पुनर्भव / भाग-14 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘.....समय गुजरता गया। मगर क्या गुजरा? दैव को शायद यही मंजूर था। चौथे महीने ही छोटकी गुजर गयी, अचानक ही बिना किसी रोग बीमारी के। पदारथ पर तो मानों पहाड़ टूट पड़ा। कहने वालों को भी मौका मिला-

‘बड़े चल थे समाज से संघर्ष मोलने। जो नागिन, कात्यायनी अपने पति को न बकशी...डायन चीन्हे बरामन के बच्चा...वह क्या देवर-गोतिनी की होगी? कुशल चाहो तो पदारथ, उसे अब से भी निकाल बाहर करो अपने घर से, नहीं तो तुम्हें भी खा-चबा जायेगी.....

‘.....इसी तरह की अफवाहें उड़ती रही। पर सबका अनसुना कर, कान में रूई डाले, पड़े रहे पदारथ बाबू। हालाकि मैं कितना कही-समझायी, किन्तु दूसरी शादी न किये- क्या होगा भऊजी शादी वादी करके? एक किया सो तो चली गयी छोड़ कर...। - कह कर टाल जाते पदारथ। ’

सविता कहती रही। बीच-बीच में आंचल के छोर से आँखों के कोरों को पोंछती रही। भाउक मीना चुप बैठी सुनती रही सविता ‘माँ’ की करूण कहानी को। सुनने में वह इतना निमग्न हो गयी कि भुला बैठी- गौरी पूजन का पावन कर्तव्य भी। उसे यह भी याद न रही कि दरवाजे पर उसकी वारात आयी है। विमल- उसका अपना विमल दुल्हा बन कर आया हुआ है।

वह तो वह ही। तिवारी जी भी भूल बैठे कि वे भोजन व्यवस्था का निरीक्षण करने भीतर आये थे। वे भी चोरों की तरह कान सटाये रहे दीवार से, किसी आहट की प्रतीक्षा में।

सविता कह रही थी- ‘...नहीं माना तो मैं भी ज्यादा जोर न लगायी। जब इसी का मन नहीं तो मैं क्या कर सकती हूँ। समय सरकता गया सर्प सा। पदारथ की स्नेह-सरिता ने प्रक्षालित कर दिया था मेरी वैधव्य-व्यथा की ‘काई’ को। मेरी हर आवश्कता को स्वामी- भक्त सेवक सा पूरा कर देता बिलकुल समय पर ही बिचारा पदारथ। कब मुझे कपड़ा चाहिये, कब मुझे भोजन, कब दवा-दारू, कहना न पड़ा कभी भी। सोचना न पड़ा कुछ भी। किन्तु दुर्भाग्य...जब सोचना पड़ा तो बहुत कुछ....

‘.....पदारथ के प्यार में, जवानी के ज्वार में, वासना के वयार में एक दिन मेरे विवेक की चादर उड़ गयी, और तब? ओफ! जुबान सटने लगती है- कहने में भी....पांव के नूपुर पहचानने वाले लक्ष्मण की निगाहें धीरे-धीरे उठ कर कंचुकी में घुसने लगी...और फिर अंगुलियाँ भी। एक दिन जब विवेक ने ठोंकर मारा तब भीतर झांक कर देखी- अदम्य वासना का काला कीड़ा मेरे कोख-कुसुम में कुलबुला रहा था। जान कर पदारथ की हेकड़ी गुम हो गयी....। ’

दीवार की ओट में खड़े तिवारीजी के कानों में गूंज गयी फिर से निर्मलजी की बात- ‘‘कुरंग-मातंग-पतंग-भृगं, मीना हताः पंचभिरेव पंचः। एकः प्रमादी सकथं न हन्यते, यः सेवते पंचभिरेव पंचः। । ’’ पुलिस की निगाह बहुत पैनी होती है तिवारी जी...पदारथ अब्बल दर्जे का लम्पट है। ’

मीना की आँखें विस्फारित होकर गड़ गयी- सविता के आनन पर- ‘क्या कहा- पदारथ काका के पाप का कीड़ा तुम्हारी कोख में? हे भगवान! अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध औ आँखों मे पानी...। ’

बेचारी मीना का लघु मस्तिष्क उमड़ने-घुमड़ने लगा। जिस पदारथ काका को वह इतनी श्रद्धा से देखती है, उनके कारनामें इतने काले? हा दैव! कैसा दोहरा व्यक्तित्त्व होता है मनुष्य का!- वह सोचती रही। सविता कहती रही-

‘....शुरू में तो काफी घबरायी। तूल-फतूल बांधी। फिर न जाने कितनी ही ‘महाप्रवर्तक’ बटियां हजम हो गयी। उत्कंटक, उल्टकमल, इन्द्रायण...कुछ भी काम न आया। तब विचार आया- सरकारी अस्पताल का शरणार्थी बनने का। पर वह जमाना कुछ और था। आज जैसा नहीं कि हँसती-खेलती कुँआरी-विधवायें जायेंऔर जवानी का पाप धो-पोंछ कर अस्पताल की त्रिवेणी में प्रवाहित कर पवित्र तन-मन वापस आ जायें...

‘......हर तरफ से थके-मादे पदारथ की बुद्धि नदारथ हो गयी थी। अन्त में ढाढ़स बन्धाया एक दिन-‘‘घबराओ मत भऊजी! कोई कुछ जान नहीं पायेगा। सम्पर्क ही मुझे कितनों से है? यहाँ तो वैसे भी कोई आता-जाता नहीं। समय गुजरने दो। चार-पांच हो ही गया है। थोड़ा और सही। फिर एक ही दफा निवृत्त हुआ जायेगा। ....। ’’

‘.....मैं चौंक पड़ी थी- क्या नवजात शिशु का गला घोंट दोगे पदारथ? - मेरे पूछने पर हाथ हिलाते हुए पदारथ ने कहा था-‘‘नहीं भऊजी! मैं इतना नीच नहीं। एक तो यह पाप किया कि माता तुल्य भाभी के साथ... दूसरा और करूंगा? राम राम छीः छीः !! यह सब न होगा मुझसे....’’

