पुनर्भव / भाग-19 / कमलेश पुण्यार्क
निर्मलजी विचार-मग्न रहे। आज उन्हें आत्मा-परमात्मा की बात समझ आने लगी, महात्मा जी की बात से। रामदीन पंडित का रंगीन चोंगा सरकता हुआ सा प्रतीत हुआ। उन्होंने तो प्रेतात्मा की बात बतलायी थी, और ठगी की भूमिका बाँधी थी।
तिवारीजी के दिमाग में भी अनेकानेक प्रश्न उदित और अस्त होते रहे। वे सोच रहे थे- ‘इतनी बातों की जानकारी मिली, यह भी पूछ लेना चाहिये था कि जहाँ वह जाना चाहती है, वहाँ क्या सफलता मिल जायेगी? मगर अफसोस, पूछ भी न पाया कुछ विशेष। समय पर बुद्धि मारी गयी। ओफ! कुछ उपाय तो कम से कम पूछ ही लेना चहिये था। ’ फिर खुद को ही संतोष दिलाये- ‘भगवान करें, उसे निराशा ही हाथ लगे। फिर तो कही ही है, महात्माजी की बात मानने के लिए। परन्तु क्या छोड़ दिया जाय स्वतन्त्र रूप से उसे यहाँ-वहाँ भटकने के लिए? नहीं..नहीं...ऐसा नहीं हो सकता। ’-अचानक उनके मुंह से उच्छ्वास निकल पड़ा-‘ओफ!...’
ऐसे ही विचार-मन्थन में उलझे चलते रहे तीनों। किन्तु निर्णय का नवनीत निकल न पाया। यहाँ तक कि काले पत्थरों की पहाड़ी शेष हो गयी, कंकड़ीली लाल सड़क भी शेष हो गयी। काली सड़कों को काटती सरसराती हुयी गाड़ी सफेद भवन के सामने आ रूकी। रास्ते की समस्या साथ छोड़ दी, मगर मानसिक उलझन साथ छोड़े तब न! शायद छोड़ेगा भी नहीं- इसी आशय को अलग-अलग रूपों में अपने-अपने भाव-शब्दों में सोंचा तीनों लोगों ने, और गाड़ी से उतर कर चल पड़े वरामदे को पार कर सीधे वार्ड की ओर, जहाँ पहले मीना का बेड था। गाड़ी में पड़ा तस्वीरों का पिटारा, गीतों का कैसेट और मीना की डायरी साथ ले ली गयी।
सूरज छिप चुका प्रतीची क्षितिज में। क्यों कि उसे जानकारी मिल गयी थी कि अब यहाँ रहने की आवश्कता नहीं है उजाले की। सूरज को यह भी पता था कि खुशियों की शवयात्रा, अब प्रारम्भ होने वाली है। विरह, कसक और तड़पन के ‘तम’ का साम्राज्य अपने फतह का डंका बजाने को तैयार है, राँची के वरिष्ठ डॉक्टरों के रिपोर्ट का पताका हाथ में लिये हुये।
वरामदे को पार करते हुये विमल की बायीं आँख जोरों से फड़क रही थी। पर, दिल की बेताब धड़कानों में उनका फड़कन खो सा गया था। उसे तो उत्सुकता थी सिर्फ इस बात की कि अस्पताल पहुँचते ही आहूत आत्मा के अनूठे स्वर का कैसेट सुनने को मिलेगा।
आगे बढ़ कर तीनों व्यक्ति मीना के कक्ष के सामने पहुँचे। किन्तु उसे अन्दर से बन्द पाये। बाहर वरामदे में ही आया टहल रही थी। देखते के साथ बोली- ‘कहाँ चले गये थे आपलोग? साहब कब से आपलोगों का इन्तजार कर रहे हैं। ’
