पुनर्भव / भाग-16 / कमलेश पुण्यार्क

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मीना की बात पर मुस्कुराते हुये कहा डॉक्टर ने- ‘आपका अनुमान सही है मीना जी। यह पीएमसीएच नहीं है। न तो यह बिहार है, और न आपका बंगाल। यह है- मध्यप्रदेश का एक छोटा सा शहर- जशपुरनगर। जिसके सरकारी अस्पताल में आप कल रात से भर्ती हैं। प्रीतमपुर निवासी, रिटायर्ड पुलिस अधीक्षक श्री निर्मल उपाध्याय आपके होने जा रहे स्वसुर हैं। जिन्होंने यहाँ लाकर भर्ती कराया है। साथ में आपके भावी पति विमल उपाध्याय और बापू मधुसूदन तिवारी भी थे। उन्होंने अपने घर का पता माधोपुर लिखवाया है, जो कि उधमपुर डाकखाने में पड़ता है। यहाँ से करीब ही है यह जगह- यही कोई आठ-दस मील। ’

‘और भी कुछ बतलाया उनलोगों ने? ’-डॉक्टर की बात पर आश्चर्य व्यक्त करती हुयी मीना ने पूछा।

‘रात, एडमिट कराते समय तो नाम पता के अलावे विशेष जानने की जरूरत न पड़ी। स्वयं उनलोगों ने सिर्फ इतना ही बतलाया कि सीढ़ी से गिर पड़ी है। नीचे पड़े पत्थर से टकरा कर सिर फट गया है। चूँकि साथ में उपाध्यायजी स्वयं थे, वह भी भावी स्वसुर के रूप में, जो कि इलाके के एक मानिंद व्यक्ति हैं। ऐसी स्थिति में किसी तरह के संदेह या अविश्वास का सवाल ही नहीं उठता; किन्तु सुबह जब आप होश में आकर, उनलोगों को पहचानने से इनकार कर गयी, जब कि परीक्षण-क्रम में मुझे किसी प्रकार की मानसिक विकृति का लक्षण न मिला, तो कुछ संदेह होने लगा। कई तरह के सवाल उठने लगे। अतः तत्काल आपको नींद की सूई दे दी गयी, और इस बीच उनलोगों से भी विस्तृत जानकारी ली गयी। ’-मिस्टर सेन ने अब तक की स्थिति से अवगत कराया मीना को।

काफी देर तक इसी प्रकार की बातें होती रही। डॉ.सेन हर प्रकार से तर्क-वितर्क कर मीना के वौद्धिक एवं मानसिक स्थिति का अध्ययन-परीक्षण करते रहे। किन्तु कहीं भी लेशमात्र भी त्रुटि न मिली उन्हें। फलतः इस विचित्र रूग्णा की स्थिति ने पल भर के लिये उन्हें चिन्तित-विचलित कर दिया। लाचार, वे उठ खड़े हुये।

‘अच्छा मीनाजी! अब आप आराम करें। पुनः शाम को बातें करूँगा। ’-कहते हुये डॉ.सेन बाहर निकलने लगे।

‘एक्शक्यूज मी डॉक्टर! मैं कुछ निवेदन करना चाहती हूँ आपसे। ’-मुस्कुराती हुयी मीना बोली।

जाने को उद्यत मिस्टर सेन के पांव थम गये। पीछे पलट कर बोले -‘ऑफकोर्स! कहिये, क्या कहना चाहती हैं आप? ’

‘अभी मैं बिलकुल एकान्त चाहती हूँ। अतः कोई मुझे डिस्टर्व करने न आये कमरे में, आप हिदायत कर दें। हाँ, यदि सम्भव हो तो कोई पत्रिका भेजवा देते, ताकि...। ’- अनुनय भरे स्वर में मीना ने कहा।

‘कोई बात नहीं। अभी भिजवा देता हूँ। ’-कहते हुये डॉक्टर सेन बाहर निकल गये, हाथ में मीना की केश-हिस्ट्री की फाइल लिये।

वरामदे में विमल अकेला बैठा था। उसकी निगाह सामने के दरख्त पर थी, जिसकी फुनगी पर बैठी दो चिडि़याँ आपस में चोंच मिला रही थी। विमल का हृदय कुछ सोंच कर ऐंठ सा गया। जी में आया पत्थर उठाकर मार बैठे उन चिड़ियों को। तभी डॉक्टर के जूते की आहट से जरा चैतन्य हुआ, और ध्यान उधर ही खिंच गया।

‘हेलो डॉक्टर! कैसी है मीना? क्या बातें हुयी? ’

‘बिलकुल ठीक है, शरीरिक एवं मानसिक दोनों रूप से। बातें तो बहुत कुछ हुयी। पर अभी मैं कुछ निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। हाँ एक बात का घ्यान रखेंगे- कोई उसके कमरे में न जाय। अभी उसे बिलकुल ही अकेली छोड़ दें। ’- कहते हुये डॉ.सेन चल दिये अपने चेम्बर की ओर।

डॉक्टर के बाहर जाने के बाद मीना स्वयं उठ कर कमरे को भीतर से बोल्ट कर पुनः आकर पड़ रही बेड पर। वह सोचने लगी-