‘....समय गुजरता गया। एक दिन वह समय भी आ गया जब पदारथ को जाकर जगाना पड़ा आधी रात के समय- ‘पदारथ बाबू उठिये न। मैं दर्द से बेचैन हूँ, और आप खर्राटे ले रहे हैं? .....

‘....मेरी आवाज उसके कानों में पड़ी। तपाक से उठ बैठा पदारथ। शीघ्र ही जुट गया मेरी सुश्रुषा में। पहर भर रात रहते एक बच्ची ने जन्म लिया....

....देवर-भाभी की जारज सन्तान...फूल सी बच्ची, वासना के कणों से सर्वथा निर्लिप्त- एक नारी मूर्ति। जी चाहा उठा कर उसे सूनी छाती से लगा लूँ। नौ महीने जिसे कोख में ढोयी थी, रक्त-वारी से सिंचित की थी जिस बीज को, भले ही वह विष वृक्ष क्यों न हो, ममता की चादर से ढक कर छिपा लेना चाही थी। पर सच पूछो तो अबला नारी कभी-कभी प्रबल सबला भी हो जाया करती है। सौम्या सीता क्रूर काली भी हो जाती है। मुझ अबला पर भी क्षण भर के लिये काली सवार हो आयी। गर्भोदक से परिष्कृत वालिका को एक बार उठायी ऊपर, गौर से निहारी उसके निर्दोष भोले मुखड़े को, और आंचल के टुकड़े में ही दिल के टुकड़े को लपेट कर सामने खड़े पदारथ के हाथों सौंप दी, मानों समाज रूपी कंस से त्रस्त देवकी कृष्ण को सौंप रही हो वसुदेव के हाथों- इसकी समुचित व्यवस्था करो पदारथ- मुंह से तो निकल गया था, पर सोच कर बेचैन होने लगी कि आखिर क्या करेगा इस नवजात बालिका का...

‘....मेरी मौन भंगिमाओं का आशय समझ गया पदारथ। मुस्कुराते हुये बोला- ‘‘घबराओ मत भऊजी! मारूँगा नहीं इसे....। ’

‘.....तब क्या यूंही फेंक आओगे कहीं राम राम ओफ! ऐसा अनर्थ न करो... कुत्ता-सियार खा जायेगा....कातर स्वर में कही थी मैं। जी चाहा था छीन लूँ झपट कर, जो होगा देखा जायेगा। पर हँसते हुए पदारथ ने कहा-‘‘इसी का नाम है मात्सल्य। क्या करोगी? आंखिर इस कलंकिनी को रखकर पाला तो नहीं ही जा सकता। ’’ मेरे माथे में चक्कर आने लगा था। कुछ सूझ न रहा था- इसके लिये समुचित उपाय। समीप में कोई अनाथाश्रम भी होता तो इसे भिजवा देती। सोच ही रही थी कि मुस्कुराते हुए पदारथ बोल पड़े- ‘‘मैंने सोच रखा है - पहले से ही एक निष्कंटक मार्ग- सन्तानाकांक्षी किसी ‘नंद’ के दरवाजे पर छोड़ आने की, चुपके से जाकर। ’

‘.....वसुदेव चले गये किसी नन्द के द्वार, देवकी तड़पती रही मानसिक संताप से....देवकी के दर्द को वस्तुतः यहाँ समझने वाला ही कौन था?

‘वह भाग्यवान, निःसन्तान नन्द कौन था चाची, जिसकी छत्रछाया में रखने जा रहे थे पदारथ काका उस कलंकिनी को? ’- सजल नेत्रों को ऊपर उठाती हुयी मीना ने पूछा। दीवार की ओट में खड़े तिवारीजी के कान खड़े हो गये खरगोश की तरह। दिल की धड़कने तेज हो आयी, इस जिज्ञासा से कि कौन है वह भाग्यवान-दयावान जिसने शरण दी अपनी गोद में सप्तपर्णी की छांव बन कर!

‘एक परम मित्र के दरवाजे पर...। ’- सविता कह रही थी. तभी तिवारी जी का भांजा छोटू दौड़ा हुआ आया।

‘मामाजी आप यहाँ खड़े हैं? मैं कब से ढूढ़ रहा हूँ। समधी जी बुला रहे हैं। ’

छोटू के असामयिक कथन ने तिवारीजी की जिज्ञाशा को अधर में ही लटका दिया त्रिशंकु की तरह। तत्क्षण ही चल देना पड़ा वहाँ से, इस भय से कि कहीं संदेह न हो जाय। उधर छोटू की तेज आवाज सुन, सविता पल भर के लिये मौन हो गयी।

पल भर का ही मौन मीना के लिये असह्य हो उठा- ‘उस मित्र का नाम नहीं बतलायी चाची? ’

‘चाची! ओफ!!...पैने नस्तर सा चुभ जाता है दिल में यह शब्द। ’- लम्बी उच्छ्वास के साथ सविता बोली। मीना की आँखें विस्फारित होकर ऊपर की ओर उठ गयी, सविता के चेहरे पर, जो आत्मग्लानि और क्षोभ से अब कोलतार सा हो आया था।

‘मैं कुछ समझी नहीं। आप कहना क्या चाहती हैं? क्या आप नाम नहीं कह सकती उस मित्र का? चाची शब्द के तीखापन का क्या मतलब? एक ही साथ तीन प्रश्न, गोलियों सी दाग दी मीना।

सविता के हृदय में मानों त्रिशूल चुभ गया। होठ थर्राने लगे।

‘सत्य के अन्तिम आवरण को भी चीर कर दिखाना ही पड़ेगा सत्यार्थी को। ’-कहती हुयी सविता अपने धड़कते सीने को जोरों से दबाने लगी दोनों हाथों से-