‘मीना कहाँ है? ’- पूछा उपाध्याय जी ने। किन्तु न जाने क्यों उनके स्वर में किंचित परिवर्तन आ गया था। उनकी आवाज में वह मिठास अब न रह गया था, जो टांगीनाथ जाने से पूर्व था। वे समझ चुके थे कि अब मीना उनकी नहीं हो सकती। जब वह तिवारी जी की बेटी ही नहीं तो विमल की पत्नी कैसे? और जब विमल की पत्नी ही नहीं तो बहू का प्रश्न ही कहाँ’- उनके मुंह से लम्बा उच्छ्वास निकल पड़ा। सिर झुकाये बढ़ गये डॉक्टर-चेम्बर की ओर।
धड़कते कलेजे को थामे हुये विमल ने चिकित्सक-कक्ष का पर्दा उठाया। उसके साथ ही उपाध्यायजी एवं तिवारीजी भी कमरे में प्रवेश किये।
‘आइये मिस्टर उपाध्याय!हमलोग कब से प्रतीक्षा कर रहे हैं। कहाँ चले गये थे आपलोग? ’-पूछा डॉक्टर खन्ना ने और हाथ का इशारा किया खाली कुर्सियों की ओर।
तीनों आकर यथास्थान बैठ गये। उपाध्यायजी ने कहा- ‘आपलोग तो अपना कर्तव्य कर ही रहे हैं। हमलोग विचार किये कि क्यों न विज्ञान के साथ-साथ तन्त्र-मन्त्र का भी थोड़ा-बहुत सहयोग लिया जाय- निदान की दिशा में। यही सोच कर टांगीनाथ चले गये थे हमलोग। ’
निर्मल जी की बात सुन कर हँसते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘आप जैसे समझदार लोग भी साधु-महात्माओं के चंगुल में कैसे फंस जाते हैं; मुझे आश्चर्य होता है। ’
‘मैं नहीं फंसा मिस्टर खन्ना! परिस्थिति ही फंसा डाली तो क्या करूँ? खैर छोड़िये। यह तो बतलाइये कि क्या निर्णय लिया आपलोगों ने? ’
उपाध्यायजी की बातों का जवाब के वजाय, डॉ.सेन ने सवाल कर दिया-
आपको कुछ प्रमाण लाने के लिए कहा गया था न, मिला कुछ? ’
‘जी हाँ, बहुत कुछ मिला। तस्वीरें, लिखावट, स्वर...। ’-कहते हुये विमल ने सारा सामान बैग से निकाल कर आगे मेज पर रख दिया।
प्रमाण तो काफी जुटाया है आपने, किन्तु वह इन्हें स्वीकार करे तब न। ’ एक एलबम पलटते हुये उॉ.खन्ना ने कहा। थोड़ी देर तक यूँ ही पलटते रहे, फिर उसे लिये हुये उठ खड़े हुये, यह कहते हुये- ‘आपलोग जरा इन्तजार करें। मैं उसे दिखला लाता हूँ। देखें क्या कहती है। ’
डायरी और एलबम लेकर डॉ.खन्ना चले गये, दूसरे कमरे में जहाँ मीना पड़ी हुयी थी। डॉक्टर लोग अभी उसे इन लोगों के सामने लाना उचित न समझ रहे थे।
दरवाजे पर दस्तक सुन मीना उठ खड़ी हुयी। ‘उफ! जरा विश्राम भी नहीं कर पाती। ’ भुनभुनाती हुयी बोली, और उठ कर किवाड़ खोल दी।
‘आइये डॉक्टर! कहिये, ये सब क्या लिए आ रहे हैं? ’-कहती हुयी मीना बेड पर आकर बैठ गयी। माथे का घाव काफी हद तक ठीक हो चुका है। सफेद पट्टी के जगह अब मात्र लिकोप्लास्ट चिपकाया हुआ है।
‘ये कुछ फोटोग्राफ्स हैं। तुम्हें दिखाने के लिये लाया हूँ। ’-कहते हुये एलबम मीना के हाथ में दे कर खुद कुर्सी पर बैठ गये।