‘अभी-अभी डॉक्टर ने जो जानकारी दी - वर्तमान के संदर्भ में- उसे वह सब कुछ काल्पनिक सी लगी; किन्तु अपने वास्तविक कहानी के पात्रों को भी अचानक गुम हो जाने का भी रहस्य उसके पल्ले न पड़ा। और तो और, कमल भी कहाँ चला गया उसे छोड़ कर? आखिर क्या रहस्य है- कैसे आ गयी इस मध्यप्रदेश में अपने बंगाल और बिहार को छोड़कर? यह प्रीतमपुर-माधोपुर क्या बला है? कहाँ से टपक पड़े इतने सारे शुभचिन्तक? ’-सोचती रही। बस सोचती ही रही। यहाँ तक कि सोचते-सोचते सिर दुखने लग गया। और अन्त में आँखें बन्द कर चित्त लेट गयी। तभी दरवाजे पर दस्तक सुनाई पड़ी।

‘कौन है? ’

‘मैं हूँ सिस्टर। डॉक्टर साहब ने आपके लिये पत्रिका भेजी है। ’- सुन कर आश्वस्त हुयी, और उठ कर किवाड़ खोल दी। सामने ड्यूटी-नर्स खड़ी थी, एक

और नॉवेल लिये हुये।

‘थैंक्स। ’-लघु औपचारिकता के साथ पत्रिका और नॉवेल उसके हाथ से ले ली।

‘और कोई जरूरत? ’-नम्र, व्यवसायिक लहजे में पूछा परिचारिका ने।

‘सम्भव हो तो चाय भिजवा दें। ’

‘अभी लायी। ’-कहती हुयी वह वापस चल दी। मीना ने किवाड़ पुनः बन्द कर लिये, और विस्तर पर पांव पसार सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी। उड़ती निगाह से पहले उपन्यास को पलट गयी। किसी आधुनिक लेखिका का रोमान्टिक उपन्यास था, जिसकी भाषा-शैली बिलकुल छिछली सी लगी, एकदम बाजारू...। फलतः नाक सिकोड़ती हुयी विस्तर पर फेंक दी; और पत्रिका उठा कर पलटने लगी, पीछे की ओर से- अपनी पुरानी आदत के मुताबिक। थोड़ी देर में दरवाजे पर दस्तक हुयी।

इस बार पूछने की आवश्यकता न थी, क्यों कि आश्वस्त थी कि चाय लिये परिचारिका ही होगी। अतः उठ कर किवाड़ खोल दी।

‘चाय के साथ कुछ नमकीन भी लेना पसन्द करेंगी? ’-अन्दर आकर मेज पर चाय का प्याला रखती हुयी परिचारिका ने पूछा।

‘नो। थैंक्स। और कुछ नहीं चाहिये। आप जा सकती हैं। ’-कहती हुयी मीना कुर्सी पर आ बैठी। एक हाथ में पत्रिका पकड़े, दूसरे हाथ से प्याला उठा, ‘शिप’ करने लगी। परिचारिका खड़ी ही रही, हाथ में ट्रे लिये।

‘चाय पी लें आप। कप लेती ही जाऊँगी। ’-कहती हुयी परिचारिका, विस्तर पर पड़ा उपन्यास उठाकर पलटने लगी- ‘क्यों आपने इसे पढ़ा नहीं? ’

‘देखी थी। अच्छा नहीं लगा। ’

थोड़ी देर में खाली प्याला मेज पर रखती हुयी बोली- ‘डॉक्टर साहब कहाँ हैं? ’

‘अपने चेम्बर में। फोन पर किसी से बात कर रहे थे, चाय लाती दफा मैंने सुना था। ’

मीना किवाड़ बन्द कर पुनः आ बैठी कुर्सी पर ही। विस्तर पर पैर फैला कर, पत्रिका पलटने लगी। कुछ देर तक यही क्रम रहा-सिर्फ पन्ने पलटना, कहीं रूकना नहीं। व्यावसायिक विज्ञापन के चित्रों में अधिकाधिक नग्न नारी-सौष्ठव पर नाक-भौंसिकोड़ती रही-

‘ओफ! हद हो गयी, विज्ञापन वाजी की। एक तो ७५% विज्ञापन, वह भी सामान का प्रदर्शन कम, नारी-शरीर का ज्यादा...हाँ, नारी-शरीर भी तो एक वस्तु ही है सामान्य उपभोग के लिये। कीमती सामानों की जरूरत हो न हो, पर नारी शरीर तो चाहिये ही चाहिये हर पुरूष को...। ’-क्रोध में भुनभुनाती हुयी पत्रिका एक ओर फेंक दी विस्तर पर। तभी अचानक निगाहें आकृष्ट हुयी, पत्रिका के मुखपृष्ठ पर, जो अब तक भीतर के किसी विज्ञापन पर चिपक न पायी थी। चौंक कर पत्रिका पुनः उठा ली। ऊपर दायीं ओर छपा था- ‘वर्ष-७, अंक-५, मई १९८३ई.’

आश्चर्यचकित हो, मुखपृष्ट पलट फिर भीतर झांकने लगी, जहाँ पत्रिका का पूर्ण विवरण छपा था। यहाँ भी वे ही सूचनायें थी।

‘मई १९८३ई.’ चौंकती हुयी, माथे पर बल देती हुयी, दो-तीन बार भुनभुनायी- ‘मई १९८३ई.’...यह क्या तमाशा है? अभी तो मई १९६६ई. ही है। फिर ये सत्रह साल एडभांस की मेगजीन क्यूंकर छप गयी? विचित्र है!’

