पुनर्भव / भाग-15 / कमलेश पुण्यार्क

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परन्तु गाड़ी जब गेट के अन्दर आ घुसी- दुर्दान्त दस्यु के कटार की तरह तो सब सन्न हो गये। न दुल्हा, न दुल्हन, और न किसी के चेहरे पर चमक। गले से फूट पड़ती परिछन की मधुर रागिनी-

‘धन-धन भाग्य तोहरा निर्मल देव, बेटा पूतोह घर आयो जी....। ’-कंठ में ही अंटकी रह गयी, मानों किसी ने अचानक गला दबोच दिया हो। ‘वे लोग पीछे से आ रहे हैं क्या? ’-साहस बटोर कर बड़ी ने पूछा, और निर्मल का जवाब सुन मानों धरती ही खिसक गयी हो, उनलोगों के पांव तले की।

‘हे भगवान! ये क्या हो गया? ’- एक साथ ही दोनों के मुंह से निकल पड़ा। छोटी को दमित छिक्का की याद आ गयी, जिसे चाह कर भी बड़ी ने दबा न पाया था। काली बिल्ली ने फिर एक बार रास्ता काट दिया-मस्तिष्क का।

‘चाय पिलाओ बहू। तुरत ही जाना है अस्पताल। ’-गमगीन चित्त, सोफे पर लेटते हुए उपाध्यायजी ने कहा।

थोड़ी देर बाद गाड़ी फिर चल पड़ी अस्पताल की ओर, निर्मलजी के साथ दोनों बहुओं को लेकर। इस बार गाड़ी लगभग दौड़ रही थी। मगर उत्साह से नहीं, बल्कि चाबुक की मार पर, हांफते-दौड़ते टमटम के थके घोड़े की तरह।

अस्पताल पहुँचने पर मालूम हुआ कि मीना की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। खून चढ़ाने का काम पर्याप्त मात्रा में हो जाने पर भी, होश अभी तक नहीं आया है। - ये जानकारी दिये तिवारीजी, जो बाहर वरामदे में ही बेंच पर उदास मुंह लटकाये बैठे हुए थे।

सविता को वहाँ न पाकर, जिज्ञासा स्वाभाविक थी निर्मलजी की। उनके पूछने पर बतलाया तिवारीजी ने- ‘खून देने के बाद भाभी काफी कमजोरी अनुभव कर रही थी। चलने में चक्कर आ रहा था। अतः बगल के कमरे में लेटी हुयी हैं। ’

‘आइये भाभी। ’- कहता हुआ विमल, दोनों भाभियों को साथ लेकर सविता के कमरे की ओर बढ़ चला। उपाध्यायजी वहीं बेंच पर बैठ, तिवारी से बातें करने लगे।

पूर्वाह्न करीब दस बजे जीवन-मृत्यु से अनवरत जूझती मीना ने आँखें खोली। उस समय उसके पास मात्र एक परिचारिका बैठी थी। डॉक्टर ने मना किया था- परिवार के लोगों को, फिलहाल पास न रहने के लिए।

आँखें खोल, एक बार पूरे कक्ष का निरीक्षण किया मीना ने, जो उसे बिलकुल ही अपरिचित सा लगा। न तो वहाँ उसे कूलर नजर आया, न सोफा, न सेल्फ, न पलंग, न ड्रेसिंग टेबल ही, जिसे वह ढूढ़ रही थी- आँखें घुमा-घुमा कर। यहाँ तक कि कोई व्यक्ति भी न मिला- सुपरिचित। हाँ, बगल में सिर के पीछे से आकर एक अपरिचिता को खड़ी अवश्य पायी। फटी-फटी प्यासी आँखों से उसे आपादमस्तक निहार गयी; किन्तु उसके सर्वांगीण निरीक्षण के बावजूद पंचफुटी काया के किसी भी कोशिका को परिचित कहने से अस्वीकार कर दिया उसका मस्तिष्क।

‘आप कौन हैं? यह जगह कौन सी है? कमल कहाँ है? अस्फुट स्वर होठों से निकले।

‘अभी बुलाती हूँ। ’- उसके प्रश्नोत्तर की अवहेलना करती हुयी परिचारिका

बाहर निकल गयी किवाड़ खोल कर।

उसके जाने के बाद मीना के हाथ अचानक माथे पर गये, जिसका अधिकांश पट्टियों से ढका हुआ था।

‘यह क्या, मेरे माथे पर पट्टी कैसी? तो क्या यह हॉस्पीटल है? ’ अपने आप से सवाल-जवाब करती मीना फिर इधर-उधर देखने लगी। आस-पास के अपरिचित दीवारों से परिचय प्राप्त करने का प्रयास करने लगी। तब उसे लगा कि वह ‘मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी’ अस्पताल के किसी कक्ष में है। किन्तु यहाँ कब-कैसे-क्यों आयी- के कई प्रश्न उदित हो आये उसके मानस पटल पर, और साथ ही बदन में जोरों का दर्द भी अनुभव होने लगा। उठकर बेड पर बैठना चाही, पर हिम्मत जवाब दे गया।

तभी कई जोड़ी आँखें एक साथ घुस आयी कमरे में, और बड़े हसरत से घेर ली उसके बेड को। सबके होठों से समान सा सवाल उभरा- ‘कैसी हो मीना? ’

किन्तु इस प्रश्न का जवाब वह जिसे देना चाहती थी, चारों ओर निगाह दौड़ाने के बावजूद, दीख न पड़ा वहाँ उपस्थित चेहरों में। सबके सब अपरिचित ही थे। यहाँ तक कि पूर्व दर्शित- जिसे आँखें खोलने के बाद पहली बार देखी थी, वह भी नजर न आया। उसे समझ न आ रहा था कि आज एक साथ इतने सारे शुभेच्छु कहाँ से आ उपस्थित हो गये!