-‘....उस भाग्यवान निःसंतान का नाम था...मधुसूदन....। ’

‘मधुसूदन? ’- चौंक पड़ी मीना।

‘हाँ मधुसूदन ही...पूरा नाम मधुसूदन तिवारी। ’- सविता के स्वर में कंपन था, और आंखों में पानी।

‘मधुसूदन तिवारी, यानी मेरे बापू? ’- मीना के स्वर में आश्चर्य भरा कम्पन था, और थी अकुलाहट।

‘हाँ, तुम्हारे बापू ही; और वह कलंकिनी सन्तान तुम ही हो, जिसे देखने के लिए साढ़े पन्द्रह वर्षों से तड़प रही थी मैं। अपने ही जिगर का टुकड़ा, अपने ही खून का ढेला, अपनी ही आँखों की ज्योति, अपने ही आंगन का सूरज, अपनी की कोख की औलाद ‘माँ’ के मधुर सम्बोधन के वजाय ‘चाची’ सा तीखा तीर चुभो रही है; किन्तु साहस नहीं है कि समाज के सामने सिर उठा कर कह सकूँ कि विधवा हूँ, पर वन्ध्या नहीं। मेरी भी एक औलाद है। आज यह वारात मेरे दरवाजे पर आयी होती, यदि मैं इसके काबिल होती। हृदय हाहाकार कर रहा है, जिसके अन्तस में महाभारत सा युद्ध छिड़ा हुआ है- दोनों ओर अपने ही हैं; किन्तु कुन्ती कह नहीं सकती कि कर्ण मेरा है। सच पूछो तो कुन्ती से मेरी क्या तुलना? वैसे मुझे इसकी आवश्यकता भी नहीं है। वह बेटे वाली थी। गयी भी बेटे के लिए ही अभय दान मांगने। परन्तु अभय दान मुझे नहीं चाहिये। मुझको चाहिये मात्र अपना ‘पद’ वह भी जालिम, जाहिल दुनियां को दिखाने के लिए नहीं। जताने के लिए नहीं। सुनाने के लिए नहीं। बल्कि सिर्फ अपने मन के सन्तोष के लिए। अपनी तड़पती आत्मा की शान्ति के लिए। अपने बेताब हृदय के सुकून के लिए। बस मेरी बेटी- माँ कह दो...माँ कह दो मीना...माँ! बस एक बार, फिर कभी न कहूँगी........न कहूँगी तुझे इस कुलघातिनी को माँ कहने के लिए...। ’-सविता पागलों की तरह प्रलाप करने लगी। मीना के कंधे पकड़ कर दोनों हाथों से झकझोरने लगी; किन्तु मीना प्रस्तर-प्रतिमा सी जड़ हो गयी। उसकी आँखें झपकना भूल गयी। एक टक निहारती रही सचिता के करूण मुख मंडल को; और अश्रुधार अनवरत प्रवाहित होते रहे-उसकी बड़ी बड़ी आँखों से। सविता उस नेत्र निर्झरणी को रोकने का असफल प्रयत्न करती रही अपने सूने आंचल से। फिर उसकी पीठ थपथपाने लगी।

‘मीना...बेटी...बेटी...मीना...क्या हो गया तुझे...क्या हो गया? ’- विलखने लगी सविता।

पीठ पर थपकी का कोमल स्पर्श पाकर मीना थोड़ी चैतन्य हुयी। गौर से निहारी सविता के चेहरे को। दोनों बाहें फैला कर लिपटा ली विलखती सविता को, और फफक कर रो पड़ी- ‘माँ...ऽ...ऽ..ऽ!’

एक अद्भुत पवित्र ध्वनि गुँजायमान हो गया। दीर्घकाल तक सविता के दिल की घाटियों से टकरा-टकरा कर परावर्तित होता रहा, जिसे माँ-बेटी दोनों ही सुनती रही। सुनती रही। चिपटी रही। लिपटी रही। न जाने ये मंगलमय दृश्य कब तक जारी रहता? संवादहीनता का संवाद कब तक चलता रहता; किन्तु फिर एक व्यवधान आन उपस्थित हुआ- ‘भाभी! मीना को तैयार कर दीजिये। मण्डप में अब ले जाना होगा। ’-आवाज तिवारीजी की थी.जिसे सुनते ही सविता का स्वर्णिम स्वप्न भंग सा हो गया। मीना के प्रिय हिंडोले के रेशमी डोर को भी अचानक झटका लगा, और जोरदार धक्के ने भीतर बहुत कुछ तोड़ डाला।

उधर से देवी गीत के मधुर गुंजन-‘सिंह चढ़ल माता गरजत आवली, सूतल बलका डेरायेल हे माता मोहिनी भवानी जगतारन माता नगर के लोगवा डेरायेल माता मोहिनी...। ’- के साथ पूरा आंगन गुंजायमान हो गया। देवीपूजन को गयी मीना की दोनों फूफियाँ एवं कुछ अन्य औरतें आ पहुँची। छोटा सा आंगन लगभग भर सा गया।

शीघ्र ही मीना को अलंकृत किया जाने लगा। दुल्हे को आंगन में लाया गया। पड़ोस से मांग कर एक कुर्सी भी लायी गयी, जिस पर दुल्हे को बैठा कर परिछन का कार्य प्रारम्भ हुआ-

‘रघुवर के नयना रसीले हो, परिछन चलो आली। धन राजा जनक जनकपुर वासी, धन धन जनक दुलारी हो...परिछन चलो आली। कंचन थार कपूर के बाती आरती उतारे सुकुमारी हो परिछन चलो आली....’