काफी देर तक मगजपच्ची करती रही। पर इसका कुछ कारण समझ न आया। मिसप्रिंट एक जगह हो सकती है। पत्रिका के हर पन्ने में ऐसी ही भूल की जरा भी गुंजाएश नहीं...। ’

माथे पर पसीने की बूंदें छलक आयी। उन्हें पोंछती हुयी, किवाड़ खोल, बाहर निकल आयी वरामदे में।

वरामदा खाली था। सामने का बेंच भी खाली था। बाहर मैदान में खड़े पीपल की टहनियाँ भी लगभग खाली हो चुकी थी, और रिक्त भाग पर आ बैठी थी, सांध्य कालीन सूर्य की अरुणिमा। यूकलिप्टस की टहनियों से छन कर प्रकाश का एक छोटा सा टुकड़ा झाऊ की फुनगी पर आ बैठा था- नन्ह° फूलसुंघनी चिडि़यां की तरह। वातावरण बड़ा ही मोहक लग रहा था। फिर भी प्रकृति का सलोनापन जरा भी आकर्ड्ढित न कर पाया मीना को।

धीरे-धीरे आगे बढ़ी पूरब की ओर। दरवाजों पर लगी पट्टिकाओं को पढ़ती जा रही थी।

अभी पांच-छः दरवाजे पार कर आगे बढ़ी होगी कि परिचित स्वर सुन अचानक ठिठक गयी। दरवाजे के चौखट से चिपका था नाम-पट्टिका- ‘डॉ.आर.के.सेन’।

‘अरे, यह आवाज तो उन्ही की है। शायद फोन पर किसी से बात कर रहे हैं, क्यों कि आवाज रूक-रूक कर आ रही है। ’-सोचती हुयी पर्दे की ओट में खड़ी हो गयी।

अन्दर से आवाज आ रही थी- ‘यस, रियेली केस बड़ी टीपिकल है। इसकी कहानी, और अभिभावकों द्वारा दी गयी जानकारी में कोई तालमेल नहीं...किन्तु

हिस्टीरिकल भी कैसे कहा जाय...? ’

कुछ देर बाद फिर आवाज आने लगी। डॉ.सेन ने चौंक कर कहा ‘ह्वॉऽट! पूर्वजन्म? यह क्या कहते हैं आप? क्या आपको संदेह हो रहा है कि पिछले जन्म की बातें याद आ रही हैं इसे? ’- फिर कुछ देर तक उधर से बात होती रही। फिर चौंकते हुए डॉक्टर सेन ने कहा-

‘ठीक है। मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। आप यथाशीघ्र आने का प्रयास करें। ’

उधर डॉक्टर सेन ने ‘क्रेडल’ पर रिसीभर रखा। इधर मीना हड़बड़ा कर दो पग पीछे हट गयी। फिर कुछ सोच कर आगे बढ़, कक्ष का पर्दा सरका दी। पत्रिका अभी भी उसके हाथ में ही थी।

‘मे आई कम इन डॉक्टर? ’

‘ओह मीना! कम इन...कम इन। ’-मुस्कुराते हुए कहा डॉ.सेन ने और इशारा किया सामने की खाली कुर्सी की ओर- ‘टेक योर सीट प्लीज। ’

‘किससे बातें हो रही थी डॉक्टर, क्या मैं जान सकती हूँ? ’- अन्दर आ कुर्सी पर बैठती हुयी मीना ने कहा, साथ ही नजरें घुमा इधर-उधर देखने लगी कमरे में। अचानक उसकी निगाह अटक गयी सामने की दीवार पर टंगे कैलेण्डर पर, जो मध्यप्रदेश का सरकारी कैलेण्डर था। इस कैलेण्डर पर अंकित तिथि और वर्ष फिर एक बार चौंका गया मीना को। पत्रिका की तरह कैलेण्डर भी सन् १९८३ई. का था।

‘तुम्हारे बारे में ही बातें हो रही थी मीना। ’-किसी अज्ञात स्नेह ने ‘आप’ के औपचारिक सम्बोधन को दूर खदेड़ दिया। मुस्कुराते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘तुम्हारा केस बड़ा ही इन्टरेस्टिंग है। उसी सम्बन्ध में जिला-चिकित्सा-पदाधिकारी से बातें कर रहा था। ’

‘क्या कहा उन्होंने मेरे बारे में? ’-उत्सुकता जाहिर की मीना ने, जब कि उसके दिमाग में अभी भी कैलेण्डर का कौतूहल बना हुआ था।

‘वे स्वयं ही आकर तुम्हारा परीक्षण करना चाहते हैं। अभी आधे घंटे में वे आ रहे हैं। ’-कहते हुए डॉक्टर उठ खड़े हुए।

‘क्यों कहीं जा रहे हैं क्या? ’

‘नहीं...नहीं। तुम इत्मिनान से बैठो। मैं कहीं जा नहीं रहा हूँ। ’- कहते हुए डॉ.सेन बगल मेज के पास गये, और मीना की नजरें बचाते हुए, दराज में रखे टेपरेकॉर्डर ऑन कर दिये।

‘मुझे एक बात की जिज्ञासा है डॉक्टर अंकल। ’

‘कहो क्या जानना चाहती हो? ’

