पुनर्भव / भाग-18 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘आखिर किया ही क्या जा सकता है? भगवान को जब यही मंजूर है, फिर हम इनसान क्या कर सकते हैं? ’- गाड़ी की ओर वापस चलते हुये उपाध्यायजी बोले।

‘लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा है कि वह अचानक इतना हो हल्ला क्यों मचाने लगी? कहीं कुछ दिमागी गड़बड़ी तो नहीं हो गयी? ’

कुछ ऐसी ही आशंका से राँची ले जाना मुनासिब समझा होगा। ’- विमल ने कहा।

‘कुछ भी हो सकता है। हमलोग तो सिर्फ अटकल ही लगा सकते हैं। ’-गाड़ी के पास पहुँच कर निर्मल जी बोले।

‘यह तो देखिये कि सरकारी डॉक्टर लोग कितना ध्यान दे रहे हैं, पर मेरे भाग्य का लेखा कौन मिटा सकता है? ’-मायूस हुये तिवारी जी बोले।

‘भाग्य तो है हीं, पर आगे अब हमलोगों को अपना कर्तव्य भी सोचना है। ’-घड़ी देखते हुये विमल ने कहा। वह चाह रहा था कि यहाँ-वहाँ रह कर व्यर्थ का

समय न गंवाया जाय।

‘करना क्या है, दिन भर यूँ ही उन लोगों की प्रतीक्षा में गंवाने से अच्छा है कि हमलोग महात्माजी का दर्शन कर आवें। समय भी अनुकूल है। ’

अब से चलकर दोपहर तक तो वहाँ पहुँच ही जायेंगे। दर्शन हो जाये तो कुछ नया रास्ता सूझ जाय। ’-निर्मलजी ने राय दी।

उनकी राय को सभी ने पसन्द किया।


स्प्रीट-डेटॉल की बदबू से बाहर निकल कर गाड़ी फिर एक बार वन्य-प्रसूनों की खुसबू लेने प्रसस्त राजमार्ग पर दौड़ने लगी। जशपुर नगर से कोई तैंतीस मील की दूरी पर उत्तर की ओर है चैनपुर नामक छोटा सा शहर। वहीं से पूरब की ओर पांच-छः मील दूर टांगीनाथ की पहाड़ियों का सुरम्य सिलसिला शुरू हो जाता है। सघन कानन के मध्य शंख नदी इस प्रकार निकली है मानों किसी आधुनिका ने सिन्दूर लगाने के लिए अपने केश राशियों को संवार कर, मांग सीधी करना चाहा हो, पर सतत अभ्यास के अभाव में टेढ़ा-मेढ़ा हो गया हो। सिर के विभाजन रेखा- मांग की तरह दो प्रान्तों के विभाजन रेखा का काम करती है यह नदी। जैसे-जैसे जंगल की गहराई में पैठती गई गाड़ी, पहाड़ी लाल कंकरीली मिट्टी की बनी सड़कों पर- जो नवविवाहिता के मांग के सिन्दूर का भ्रम पैदा कर रही थी, जंगल गहन से गहनतर होता चला गया। हालांकि आज वन विभाग का ‘उजारन’ खण्ड ज्यादा सक्रिय है ‘वसावन’ खण्ड की तुलना में, फिर भी काफी घना जंगल है इस भाग का। पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से बने खोह और दर्रे कुदरत की कला का नमूना पेश करते हुये बरबस ही पर्यटकों को खींच लेते हैं। जंगली पेड़ों में साखू, सलई, तेंद, कुरैया, धौ, पियार, जिगना, गिजिन, असन, सानन, पानन, आदि बहुतायत से देखे जाते हैं इस आसपास। हालांकि यह मौसम भीषण गर्मी का है, फिर भी प्राकृतिक सौन्दर्य यौवन पर ही प्रतीत होता है। खास कर उनके लिये तो और, जिन्होंने कभी जंगल देखने का सौभाग्य ही न पाया हो। आधुनिक ‘आग्नेय धनुर्धरों’ की कृपा से वन्य पशुओं का अभाव सा हो गया है। वैसे भी वनराज-दर्शन का आनन्द लोग चिड़याघरों में ही सुरक्षित समझते हैं। फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि काबुल में गधे होते ही नहीं। पशु तो पशु, परिन्दे भी एक से एक नजर आयेंगे इन प्रान्तरों में।

खैर, चाहे कितनी भी रौनकता और मोहकता क्यों न हो इस प्राकृतिक प्रांगण में, पर मीना के मृगनयनों सी मादकता कहाँ है? प्रकृति की सारी शक्ति की तो इति हो गयी मीना को ही मोहक बनाने में। फिर क्या मजाल जो आकर्षित कर सके यह रस-हीन वातावरण बेचारे विमल को।

उसका तो लक्ष्य है- यथाशीघ्र ऊपर पहाड़ी पर पहुँच जाना। प्राकृतिक सिकंजों को तोड़ती हुयी गाड़ी आगे बढ़ती रही। राजमार्ग कब का छूट चुका था। पर सिन्दूरी सड़क जरा भी कम न थी काली सड़क के मुकाबले।