पूजा और परिछन की थाल के साथ सविता भी बाहर निकल गयी-मंडप में। मीना कमरे में अकेली रह गयी। सामने बैठे थे- प्रतीकात्मक गौरी-गणेश, और दिल में उमड़ रहा था भयंकर प्रलयंकारी तूफान, जो अभी-अभी साढ़े पन्द्रह साल पुराने इतिहास के पन्नों से उभर कर बाहर आया था।

अचानक बाहर से हड़बड़ाये हुए छोटू आया कमरे में- ‘मीना दी...मीना दी...मामाजी ने उस दिन जो सोने वाली अंगूठी दी थी, सो मांग रहे हैं। ’

‘अभी क्या उसकी जरूरत पड़ गयी? ओ तो ऊपर चंचरी पर बक्से में रखी हुयी है। ’-प्रचंड वायु-वेग से टकराती मीना मुंह घुमाकर आंचल के छोर से आंखें पोंछती हुयी बोली। उसके अन्तस में असंख्य फौजी घोड़े दौड़ रहे थे, जिनके टापों की स्पष्ट ध्वनि वह सुन रही थी, अपने अशान्त मस्तिष्क में। आज एक गहन रहस्य का पर्दाफाश कर सत्य को नंगा नचाया गया था, उसकी कोरी आँखों के सामने, जिसकी प्रखर रौशनी में उसकी आँखें चौंधिया गयी थी, और भावी गहन अन्धकार का आभास दे रही थी। आज तक वह जिस स्नेह मूर्ति को बापू समझे हुए थी- बापू- बाप-अर्थात् वपन कर्ता, जो वस्तुतः उसका ‘वपक’ नहीं है। वह तो मात्र परिपालक है- ‘पा रक्षणे’ वाला पिता मात्र। स्वयं जारज सन्तान है वह- पाप के पंक में उपजा घृणित-कुंठित वासना का ‘उपोत्पाद’। कलंकिनी है वह.....। मीना कुछ ऐसा ही सोचे जा रही थी। मस्तिष्क के तूफान को शमित करने का असफल प्रयत्न कर रही थी। कुछ देर पूर्व तक खुशियों की फुलझडि़याँ चमक रही थी। मधुर कल्पनाओं के आसमान तारे छूट रहे थे। आशा के दीप जल रह थे। उसके दिल में दीवाली मन रही थी। दीप मालिका के सुनहरे प्रकाश में स्वर्णिम भविष्य की झांकियाँ चल रही थी।

किन्तु अब? अब क्या?

अब तो लगने लगा मानों सब शेष हो गया। फुलझडि़याँ बुझा दी गयी- अचानक अनदेखे अतीत के कठोर हाथों से मसल कर। आसमान तारे टपक पड़े उल्कापात की तरह घातक बन कर। दीप मालिका बुझ गयी- अन्तः के झंझावात में आलोड़ित होकर। स्वर्णिम भविष्य की झांकियों पर डरावनी शक्लें हावी हो गयी, अन्धकार का सह पाकर। वह कुछ नहीं रह गया, जो था कुछ पल पूर्व तक।

वह सोचने लगी- ‘यदि जानकारी हो जाय विमल को- इस कटु सत्य की कि उसने जिससे प्रेम किया है, जिसे जीवन सहचरी बनाने जा रहा है, उसकी पैदाइश का बीज एक सड़े-कनाये फल का है, जिसे प्रेम के गमले के वजाय वासना की नाली में ‘बो’ कर उपजाया गया है, वैसी कलंकिनी को अपना कर अपने खानदान के उज्जवल भविष्य को धूमिल होने से बचाने हेतु कहीं त्याग दिया तो...फिर क्या होगा? ओफ! सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् न ब्रुयात्सत्यमप्रियं.... इस नीति उपदेश पर विचार करने लगी। मन- मस्तिष्क के बवण्डर को रोकने का प्रयास करती रही; किन्तु रूका नहीं। रोका नहीं जा सका कुछ भी; प्रत्युत उस चक्रवात का एक हिस्सा बन कर रह जाना पड़ा।

मीना को जोरों से चक्कर सा आने लगा। किन्तु आन्तरिक व्यथा को समझने वाला है ही कौन यहाँ इस जटिल गुत्थि को सुलझाये भी तो कौन? सविता ने तो गांठ लगा दी- उसके वर्तमान और भविष्य की सन्धि पर कठोर ग्रन्थि पड़ गयी। उसे शायद शान्ति मिल गयी होगी-‘माँ’ के शीतल सम्बोधन से। पर अति अशान्त कर गयी बेचारी मीना को। यह अब कहाँ जाय शान्ति ढूढ़ने? किससे सुनाये अपना दुखड़ा.....?

ऐसे ही असंख्य सवाल....। अनुत्तरित प्रश्न। प्रश्नों की कतार....।

कमरे की दीवार को भेद कर मधुर गीतों की लडि़याँ- ‘राजा दशरथ जी की ऊँची अंटरिया...राम लखन दूजे लगले दुअरिया- गरम पिघले शीशे की बून्दों की तरह उसके कानों में पड़ रही थी।

देर से सामने खड़ा छोटू मुस्कुराते हुये टोका-

‘क्या सोच रही हो दीदी? जल्दी लाओ न अंगूठी। मामाजी बिगड़ने लगेंगे हम पर- इत्ती देर लगा दी। ’

छोटू के तगादे पर मानों मीना की तंद्रा टूटी। फिर वही प्रश्न दुहरायी-

‘ क्या करना है, अभी उस अंगूठी का? ’

‘अभी नहीं तो और कभी? कन्यादान के समय ही तो जरूरत होगी। थोड़ी देर बाद तुम तो चली जाओगी मंडप में। फिर कौन निकालेगा तुम्हारे बक्से से उस अंगूठी को....? ’