‘आज तारीख कौन सी है? ’-कैलेण्डर की ओर देखती हुयी मीना ने कहा।

‘२५ मई। ’-संक्षिप्त सा उत्तर दिया डॉ.सेन ने, और उसके चेहरे पर गौर करने लगे, जिससे उन्हें आभास मिला कि वह उनके उत्तर से संतुष्ट नहीं है। अतः बोले-‘क्यों तुम्हें कुछ शंका है क्या? कैलेण्डर तो सामने टंगा है, खुद ही देख लो। ’

‘सो तो देख ही रही हूँ। तारीख आप सही बतला रहे हैं। जैसा कि मुझे याद आ रही है- सत्रह मार्च से मेरी परीक्षा थी हाईयर सेकेन्डरी की, और अन्तिम सप्ताह में समाप्त भी हो गयी थी। इसके बाद सप्ताहान्त में मैं गयी थी कमल के साथ कालेश्वर घूमने। वहाँ से आने के बाद वह घर चला गया था। कोई डेढ़ महीने बाद, यानी कि २१ या २२ मई के प्रातः हमलोग प्रस्थान किये थे कलकत्ते से वाराणसी के लिए, जहाँ मेरे मौसा रहते थे। इसी क्रम में मैं गिर पड़ी टेªन से...। ’-कहती हुयी मीना कुछ सोचने लगी। उसके माथे पर पसीने की बूदें मोती की लड़ियों की तरह उभर आयी, जिन्हें हाथ से पोंछती हुयी वह सामने की दीवार पर देखे जा रही थी।

सामने बैठे डॉक्टर उसके चेहर पर गौर करते रहे। उधर दराज में छिपा टेपरिकॉर्डर का स्पूल घूमता रहा। चुपके-चुपके, मीना की बातों को उतारता रहा- अपने ‘भौतिक जेहन’ में। डॉक्टर जिज्ञासा भरी दृष्टि उसके चेहरे पर डाले, सोच रहे थे कि आखिर यह कहना क्या चाह रही है?

सामान्य सी बात- एक तारीख याद करने के लिये समूचा इतिहास पढ़ने का तो कोई प्रयोजन नहीं है।

मीना को मौन साधे कोई पांच मिनट से अधिक हो गये। तब उत्सुक होकर डॉक्टर ने पूछा-‘क्यों, चुप क्यों हो गयी? फिर क्या हुआ? ’

‘बतलाती हूँ। ’- लम्बी सांस खींचती हुयी मीना बोली- ‘ पटना के आसपास ही कहीं एक्सीडेन्ट हुआ था। फलतः पटना के बड़े अस्पताल में भर्ती हुयी थी। टेलीग्राम द्वारा शायद डैडी ने सूचित कर कमल को बुलाया था...ओफ कमल! कहाँ हो तुम? ’- अचानक उसके मुंह से उच्छ्वास निकल गया। कुछ देर के मौन के बाद फिर बोली-‘सब कुछ तो ठीक है डॉक्टर, तारीख भी ठीक है, महीना भी ठीक ही है, किन्तु ई.सन् को लेकर मुझे इतना कन्फ्यूजन क्यों हो रहा है? पत्रिका और कैलेण्डर के ई.सन् से मेरे याददास्त का मेल नहीं खाता। यह मुझे बिलकुल ही गलत लग रहा है।

‘क्या कहा- ई.सन् गलत...? गलत है... सो कैसे? ’- चौंक कर पूछा डॉ.सेन ने।

‘गलत या सही- ये तो आप ही बता सकते हैं। मुझे याद है जहाँ तक, आज तो

२५मई १९६६ई. है। जब कि कैलेण्डर और पत्रिका मई १९८३ई. बता रहा है। ’-

अपनी जानकारी पर जोर देती हुयी मीना ने कहा।

सामने बैठे डॉक्टर सेन को मानों अल्लाउदीन का चिराग मिल गया हो अचानक। कुर्सी पर ही उछल पड़े खुशी के मारे। फिर हाथ पर हाथ की मुट्ठी मारते हुए चिल्ला उठे- ‘ ओह! मिल गया...मिल गया...। ’

‘क्या मिल गया डॉक्टर अंकल? क्या मिला जो आप इतना खुश हो गये अचानक? ’-आश्चर्य चकित मीना ने कहा।

डॉ.सेन कुछ कहना ही चाहते थे कि तभी कक्ष का पर्दा उठा, और एक स्थूल काय भव्य मूर्ति का प्रवेश हुआ, जिन्हें देखते ही डॉक्टर सेन खटाक से उठ कर खड़े हो गये।

‘आइये डॉ. माथुर। कहिये कैसे आना हुआ? ’- हाथ मिलाते हुए डॉ. सेन ने पूछा।

‘डी.एम.ओ.साहब बाहर गाड़ी में हैं। ’-नवागन्तुक मिस्टर माथुर बोले।

चिन्तानिमग्न मीना वहीं मुंह लटकाये बैठी रह गयी। उसकी समस्या का हल न निकल पाया। दोनों डॉक्टर बाहर निकल गये।

कोई पांच मिनट बाद डॉक्टर सेन के साथ डॉ.माथुर एवं जिला-चिकित्सा-पदाधिकारी ने कक्ष में प्रवेश किया।

परिचय कराते हुए डॉ. सेन ने कहा-‘आप हैं डी.एम.ओ मिस्टर खन्ना एवं यह है हमारा पिक्यूलियर पेशेन्ट मीना तिवारी जो अब खुद को मीना चटर्जी कहती है। ’

