारे तिवारीजी बहुत दिनों से परेशान हो रहे हैं, मीना बेटी के लिए। मेरा बिचार है कि वह मेरे घर में बहू बन कर आ जाए। इसमें तुम्हारी क्या राय है? ’- निर्मलजी फिर एक बार विमल के चेहरे पर आँखें गड़ा दिए। अधिक गौर करने के कारण, उनके ललाट पर ‘त्रिवली’ बन गयी, तथा आँखें संकुचित सी हो आयी। तिवारीजी की दृष्टि भी उसी पर टिकी रही। विमल सिर नीचे किए चुप बैठा रहा।
कुछ ठहर कर विमल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया- ‘इस सम्बन्ध में मैं स्वयं को स्वतन्त्र नहीं समझता। ’
‘फिर भी अपनी राय तो जाहिर करनी ही चाहिए तुम्हें। ’
‘अपनी राय क्या, पापा की आज्ञा सिर आँखों पर। ’
तिवारीजी फिर एक बार हर्षातिरेक से झूम उठे। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि विमल कोरी गप्पें नहीं हांक रहा था, बल्कि सच्चाई के सांचे में ढला खरा सोना है वह।
‘लीजिये तिवारीजी आपके दान और त्याग का प्रतिफल। मैंने कहा था न कि मेरा बेटा उदण्ड नहीं, जो कह दूंगा, उसे स्वीकार करेगा सहर्ष। ’- अति प्रसन्न होकर कहा उपाध्यायजी ने।
‘फिर क्यों न इसी शुभ घड़ी में हमलोग आगे की बातें भी तय कर लें...। ’- कहते हुए तिवारीजी उठे, और अपनी अंगुली में पड़ी सोने की अंगूठी, जिसे आते वक्त बक्से से निकाल कर पहन लिए थे, आगे बढ़ कर विमल की अंगुली में पहनाने लगे।
‘यह क्या कर रहे हैं? इसकी क्या आवश्यकता है? ’- एक ही साथ पिता-पुत्र दोनों कह उठे।
‘कुछ नहीं, यह तो छोटा सा एक रस्म है, हृदय के उद्गार का प्रतीक। ’-हँसते हुए कहा तिवारीजी ने; और विमल की अंगुली में पहना दिये ‘जय गणेश’ कहते हुए।
निर्मलजी मुस्कुराते हुए सस्वर बांचने लगे-
‘मंगलं भगवान विष्णुः, मंगलं गरूड़ध्वजः।
मंगलं पुण्डरीकाक्षः, मंगलाय तनोहरिः। । ’ फिर जोर से आवाज लगाये- ‘अरे वो विठुआ! मुंह मीठा कराओ सबका। ’
विमल उठ कर भीतर चला गया, भाभियों को संदेश देने, अपनी सगाई का। एकाएक मानों घर के ईंट-ईंट से शहनाइयों की गूंज उठने लगी; और इसके साथ ही विमल का रोम-रोम पुलकित हो उठा। आवाज सुन बड़ी भाभी कमरे से निकल कर आंगन में आयी, जिसके होठों पर बन्ने के बोल थिरक रहे थे-
‘ खेलो खेलो कौशल्या के गोद, रामचन्द्र दूल्हा बने...। ’ रसोई घर से छोटी भाभी भी थिरकती हुयी बाहर निकली यह गाती हुयी- ‘बन्ना बने हैं कृष्ण जी देखो अभी अभी, सोने की मंउरी आपकी देखो अभी अभी...लडि़याँ लगी है आपकी देखो अभी अभी...। और हाथ में लगी हल्दी का थापा मार दी विमल के दोनों गालों पर। हँसता हुआ विमल एक ओर चल दिया। उसके हृदय में मीना का प्यार कुलबुला रहा था, किन्तु बड़ी भाभी के गीत के बोल पल भर के लिए भावी पत्नी के प्रेम को खदेड़ कर ममतामयी माँ की स्नेह सरिता में ऊभ-चुभ कराने लगा, जो आंखों की निर्झरणी से स्रवित होने लगी।