मौन मीना के म्लान मुख को निहारते हुए इर्द-गिर्द उपस्थित विभिन्न आकृतियों से भिन्न-भिन्न प्रश्न उभरे- ‘कैसी हो मीना? ...तबियत तो ठीक है? ....क्या हो गया तुझे अचानक? ....चक्कर आ गया था? ...उपर क्यों चढ़ गयी थी? ...क्या काम आ पड़ा था? ....कैसे गिर गयी? ...दर्द कहाँ है.....?

किन्तु इनमें किसी भी प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक प्रतीत न हुआ उसे। ये सबके सब औपचारिक प्रश्न से लगे उसे, - अकाल पीड़ितों की सरकारी सहायता की तरह। उन प्रश्नों से उसे मात्र इतना ही हल मिला कि किसी प्रकार गिर कर ही वह चोट-ग्रस्त हुयी है, जिसके कारण उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है।

परिचारिका पुनः कमरे में आयी। उसके पीछे-पीछे साथ में एक और अपरिचित ने प्रवेश किया, जो शक्ल-सूरत से डॉक्टर प्रतीत हो रहा था। हाँ, डॉक्टर ही, कारण कि परिचय-पत्र स्वरूप उनके गले में स्टेथोस्कोप की माला लटक रही थी।

‘आपलोग इसे ज्यादा डिस्टर्व न करें। ’-कहते हुए डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप उसके सीने से सटा दिया, किसी विरही की बाहों की तरह। फिर बी.पी.टेस्ट भी किया, जिसका पारदीय दाब उसके स्वास्थ्य का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा था।

‘क्या पोजीशन है डॉक्टर? ’-निर्मलजी ने पूछा, जिसके साथ ही कई कान खिंच गये उस ओर, डॉक्टर का जवाब सुनने के लिए।

‘ठीक है। बिलकुल ठीक। किन्तु अति दुर्बल मर्म प्रताडि़त हुआ है, फलतः सावधानी की आवश्कता है। अभी ज्यादा छेड़-छाड़ न किया जाय रोगी के साथ। ’- बाहर निकलते हुए डॉक्टर ने धीरे से कहा।

तभी मीना ने तेज स्वर में कहा- ‘प्लीज कम हियर डॉक्टर। ’

‘क्या बात है? कोई दिक्कत? ’- पलट कर पीछे आते हुए डॉक्टर ने बड़े स्नेह से पूछा। पूर्ववत तीव्र स्वर में ही जवाब भी मिला- ‘कोई दिक्कत नहीं है, यही सबसे बड़ी दिक्कत है। ’

‘मतलब? ’-आश्चर्य चकित डॉक्टर ने पूछा, और पास आकर मीना का नब्ज

टटोलने लगे, मानों क्लिष्ट शब्दों का कोष पलट रहे हों।

‘मतलब यह कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है। फिर इस कदर कैद सा क्यों रखा गया है? मैं कहाँ हूँ? कहाँ है मेरा कमल? ’-बड़ी-बड़ी आँखों से प्रश्नात्मक दृष्टि डॉक्टर के चेहरे पर डालती हुयी मीना ने पूछा, और उठने का प्रयास करने लगी।

सिर के नीचे अपने हाथ का सहारा देकर डॉक्टर ने तकिये के सहारे बैठा दिया, और पीछे मुड़ कर प्रश्नात्मक दृष्टि उपस्थित लोगों पर डाली, जो जानना चाहती थी कि कमल कौन है।

‘विमल यहीं है मीनू बेटे। ’-कहते हुये तिवारीजी ने बगल में खड़े विमल की बांह पकड़ कर मीना के बिलकुल निकट खड़ा कर दिया, जो अब तक पीछे उदास खड़ा शून्य में निहार रहा था।

‘यह विमल है, मेरा छोटा लड़का। इसी के साथ मीना की शादी हो रही थी, तभी अचानक दुर्घटना घट गयी। ’-डॉक्टर की शंकित नेत्रों का समाधान करना चाहा उपाध्याय जी ने।

‘किन्तु यह तो कमल को ढूढ़ रही है। कमल कौन है? ’- डॉक्टर ने पुनः शंका व्यक्त की।

‘लगता है कि नाम विस्मृत हो गया है, चोट के कारण। ’- तिवारी जी ने कहा।

‘नहीं डॉक्टर! मुझे कुछ भी विस्मृत नहीं हुआ है। फिर भी मैं कह नहीं सकती कि ये लोग कौन हैं। ’-उपस्थित लोगों को इंगित करते हुये मीना ने तीखे स्वर में कहा।

‘मुझे पहचाना नहीं बेटे! मैं तुम्हारा बापू...मुझे पहचानी नहीं मीना बेटी मैं तुम्हारा पापा, और ये रही तुम्हारी दोनों भाभियाँ...मैं सविता हूँ मीना बेटी...तुम्हारी...। ’- एक साथ कई ‘परिचय-पत्र’ स्वरवद्ध होकर उभर आये, कमरे के वातावरण में- अपने खोये रिस्तों को उजागर करने के लिए। बेचारा विमल वुत्त बना खड़ा रहा एक ओर। सिर्फ इतना ही कह पाया- ‘मुझे भी नहीं पहचानी मीनू? ’

‘मैं किसी को भी नहीं पहचानती डॉक्टर! किसी को भी नहीं। कोई भी नहीं दीख रहा है इनमें मेरा अपना। न मम्मी, न पापा, न मेरा कमल। ’- क्रोध भरे स्वर में मीना ने कहा, और विमल की ओर अंगुली का इशारा करती हुयी बोली- ‘ये जो जनाब अपने आप को मेरा पति घोषित कर रहे हैं, इन्हें मालूम होना चाहिये कि कमल मेरा पति है। क्या मेरी मांग से सिन्दूर की लालिमा भी गायब हो गयी? ’ अपने माथे की ओर हाथ लेजाती हुयी मीना ने कहा- ‘मैं कुछ नहीं जानती डॉक्टर, कुछ नहीं जानती। आप मुझे मेरे मम्मी-पापा से मिलावा दें। मेरे कमल से मिलवा दें, मैं आपसे निवेदन...। ’