सौम्य औपचारिक मुस्कान के साथ, उठ कर मीना ने दोनों को नमस्ते कहा, हाथ जोड़ कर। फिर बाहर जाने लगी, यह कहती हुयी- ‘आपलोग बातें करें। मैं जरा विश्राम करना चाहती हूँ। ’

‘ठीक है। आप जा सकती हैं मिस मीना तिवारी। ’-मधुर स्वर में कहा वरिष्ठ डॉक्टर खन्ना ने। पर मीना को तीखे तीर सी लगी उनकी मधुर आवाज।

‘ओफ! मिस मीना तिवारी!’-भुनभुनाती हुयी बाहर निकल आयी।

मीना के बाहर चले जाने के बाद डॉ.सेन ने टेवल की दराज से टेपरेकॉर्डर निकाला, और साथ ही उसकी केस-हिस्ट्री की फाइल। फाइल को डॉ.खन्ना के सामने मेज पर रखते हुये कैसेट-स्पूल रिबैंड कर, प्ले कर दिये। डॉ.सेन और मीना की आवाज कमरे में गूंजने लगी।


इधर चिकित्सकों की गहन वार्ता चल रही थी- आधुनिक चिकित्सा और परामनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर तर्क-वितर्क, और ठीक उसी समय उधर पंडित रामदीन तान्त्रिक के दरवार में तन्त्र का राग अलापा जा रहा था।

उस समय अस्पताल से प्रस्थान कर, रास्ते में लौंग-चावल लेते हुए निर्मल जी पहले अपने घर गये। वहाँ दोनों बहुओं को छोड़, उधमपुर चले गये सविता को पहुँचाने। और वहाँ से चल दिये पंडित रामदीन के दिव्य दरवार का दर्शन करने।

गांव के बाहर ही गाड़ी लगा दी। निर्मलजी स्वयं गाड़ी में ही बैठे रहे। वहाँ जाना उन्हें उचित न लगा। पदारथ ओझा को लेकर तिवारीजी पहुँचे पंडितजी के द्वार पर।

तिवारीजी को देख कर मन ही मन कुंढ़ गये पंडित रामदीन, किन्तु ओझाजी

को साथ देख कर कुछ राहत महसूस किये। औपचारिक अभिनन्दन के बाद विषय-वार्ता प्रारम्भ हुयी।

तिवारी जी के हाथ से चावल और लौंग लेकर सामने रख लिया पंडितजी ने। बहुत देर तक नाक-कान खुजलाते रहे। माथे पर बँधी गोक्षुरी शिखा पर हाथ फेरते रहे। फिर भीमकाय तोंद पर हाथ फेरते हुये, उदास सा मुंह बना कर बोले- ‘आप कहाँ से फेर में पड़ गये तिवारी भाई? ’

‘क्यों क्या बात है महाराज? ’-विनीत भाव से तिवारीजी ने पूछा।

सामने रखे लौंग को उठा कर, पल भर के लिए दाहिने कान के पास ले गये रामदीन पंडित, मानों क्रेडल से घनघनाता दूरभाष यन्त्र उठा कर कानों से लगाया हो। फिर उसी तरह बात भी करने लगे मानों टेलीफोन पर ही बात कर रहे हों।

‘ठीक है...ठीक है...हाँ तो...अच्छा ये बात...अच्छा और...बहुत दिनों से... अच्छा...बाप रे...ऊँह...और...तब...कैसे...ओ...ठीक हो जायेगा...अच्छा..। ’

इसी तरह कोई पांच-सात मिनट तक उनकी अलौकिक फोन-वार्ता चलती रही। फिर इत्मिनान से तोंद सहलाते हुये बोले- ‘लौंग का संवाद तो स्पष्ट कर रहा है कि अभी आप अपनी पुत्री...जिसका नाम सिंह राशि के द्वितीय चरणाक्षर यानी ‘मी’ से प्रारम्भ है, उसी की समस्या लेकर उपस्थित हुये हैं। ’

आश्चर्य चकित तिवारीजी ने स्वीकृति की मुद्रा में सिर हिलाया। उनकी पीठ पर हाथ से ठोंकते हुये पदारथ ओझा ने कहा-

‘देख लिये न हमारे तान्त्रिक जी का चमत्कार? इन्हें क्या पता था कि हमलोग अभी मीना के स्वास्थ्य की समस्या लेकर उपस्थित हुये हैं। बेचारी कल

से...। ’-ओझाजी अभी कुछ चापलूसी बतियाते, पर बीच में ही बोल पड़े तिवारीजी-

‘रूकिये न। पंडित जी तो कह ही रहे हैं। मैं क्या नया आया हूँ इनके पास इन्हीं की कृपा से तो मुझे वुढ़ापे में पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुयी है। क्या मैं इनका गुण कभी भूल सकता हूँ? ’

‘सब ऊपर वाले की कृपा है। मैं क्या करूँगा? मुझमें सामर्थ्य कहाँ है किसी को बेटा-बेटी दे सकने की? अब यही देखिये न, अभी जो कुछ मैं आपको बतला गया, क्या मुझे कुछ दीख-सुन रहा है? नहीं...कुछ नहीं। ये सब मातेश्वरी की महिमा है सिर्फ। वही कह जाती हैं कानों में आकर। मैं तो मात्र उनका अनुचर ठहरा। ’-कहते हुये पंडितजी बगल में रखी एक छोटी सी पुस्तिका- ‘केरल प्रश्न संग्रह’ उठा ली। उसे पलटते रहे कुछ देर। फिर कहने लगे-