कोई डेढ़ घंटे बाद गाड़ी आ लगी टांगीनाथ कस्बे के उच्च विद्यालय के प्रांगण में। प्रधानाध्यापक पाठकजी, जो कुछ दिन माधोपुर भी रह चुके थे, घनिष्ट मित्र भी हैं तिवारीजी के। उन्हीं के संरक्षण में गाड़ी छोड़ कर लोग आगे बढ़े। पाठकजी ने काफी आग्रह किया लोगों को जलपान-भोजन आदि के लिये; किन्तु औपचारिक चाय-शर्बत के बाद ही चल पड़े लोग पहाड़ी की चढ़ाई पर।

तराई से करीब तीन मील की चढ़ाई पर, पहाड़ी कुछ प्रसस्त हो गया है। उसी सुरम्य भाग पर है- भूत-भावन भोलेनाथ का अति प्राचीन स्थल। वैसे इस पूरे क्षेत्र में ही शिव-मन्दिरों की भरमार है। लगता है कि उस क्षेत्र पर शिव की महती कृपा रही हो।

घर से चलते वक्त ही ‘वाटर वॉटल’ में पानी और कुछ सामान्य कलेवा आदि लेकर चला था विमल। कंधे पर छोटा सा एयर बैग, और हाथ में कैसेट रिकॉडर लटकाये, पितृ द्वय सहित जल्दी-जल्दी, पर सम्हल-सम्हल कर चला जा रहा था बेचारा विमल विचारों की कंटकाकीर्ण वीथियों में खोया हुआ सा। अभी भी मीना द्वारा गाये भजनों का कैसेट चल रहा था।

अगल-बगल जंगली फल-फूल बहुतायत से थे। ग्रीष्म अपने प्रौढत्व पर था, फिर भी एक ओर मनोरम वातावरण तो दूसरी ओर लक्ष्य पर पहुँचने की बेताबी ने जरा भी अनुभव न होने दिया- तीन मील की दुर्गम चढ़ाई। अपराह्न पौने एक बजे लोग पहुँच गये ऊपर मन्दिर के पास। हालांकि इस पावन स्थली में भक्त मण्डली का जमावड़ा सदा ही लगा रहता है। भंग और बूटियाँ छनती रहती हैं। गांजे की गुलेरी सुलगती रहती है, किन्तु उस दिन पास ही कस्बे में कोई नौटंकी-पार्टी का पदार्पण हो गया था, फलतः इक्के-दुक्के विशिष्ट भक्तों के अलावे कोई खास भीड़ न थी।

मन्दिर के विशाल सभामण्डप में पालथी मार कर बैठ गया विमल। थकान काफी महसूस होने लगी थी अब। बोतल का पानी तो रास्ते में ही शेष हो चुका था। प्यास से जीभ चटपटा रहा था। और लोग भी प्यास से परेशान थे।

महात्माजी का एक शिष्य बाहर सहन में ही पड़ा विश्राम कर रहा था। इनलोगों की आवाज सुन कर उठ बैठा।

‘यहाँ पानी-वानी मिल सकता है क्या? ’-नम्रता पूर्वक विमल ने पूछा।

‘क्यों नहीं जरूर मिलेगा। जूते वहीं उतार कर अन्दर आ जाइये। ’-शिष्य ने कहा।

तीनों लोग जूते उतार कर ऊपर बढ़ चले। विमल के हाथ में रिकॉडर देख कर शिष्य ने कहा- ‘इस पर चमड़े का खोल चढ़ा हुआ है। इसे भी उतार कर बाहर ही छोड़ दें। ’

‘कहीं...कुछ...। ’-विमल ने आशंका व्यक्त की।

‘नहीं..नहीं...इसकी चिन्ता न करें। महात्माजी की कृपा से यहाँ कुछ नहीं होगा। ’-कहता हुआ शिष्य आगे बढ़ गया।

अन्दर जाकर शिष्य एक छोटी सी ‘लुटिया’ उठा लाया, जिसमें जल भरा हुआ था। देख कर विमल मन ही मन कुंढ़ गया।

‘ओह! हम तीन जन प्यास से व्याकुल हैं, और यह क्षुद्र जलपात्र! इतना तो कंठ में ही अटका रह जायेगा। ’- विमल मन ही मन भुनभुनाया, पिता की ओर देखते हुये।

जलपात्र रखकर शिष्य चला गया वापस।

थोड़ी देर बाद पुनः उपस्थित हुआ, साखू के दोने में मिश्री की डली लिए हुए।

‘लीजिये, ‘जल-पान’ कीजिये। ’-विमल के हाथ में दोना पकड़ाते हुये कहा शिष्य ने, और विमल की विवशता भरी दृष्टि, पल भर के लिये क्षुद्र जलपात्र से टकराकर ऊपर उठ, शिष्य के आनन से जा लगी।

शिष्य शायद मनोभाव समझ गया। मुस्कुराते हुये बोला- ‘क्यों, जल ग्रहण


कीजिये। आवश्यकता होगी तो और मिलेगा। इस पहाड़ी पर जल की कमी थोड़े जो है। ’

विमल मुंह में मिश्री का एक टुकड़ा डाल, जलपात्र उठा चुल्लु से पानी पीने लगा।

‘पर यह क्या? ’-चौंक पड़ा खुद ही। महातृप्ति के पश्चात भी जलपात्र में जल ‘कनखे’ से थोड़ा ही नीचे आया था।

...और फिर बारी बारी से गंजेडि़यों के चिलम की तरह लघु जलपात्र क्रमशः तीनों के हाथों में जा, महातृप्ति प्रदान कर गया। विमल पुनः जलपात्र को हाथ में लेकर गौर से देखने लगा। जल अभी भी कुछ बाकी ही था उसमें। विमल की आश्चर्य चकित नजरें ऊपर उठ, सामने खड़े शिष्य के चेहरे को निहारने लगी।