डाक्टर ने पास खड़ी नर्स को कुछ इशारा किया। वह बाहर चली गयी। वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे पर बारह बजने लगे, जब कि घड़ी में बारह बजने में अभी घंटा भर देर है। तिवारी जी ओर देखते हुये धीरे से सविता बोली- ‘लगता है किसी ने टोना-टोटका कर दिया। लगनउती लड़की घर में अकेली रहती थी....।

बड़ी बहू ने कहा-‘लगता है, गहरी चोट के कारण दिमाग सही काम नहीं कर रहा है। ’

‘पहले भी तो इसी प्रकार की उटपटांग बातें किया ही करती थी। उसी का कुछ विकृत रूप हो सकता है। ’-उपाध्याय जी ने अपनी राय जाहिर की। इसी प्रकार की बातों की कानाफूसी होती रही कुछ देर तक। इसी बीच नर्स, कोई इन्जेक्शन लाकर शिरान्तर्गत वेध दी।

डॉक्टर ने सबको बाहर निकलने का संकेत किया। नर्स पूर्ववत अपनी ड्यूटी पर आ बिराजी।

आदेशानुसार सभी शुभेच्छु बाहर आ गये- बोझिल कदमों से धीरे-धीरे, रेंगते हुए से। बारह बजने को आये। पर अभी तक भूख-प्यास की तलब किसी को न हो रही थी। निर्मल जी तो घर जाकर चाय पी आये थे, किन्तु सविता विमल और तिवारीजी अभी तक निर्जला ही थे।

‘जाओ बेटे कुछ खा पी लो। ’-तिवारीजी ने विमल से कहा- ‘उधर से ही कुछ फल वगैरह सविता भाभी के लिये भी लेते आना। ’

‘क्यों आप न जायेंगे? ’- तिवारी जी से पूछा निर्मल जी ने, और फिर सविता की ओर देखते हुए बोले- ‘आप इस कमजोर हालत में व्यर्थ ही अस्पताल का फितूल उठा रही हैं। बहुयें भी भेंट कर ही चुकी। अच्छा होता मैं सबको धर छोड़ आता। ’-कहते हुये तिवारीजी की ओर देखने लगे।

‘ठीक ही है। आप इन सबों को घर छोड़ आइये। सविता भाभी को भी इधर से ही छोड़ते जाइयेगा। पदारथ भाई व्यर्थ चिन्तित हो रहे होंगे। आना चाहें तो लौटती दफा उन्हें भी साथ ले लेंगे। आप भी घर जाकर कुछ खा पी लीजिए। मुझे तो जरा भी इच्छा नहीं है। ’

घर जाकर कुछ खा पी लीजिए। मुझे तो जरा भी इच्छा नहीं है। ’-निर्मल जी से कहा तिवारीजी ने।

‘नहीं...नहीं...आप दोनों साथ जायें, और जो भी जी करे थोड़ा खा-पी लें। आखिर ऐसे मन मारने से कैसे काम चलेगा। ’-निर्मलजी ने दबाव पूर्वक कहा।

‘देखता हूँ। ’-कहते हुए तिवारीजी विमल को साथ लेकर चल दिये।

अभी वे दोनों बाहर निकले ही थे कि दूसरी ओर से पदारथ ओझा, हाथ में फल और विस्कुट वगैरह लिए पधारे।

‘कैसी है मीना? तिवारीजी और विमल कहाँ हैं? ’- आते ही ओझाजी ने पूछा।

‘ठीक है। अभी सो रही है। उसकी स्मृति अभी ठीक से काम नहीं कर रही है। फलतः नींद की दवा देकर सुलाया गया है। रात काफी परेशानी उठानी पड़ी। खून बहुत निकल गया था। खून चढ़ाने की आवश्यकता पड़ गयी। बेचारी सविता भाभी न होती तो मीना की जान न बचती। ’-संक्षेप में ही विस्तृत जानकारी दे गये निर्मल जी, कारण उन्हें ओझा जी के स्वभाव का पता था। छोटी-छोटी बातों का जिरह कर माथा चाटने की उनकी पुरानी आदत है। मगर उन्हें जोरदार झटका सा लगा, उपाध्याय जी की बातों को सुन कर, जिसका अनुभव कुछ-कुछ इन्हें भी हो गया, कारण ओझा जी का चेहरा गिरगिट सा रंग बदल रहा था- इन बातों से।

सविता बगल में ही दूसरे बेंच पर बैठी थी, जिसके चेहरे को गौर से देखा एक बार पदारथ ओझा ने, और पल भर के लिए कांप गये किसी आन्तरिक भय से। उन्हें लगा-कहीं भाउकता में उनकी बखिया ही न उघाड़ दी गयी हो सविता द्वारा। फिर कुछ सोच कर स्वयं ही आश्वस्त हो गये।

दीर्घ श्वांस लेते हुए बोले ओझाजी- ‘रात आपलोगों के चले जाने के बाद बाकी लोगों को भोजन कराया गया। सभी चिन्तित हो उठे थे। पूरी रात कोई सो नहीं पाया। सुबह मुंह अन्धेरे में ही मैं चल दिया था, एक यजमान के काम से। कोई दस बजे लौटा उधर से; मालूम हुआ कि आप आकर बाकी लोगों को ले गये। विशेष समाचार कुछ जान न पाया। फलतः यहाँ चला आया ढूढ़ते हुए। ’