‘....हाँ तो मैं कह रहा था कि आप अपनी पुत्री की शारीरिक समस्या को लेकर उपस्थित हुये हैं। मगर यह जान कर आश्चर्य होगा कि आपकी बच्ची शारीरिक रूप से नाम मात्र की ही अस्वस्थ है। ’

पंडितजी की बात सुन कर सिर नीचे कर चुप बैठ रहे तिवारीजी। ओझा जी ने चापलूसी की- ‘घबराइये नहीं मधुसूदन भाई। पंडित जी का कथन कुछ और ही है। ’-कहते हुये कुछ खास अन्दाज में अपना हाथ घुमाया ओझा जी ने जिसका अर्थ या भाव तिवारी जी जान-समझ न पाये। ओझा जी कुछ देर तक अपने माथे पर भी हाथ फेरते रहे।

पंडितजी का ध्यान इसी ओर था। कुछ देर की मौन साधना के बाद, कहने लगे- ‘पहले मेरी बात तो सुनिये तिवारी जी। शारीरिक स्वास्थ्य का मतलब यह नहीं कि उसे कुछ हुआ ही नहीं है। ’

फिर एक लौंग उठा कर कान के पास ले गये। अद्भुत यन्त्र वार्ता पुनः प्रारम्भ हुयी- ‘अच्छा...हाँ..हाँ..ओ!तो माथे में गड़बड़ी है...चोट...समझा..कल रात से...हाँ..अस्पताल....ना...ठीक...बेहोशी...पहले से भी...अच्छा...होता ही था... अन्तरिक्ष...क्या...। ’

‘सुन लिए न मधुसूदन भाई क्या कहा पंडितजी ने? तुम तो जरा सी बात में बच्चों जैसा घबराने लगते हो। ’- दांत निपोरते हुए पदारथ ओझा ने कहा। तिवारीजी बेचारे चुप सिर झुकाये रहे।

‘कहने का मतलब यह है कि तिवारी जी! आपकी बच्ची के माथे में कोई गड़बड़ी आ गयी है, कल रात से। अभी वह अस्पताल में है। पर सच पूछिये तो यह औषधोपचार से सुधरने वाला मामला नहीं है...। ’-पंडितजी कह ही रहे थे कि ओझाजी बीच में ही बोल उठे- ‘तो क्या कुछ पूजा- पाठ...क्रिया-अनुष्ठान....? ’

‘हाँ भाई! तान्त्रिक अनुष्ठान से नहीं तो क्या डॉक्टरी दवा से ठीक होने वाली है? वैसे यह समस्या भी कोई नयी नहीं है। पिछले कई वर्षों से, या कहें कि बचपन से ही गड़बड़ी चल रही है। बच्ची अन्तरिक्ष बाधा के चपेट में पड़ गयी है। ’

‘यह अन्तरिक्ष-बाधा क्या होता है महाराज? ’- अनभिज्ञ सा मुंह बनाये तिवारी जी ने पूछा।

मुस्कुराते हुये रामदीन पंडित ने कहा- ‘नहीं समझे इसका मतलब? कहने का मतलब यह है कि आकाशचारी प्रभाव से ग्रस्त है। ’

मन ही मन खीझ उठे तिवारीजी। सोचने लगे कि कहाँ से फंस गये फिर इस लोभी पंडित के चक्कर में!एक बार तो बगीचा बेंचवाये, अब क्या देह बेचना पड़ेगा? अतः खीझते हुए बोले- ‘स्पष्ट क्यों नहीं कहते पंडित जी? मैं ठहरा गंवार आदमी। क्या समझ पाऊँगा यह सब तान्त्रिक शब्दावली। आकाश में तो हवाई जहाज उड़ता है, चील-कौये उड़ते हैं....। ’

तिवारीजी की बात पर ओझा और तान्त्रिक दोनों ही खिलखिला उठे। कुछ देर तक हँसी से तोंद हिलते रहा- समुद्र की लहर की तरह। फिर जरा स्थिर होकर बोले- ‘आप भी बड़े भोले हैं तिवारी जी। आकाश में क्या सिर्फ हवाई जहाज, और पक्षी ही उड़ते हैं? ग्रह-नक्षत्र, भूत-प्रेत आदि सबका स्थान तो आकाश ही है। आपकी बच्ची प्रेत-बाधा-ग्रस्त हो गयी है। तदहेतु विशेष अनुष्ठान करना पड़ेगा। अन्यथा बड़ी परेशानी होगी।

‘करेंगे नहीं। करना ही होगा। गुजारा है अब किये बिना। जो भी उपाय हो आप बतला दें। ’-माथे पर हाथ फेरते हुए पदारथ ओझा बोले।

‘उपाय तो बतलाऊँगा ही। पर जैसी विकट बाधा है, उपाय भी तो वैसा ही करना पड़ेगा। वैसे तो कई तरह के उपाय हैं; किन्तु मेरे विचार से सबसे आसान और कारगर उपाय है- प्रचण्ड महाविद्या की क्रिया- तैंतिस दिनों की इस क्रिया से भयंकर से भयंकर प्रेत, वैताल, ब्रह्मराक्षस सब के सब भाग खड़े होते हैं, या कहिये कि भस्म हो जाते हैं- जैसे रूई के ढेर पर माचिस की तिल्ली डालने से होता है। ’