एलबम लेकर मीना उसके प्रत्येक चित्र को बड़े गौर से देखने लगी। फिर फोटोफ्रेम को देखी। काफी देर तक निहारती रही। सोचती रही। परन्तु कुछ समझ न पायी। हालांकि क्षण भर के लिये उसके दिमाग में एक झटका सा लगा, और कुछ समय पूर्व देखे गये एक सपने की बात याद आने लगी।
‘ओफ! मुझे समझ नहीं आता डॉक्टर! यह सब क्या तमाशा है? मैं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ हूँ। आप सभी वरिष्ठ गण भी मेरी अस्वस्थ्यता का कोई प्रमाण ढूढ़ नहीं पा रहे हैं। फिर भी यह सब तमाशा क्या है? ’-माथे पर छलक आयी पसीने की बूंदों को पोंछती हुयी मीना ने कहा।
‘कौन...क्या तमाशा...? ’- पूछा डॉक्टर ने।
‘यही कुछ जो हो रहे हैं पिछले दो दिनों से। अब देखिये न, अभी कुछ घंटे पहले आपलोगों से इजाजत लेकर मैं सोने के लिये यहाँ आ गयी थी न; पर कहाँ सो पायी। ’
‘क्यों? ’
‘ज्यों आँखें बन्द की कि अजीब-अजीब दृष्य नजर आने लगे। न उसे मैं नींद कह सकती हूँ और न जागरण। किन्तु दृष्य जारी रहे। ’
‘कैसा दृष्य? कुछ कहो तो स्पष्ट हो। ’
‘मुझे लगा मानों मैं किसी दूर पहाड़ी पर किसी प्राचीन मन्दिर में, जटाजूट धारी एक दिव्य महात्मा के सामने बैठी हूँ। वे मुझसे मेरे अतीत की कहानियाँ पूछ रहे हैं। मैं उनको अपना अतीत सुना रही हूँ। उसी क्रम में मुझे मिट्टी का एक छोटा सा मकान भी नजर आया, जो फूस-पतेले से छाया हुआ था। उसमें एक वृद्ध ब्राह्मण रह रहा था। फिर एक विद्यालय भी मैंने देखा। बहुत सारे बच्चे थे उसमें। उन्हीं में मैंने स्वयं को भी देखा, साथ ही इस लड़के को भी। ’- कहती हुयी मीना एक फाटोफ्रेम उठा कर विमल की तसवीर पर अंगुली रख दी। फिर कहने लगी-‘किन्तु डॉक्टर! यह सब क्या नाटक है? इन सारे चित्रों में मैं मौजूद हूँ, पर किसी को भी पहचान नहीं पाती। और न मुझे यह ही याद है कि ये चित्र कब, कहाँ लिये गये। ’
‘जरा इस तसवीर को तो देखो। ’-कहते हुये डॉ.खन्ना ने विमल और मीना का एकाकी युगल चित्र सामने रख दिया।
चित्र देखते ही मीना चौंक उठी। फिर अचानक चीख पड़ी-‘ये क्या बदतमीजी है? मेरा फोटो इस लड़के के साथ क्यों आ गया? क्या इन फरेबी चित्रों से मुझे छलने का प्रयास किया जा रहा है? यह तो उसी लड़के का फोटो है जो उस दिन मुझे देखने आया था, और खुद को मेरा भावी पति कह रहा था। ’
‘एक समझदार लड़की होकर तुम्हें इस तरह चीखना-चिल्लाना नहीं चाहिये। ’ संयत स्वर में कहा डॉ.खन्ना ने, और पीली आवरण वाली पुस्तिका खोल कर उसके सामने रख दी, यह कहते हुये- ‘जरा इसे तो पहचानो। यह लिखावट किसकी है? ’
पुस्तिका को हाथ में लेकर गौर से देखने लगी मीना। उलट- पुलट कर कई प्रसंग को पढ़ गयी। फिर उसे बन्द करती हुयी बोली- ‘यह तो और भी आश्चर्य की बात है। लिखावट मेरी ही है। सभी जगह तो नहीं, पर जहाँ-तहाँ मेरी ही घटनायें झलक रही हैं। पर, आश्चर्य होता है कि इसे कब लिखी, कहाँ रखी थी, और अब यह आपलोगों को क्यूं कर हाथ लगी? ’