‘क्यों, और चाहिये जल? ’-मुस्कुराते हुये पूछा शिष्य ने, और जलपात्र ले लिया विमल के हाथ से।

‘नहीं महाराज। पर्याप्त है। अति तुष्टि मिली, इस विचित्र जलपात्र से। तीन आदमी भर पेट जल पी लिये, और इस छोटी सी लोटनी का जल आधे से थोड़ा ही कम हुआ। ’

‘इसे जलपात्र की विशेषता कहूँ या कि महात्माजी की महिमा! यह तो द्रौपदी के बटुये में चिपका हुआ साग हो गया, जिसे चखने मात्र से भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने क्रोधी दुर्वासा के दस सहस्र शिष्यों को परितुष्ट कर दिया था। ’- हँसते हुये कहा निर्मलजी ने।

‘बाबा भोलेनाथ की कृपा है। इस ऊँची पहाड़ी पर एक छोटा सा कुण्ड है, जिसमें शीतल जल का अक्षय भंडार है। ’-कहा शिष्य ने और जल पात्र लेकर कुटिया की ओर चला गया।

‘महात्माजी कब दर्शन देंगे? ’-थोड़ी देर बाद पुनः शिष्य के उपस्थित होने पर पूछा उपाध्यायजी ने।

‘अभी तो भीतर गर्भगृह में हैं। अब समय हो ही रहा है, उनके फलाहार का। आते ही होंगे। ’-कहता हुआ शिष्य वहीं संगमरमरी फर्श पर पसर गया।

थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही। तभी त्रिपुण्ड धारी महात्मा जी मृगछाला लपेटे, हाथ में आदम कद त्रिशूल लिए, खटाखट खड़ाऊँ चटकाते, आ उपस्थित हुए- साक्षात् शिव की तरह।

सभामण्डप में बैठे तीनों जन उठ कर साष्टांग दण्डवत किये। ।

‘कहिये किधर आना हुआ? ’- वरद मुद्रा में हाथ उठाये दिव्य महात्मा ने पूछा।

‘बस चले आये हैं श्रीचरणों का दर्शन करने। आप पहले फलाहार आदि से निवृत्त हो लें, फिर कुछ निवेदन करना चाहूँगा। ’- हाथ जोड़ कर नम्रता पूर्वक कहा निर्मलजी ने।

‘कोई बात नहीं, फलाहार की अभी हड़बड़ी नहीं है। निःसंकोच आपलोग निवेदन करें। ’-कहते हुये महात्माजी वहीं बिछे व्याघ्रचर्म पर एक ओर बैठ गये वीरासन मुद्रा में।

‘मैं अपनी बच्ची की समस्या को लेकर उपस्थित हुआ हूँ, भोलेनाथ के दरबार में। ’- हाथ जोड़कर तिवारीजी ने कहा।

‘कहिये क्या समस्या है? ’-कहते हुये महात्माजी ने त्रिशूल को स्पर्श किया, जिसे बैठते समय बगल में रख दिये थे।

तिवारीजी विस्तृत रूप से मीना की घटना सुना गये। महात्माजी बड़े ही मनोयोग पूर्वक सुनते रहे, ध्यानस्थ होकर उनकी लम्बी दास्तान। बीच बीच में दो तीन बार त्रिशूल का स्पर्श किये, मानों घटना को रेकॉर्ड करने के लिये बटन दबा रहे हों। यहाँ न तो लौंग की आवश्यकता पड़ी और न चावल की। प्रश्न कुण्डली और ‘केरलीया’ की तो बात ही दूर। वार्ता समाप्त होने पर, पल भर के लिये मौन हो गये, आँखें मूंद कर। कुछ देर बाद आँखें खोल, विमल की ओर इशारा करते हुये पूछे-

‘यही है वह बच्चा जिसे आप अपना जामाता बना रहे थे? ’

‘जी हाँ महाराज। ’-हाथ जोड़े तिवारी जी ने हामी भरी।

‘आओ बच्चा, इधर आ जाओ, मेरे करीब। ’-हाथ के इशारे से पास बुलाया विमल को महात्माजी ने, और उपाध्यायजी की ओर देखते हुये बोले- ‘शायद आपको ज्ञात हो, समस्याओं की स्पष्टी के लिये मैं दो विधियाँ अपनाता हूँ- एक तो स्वयं ही कह जाता हूँ, और दूसरी विधि है- सामने उपस्थित किसी व्यक्ति के मुंह से कहवाना। आप इन दोनों विधियों में क्या पसन्द करेंगे? ’

‘मेरे मुंह से ही कहवाइये श्रीमान् !’- निर्मलजी के कुछ कहने से पूर्व ही विमल ने हाथ जोड़ कर कहा।

‘ठीक है। ऐसा ही होगा। ’-दिव्य मुस्कान सहित कहा महात्माजी ने-‘हाँ, आजकल अधिकतर लोग ‘‘स्वमुख-संवाद-शैली’’ ही पसन्द करते हैं। किन्तु एक बात...। ’

‘कहिये श्रीमान्!’