‘यह क्या होता है पंडितजी कितना क्या चाहिये इसके लिए सो भी बतला दें तब न। चापलूसी की ओझा ने और फिर अपने ‘सिगनल’ का प्रयोग किया, माथे पर हाथ फेर कर। ’

‘सो तो बतला ही रहा हूँ। सबसे पहले तो इक्कीश सेर शुद्ध गोघृत की व्यवस्था करनी होगी। यह तो जान ही रहे हैं कि आज के जमाने में यह ‘शुद्ध’ शब्द भी शुद्ध नहीं रह गया है। फिर किसी सामग्री की शुद्धता पर विश्वास कैसे किया जाय...। ’- लोभी रामदीन ने भूमिका बनायी।

तिवारीजी मन ही मन भुनभुनाये- यही बात व्यक्ति के साथ भी है। जब

सामान ही शुद्ध नहीं तो फिर नीयत शुद्ध कहाँ से हो!

‘...यही कारण है कि आजकल अनुष्ठान-पूजा में सफलता नहीं मिलती, और धर्मशास्त्र नाहक ही बदनाम हो जाता है। ’- तोंद सहलाते हुए पंडितजी कहने लगे- ‘हाँ तो पहला सामान हुआ गोघृत, इसके अलावे चौदह सेर मधु, वह भी शिरीष के बगीचे का। ग्यारह सेर तिल, ग्यारह सेर उड़द, सवा मन गोदुग्ध, बीस सेर दही, बीस सेर गुड़, सवा मन अरवा चावल एवं पांच मन बड़ की लकड़ी। ये सब सामग्री आप पहले इकट्ठा कर लें। साथ ही कुछ और छोटे-मोटे सामानों की सूची मैं बना कर दे रहा हूँ। एक बात जो सर्वाधिक ध्यातव्य है- हर सामान की शुद्धता अनिवार्य है, अन्यथा मैं परिणाम के असफलता के लिए दोषी नहीं। ’

‘किन्तु यह तो काफी खर्चीला उपाय लग रहा है महाराज। ’- उदासीन होकर तिवारी जी बोले।

‘आप यही समझिये कि सर्वाधिक सुलभ क्रिया मैं सुझा रहा हूँ। इस क्रिया को शंकर का तीसरा नेत्र ही समझें- कामदेव की तरह सारे विघ्न भस्म हो जाते हैं। जान पर खेल कर कठिन तान्त्रिक क्रियायें करनी पड़ती हैं। जीवन गुजर जाता है साधना करते, तब कहीं जाकर सिद्धि थोड़ी हाथ लगती है। गँवई ओझा-गुनियों की तरह थोड़े जो है कि पावभर लोहवान और सफेद सरसो से भयंकर भूत भगाने का ढिंढोरा पीटते हैं। उन लोगों को कभी असली भूत से पाला पड़ जाय तब छट्ठी का दूध याद आ जाये। ’-तोंद पर हाथ फेरते हुए रामदीन पंडित बोले-‘वैसे आपकी इच्छा, क्रिया कराये न करायें। ’ और अपना पोथी-पतरा समेंटने लगे।

‘नहीं...नहीं... महाराज! उपाय तो करना ही पड़ेगा। नहीं तो क्या इकलौती बेटी की जान लेंगें? आप फेहरिस्त तो बनाइये। ’-बीच में ही टपक पड़े ओझाजी।

उन्हें भय हो रहा था कि कहीं मुकर गये तिवारीजी तो सब गुड़ गोबर हो जायेगा

कोई आध घंटे बाद, लम्बा-चौड़ा फेहरिस्त लेकर चल पड़े तिवारीजी, यह कहते हुए - ‘सप्ताह-दस दिन तो लग ही जायेंगे इतना कुछ करने-जुटाने में। सामग्री की व्यवस्था हो जाय फिर दर्शन करूँगा श्रीचरणों का। ’

‘ठीक है, कोई बात नहीं। ’

औपचारिक दण्ड-प्रणाम के बाद दोनों मित्र विदा लेकर आगे बढ़े, जहाँ दो घंटे से तपस्या कर रहे थे, बेचारे उपाध्यायजी वट वृक्ष की छांव में।

रास्ते भर ओझाजी मक्खन-मालिश करते रहे। तिवारीजी को समझा-बुझा कर हर तरह से राजी करने का प्रयास करते रहे अनुष्ठान के लिए; किन्तु तिवारी जी ने साफ शब्दों में कहा-

‘जो भी हो, उपाध्यायजी के कथनानुसार ही होगा। अब मीना मात्र मेरी बेटी ही नहीं, बल्कि उनकी बहू भी...। ’

‘वाह!’-बीच में ही बात काटकर ओझाजी ने कहा- ‘ क्या बात करते हो? अभी न कन्यादान हुआ, और न फेरे लगे। बहू कैसे बन गयी? दुनियाँ की सारी लड़कियों को क्या केकड़ा खा गया, जो तुम्हारी रोगी लड़की को...। हो सकता है, वे अब शादी करना ही न चाहें। ’

ओझा की बातों का कुछ भी जवाब देना जरूरी न समझा तिवारी ने।

पास पहुँचते ही उपाध्यायजी बोले- ‘बहुत देर लगा दी आपलोगों ने। ’