ये लोग बात कर ही रहे थे कि जलपानादि से निवृत्त होकर विमल ओैर तिवारीजी आ पहुँचे। राम-सलाम के बाद संक्षिप्त औपचारिक संवेदना व्यक्त करते हुए ओझाजी बोले- ‘ओफ! भगवान भी बड़ा ही अन्याय करते हैं कभी-कभी इतने संकट के बाद एक बच्ची दिये, तो उसकी भी स्मृति लुप्त कर दिये। हाय! अब क्या होगा मधुसूदन भाई? ’

‘होगा क्या, जो मंजूर होगा ऊपर वाले को वही तो होगा? दैव पर किसका बस चला है आज तक? ’- तिवारी जी कहा।

‘मैं अभी यहीं रहती तो क्या हर्ज? ’- तिवारी जी की ओर देखकर सविता ने कहा।

‘क्या जरूरत है अब यहाँ फिजूल का भीड़-भाड़ लगाये रखने की? ’-तपाक से कहा पदारथ ओझा ने- ‘मैं भी चलूँगा ही, पहले जरा मीना बेटी को देख लूँ। शाम को चौधरी के यहाँ सत्यनारायण पूजा कराना है। ’

‘देखना क्या है मीना को। वह तो सोयी हुयी है। डॉक्टर की भी हिदायत है किसी से न मिलने की। ’-कहते हुए उपाध्यायजी उठ खड़े हुये।

दोनों बहुयें भी खड़ी हो गयी चलने को। मन मारे सविता को भी खड़ा हो जाना पड़ा।

वापस जाने को उद्यत सभी लोग खड़े ही थे कि परिचारिका किवाड़ खोल बाहर आयी-‘ बच्ची होश में आ गयी है। ’

नर्स की बात सुन सभी प्रसन्न मुद्रा में बढ़ चले मीना के कक्ष की ओर। किन्तु वहाँ पहुँच कर सबकी प्रसन्नता पर स्याही पुत गयी। नर्स को झंझोटते हुये मीना ने कहा-

‘मैं बार बार कहती हूँ- मेरे पापा-मम्मी को बुलाने के लिए, कमल से मिलवाने के लिए, और आप हैं कि रावण की सेना को ला खड़ी कर देती हैं। ’ फिर स्वतः ही कहने लगी, सूनी छत को निहारती हुयी, भुनभुनाती रही-

‘ओफ! लगता है, किसी भारी षड़यन्त्र की शिकार हो गयी हूँ। कोई मुझे अपनी बेटी कहता है, कोई बहू, कोई विवाहिता...दूर हटाओ इन मक्कारों को। ’ मीना चीख उठी जोरों से।

ढरकते अश्रुजल को गमछे के छोर से पोंछते हुये, तिवारीजी आगे बढ़ कर अपना हाथ मीना के माथे पर रख दिये।

‘तुझे किसी षड़यन्त्र का शिकार नहीं बनाया गया है बेटी। शपथ ईश्वर की! तुम मेरी बेटी हो- मीना बेटी। सिर्फ मेरी। तुम्हीं तो आश हो, लालसा हो मेरे सूने जीवन की। कुछ न रहा। पर तुम्हारा भोला मुखड़ा देख-देख कर कितने ही दारूण दुःखों को झेल गया अब तक। तुम्हारी ही इच्छा से विमल से शादी तय की, तुम्हारी ही खुशियों के लिये। किन्तु नियति ने बीच में ही रोड़ा अटका दिया। हाय मेरी मीना, और क्या कहूँ? बस यही कि तुम मेरी मीना हो, मैं तुम्हारा बापू। कोई पापा नहीं, कोई मम्मी नहीं। मैं ही मम्मी-पापा दोनों हूँ। ’- कहते हुए तिवारीजी उसके शरीर पर सिर टिका कर बच्चों की तरह विलखने लगे। उनके करूण रूदन से उपस्थित लोगों के भी नेत्र सजल हो आये। अन्य लोग भी हर प्रकार से समझाने-बुझाने का प्रयत्न करते रहे; किन्तु किसी की बात का कुछ भी असर न हो रहा था मीना पर। उसे बस एक ही रट थी- ‘मुझे मेरे कमल से मिला दो... पापा से मिला दो..मम्मी से मिला दो। ’

परिचारिका जाकर डॉक्टर को बुला लायी। डॉक्टर ने पुनः कई तरह के

परीक्षण किये। किन्तु कुछ खास नतीजा न निकला। मीना पूर्ववत रटती रही, बकती रही-

‘मुझे मेरे पापा से मिलवा दें डॉक्टर, मैं आपसे अनुनय करती हूँ। या फिर मुझे छोड़ दें। मुक्त कर दे इस कैदखाने से। मुझे कुछ भी तकलीफ नहीं है। मैं आराम से चल फिर सकती हूँ। इस तरह से नींद की सूई दे-देकर कब तक बनावटी बेहोशी में रखे रहेंगे? छोड़ दें, मैं चली जाऊँगी स्वतः ही अपने घर तक। मुझे किसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं। ’-मीना के स्वर में अनुनय था। विनम्रता थी। साथ ही भय मिश्रित आक्रोश भी। उसे लग रहा था कि ये सब के सब किसी दस्यु गिरोह के सदस्य हैं। प्रेम और अपनापन का ढोंग रचाकर उसके यौवन से खिलवाड़ करना चाहते हैं। सौदा करना चाहते हैं। निश्चित ही लड़कियों की तस्करी करने वाले ही हैं ये लोग।

डॉक्टर ने लोगों को बाहर जाने को कहा- ‘मैं जरा एकान्त में बात करना चाहता हूँ। ’

आदेशानुसार सभी बाहर निकल गये। तरह-तरह की बातें होने लगी आपस में। निर्मलजी, जो औरों की तुलना में कुछ निश्चिन्त से थे, इस बार की स्थिति देख काफी चिन्तित हो गये। पुरानपंथी पदारथ और सविता को जादू- टोने, भूत-प्रेत की करामात लग रही थी।