‘तुम कहोगे अवश्य, परन्तु स्वयं सुन या जान नहीं पाओगे कि क्या निकला तुम्हारे मुंह से। ’

‘इसके बारे में मैं अवगत हूँ महात्मन् ! इस कारण इसका समाधान भी लेता आया हूँ। ’-कहता हुआ विमल बगल में रखा हुआ टेप रिकॉडर सामने रख दिया।

महात्मा जी मुस्कुराते हुये सिर हिलाये, मानों विमल की चतुराई पर मुग्ध हो रहे हों।

महात्माजी अपनी क्रिया प्रारम्भ किये। बगल में पड़े त्रिशूल को उठाकर अपने ललाट से लगाये, कुछ देर तक एक अनबूझ भाषा में कुछ वाचिक, कुछ उपांशु मन्त्र जप चला, और इसके बाद त्रिशूल को विमल के माथे से लगा दिये।

माथे से त्रिशूल का लगना था कि विमल का वदन क्षण भर के लिये थर्राया, और अगले ही पल धड़ाम से गिर पड़ा नीरस फर्श पर।

तिवारीजी घबड़ा उठे - ‘अरे यह क्या हुआ? ’

‘कुछ नहीं, बेहोश हो गया है सिर्फ, मन्त्र के प्रभाव से। ’-कहते हुये महात्माजी ने अपने होठों पर अंगुली रख कर सबको चुप- शान्त रहने का इशारा किया; और हाथ में त्रिशूल ले, खड़े होकर, चित्त पड़े विमल को चारों ओर से घेर दिये, मानों लक्ष्मण ने घेर दिया हो वनचरों के भय से सती साध्वी सीता को।

उपाध्याय जी और तिवाजी चुप बैठे देखते रहे महात्माजी का अद्भुत क्रिया-कलाप। कोई पांच मिनट तक विमल बेहोश पड़ा रहा। इस बीच पुनः एक बार त्रिशूल का स्पर्श कराया महात्माजी ने, जिसके प्रभाव से पहले की तरह ही एक बार वदन झटका और चैतन्य होकर उठ बैठा। कुछ देर तक एकटक निहारते रहा महात्मा जी के दिव्य मुखारविंद को, वगैर इधर-उधर देखे हुये। बगल में ही पिता द्वय बैठे हुये थे, किन्तु लगता था कि महात्माजी के नेत्र द्वय के सिवा उसे कुछ भी दीख ही न रहा हो- मानों धनुर्धर पार्थ को मात्र अपना लक्ष्य- मीनाक्ष ही दीख रहा हो।

‘कौन हो तुम? ’-सौम्य स्वर में पूछा महात्मा ने।

‘एक इनसान। ’-विमल के मुंह से आवाज निकली, किन्तु आश्चर्य- यह स्वर उसका अपना न था, प्रत्युत एक नारी स्वर था।

‘नाम क्या है तुम्हारा? ’-महात्माजी ने अगला प्रश्न करते हुये इशारा किया रिकॉर्डर की ओर, उपाध्यायजी जी की ओर देखते हुये।

निर्मलजी ने इशारे का अनुपालन किया, रिकॉर्डर ऑन कर।

‘मुझे नहीं पहचानते? मेरा नाम मीना है। ’- कहा विमल ने, और चौंक पड़े दोनों पिता। आवाज सही में मीना की थी, पर किंचित अन्तर था- ध्वनि तरंगों में। लगता था मानों दूरभाष यन्त्र की ध्वनि हो।

‘पूरा नाम? ’

‘मीना चटर्जी। ’-कहा विमल ने और सुसौम्य महात्मन् कड़क उठे एकाएक, मानों क्रोधित शेर की दहाड़ हो- ‘ठीक-ठीक बतलाओ, मीना चटर्जी या कि मीना तिवारी? ’

‘गलत क्यों बतलाऊँगी महाराज? सच में मेरा नाम मीना चटर्जी ही है। ’-विमल के मुंह से आवाज निकली, और पास बैठे तिवारीजी के साथ-साथ उपाध्यायजी भी सहम कर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।

‘कहाँ की रहने वाली हो? ’- अगला सवाल था।

‘कलकत्ते की। ’

‘फिर गलत कहती हो। ’-कड़क कर बोले महात्माजी।

‘नहीं महराज! गलत बोलने की आदत नहीं। आप महात्मा हैं, जिसमें यह ताकत है कि सुदूर पूर्व से पल भर में ही यहाँ खींच लाया घोर कानन में, उसमें क्या मेरे सत्य और झूठ के विश्लेषण की क्षमता नहीं है? ’-कहता हुआ विमल मुस्कुरा उठा।

‘इस समय कहाँ से आ रही हो तुम? ’-सौम्य भाव से पूछा महात्मा ने।

‘मानसिक चिकित्सालय राँची से। ’-शान्त स्वर में जवाब दिया विमल ने।

‘वहाँ क्यों और कब से हो? ’

‘हूँ नहीं, बल्कि लायी गयी हूँ। आज सुबह ही यहाँ पहुँची हूँ। यहाँ लाया गया है मुझे जशपुर के सरकारी अस्पताल से, मेरी मानसिक जाँच के लिए। ’

‘किसने लाया? ’

‘वहाँ के वरिष्ठ डॉक्टर ने। ’

‘अभी क्या कर रही थी, जब मैंने तुम्हें बुलाया? ’