‘उनके पास पहुँच जाने के बाद पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। ’-कहते हुये तिवारीजी आ बैठे गाड़ी में। साथ ही ओझाजी भी आ बैठे।

‘क्या कहा पंडितजी ने? ’-उपाध्यायजी ने पूछा।

‘कहेंगे क्या? यही कोई दो-तीन हजार का अनुपूरक बजट पेश किये। ’-कहते हुये तिवारीजी ने विधाता की जन्मपत्री सी लम्बी सूची, अपनी जेब से निकाल कर आगे बढ़ा दी।

खीझते हुये ओझाजी बोले- ‘तुम भी अजीब हो मधुसूदन! सारा कुछ तो उगल दिया पंडितजी ने, जो भी घटना घटी है। अब क्या चाहते हो, इतनी बड़ी बला क्या फोकट में सलटा दें? ’-फिर निर्मलजी को सम्बोधित करते हुए, रामदीन पंडित की पूरी कीर्ति कुछ मधुवेष्ठित रूप में आद्योपान्त सुना डाली ओझाजी ने।

व्याख्यान सुन कर अकल ही गुम हो गयी उपाध्यायजी की। अफसोस के साथ आश्चर्य प्रकट करते हुए बोले- ‘ओफ! अजीब हाल है। एक से एक विचित्र बातें हैं- इस प्रपंची दुनियाँ में। अब बतलाइये न यह अन्तरिक्ष बाधा कहाँ से आ ग्रसी बेचारी मीना बेटी को? ’

‘आखिर आपका विचार क्या है? मधुसूदन भाई तो कहते हैं कि मीना अब आपकी बहू है। आप जो कहेंगे, वही होगा। ’-दांत निपोरते हुये ओझाजी बोले।

‘इसमें संदेह की क्या बात है? असल बात बेटी या बहू होने की नहीं है, स्नेह और प्रेम की है। रही बात अनुष्ठान की, तो उसके लिये हड़बड़ी ही क्या है? दो-चार दिन तो अस्पताल में ही लगेंगे। फिर जैसी सलाह होगी डॉक्टरों की, उस मुताबिक किया जायेगा। पहले तो समुचित इलाज की जरूरत है। ’-उपाध्यायजी ने अपना स्पष्ट विचार दिया।

उपाध्यायजी की बातों से साफ हो गया कि अभी ओझा की दाल गलने वाली नहीं है। अतः प्रसंग बदलते हुये ओझा ने कहा- ‘अरे मैं तो भूल ही गया था, शाम का समय दिया था माधोपुर चौधरी को। वे प्रतीक्षा में होंगे। ’


‘ठीक है। कौन कहें कि रात हो गयी। मैं भी जरा घर हो लूँ। बहनें वहाँ चिन्तित होंगी। उधमपुर तो जाने की अब तो जरूरत ही नहीं रही। अच्छा होता माधोपुर ही होते चलते। ’-तिवारीजी बोले।

‘ठीक ही है। ’-कहते हुये उपाध्यायजी ने गाड़ी बढ़ा दी।

रास्ते भर सभी लोग खोये रहे अपने आप में ही। फलतःकोई बातचित न हुयी। करीब आधे घंटे बाद लोग पहुँचे माधोपुर, तिवारीजी के दरवाजे पर। ओझाजी गाड़ी से उतर कर चल दिये चौधरी के घर की ओर। उन्हें जरा रोकते हुए तिवारीजी ने कहा-

‘पदारथ भाई!चौधरी से मेरा राम-सलाम बोल दोगे, साथ ही मेरी स्थिति से भी अवगत करा दोगे। कौन जाने अभी कब तक यह सब चक्कर चलेगा। मकान छोड़ने के लिए दस दिनों का मोहलत मांगा था। आधा वक्त तो खतम हो गया। अभी तक कुछ सोच भी न पाया हूँ।

कहते हुए तिवारीजी का गला भर आया। सान्त्वना देते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘चिन्ता न करें तिवारीजी। मेरे जीवन भर आपको कोई कष्ट न होगा। वैसे एक दफा कह कर देखिये। यदि नहीं मानता तो फिर छोडि़ये मोह- घास-फूस की इस ‘एहसानी’ झोपड़ी की। आखिर एक न एक दिन वह परेशान तो करेगा ही। दौलत वाले अक्ल के अंधे होते हैं। उन्हें यह विश्वास होता है कि दौलत साथ लेते जायेंगे। ’

‘आखिर रहने का कोई ठौर तो चाहिये ही न भाईजी? ’-रूआँसे होकर कहा तिवारीजी ने।

‘इसकी चिन्ता भी मुझ पर छोड़ दें, या कहें कि ऊपर वाले पर ही छोड़ दें।

वही प्रबन्ध करेगा, जो उचित समझेगा। वैसे जब आपकी इच्छा हो निःसंकोच चले आवें मेरे यहाँ। छोटा सा एक उदर और छः फुटी काया...। ’

‘यह तो आपकी महानता है। पर निठल्ले बैठे कब तक आपके द्वार पर रोटी तोड़ता रहूँगा? कौन कहें कि मेरे मौत का परवाना जल्दी ही आने वाला है? ’

‘ऐसा ही है तो मैं किसी प्राइवेट स्कूल में ही रखवा दूंगा। तब कमा कर खाने में आपको भी एहसान मन्द नहीं होना पड़ेगा। ’