‘हो-न-हो इसे अन्तरिक्ष बाधा ही है। या तो स्वयं ही कहीं फेर में पड़ गयी है, या किसी ने कुछ कर-करा दिया है। शायद कृत्या का ही प्रकोप है। ’-गाल पर हाथ रखे गमगीन, ओझाजी ने कहा।

उनकी बात का समर्थन करती सविता ने कहा- ‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि यही कुछ है। अस्पताल से कुछ होना-जाना नहीं है। इसे ले चलना चाहिये, किसी ओझा-गुनी-तान्त्रिक के पास। ’

हालाकि यह कहते हुए, स्वयं की उसकी आत्मा कोस रही थी उसे। उसने ही तो उभारा था उसके अतीत को। यह क्यों न माना जाय कि यह उसी का प्रभाव है, उसके लघु मस्तिष्क पर, और इन्हीं विचारों के झंझावात में उलझ कर, झटका खाकर गिर पड़ी। किन्तु इस झटके का भी रहस्य समझ न आ रहा था बेचारी सविता को। क्या चोट के कारण दिमाग खराब हो सकता है किसी का? यदि दिमाग भी खराब मान लिया जाय फिर यह कमल कौन है? मम्मी कौन है? पापा कौन है? ओफ! किसे वह याद कर रही है बारबार....।

लाख सोचती रही सविता, पर कुछ पल्ले न पड़ा।

ऐसा ही कुछ सोच रहे थे तिवारीजी भी। सविता और मीना की बातों को ‘लगभग’ सुन ही चुके थे। इसके पूर्व की भी बेढंगी बातें याद आने लगी उन्हें, पर इन सबके बावजूद रहस्य पर से पर्दा उठ न सका। समझ न आया- आखिर कारण क्या है मीना की विस्मृति का।

एक ओर अलग-थलग सा उदास खड़ा विमल किसी और ही विचारों में निमग्न था-उसको याद आ रही थी बकरियों की जिसे मीना ने मृगछौना कहा था। उसे याद आ रही थी- मदहोश मीना के आलिंगन की। वह सोचने लगा-‘ तो क्या मान लिया जाय कि मीना पहले से ही विकृत मस्तिष्क की रही है? पर यह भी कैसे कहा जाय? क्या कोई मानस-विकार-ग्रस्त मानव हर प्रकार से प्रतिभा- सम्पन्न हो सकता है? मीना पढ़ने-लिखने में काफी प्रखर बुद्धि वाली है। कला और संगीत का भी अच्छा ज्ञान है उसे। समाजिक मान- मर्यादाओं का समुचित ख्याल रखती है। फिर पागल कैसे कहा जाय? उसे याद आ जाती है- किसी समय डॉक्टरी की किताब में पढ़ी गयी बात कि हिस्टीरिया के तीब्र दौरे की स्थिति में इस प्रकार प्रायः हो जाया करता है। स्मृति विलुप्त हो जाती है कुछ काल के लिये। पहले भी तो ऐसा ही हो चुका है। हो सकता है कि उसके अवचेतन में किसी के प्रति प्यार का बिम्ब बन गया हो। वही अब कल्पित कमल के रूप में साकार हो गया है उसके चेतन में। आखिर कमल और विमल में थोड़ा ही तो अन्तर है। किन्तु चेहरा तो याद रहना चाहिये था कम से कम। मगर अफसोस, सबकुछ भुला चुकी....

सभी गुम सुम थे, अपने आप में खोये हुये से। विमल सोचता ही रहा। सोचता ही रहा।

वरामदे से बाहर अस्पताल के प्रांगण में यूकलिप्टस और पाम के पेड़ मौन खड़े थे, मनस्वियों की तरह। उन्हें भी शायद विमल की मानसिकता ने कुछ सोचने पर विवश कर दिया था। गेट के दोनों ओर थूजा और झाऊ भी खड़े थे। झाऊ की एक टहनी ने थूजा की ओर झुक कर इशारा किया। थूजा ने देखा, भीतर वरामदे की ओर- जहाँ विमल बैठा हुआ था। मानव के मन की बातें मानव जान नहीं पाता। पास बैठे उसके पापा, बापू, भाभियाँ, सविता चाची, पदारथ काका- किसी ने न जान पाया कि विमल क्या सोच रहा है। किन्तु बेजान सी दीखने वाली प्रकृति वस्तुतः बहुत ही जानदार है, जीवन्त है। झाऊ ने थूजा से कहा- विमल के बारे में। विमल सोच रहा है-

‘यदि यही क्रम रहा मीना की मानसिक स्थिति का, फिर क्या होगा मेरा... मेरे प्यार का? ओफ मैं कैसे उलझ पड़ा इसके प्यार में? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सच में मुझे प्यार करती ही नहीं हो और इसी कारण विस्मृति का स्वांग रचा रही हो? मगर यह भी कैसे कहा जाय? शादी की बात पक्की हुये महीने भर हो गये। चाहती तो इस बीच किसी तरह भी इनकार कर सकती थी। ऐन शादी के मौके पर यह क्या हो गया? कहीं किसी ने मुझसे मन फेरने के लिये कुछ कर-करा तो नहीं दिया? ’

और यह बात दिमाग में आते ही घूम गयी तस्वीर- एक कानी लड़की की...एक तान्त्रिक की...रामदीन पंडित की.....एक ढोंगी की......एक सामाजिक शोषक की....