‘खैर इसका कारण जो भी हो। मुझे एक बात बतलाओ मीना- क्या तुम्हें संगीत से भी लगाव है? तुम गाती भी हो? ’-पूछा डॉ.सेन ने।
‘यह तो मैं पहले भी बतला चुकी हूँ डॉ.सेन अंकल- अपने विद्यालय में मैं कई बार प्रोग्राम दे चुकी हूँ- नाट्य-संगीत का। क्यों इसका भी कुछ प्रमाण मिला
है क्या ? ’- पुस्तिका डॉ.खन्ना की ओर बढ़ाती हुयी पूछी।
‘छोड़ो इसे। यह बतलाओ कि अब आगे क्या सोच रही हो, क्या विचार है तुम्हारा? ’-प्रसंग बदलते हुये डॉ.खन्ना ने पूछा।
‘विचार मैं अपना क्या कहूँ? आपलोग तो मुझे एक पहेली बना कर रखे हुये हैं, जिसका अर्थ ही नहीं लगता। मानसिक, शारीरिक किसी प्रकार का कोई बिकार तो मिला नहीं, फिर भी न तो आप अपना निर्णय सुनाते हैं, और न मुझे इस जहन्नुम से छुटकारा ही दे रहे हैं। मैं तो कह रही हूँ- विश्वास न हो रहा है न, तो मेरे साथ चलिये। चल कर मेरे साथ देख लीजिये कि वहाँ मेरा क्या है, कौन है। मैं तड़प रही हूँ अपनों से बिछुड़ कर, और आप डॉक्टरों को तमाशा सूझ रहा है। मुझे इनसान नहीं, बल्कि एक जीता-जागता प्रयोगशाला समझ लिया है आपलोगों ने। अभी तक अपलोगों ने मुझे यह भी नहीं बतलाया कि राँची के मनोचिकित्सकों ने क्या सलाह दी मेरे बारे में? ’-कहती हुयी मीना के नथुने फड़कने लगे थे क्रोध के मारे। ललाट पर स्वेद-विन्दु, दुर्वांकुर पर पड़े ओस कणों की तरह चमकने लगे थे, जिसे दूर कर सकने में बिजली का पंखा भी असमर्थ हो रहा था।
‘अच्छा। अब तुम्हें ज्यादा परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। हमलोगों ने निर्णय ले लिया है तुम्हारे बारे में। आओ मेरे साथ चलो। वहाँ अन्य लोग भी बैठे हुये हैं। वहीं चल कर विस्तृत जानकारी दूँगा। ’-कहते हुये डॉ.खन्ना लाये गये सारे सामान को समेट कर उठ खड़े हुये। उत्सुकता पूर्वक मीना भी खड़ी हो गयी।
चिकित्सक कक्ष का परदा सरका कर डॉ.खन्ना कमरे में प्रवेश किये; किन्तु मीना ठिठक कर बाहर ही खड़ी रह गयी, कक्ष में बैठे लोगों को देख कर।
‘आओ बेटी अन्दर आ जाओ। ’-कहा उपाध्यायजी ने। बेचारा विमल हसरत भरी निगाहों से, परदे की झीनी छिद्रों से झांक कर देखने की कोशिश करता रहा। उसकी जबान सूख रही थी। बेचारे तिवारी जी का गला भर आया। पन्द्रह-सोलह वर्षों के अटूट स्नेह और श्रद्धा के सुदृढ़ ईंटों से बनायी गयी अरमानों की ऊँची अट्टालिका पल भर में ही भुने हुये पापड़ की तरह चूर-चूर होती प्रतीत हुयी, मानों विवशता के बमवर्षकों का प्रलयंकारी प्रहार हो गया हो।