‘अच्छा देती हूँ। ’-अन्यमनष्क भाव से कहा मीना ने, और बांस की सीढ़ी पर खटाखट चढ़ने लगी। बांस-लकड़ी के पाटन से कमरे को ऊँचाई में विभाजित किया गया था, जिसके ऊपर पड़ी थी योगिता की अमानत- एक दो बक्शे- जिसकी मालकिन अब उसकी तथाकथित पुत्री मीना ही थी। उन्हीं में रखी हुयी दी दो अंगूठियाँ- एक जिसे निकाल कर तिवारीजी लेते गये थे, विमल को भेंट करने के लिये-सगाई के उपलक्ष में, और दूसरी अभी भी रखी हुयी थी मीना के नीजी बक्शे में यह सोच कर कि कन्यादान के दक्षिणा स्वरूप भी तो वर को देने के लिये सुवर्ण का ही विधान है।

बक्से से अंगूठी निकाल कर वहीं से फेंक दी छोटू के हाथ पर, जिसे छोटू ने कुशल वीकेट कीपर की तरह कैच कर बाउण्डरी से बाहर भाग गया, और साथ ही ‘बैट्समैन’ को भी आउट करता गया।

मीना सीढि़याँ उतर रही थी...एक...दो...और फिर धड़ाम..ऽ..ऽ...की ध्वनि के साथ उल्टे पांव छोटू खिंचा चला आया कमरे में।

पलक झपकते ही कमरे का नक्शा बदल चुका था। सीढ़ी के ठीक नीचे ही मसाला पीसने का ‘सील’ रखा हुआ था, जो हल्दी-धनिया के बजाय मीना का सिर ही पीस डाला।

उसी सील के बगल में पड़ी थी अवसन्न मीना लहुलुहान होकर।

मस्तिष्क में उठते बवण्डर ने चक्कर खिला कर उसे नीचे ढकेल दिया था पत्थर के सील पर, और कुछ काल बाद सिन्दूर से पीली होने वाली मांग पूर्णतया लाल हो गयी- रक्त-रंजित।

छोटू के मुंह से चीख निकल गयी-‘मामाजी...ऽ...ऽ...! जल्दी आइये। ’

तिवारीजी स्वस्तिवाचन हेतु हाथ में अक्षत, अभी उठा ही रहे थे कि ‘अस्वस्ति’ की सूचना मिल गयी। अ‘क्षत’ का स्पर्श अन्तः का क्षत कर गया। दौड़ कर दाखिल हुये कमरे में। उनके पीछे ही दोनों बहनें और सविता भी आ पहुँची। मधुर गीतों के गुंजार की जगह ‘हाय यह क्या हुआ? ’ का आर्तस्वर सबके होंठो पर कौंध गया- कर्कश तड़ित की तरह।

तिवारीजी नीचे झुक कर उठाने लगे-‘हाय मेरी मीना। ’

सविता भी लिपट पड़ी- ‘हाय यह कैसे हो गया मीना बेटी को? ’

दोनों फूफियाँ चीख मार कर रोने लगी। कमरे में कुहराम मच गया।

हो-हल्ला सुन कर बाहर बैठे निर्मलजी आ पहँचे, साथ ही विमल भी। कमरे का करूण दृश्य देखकर सिर पर बंधा सेहरा कांटो का ताज लगने लगा। उसने तो गुलाब की मृदुल पंखुडि़याँ पकड़ी थी, किन्तु यह कांटा क्योंकर चुभ गया?

खून से लथपथ मीना का शरीर एक ओर लुढ़का पड़ा था। आँखें फटी हुयी सी थी। लोग उसे लिपटा कर रो रहे थे। सबका विवेक हवा खाने चला गया था।

कुछ देर तक निर्मल जी भी मौन हक्केबक्के रह गये। फिर कठोर स्वर में बोले- ‘ये क्या तमाशा लगा रखे हैं आप लोग? पहले इसे होश में लाने का प्रयास किया जाय। खून रोकने का उपाय किया जाय। ’

उपाध्यायजी के ‘होश’ शब्द से सबको मानों होश आ गया। पहले तो लोग उसकी स्थिति कुछ और ही समझ लिये थे। विमल झपट कर बाहर गया, और लोटे में पानी लाकर मीना के मुंह पर छींटा मारने लगा। सविता उबटन के लिए पिसी हुयी हल्दी का बड़ा गोला सीधे माथे के खुले जख्म पर थोप दी, ताकि रक्त प्रवाह रूक जाय।

‘छोड़िये इसकी कोई आवश्कता नहीं। ? ’-कहते हुए निर्मलजी ने विमल को आदेश दिया- ‘देखते क्या हो, जल्दी से जाकर गाड़ी में से ‘फस्ट-एड-बॉक्स’ निकाल लाओ। ’

पिता का आदेश सुन विमल दौड़ पड़ा। तिवारीजी को भी याद आगयी- वैद्यजी की एक दवा। आलमारी में से एक शीशी निकाल कर निर्मलजी के हाथ में देते हुए बोले- ‘ये वैद्यजी की दवा है। पहले भी जब कभी बेहोश हो जाया करती थी तो इस दवा के प्रयोग से शीघ्र ही होश आजाया करता था। ’

उनके हाथ से दवा की शीशी लेकर निर्मलजी ने उस पर लगे लेबल को पढ़ा, फिर आश्वस्त होकर ‘डॉट’ खोल कर मीना के नथुनों से लगा दिये। तब तक विमल भी आ गया प्राथमिक चिकित्सा की छोटी संदूकड़ी ले कर।

उसमें से रूई, पट्टी, स्प्रीट, मर्क्यूरोक्रोम आदि निकाल कर उपाध्यायजी ने मीना के माथे के दुर्घटनाग्रस्त भाग को साफ सुथरा कर पट्टी बांध दी। ललाट के बायें भाग में आँख से थोड़ा ऊपर कोई दो ईंच लम्बा, एक ईंच गहरा सा कटान था, जिससे होकर काफी रक्त निकल चुका था अब तक।

ड्रेसिंग करने के बाद शीशी वाली दवा पुनः रूई के फोये में लेकर सुंघाने लगे निर्मलजी। इसी प्रकार काफी देर तक मीना को होश में लाने का प्रयास किया जाता रहा।