अस्पताल के प्रांगण से सटे ही काफी उमरदार एक पीपल का दरख्त था। थूजा और झाऊ की बातें उसने भी गौर से सुनी, किन्तु सुन कर पाम और यूकलिप्टस की तरह मौन नहीं रहा। ठठा कर हँस दिया। उसकी हँसी के कर्कश ध्वनि से भयभीत चिडि़यों का समूह उड़ कर पंख फड़फड़ाने लगा। विमल का भी ध्यान भंग हो गया। सिर उठा कर उस ओर देखा। यूकलिप्टस को बिलकुल ही अच्छा न लगा पीपल का यह अट्टहास।

हवा के तेज झोंके में पीपल का पेड़ एक बार कस कर हिला। बहुत सारे पीले पत्ते टपक पड़े, बृद्ध के रोंयें की तरह। पीपल ने मानों सिर हिलाकर बोला-

‘देखते क्या हो? तुम्हारी उमर ही क्या है अभी? मैं शताब्दियों से यहाँ खड़ा हूँ। प्रेम की कितनी ही अट्टालिकाओं को ध्वस्त होते हुये देखा है मैंने इसी अस्पताल के प्रांगण में, अपनी बूढ़ी आँखों से। कितनी ही चूडि़याँ टूटी हैं, कितने ही मांग धुली हैं, कितने ही आंचल भरे हैं, कितने ही गोद खाली हुये हैं....देखते-देखते मेरी आँखें पथरा गयी हैं। एक बार तो यहाँ तक हुआ कि एक प्रेमी महाशय मेरे ही तने में फंदा डाल दिये अपनी फांसी का, क्यों कि उनकी प्रेमिका का देहान्त हो गया था....।

किन्तु पीपल की बातों पर, अनुभव पर जरा भी ध्यान न दिया किसी ने। सबकी निगाहें वरामदे की ओर थी, जहाँ विमल के विचार धीरे-धीरे सिमट कर एक बिन्दु पर आ इकट्ठे हो रहे थे। पीपल को फिर हँसी आ गयी यह जान कर कि विमल जैसे पढ़े-लिखे अत्याधुनिक लोगों का भी दिमाग फिर गया है।

विमल सोचने लगा- ‘...तब यह निश्चित है कि उसी ने कुछ किया है। उस तोंदैल तान्त्रिक ने ही। तान्त्रिक तो है ही। हो सकता है उसका सम्मोहन काम कर गया हो। पापा ने उसकी काली चंडी का सम्बन्ध अस्वीकार किया। इस स्थिति में क्रुद्ध हो कर मीना पर ही विद्वेषण-प्रयोग कर दिया। ओफ!....

इसी प्रकार काफी देर तक खुद-व-खुद मगजपच्ची करता रहा विमल। अन्त में लम्बी सांस छोड़ते हुये निर्मल जी की ओर देखते हुये बोला- ‘पापाजी! हालांकि आप इसे दकियानूसी विचार कहेंगे, पर न जाने मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। पदारथ काका और सविता चाची की बातो में निश्चित ही किंचित सच्चाई झलकती है।

‘क्यों? इस विश्वास का क्या कारण है? क्या आधार है? तुम्हारे भी मन में ऐसी ही बात क्यों उठ रही है? ’- साश्चर्य पूछा निर्मलजी ने, और सबकी निगाहें जा लगी, विमल के चेहरे पर।

‘ठीक कहता है, विमल बेटा। ’-अपनी बातों का समर्थन पा सविता और पदारथ ओझा एक साथ ही बोल पड़े।

‘कारण कुछ और नहीं है पापा!आप जानते ही हैं कि रामदीन पंडित इस इलाके के लब्ध प्रतिष्ठित तान्त्रिक हैं। उनकी बेटी का वैवाहिक सम्बन्ध हमलोगों ने ठुकरा दिया। एक ही साथ- तन्त्र, ज्योतिष और दौलत तीनों को ही अंगूठा दिखाया है हमलोगों ने। उसी का परिणाम प्रतीत होता है-मीना की दुर्घटना। ’-कहा विमल ने, और पल भर के लिए अनुभवी अधीक्षक निर्मलजी भी वाध्य हो गये विचार करने पर। इस तथ्य के आधार को ढूढ़ने पर। कुछ देर तक तो मौन रहे। किसी गहन सोच-विचार में। कभी-कभी सामान्य जन की बात भी विचारणीय होजाती है।

ऐसा ही तर्क-वितर्क करते रहे, अपने आप से। फिर उन्हें भी लगने लगा कि विमल की बातों में किंचित सच्चाई हो सकती है।

बगल में बैठे तिवारीजी का भी माथा डोल गया, क्यों कि रामदीन पंडित के स्वभाव से पूर्णतया अवगत थे।

‘क्या उपाय हो सकता है आखिर इसका? ’-प्रश्नात्मक दृष्टि डाली- तिवारीजी ने सब पर।

‘करना क्या है, अभी दो-चार दिन तो यहीं अस्पताल में ही गुजारना पड़ेगा। घाव भर जाय फिर घर ले चला जाय किसी तरह। फिर किसी अच्छे गुणी-तान्त्रिक से परामर्श लिया जाय। ’-निर्मलजी ने अपनी राय दी।

‘अस्पताल में तो रखना आवश्क है ही। किन्तु इसी बीच किसी ओझा-गुनी से सहायता लेनी चाहिये। दवा और दुआ दोनों ही साथ चले तो क्या हर्ज है? ’- निर्मलजी की ओर देखते हुये तिवारीजी ने कहा।

‘किसी गुनी से काम नहीं चलेगा मधुसूदन भाई। एक तो इस इलाके में कोई गुनी तान्त्रिक दीख ही नहीं रहा है। यदि दीखे भी तो रामदीन पंडित के टक्कर का नहीं। दूसरी बात यह कि यदि अनुमान है, आपलोगों को उन्हीं के कृत्य का, फिर दूसरे के पास जाकर भी क्या फायदा? ’-मौका देख रामदीन पंडित के नमक- हलाली का डंका बजाया ओझाजी ने।

‘तब क्या विचार है आपका? ’- उपाध्यायजी ने पूछा।

‘विचार क्या, बस यही कि आज हमलोग चलें रामदीन पंडित के पास ही। काम निकालना है तो कुछ नम्र होना ही पड़ेगा। तिवारीजी जाकर माफी मांगें उनसे। कहें कि अनजान में सम्बन्ध तय कर लिया है। फलतः आपके कोप का भाजन होना पड़ रहा है। ’-ओझाजी ने सुझाया।