‘आने के बाद से ही वरिष्ठ डॉक्टरों एवं अद्भुत आधुनिक संयंत्रों से घिरी रही। तरह-तरह से मेरी जाँच होती रही। किसी को किसी प्रकार की मानसिक गड़बड़ी का पता न चला। फलतः उनलोगों ने मुझे विश्राम करने के लिए एकान्त कमरे में भेज दिया। कक्ष का किवाड़ बन्द कर सोना चाह रही थी, तभी आपका संदेश पहुँचा। ’

‘क्या तुम माधोपुर के तिवारी जी की पुत्री को जानती हो? ’

‘जानती हूँ। अच्छी तरह जानती हूँ। उसका भी नाम मीना ही है। ’

‘कैसे परिचय हुआ उससे? क्या कभी इधर तुम्हें आने का मौका....? ’

‘परिचय का प्रश्न ही नहीं है। कारण कि मैं स्पष्ट बता दूँ कि मीना तिवारी और मीना चटर्जी कोई दो नहीं, बल्कि एक ही है। ’

‘क्या बकती हो? यह कैसे हो सकता है, दो आदमी और एक? ’- क्रोध प्रकट करते हुये महात्माजी ने कहा।

‘दो एक नहीं महाराज, वरन् एक ही एक। ’-अपनी बात पर जोर देकर कहा विमल ने।

‘यह क्या पहेली है? साफ क्यों नहीं कहती? ’-कड़क कर कहा संतजी ने। इस बार उनकी आवाज कुछ अधिक ऊँची थी, साथ ही कुछ भयद भी। फलतः रो पड़ा विमल, और दोनों हाथ जोड़ कर महात्माजी के चरणों में औंधा गिर गया।

‘रोती क्यों हो? क्या कष्ट है तुम्हें? ’-अपने दोनों हाथों से पकड़, उठा कर सीधा बैठाते हुये महात्माजी ने कहा।

‘बहुत कष्ट है हमें महात्मन्! बहुत कष्ट है। क्या बतलाऊँ, आप स्वयं त्रिकालदर्शी हैं। किंचित प्रयास से ही जान सकते हैं। ’-कहता हुआ विमल बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा।

‘घबराओ नहीं। शान्ति पूर्वक कहो, क्या कष्ट है तुम्हें? तुम्हारी कहानी तुम्हारे ही मुख से सुनना चाहता हूँ। कुछ और लोग भी हैं, जो सुनने को आकुल हैं। ’-कहते हुये महात्माजी बगल में पड़े अंगोछे से उसके गीले चेहरे को, पुचकारते हुये पोंछने लगे।

‘सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिये मेरी कहानी, मेरी ही जुबानी। कितनी लम्बी है, कितनी करूण...। मगर एक शर्त....। ’- कह कर चुप हो गया विमल।

‘शर्त! क्या शर्त है? कहो। ’

‘पहले वचन दीजिये महाराज! पूरी करेंगे मेरी इच्छा। मेरे कष्ट का निवारण कर देंगे आप। ’

‘प्रयास करूँगा। ’-सौम्य स्वर में कहा महात्माजी ने।

‘केवल प्रयास नहीं, बल्कि पूर्ति; क्यों कि मैं जानती हूँ कि आप इसमें पूर्णतया समर्थ हैं। आप वचन दें महाराज! वचन दें मेरे खोये हुए अधिकार को वापस दिलवाने का। ’- कहता हुआ विमल फिर लोट गया महात्मा के श्री चरणों में।

‘ठीक है। मैं वचन देता हूँ, पूरी करूँगा तुम्हारी इच्छा। ’- कहा महाराज ने और बगल में बैठे तिवारी जी किसी भावी आशंका से कांप उठे।

‘तो सुनिये। ’-वचन से प्रसन्न हो कर कहना प्रारम्भ किया विमल ने-

‘अब से कोई बत्तीश वर्ष पूर्व, यानी २ जनवरी १९५० ई. को मेरा जन्म हुआ था, कलकत्ते के श्री वंकिम चट्टोपाध्याय जी के घर में। मैं उनकी एकलौती सन्तान हूँ। सम्भ्रांत परिवार की लाडिली। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद स्थानीय विवेकानन्द उच्च विद्यालय में मेरा नामांकन हुआ। मेरे साथ ही पढ़ता था एक लड़का- कमल भट्ट, जो बिहार प्रान्त के गया नगर से बीस मील पश्चिम नौबतगढ़ का रहने वाला था। पढ़ने में जितना ही तेज, आर्थिक रूप से उतना ही मन्द। मेरे पिता उसकी प्रतिभा से आकर्षित होकर उसे अपने घर ले आए। हमदोनों साथ रहने लगे। एक बार हमदोनों को सरस्वती पूजा के अवसर पर नाट्य मंच पर अभिनय का अवसर मिला। उस समय हमदोनों उच्चत्तर माध्यमिक के छात्र थे। नाटक में मैं सावित्री बनी, और वह बना सत्यवान। न जाने क्यों कर मेरे अन्तस में वह नाट्य -छवि गहरी छाप छोड़ गयी। मेरा यह मनोभाव मेरे अभिभावकों से भी छिपा न रहा। मन ही मन वे भी कमल को सत्यवान के रूप में देखने लगे। मेरे लिये तो वह सत्यवान हो ही चुका था। ’- कहता हुआ विमल कुछ पल के लिए मौन हो गया।

‘फिर आगे क्या हुआ? ’-महात्माजी ने पूछा।

गहरी सांस लेकर विमल पुनः कहने लगा- ‘मगर अफसोस! अपनी कहूँ या भाग्य को दोष दूँ? स्पष्ट रूप से मैं कभी अपने मन की बात उससे कह न पायी। हालांकि वह भी मुझे जी जान से चाहता था। किन्तु अपनी दयनीय आर्थिकता को मेरे ऐश्वर्य की तराजू पर तौल न पाया, जिस पर मेरे निच्छल और पवित्र प्रेम का सुनहरा ‘वाट’ रखा हुआ था। परीक्षा के बाद वह चला गया अपने गांव एवं पारिवारिक बन्धन में जकड़ गया....