इसी बीच गांव से घूम-घाम कर पदारथ ओझा भी आ पहुंचे। देखते ही कहने लगे- ‘ओफ! बड़ा ही अशगुन हो गया। ऐन मौके पर ही यह विकट स्थिति पैदा हो गयी। कहीं कोई टोना-टोटका तो....ठीक मांगलिक कन्यादान के समय ही अमंगल कर दिया। विवाह मुहूर्त बीता जा रहा है। कैसे क्या होगा...? ’

ओझाजी की बात पर उपाध्यायजी झुंझलाकर बोले- ‘आप भी अजीब हैं ओझाजी। यहाँ मीना बेटी की जान पर पड़ी है; और अपको लग्न-मुहूर्त ही सूझ रहा है। जो होगा देखा जायेगा। आगे क्या फिर मुहूर्त ही नदादथ हो जायेगा ‘मुहूर्त चिन्तामणि’ से? फिर तिवारीजी की ओर देखते हुये बोले- ‘अच्छा होता हमलोग इसे अस्पताल ले चलते। घंटा भर से अधिक हो गया, अभी तक होश नहीं हो पाया। ’

‘यही तो मैं भी सोंच रहा हूँ। ’-तिवारी जी ने कहा- ‘पहले इसी दवा से १०-१५ मिनट में होश हो जाता था। आज लगता है गहरी चोट के कारण दवा भी बेअसर हो रही है। ’

‘देख ही रहे हैं- चोट कितनी गहरी है। खून भी काफी निकल गया है। जल्द ही बाहर ले चलना चाहिये। ’- उपाध्याय जी के कहते ही तिवारीजी तैयारी में जुट गये।

उपस्थित औरतों में कानाफूसी होने लगी। एक ओर मुंह लटकाये, कोने में पदारथ ओझा खड़े रहे- किंकर्त्तव्यविमूढ़।

वहीं एक ओर विमल भी खड़ा था, और उसके सामने खड़ा था- अट्टहास करता अदृष्ट- मुंह चिढ़ाता हुआ सा। उसे लगने लगा मानों इस अस्वस्तिकर घटना की सूचना का ‘वार्निंगबेल’ पहले ही उसके मस्तिष्क में बज चुका हो- बर परिछन के बाद जैसे ही आगे बढ़ा था अपने घर से, काली बिल्ली सामने से दौड़ती हुयी बायें से दायें निकल गयी थी। रास्ते भर उसकी बायीं आँख भी फड़कती रही थी। उसने यह भी देखा था कि चलते समय बड़ी भाभी अपनी नाक मल कर, छींक रोकने का प्रयास करने में विफल रही थी। पर मदमस्त जवानी के

धुन में, आधुनिकता के रंग में ‘दकियानूसी विचार’ कह कर टाल दिया था- प्रकृति के इन संकेतों को।

‘तो क्या यह सब पूर्वाग्रह नहीं कहा जा सकता? ओफ! अनर्थ हो गया। खैर जो भी हो, ईश्वर करें मीना जल्दी ठीक हो जाय। ’- स्वयं को ही समझा कर सान्त्वना प्रदान कर रहा था विमल-‘ ज्यादा घबराने की कोई बात नहीं। ऐसी बेहोशी तो वह पहले भी देख चुका है। आज चोट के कारण कुछ ज्यादा है। ठीक तो होना ही है। रही बात शादी की...वह तो कभी भी हो सकती है। वाग्दान हो ही गया है। बापू तैयार हैं। मीना राजी है। फिर ना का सवाल कहाँ पैदा होता है? आज न कल...आज भी वह मेरी ही है। वरण हो चुका है। न जाने कितने ही ‘बन्ने’और ‘जोग’ गाये जा चुके हैं...हमदोनों के नामों को सम्पुटित कर-करके। बाकी तो रहा सिर्फ कन्यादान, और फिर...फिर क्या...कुछ नहीं...। ’

विमल सोंचता रहा। उसका कोमल, किशोर हृदय ऐंठा जा रहा था-केंचुये की तरह। लगता था, जैसे भीमकाय बर्बर हाथों द्वारा मसला जा रहा हो, कोमल कलिका को निचोड़ा जा रहा हो।

तिवारीजी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- ‘चलो बेटे! चला जाय अब अस्पताल। मेरे भाग्य में यही वदा है। खुशियों की झोली हाथ आकर भी दूर हो गयी। ’

बूढ़े तिवारी की आँखें बरसने लगी। उन्हें देख, देर से दबाया गया विमल के नेत्र का सोता भी फूट पड़ा। फफक कर रोने लगा बच्चों की तरह। सही में बच्चा ही तो था- उम्र में भी, प्रेम में भी...।

सविता की इच्छा हुयी, उसे भी साथ चलने की- अस्पताल तक। क्यों कि बेचारी का हृदय फटा जा रहा था। उसे लग रहा था- इस घटना का वास्तविक गुनहगार वही है। उसने ही तो छेड़ दी थी आज- अतीत-बीणा के बेसुरे तारों को। तभी से मीना का ‘मूड’ बदल गया था। सविता स्वयं की करनी पर पश्चाताप करने लगी।

‘मेरे ही चलते हुयी उसकी यह दुर्गति...हे भगवान! मीना बेटी को कुछ होने न पाये...हे ईश्वर!...’- भावावेश में कितने ही देवी- देवताओं की मनौती कर गयी सविता। फिर साहस करके तिवारीजी से बोली-‘मैं भी साथ चलती तो क्या हर्ज? ’

तिवारीजी के विचार से तो वस्तुतः कोई हर्ज नहीं, किन्तु वहीं कोने में खड़े पदारथ कांप गये। उन्हें तो भारी हर्ज लग रहा था। नारी की कमजोरी का उन्हें भय था। कहीं भावावेश में आकर सविता उगल न दे कुछ उलटा-सीधा- इसी बात का भय था पदारथ ओझा को। फलतः मुंह से हठात ही निकल पड़ा- ‘तुम भी जाओगी भाभी? ’