‘वाह! तिवारीजी तो अनजान बन कर माफी मांग लेंगे। किन्तु मैं? मैं क्या सफाई दूँगा? क्या मैं कह दूँ कि जान बूझकर चुनौती दिया हूँ आपके तन्त्र बल को? ’- हाथ मटकाते हुये निर्मलजी बोले- ‘अजीब बात करते हैं, आप भी ओझा जी। ’

‘कुछ तो अपनी गलती दिखानी ही होगी आपको। कुछ नहीं तो बेटे का ही जिद्द जाहिर करना होगा; और क्षमा मांगनी होगी। ’- पदारथ ओझा ने अपने प्रसस्त पथ की पुष्टि की।

उनकी बातों का खंडन करते हुये विमल ने कहा- ‘क्या जरूरत है बापू या पापा को क्षमा-याचना करने की? यह सब कह कर तो जाहिर कर देना है कि उनका कृत्य हमलोग जान गये हैं। सीधी सी बात है- परिचय है ही बापू को। सिर्फ वे ही जाँय उनके पास, और स्थिति से अवगत करायें। सारी राम कहानी अक्षरशः कहने की कोई आवश्कता नहीं। कब गिरी, कैसे गिरी आदि बातें हम क्या बतायें, इतने बड़े तान्त्रिक हैं, तो स्वयं ही जान लेना चाहिये उन्हें। यदि न भी जान पाते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ने को। हमलोग को तो अपने काम से काम है केवल। जो उपाय बतलायेंगे, सो किया जायेगा। ’

विमल की बातों का समर्थन किया सबने। बात तय हुयी कि आज ही जाकर तिवारी जी उनसे मिलें। पदारथ ओझा ने भी हामी भरी। सिर हिलाते हुए बोले-‘ठीक है। यही करना चाहिये। फिर तिवारी जी की ओर देखते हुये बोले- ‘मधुसूदन भाई! आप बाजार जाकर थोड़ा अरवा चावल और सवा भर लौंग ले आवें। ’

‘अभी बाजार क्या जाना है। चलें सभी लोग। बहूओं को घर छोड़ दूंगा। सविता भाभी भी चली ही जायेंगी। विमल तब तक यहाँ रहेगा। मेरा वहाँ तक जाना तो उचित नहीं है, फिर भी सबको पहुँचाने के चलते जाना ही होगा। ’- कहते हुये निर्मलजी उठ खड़े हुये। उनके साथ ही सभी लोग वाध्य होकर खड़े हो गये।

विमल वहीं बैठा रहा। घड़ी देखते हुये बोला- ‘दो बजने को हैं। अभी तक आपलोगों ने कुछ खाया भी नहीं। ’

‘खाया जायेगा, इन सबसे निश्चिन्त होकर ही। इस चिन्ता में अभी भूख किसको है? ’

सभी चल पड़े। सबके पीछे सविता चल रही थी- मनमारे, और मुड़-मुड़ कर देखती रही मीना के कमरे की बन्द किवाड़ को ही, जहाँ एकान्त में बैठे डॉक्टर सेन मीना के रोग की गुत्थी सुलझाने का प्रयास कर रहे थे।


डॉक्टर द्वारा पूछे जाने पर उसने अपना नाम बतलाया था- मीना चटर्जी।

‘....अच्छा तो मिस चटर्जी! आप कलकत्ते में कितने दिनों से रह रही है? ’- पूछा डॉक्टर सेन ने और धीरे से पॉकेट रेकॉर्डर ऑन करने के बाद हाथ में लिये लेटर पैड पर कुछ लिखने लगे। रेकॉर्डर तो पहले भी ऑन ही रहा था, किन्तु बीच में कुछ कारण से बन्द करना पड़ा था।

‘...मैं क्या, मेरे पापा ही आ बसे हैं कलकत्ते में। इनके पूर्व, यानी मेरे दादाजी गोकुलपुर के पास रहते थे, जो बंगाल के ही मेदिनीपुर जिले में पड़ता है। वहीं के

बहुत बड़े जमींदार थे हमारे दादाजी। ’- मीना अपना इतिहास वयान कर रही थी।

‘ये तो बतलाइए मिस चटर्जी....। ’

‘ओफ! डॉक्टर! आप बार बार मुझे मिस क्यों कह रहे हैं? मैं पहले ही आपको बतला चुकी हूँ कि मैं शादी-शुदा हूँ। कमल जी मेरे पति हैं। ’-डॉ. सेन की बात पर आपत्ति जताकर, झल्लायी हुयी मीना बोली।

‘हाँ हाँ, अभी कुछ देर पहले ही आपने कहा था। किन्तु आपके इस प्रेम रहस्य को आपके पापा....ओह! आइ ऐम सौरी, क्या नाम कहा था आपने अपने पापा का? ’-डॉ. ने जानबूझ कर उसके पिता का नाम फिर से कहलवाने की चेष्टा की।

‘आप डॉक्टर होकर भी इतने भुलक्कड़ हैं, फिर तो हो गया आपके रोगियों का कल्याण। इतनी ही देर में तीन बार तो आप पूछ चुके एक ही बात को। हर बार मैंने कहा- मेरे पापा का नाम श्री वंकिंम चटर्जी है, चटर्जी यानी चट्टोपाध्याय। मैं फिर से दुहरा दूँ कि विद्यालय अधीक्षक हैं मेरे पापा। ठीक से याद कर लीजिये। फिर न बताऊँगी। ’-झल्ला कर मीना ने कहा।