‘....उसकी राह देखती रही। एक दिन, शायद वह २२ मई १९६६ई. था, मैं अपने परिवार सहित वाराणसी जा रही थी, अपने मौसा के यहाँ। रास्ते में पापा ने एक लिफाफा दिया, जो उसी दिन सुबह घर से चलते वक्त उन्हें मिला था। पत्र मेरे उसी प्रियतम का था। झट खोल डाली। मगर पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों के सामने अन्धकार फैलने लगा। उसकी शादी हो गयी थी- जानकर मेरे दिल में अजीब सा तूफान उठा, और बिना कुछ बताये चल पड़ी वहाँ से। तूफान एक्सप्रेस तूफान से बातें

करती चली जा रही थी, और मैंने अपने अन्तः के तूफान में झोंक दिया स्वयं को। फिर पता न चला, कब क्या हुआ....

‘....आँख खुली तो स्वयं को पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में पायी। मेरा प्यारा कमल बगल में बैठा पश्चाताप के आँसू बहा रहा था। उसे अहसास हो आया अपनी गलती का, और पाप का प्रायश्चित ढूढ़ने लगा। मैंने उसे रास्ता सुझाया- उसने मेरी मांग भर दी। पश्चाताप के आँसू प्रसन्नता के मोतियों में परिणत हो गये। उसने शपथ ली- माँ काली को साक्षी रखकर - जीवन भर साथ निभाने का; और मैंने प्रतिज्ञा की जन्म-जन्मान्तर में भी साथ न छोड़ने की......फिर... प्रतिज्ञावद्ध होकर हमदोनों को बहुत सुकून मिला....

‘......फिर मुझे नींद आ गयी। गहरी नींद। किन्तु जब आँख खुली तो सब कुछ बदल चुका था। कठोर भूमि पर, आम्रतल में नवजात शिशु के रूप में पड़ी पायी स्वयं को, क्षुधा-तृषा से व्याकुल होकर। तिवारी जी ने मुझे उठा कर अपने घर लाया। अपनी बच्ची बनाकर रखने लगे। तब से वहीं रहने लगी। पला-पुसा कर बड़ी हुयी। धीरे-धीरे भूलने लगी स्वयं को। अपना कर्तव्य बोध जाता रहा। जिस मिट्टी में पली, लोट-लोट कर बड़ी हुयी, वहीं की हो गयी। हालांकि कभी कभार मुझे अपने अस्तित्त्व का ज्ञान और भान हो जाया करता था, और उस क्षण बहुत व्याकुल होती थी, किन्तु थोड़ी देर बाद ही फिर खो जाती उसी मनोहर दुनियाँ में। उसे ही समझ लेती अपना...

‘....उस काल में ही यानी जब मैं मीना चटर्जी से मीना तिवारी बन गयी, मुझे लगाव हुआ प्रीतमपुर के श्री निर्मल उपाध्याय के पुत्र विमल से। फिर धीरे-धीरे उम्र के करवट बदलने के साथ- साथ हमदोनों के प्रेम ने भी करवटें बदली। पर यहाँ भी कुछ वैसी ही विडम्बना- वहाँ कमल निर्धन था तो यहाँ मीना धन-विहीन। इसके अलावे और भी कई कारण रहे, जिसके कारण इजहार न हो सका प्यार का। किन्तु मौन प्रेम की भाषा का वास्तविक अध्ययन किया विमल ने। बात आगे बढ़ कर शादी तक पहुँच गयी। राधा को कृष्ण का प्यार मिला, फिर चूकने का सवाल कहाँ? विमल के रूप में मुझे कमल मिला था शायद...

‘....किन्तु ऐन शादी के समय ही दुर्घटना ग्रस्त हो गयी दुबारा- ट्रेन से गिर कर कमल को खोयी, सीढ़ी से गिर कर विमल को। एक को खोकर ही शायद दूसरे को पाया जा सकता है। कमल मुझे खींच ले गया अतीत में वापस, और मेरा वर्तमान फीका पड़ गया अतीत के सामने। मगर अफसोस तड़प रही हूँ कैद होकर अस्पताली कारागार में, क्यों कि मुझे मानसिक रोगी करार किया जा रहा है। मैं तड़प रही हूँ महात्मन्! अपने अधिकार के लिए, जिसे विगत वर्षों में गंवा चुकी हूँ। इसीलिए आपसे अनुनय करती हूँ कि मेरा खोया हुआ, छिना हुआ अधिकार मुझे वापस दिलाने की कृपा करें। ’- कहता हुआ विमल झुक गया महात्मा के चरणों में।