‘आओ मीना। अन्दर आ जाओ। वहाँ क्यों खड़ी हो? आज तुम्हारे भाग्य का फैसला करने हेतु यह गोष्ठी आयोजित हुयी है, और तुम बाहर खड़ी हो? ’-जरा हँस कर कहा डॉ.सेन ने।
झिझक भरे भारी कदमों से मीना ने कमरे में प्रवेश किया, और कोने में एक खाली कुर्सी देख, जा बैठी। विमल अभी भी पूर्ववत निहारे जा रहा था, जो अब स्पष्ट दीख रही थी। एक बार गर्दन घुमाकर मीना ने भी उसकी ओर देखा, पर तुरन्त ही नजरें घुमा ली, मानों किसी अनजान और अस्पृश्य की ओर निगाहें उठ गयी हों।
‘मिसेस भट्ट!’- कहा डॉ.खन्ना ने और चौंक कर मीना की निगाहें जा लगी सामने बैठे डॉक्टर के चेहरे पर। उसके कानों में मधुर जलतरंग बज उठे। ‘मंजुघोष’ वीणा की झंकार सी सुनाई पड़ी। पल भर के लिये तो यकीन न आया कि उसे ही पुकारा जा रहा है, इतने मधुर सम्बोधन से। इसी सम्बोधन के लिये तो आज तीन दिनों से तड़प रही थी वह।
प्रसन्नता से चहकती मीना की निगाहों के साथ-साथ कई कातर, अप्रसन्न और आतंकित निगाहें भी उठ कर जा लगी डॉ.खन्ना के चेहरे पर। विमल ने सोचा- ‘लगता है, मरीज के साथ-साथ डॉक्टर का भी दिमाग खराब हो गया है। ’ किन्तु कुछ कह न सका।
‘कहिये डॉ. अंकल!’- अपूर्व मुस्कान विखेरती मीना ने कहा। इस तरह की मदिर मुस्कान आज पहली बार देखने को मिली, सिर्फ डॉक्टरों को ही नहीं, विमल को भी।
‘हर प्रकार के जाँच-पड़ताल के बाद हमलोगों ने अपना रिपोर्ट तैयार किया है। ’- डॉ.खन्ना की बात पर सबके कान खिंच गये ट्रान्जिस्टर के एरियल की तरह। ‘काक चेष्टा बको ध्यानं’ की तरह सच्चे गुण-ग्राहक सा भाव बना लिया उपस्थित लोगों ने।
‘....यह सही है कि आप श्री मधुसूदन तिवारी की..’- तिवारीजी की ओर इशारा करते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘....पुत्री मीना तिवारी हैं...’
मीना चौंक उठी। डॉ.खन्ना के शब्द तीखे तीर की तरह आ लगे उसके सीने में। तिवारीजी के साथ-साथ विमल और निर्मलजी के चेहरे पर भी हल्की सी प्रसन्नता झलकी, पर डॉ.खन्ना के अगले ही वाक्य से, बिजली सी कौंध कर गहन अन्धकार में विलीन हो गयी- सबकी खुशियाँ। ऐसा लगा मानों धनुर्धर लक्ष्य विचलित हो गया हो, वस्तुतः वह तीर तो विमल के लिए था।
‘....किन्तु, यह भी उतना ही सत्य है कि आप मिसेस भट्ट हैं। ’- डॉ. खन्ना ने आगे कहा।
मीना फिर चौंकी- ‘यह क्या पहेली बुझा रहे हैं डॉक्टर अंकल? साफ क्यों नहीं कहते, बात क्या है? ’
‘धैर्य और शान्ति पूर्वक पहले सुनो तो। पिछले तीन दिनों से जो पहेली
चल रही है, उसके स्पष्टीकरण के लिए ही हमलोग आज यहाँ एकत्रित हुये हैं। ’
डॉ.खन्ना की बात से मीना थोड़ी शरमा गयी। उसे अपनी भूल का एहसास हो आया। अतः ‘सौरी’ कह कर शान्त बैठ गयी। अन्य लोगों का भी घ्यान फिर एकाग्र हो गया डॉ.खन्ना की ओर।