इस बार डॉ.सेन ने नाम को अपने लेटर पैड पर लिख लिया। फिर पूछा-‘हाँ तो मैं कह रहा था- यह शादी तो कोई शादी नहीं हुयी- जैसा कि आपने कहा, पापा-मम्मी की अनुपस्थिति में ही आपने काली मन्दिर के प्रसाद स्वरूप सुहाग-रज को कमल भट्ट के द्वारा, जो आपका पूर्व प्रेमी था, अपनी मांग में भरवा लिया। ’

‘वाह क्यों नहीं हुयी शादी? ’- तुनकती हुयी मीना बीच में ही बोल पड़ी-‘निरर्थक बेबूझ वैदिक मन्त्रों को जबरन, मुंह से कहलवा देने से, या फिर अदालत में जाकर शपथ पूर्वक कुछ घिसे पिटे शब्द कह-लिख देने से ही जब शदी हो सकती है, तो अन्तरात्मा की अदालत में इजहार के बाद शादी क्यों नहीं हो सकती? हमलोगों ने वचपन से ही चाहा है, एक दूसरे को। मन ही मन प्रतिज्ञा की थी- अपने सत्यवान सरीके पति परमेश्वर को। फिर शेष ही क्या रह गया करने को- झूठा दिखावा, धूम-धड़ाका...और क्या...बस इतना ही तो बाकी रहा? ’

‘क्या आपके पापा-मम्मी राजी हो जाते इस सम्बन्ध पर? ’- डॉ. सेन ने फिर सवाल किया।

‘राजी? क्या बोलते हैं आप? लगता है कि आप मेरी सारी बातें गम्भीरता से सुन नहीं रहे हैं। मैं कह चुकी हूँ कि पापा-मम्मी ने ही तो रास्ता सुझाया था हमदोनों को। कई बार आपस में उन लोगों को बातें करते सुनी थी कि ऐसी जोड़ी बार बार नहीं मिलती।

‘जैसा कि आपने अभी बतलाया- कमल भट्ट निर्धन परिवार का लड़का है। फिर आप इतने सम्भ्रान्त परिवार की होकर उस गरीब से...? ’

डॉक्टर की बात पर मीना को खीझ हो आयी- ‘कमाल हैं आप भी डॉक्टर। गरीबी क्या टी.बी. की बीमारी हो गयी, संक्रामक रोग...छूत की बीमारी? मेरे पास इतनी दौलत है। कोई और तो उत्तराधिकारी है नहीं इसका। फिर उनकी गरीबी से क्या लेना-देना? पापा को या मुझे ही मतलब तो उनके गुण और प्रतिभा से है। ’

‘सब कुछ तो हुआ, किन्तु एक बात आप नहीं बतला रही हैं मीनाजी- आप ट्रेन से गिर कैसे पड़ी? क्या कुछ....? ’- पूछते हुये डॉक्टर सेन ने उसके गहरे अतीत में झांकने का प्रयास किया।

‘सौरी डॉक्टर। मैं यह पहले ही कह चुकी हूँ कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला

है। इसमें दखल देने की कोशिश न करें। इतनी सारी बातें भी मुझे आपको बतलानी न चहिये थी, किन्तु मैं यह सोच कर आपको बतला गयी कि आप मेरी वास्तविकता से वाकिफ हो जायें। मुझे उन तस्करों से मुक्ति दिलावें। मैं तो यहाँ तक कहती हूँ कि आप मुझे स्वतन्त्र छोड़ दें। मैं चली जाऊँगी वापस कलकत्ता, अपने पापा के पास। ’

‘जैसा कि आप बतलायी, आपके पापा-मम्मी तो अभी कलकत्ते में होंगे नहीं? आप लोग तो ट्रेन से कहीं के सफर में थीं? ’

‘इसी बात का तो मुझे आश्यर्च हो रहा है कि पापा-मम्मी मुझे छोड़ कर आखिर चले कहाँ गये? दूसरी बात यह कि मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं पीएमसीएच के हथुआ वार्ड में बेड नम्बर सेवन पर भर्ती हुयी थी। वहीं मेरे मम्मी-पापा, कमल सभी थे। कमल ने मेरी मांग भरी थी। फिर मैं सो गयी थी। सिर का बोझ हल्का हो गया था, माथे में सिन्दूर पड़ जाने के कारण। कमल भी वहीं सो गया- बेड पर ही एक ओर टेका लगाये हुये। पापा-मम्मी बाहर वरामदे में दरी बिछाकर सोये हुये थे। ’-मीना कहे जा रही थी- ‘इतनी स्पष्टी के बाद भी आप संदेह प्रकट कर रहे हैं डॉक्टर! मेरे और कमल के सम्बन्ध पर? यदि रंचमात्र भी अन्य भावना रही होती मापा-मम्मी को तो क्या इतनी छूट दिये होते हमें? मगर अफसोस! वे सब के सब कहाँ चले गये मुझे अकेली छोड़ कर? मैं देखती हूँ- न तो वह इमर्जेन्सी वार्ड है, और न वह कमरा और न वह नर्स, न डॉक्टर ही। मुझे लगता है कि यह ‘वह’अस्पताल ही नहीं है। ’-कहती हुयी मीना बेड पर बैठ गयी उठ कर। और बाहर झांक कर देखने का प्रयास करने लगी। किन्तु रंगीन वेलजियम ग्लास बाहर का कोई दृष्य न दिखा सका। लाचार होकर बेचारी पूर्ववत पड़ गयी बेड पर।

फिलहाल मीना के शरीर में किसी तरह की तकलीफ न थी। माथे में जहाँ पट्टी बंधी थी, हल्का-हल्का दर्द हो रहा था सिर्फ। फिर भी भूख भाग गयी थी- मानसिक चिन्ता के कारण। दोपहर में होश आने के बाद दो टोस्ट के साथ एक गिलास दूध ली थी। परिचारिका आकर फल-दूध वगैरह रख गयी थी, जो कि ज्यों का त्यों पड़ा है अब भी।