‘हुँ..ह! सुन लिया तुम्हारी कहानी। जान लिया तुम्हारा अधिकार। पर तुम यह क्यों भूल रही हो कि जिस शरीर से तुमने प्रेम किया था कमल से वह तो नष्ट हो चुका; और आज जिस शरीर को लेकर तुम अपने पुराने अधिकार को ढूढ़ने चली हो वह तो विमल का हो चुका। ’- कठोर शब्दों में कहा महात्मा ने और विमल को अपने पैरों पर से उठा कर सीधा बैठा दिया।

‘जीवन-दर्शन की यह व्याख्या सही है भगवन्। यह भी सही है कि आज के विमल को भी मैंने उतना ही उच्च स्थान दिया है अपने हृदय में, जितना कि मीना चटर्जी के शरीर से कमल को; किन्तु मेरे उस शपथ का क्या होगा, जो उस दिन...। ’-विमल कह ही रहा था कि महात्माजी बीच में ही बोल उठे-

‘होगा क्या शपथ शरीर ने लिया था। उस शरीर ने जो कबका ढेर हो चुका। अब न तो वह शरीर है, और न उस शपथ की ही मर्यादा। ’

‘वाह! खूब कहा आपने। शरीर नष्ट हो गया तो क्या उसके साथ शपथ की मर्यादा भी समाप्त हो गयी? जरा ध्यान दें फिर से मेरे शपथ-वाक्य पर- जन्म-जन्मान्तर में भी साथ न छोड़ने की कशम खायी थी मैंने। ’-जोर दे कर कहा विमल ने।

‘पर यह कैसे सम्भव है? ’

‘असम्भव ही कहाँ है? अब क्या मैं, निरीह अल्पज्ञा आपको अर्थ समझाऊँ- शचीनां श्रीमतां गेहे.... का? ’-मुस्कुराता हुआ विमल व्यंग्यात्मक लहजे में बोला-‘जन्म तो जन्म है, जन्मान्तर का अर्थ ही है- शरीर बदलने के बाद की बात...। ’

‘तौल लिया...परख लिया तुम्हारे प्यार की कशौटी को...देख लिया उसकी पराकाष्ठा। ’-प्रसन्न मुद्रा में कहा महात्माजी ने- ‘तो तुम वापस कलकत्ता जाना चाहती हो या.....? ’

‘और कहाँ जाऊँगी महाराज अपने प्रियतम को छोड़कर? सावित्री कहाँ जा सकती है सत्यवान को छोड़कर- आप स्वयं सोचें। ’- गिड़गिड़ाते हुये कहा विमल ने।

‘किन्तु तुम्हें पता होना चाहिये कि जमाना कहाँ से कहाँ जा चुका है, आज पता नहीं कहाँ होगा तुम्हारा कमल, कहाँ होंगे अन्य लोग? मान लो हों भी, तो क्या तुम्हें आशा है कि वे स्वीकार कर लेंगे पुराने पद पर? ’

‘अवश्य स्वीकार करेंगे महाराज। सत्यवान शान्त और प्रसन्न कैसे रह सकता है सावित्री के वगैर? पवित्र प्रेम के लिए धर्म, जाति, समाज, राष्ट्र कोई सीमा नहीं है महाराज, फिर ‘उम्र’ की क्या मजाल जो वाधित कर सके दो प्रिय जनों को मिलने में? मैं मानती हूँ कि आज वह ३२-३३वर्ष का हो चुका होगा। पर मैं भी वही हूँ। दुनियाँ चाहे मुझे जो भी समझे। ’-इतना कह कर विमल मौन हो गया।

‘ठीक है। मान लिया तुम्हारी बात, तुम्हारे सारे तर्क। किन्तु इस संदर्भ में तुम मुझसे क्या सहयोग चाहती हो? ’-बड़े स्नेह से पूछा महात्माजी ने।

‘विशेष कुछ नहीं महाराज। बस इतना ही कि आप उन बेरहम, बेदर्द डॉक्टरों को समझा दें, या आदेश दें कि वे मुझे या तो मेरी मंजिल तक पहँचा दें, अथवा मुझे स्वतन्त्र छोड़ दें। मैं स्वयं चली जाऊँगी। ’-नम्रता और आग्रह पूर्वक कहा विमल ने।

‘मान लो मैं तुम्हें इस तथाकथित कारा से मुक्ति दिला दूँ। तुम वहाँ जाओ, या पहुँचा दी जाओ, किन्तु तुम्हें स्वीकार करने वाला वहाँ कोई न हो, अथवा हो भी तो स्वीकार न करे; उस स्थिति में क्या होगा? ’-महात्माजी ने नयी समस्या रखी।

‘वहाँ होने पर, अस्वीकार करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। हाँ, न होने पर, न मिल पाने पर मैं वचन देती हूँ कि वापस श्रीचरणों में आ उपस्थित होऊँगी। फिर आप जैसा कहेंगे वैसा ही करने को वाध्य हूँ मैं। किन्तु एक बार मुझे वहाँ जाकर प्रयास करने का अवसर तो दें श्रीमान। मुझे दृढ़ विश्वास है कि निराश नहीं होना पड़ेगा। वापस लौटना नहीं पड़ेगा। बस महाराज अब मुझे छुट्टी दें। अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। आप स्वयं समझदार हैं। ’-इतना कह कर विमल पुनः मौन हो गया।