‘क्या हर्ज है, जाने दो पदारथ भाई। ’- नम्र स्वर में कहा तिवारीजी ने, जिन्हें पदारथ के अन्तःकम्पन का ज्ञान न था। हालाकि ज्ञान रहने से भी अब क्या होना था? बाकी ही क्या रह गया है अब? सब तो उगल चुकी है सविता। तिवारी जी भी जान चुके हैं- पदारथ की करतूत। सिर्फ एक बात रह गयी है- जिसे जान न पाये बेचारे तिवारीजी- मीना ही है वह ‘लघु सविता’।

खेमे उजड़ गये। रौनक बदल गयी। रात वही रही। बारात लौट चली। बिन ब्याही दुलहन बिदा हो गयी घर से। दरवाजे पर खड़ा आम का पेड़ रो रहा था। ओस की बूंदें टपक-टपक कर सूखी धरती को जगा रही थी- देखो- आज मीना जा रही है। जा रही है। पता नहीं कब आवे वापस इस झोपड़ी में, वह भी किस अवस्था में! आम्रवृक्ष अफसोस कर रहा था-ओफ! कितना जल्दी गुजर गया समय। अभी ठीक से सोलह साल भी तो नहीं हुआ है, जब एक दिन मौका मिला था- अपने मूल के गावतकिए पर सिर रखकर सुलाया था नवजात मीना को।

उसी रसाल वृक्ष के कोटर में गौरैयों का एक परिवार भी रहता था। आम्र का रूदन सुन उसकी भी निद्रा भंग हो गयी। चूँ..चूँ..चूँ...कि करूण ध्वनि से विलाप करते हुए, उसने भी अपने कर्त्तव्य निष्ठा की याद दिलायी-

‘तूने तो सिर्फ तरूमूल का तकिया दिया था...मैंने तो सींचा था उसके शुष्क कंठ को...भूल गये...हमलोग सोच ही रहे थे, उसे उठाकर ले चलने को अपने कोटर में, कि तभी तिवारी बाबा आ पहुँचे...

कोटर में बैठी गौरैया विलाप करती रही। पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अपने धुन में मस्त मानव को क्या पता है कि प्रकृति के कण-कण में आत्मा बसती है!

दुर्घटनाग्रस्त दुल्हन और चिन्ताग्रस्त दुल्हे को लेकर निर्मल उपाध्याय लौट चले। साथ में चली सविता, और चले तिवारीजी उदास, मन मारे हुए। शेष तीन वाराती-विमल के दोनों भाई और विठुआ, गाड़ी में जगह न रहने के कारण वहीं ठहर गये। निर्मलजी ने कहा-‘मीना को अस्पताल पहुँचा कर मैं आऊँगा। तब तक तुमलोग यहीं रूको। ’......और गाड़ी चल पड़ी।

मीना की स्थिति पूर्ववत ही रही। होश में आयी नहीं अब तक। रक्तस्राव लाख कोशिश के बावजूद पूरे तौर पर थम न पाया। हालांकि पट्टी बाँधने के बाद हल्की कमी आयी थी। किन्तु गाड़ी की गतिशीलता के साथ पुनः जारी हो गया। मीना का शरीर धीरे-धीरे नीलाभ होने लगा। लोगों की चिन्ता बढ़ने लगी। सभी अपने-अपने ढंग से चिन्ता व्यक्त कर रहे थे।

कोई डेढ़ घंटे के अथक प्रयास के बाद किसी तरह बेढंगी कंटकाकीर्ण कच्ची सड़क पर धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए निर्मल जी अस्पताल पहुँचे।

सरकारी बड़े अस्पताल के आपात कक्ष में मीना को स्थान दिया गया। डॉक्टर आए। निरीक्षण-परीक्षण कर चिन्तित मुद्रा में बोले- ‘आपलोग बहुत देर कर दिये हैं। ब्लीडिंग बहुत हो गया है। तत्क्षण खून की आवश्यकता है...। ’

तिवारीजी ने आश्चर्य और चिन्ता व्यक्त की- ‘कटान तो थोड़ा ही है...पर इतना रक्तस्राव...ओफ! कहाँ से लाया जाय खून इस समय? निकट में ब्लड बैंक भी तो नहीं ही है। ’

‘डॉक्टर! यदि मेरा ब्लड मैच करता हो तो यथाशीघ्र दे दें। ’- कहा विमल ने। फिर स्वयं ही सोचने लगा- ‘रक्त के अणु-अणु में तो मीना का प्यार व्याप्त है, फिर क्यों न मेल खायेगा उसके ग्रूप से!’ किन्तु काश ऐसा होता! गहन प्रेम रक्त की धार को भी बदल देता...!

कूल्हे पर इन्जेक्शन लगाते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘ठीक है। जाँच कर लिया जा रहा है, आपके खून का। !- और एक पुर्जा लिख कर विमल के हाथ में देते हुए बोले- ‘रूम नम्बर बीस में चले जांय। वहीं जांच हो जायगा। ’

बेड से उठा कर मीना को शल्य कक्ष में ले जाया गया। साथ में उपाध्याय जी भी गये। तिवारीजी जाने को आगे बढ़े, किन्तु एक साथ डॉक्टर और निर्मलजी ने यह कह कर रोक दिया कि अभी आपलोग बाहर ही इन्तजार करें। ’

थोड़ी देर बाद हाथ में पुर्जा लिए, मुंह लटकाये विमल वापस आया। उसके हाथ में दो पुर्जे थे। एक पर मीना के रक्त का एवं दूसरे पर विमल के रक्त का

रिपोर्ट अंकित था। विमल का रक्त प्रेम तुला पर तुल न पाया। नाकामयाब रहा। तिवारीजी का मुंह काला पड़ गया।