महात्माजी ने पुनः उठाया अपने त्रिशूल को, और लगा दिया विमल के माथे से। त्रिशूल के स्पर्श से विमल का शरीर फिर एक बार पहले की तरह ही कंपित हुआ और अचेत हो कर धराशायी हो गया। इशारा पाकर शिष्य बगल की झोंपड़ी में जाकर एक जीर्ण कुष्माण्ड-तुम्बा उठा लाया। उसमें से जल ले, अभिमंत्रित कर, विमल के शरीर पर छिड़का महात्माजी ने। और इसके साथ ही वह चैतन्य हो कर उठ बैठा, मानों गहरी नींद से अभी अभी जागा हो।

इससे पूर्व ही निर्मल जी ने टेप रिकॉर्डर विमल के सामने से हटा लिया था। होश में आने पर विमल ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी देखी।

‘सवा दो बज गये। ’-धीरे से भुनभुनाया, और पास बैठे तिवारी जी की ओर देखने लगा, जिनके मुंह से तीव्र निःस्वास निकल पड़ा था अचानक ही- ‘हाय मेरी मीना। ’ फिर वे मन ही मन सोचने लगे थे- ‘अब क्या होगा आगे? यह तो महा अनर्थ हो गया। चाह कर भी अब मीना को बेटी नहीं कह सकता.....। ’

‘क्यों क्या हुआ वापू? आप इतने अधीर क्यों हो रहे हैं? ’- आश्चर्य चकित विमल ने पूछा।

तिवारीजी की ओर कुछ इशारा किया उपाध्यायजी ने, और बोले- ‘तब अब चला जाय? बहुत देर हो गयी है। ’

‘क्या कहा महात्मा जी ने? ’- उत्सुकता पूर्वक पूछा विमल ने।

‘बहुत कुछ बतलाया। चलो रास्ते में ही बातचित होगी। शीघ्र चलना चाहिये यहाँ से, अन्यथा समय पर वहाँ पहुँच नहीं सकेंगे। उम्मीद है वे लोग राँची से लौट आये होंगे। ’-कहते हुये उपाध्यायजी जेब से एक सौ एक रूपये निकाल कर महात्माजी की ओर बढ़ाये, किन्तु लोभी रामदीन पंडित की तरह हाथ नहीं पसारा महात्मा जी ने। रूपये स्वीकारने से साफ इनकार कर दिये।

‘नहीं...नहीं...। इसकी कोई आवश्यकता नहीं। यह औघड़दानी बाबा भोलेनाथ का दरबार है। तन्त्र के अधिष्ठाता का दरबार। तुच्छ मुद्रा की तुला पर तौल कर अमूल्य तन्त्र-निधि को बेचा नहीं जा सकता। यह अतुलनीय है। अनुपमेय है। ‘अवेश्य’ है। सिर्फ लोक कल्याणार्थ...। ’

‘फिर भी महाराज...कुछ तो...आखिर, मुझे सन्तोष कैसे होगा? ’- हाथ जोड़ कर कहा उपाध्याय जी ने।

‘कुछ नहीं। कुछ नहीं। इस दरबार में कुछ नहीं। मैं तो यहाँ मन्दिर में मूर्ति पर पैसे चढ़ाने से भी मना करता हूँ भक्तों को। यदि कुछ दिये वगैर तुम्हें सन्तोष नहीं होता तो इस रकम को किसी दरिद्र-कंगले को दे देना। जानते हो भगवान इन पत्थरों में नहीं बसते। कभी बसे भी नहीं। यह तो निर्गुण का सगुण प्रतीक मात्र है। चंचल मन को एकाग्र कर बांध रखने का साधन मात्र। यह भ्रम है कि भगवान मन्दिरों में होते हैं। भगवान होते हैं- सिर्फ भक्तों के हृदय में। जाओ, प्रत्यक्ष ‘देव’ दरिद्रनारायण की सेवा करो। तुम्हें शान्ति और सन्तोष मिल जायेगा। ’ -मृदु मुस्कान विखेरते हुये कहा महात्माजी ने, और त्रिशूल उठा कर खटाखट चल पड़े।

आगे बढ़ कर उपस्थित भक्तों ने चरण र्स्प्य करना चाहा। पर इसका भी अवसर न दिया महापुरुष ने।

‘यह क्या मैं इतना महान नहीं जो मेरा चरण स्पर्श किया जाय। ’

तीनों व्यक्ति पूर्ववत दण्डवत प्रणाम कर, प्रस्थान किये। निर्मलजी ने कहा-‘हमलोगों को जल्दी चलना चाहिये। स्कूल में छुट्टि होने से पूर्व वहाँ पहुँच जाना चहिये। अन्यथा पाठकजी को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। ’

सभामण्डप से अन्दर जाकर, भोलेनाथ की भव्य मूर्ति के सामने साष्टांग प्रणाम कर, तीनों वापस चल दिये। सबके अन्तस में अपने-अपने ढंग का तूफान मचा हुआ था। सब अपने-अपने अधिकार के लिए चिन्तित थे। पर अभागे विमल को तो यह भी पता नहीं कि उसका अधिकार छिन चुका है, किसी प्रबल प्रतियोगी के हाथों। कई बार पूछा भी कि महात्माजी ने क्या कहा। किन्तु, कोई खास नहीं- कह कर, निर्मलजी हर बार बात बदल दिये। रेकॉडर तो विमल के हाथ में ही था, परन्तु असली कैसेट उपाध्यायजी की जेब में पड़ा विलख रहा था, तिवारीजी के करूण हृदय की तरह।

धीरे-धीरे पहाडि़याँ उतरते रहे सभी।