‘क्या होगा इस हालत में? ’-कहते हुए तिवारीजी चल पड़े, विमल के हाथ से पुर्जा लेकर, परीक्षण-कक्ष की ओर-अपने स्नेह का परीक्षण कराने। साथ में सविता भी चली।

‘मधुसूदन बाबू! मेरा खून जांच करवाकर देखें। हो सकता है मेल खा जाय। मीना बेटी की जान से बढ़ कर मेरे खून की कीमत थोड़े ही है। ’-साथ चलती सविता ने कहा।

विकल-चिन्तातुर तिवारीजी परीक्षण कक्ष में प्रवेश किये। कमरे के बाहर ही दरवाजे के पास, दोनों हाथों से सिर थामें सविता चिन्तित, दुःखी, घबरायी हुयी सी प्रतीक्षारत खड़ी रही-‘काश! मेरा खून कामयाब हो जाता...मीना को फिर एक बार अपने रक्त से सिंचित कर नया जीवन....। ’

थोड़ी देर बाद बाहर आकर तिवारीजी ने हाथ के इशारे से उन्हें भीतर बुलाया। अबकी परीक्षा की बारी थी-सविता की। तिवारी जी तो परीक्षित हो चुके।

‘आपलोग थोड़ी देर बाहर इन्तजार करें। ’- रक्त के नमूने लेने के बाद परीक्षक ने कहा।

दोनों ही बाहर आकर बेंच पर बैठ गये। दोनों के मन-मस्तिष्क में तूफान मचा हुआ था। मगर अलग-अलग रूपों में। सविता के नेत्रों से निर्झरणी फूट-फूट कर उसके विगत कर्मों का परिमार्जन करता रहा, जिन्हें अपने आंचल में छिपाने का असफल प्रयास करती रही।

उधर विमल शल्य-कक्ष के दरवाजे से कान लगाये, अन्तर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करता रहा। किन्तु शल्य-कक्ष के स्थान पर उसके, स्वयं के प्रेम-कक्ष की अन्तर्ध्वनियाँ ही प्रतिध्वनित होकर गूँजती रही उसके कानों में- अनहत नाद के कलरव की तरह।

अभी इसी रसहीन काठ की कठोर चादर से मुंह सटाये अपने दिल की करूण रागिनी सुन ही रहा था कि उधर से तिवारीजी आते हुए नजर आये। उनके हाथ में एक पुर्जा था। तिवारी जी फहराती मूंछें किसी आसन्न विजयी राष्ट्रध्वज सी लहराती हुयी प्रतीत हो रही थी। विषाद के इन क्षणों में भी होठों पर हर्ष की टुकड़ी नजर आयी- लगता है, विजय का सेहरा पिता के माथे पर ही बँध गया-

सोचा विमल ने, और दरवाजे से अलग हटते हुये पूछ बैठा-‘क्यों वापू! ब्लड-ग्रूप मैच किया आपका? ’

काफी देर से उदास आनन पर कुछ देर पूर्व आ बैठी मुस्कुराहट अपनी मद्धिम आभा विखेर गया।

‘खून तो मिल गया। परन्तु मेरा नहीं सविता भाभी का। ’- कहते हुए तिवारी जी के कानों में किसी अज्ञात लोक की मधुर ध्वनियाँ गूँजने लगी- ‘वही तो है माँ...फिर क्यों न....। ’

तिवारीजी के हाथ से पुर्जे को लेते हुए विमल ने पूछा-‘कहाँ हैं सविता चाची? ’; और उत्तर की प्रतीक्षा किये वगैर शल्य कक्ष की ओर चल दिया।

‘वहीं हैं अभी। डॉक्टर ने कहा है, उन्हें थोड़ी देर विश्राम करने के लिए। ’-कहते हुए तिवारीजी भी विमल के पीछे हो लिए।

प्रतीक्षा कक्ष का द्वार खुला। डॉ. सेन बाहर आये। पुर्जा उनके हाथ में देते हुए विमल ने पूछा-‘कैसी है मीना? ’

‘ठीक है। ब्लीडिंग बन्द हो गया है। ’-विमल के हाथ से पुर्जा लेते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘अब आपलोग चिन्ता न करें। खून मिल गया तो समझिये की नया जीवन मिल गया। ’

कुछ देर बाद निर्मलजी बाहर आये। डॉक्टर के कथनानुसार मीना की स्थिति अब सन्तोषजनक थी। खून चढ़ाया जा रहा था। घड़ी देखते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘चार बज रहे हैं। मैं तब तक हो आता हूँ, माधोपुर से उनलोगों को घर पहँचाकर। ’

उपाध्यायजी की गाड़ी फिर एक बार कच्ची सड़कों पर रेंगने लगी। हाँ, रेंग ही रही थी, दौड़ने की शक्ति शायद समाप्त हो चुकी थी। फिर दौड़ने का उत्साह भी कहाँ?

प्राच्य क्षितिज अरूणाई लिए सूर्य के आगमन की सूचना देने लगा था। उनींदी पलकों पर से आलस को खदेड़ दोनों बहुयें प्रातचर्या में लग गयी थी- इस खुशी में कि अब उन्हें तीन हो जाना है। पूर्व परिचित नयी बहू के स्वागत की तैयारियाँ होने लगी थी। गोबर से लीप-पोत कर चौरेठा और हल्दी-कुमकुम से दरवाजे पर रंगोली बनायी जा चुकी थी। सुसंस्कृत दक्षिण भारतीय ढंग से वाह्य प्रांगण के जमीन पर लगता था- किसी कुशल शिल्पी द्वारा कारचोबी का काम किया गया था।

प्रत्याशित समय से पूर्व ही गाड़ी का हॉर्न सुन चौंक पड़े घर में सबके सब।

दोनों पुत्रों सहित विठुआ को लेकर उपाध्यायजी घर पहुँचे- प्रीतमपुर। औरतें दौड़ कर बाहर दरवाजे पर दाखिल हुयी। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्दी बहू कैसे आ गयी।