‘हाँ, तो मैं कह रहा था...। ’-डॉ.खन्ना ने आगे कहा- ‘आप मिसेस भट्ट हैं। श्री कमल भट्ट ने आपके मरणासन्न स्थिति में आपकी मांग भरी। आप दोनों ने जी जान से एक दूसरे को चाहा था, पर जरा सी चूक के कारण आप अपना सर्वनाश कर लीं। आपको पत्र मिला, और आवेश में कूद पड़ी रनिंग ट्रेन से...। ’
पल भर के लिए रूके डॉ.खन्ना, और सामने पड़ी संचिका के पन्ने पलटने के बाद फिर कहने लगे- ‘आप अपनी जीवनी लिखने के क्रम में बतला गयी हैं कि २२-२३ मई १९६६ई. को वाराणसी के लिए प्रस्थान की थी, अपने पिता श्री वंकिम चट्टोपाध्याय एवं माँ के साथ। रास्ते में ही वह दुर्घटना घटी, और आपको पटना बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस सम्बन्ध में आपके कथित संकेत पर ट्रंक कॉल द्वारा मैं उक्त अस्पताल से तत्कालीन घटना का रिपोर्ट मांगा। वहाँ से जो जानकारी मिली, वह वास्तव में विचारणीय है....
संचिका से एक कागज निकाल कर बगल में बैठे उपाध्यायजी की ओर बढ़ा दिये डॉ.खन्ना, यह कहते हुये-‘ ...आपके कथन की पुष्टि मिली वहाँ से, साथ ही ज्ञात हुआ कि उक्त मीना चटर्जी का देहान्त दुर्घटना के दूसरे दिन ही यानी २४ मई १९६६ ई. को रात्रि दो बजे हृदय गति अवरूद्ध हो जाने के कारण हो गया। कारण कि दुर्घटना के क्रम में हृदय और फेफड़े पर काफी चोट आयी थी। इसके बाद स्थानीय बांस घाट पर अन्त्येष्ठि क्रिया भी सम्पन्न हुयी, जिसका रिपोर्ट सरकारी शव-दाह-गृह से मुझे प्राप्त हो चुका है। कमल भट्ट ने ही अग्नि-संस्कार किया था। आप कहती हैं कि मांग भरने के कुछ देर बाद आपको नींद आ गयी थी, और उसके बाद की बातें कुछ भी नहीं मालूम। यहाँ तक कि कल जब आपकी आँख खुली, यहाँ के अस्पताल में तो आप अपने को उसी अस्पताल में समझ रही थी। तदनुसार २५ मई १९६६ई. की तारीख भी बतला रही थी। यही कारण है कि पत्रिका पर छपी तिथि- मई१९८३ई.अंक, देखकर आपको महद् आश्चर्य हुआ। किन्तु सच पूछिये तो यह सही तारीख है। यह वास्तव में मई १९८३ई.ही है, न कि मई १९६६ई.। ’
डॉ.खन्ना की बात सुन मीना ने आश्चर्य पूर्वक पूछा- ‘आपकी सारी बातें मान लेती हूँ। फिर भी यह प्रश्न उठता है कि विगत सत्रह वर्षों में मैं कहाँ रही? जब मर ही गयी, फिर सारी बातें मुझे याद क्यूं कर है?
मुस्कुराते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘इसी गुत्थी को सुलझाने में हमलोग दो दिनों से परेशान हैं। हर प्रकार के छानबीन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उक्त तिथि को निधन के बाद यथासमय आपका पुनर्जन्म हुआ। आप माधोपुर के श्री मधुसूदन तिवारी की पुत्री बनी। ’-तिवारी जी की ओर इशारा करते हुये डॉ. खन्ना ने कहा- ‘समयानुसार अध्ययन के लिए आपका नामांकन उधमपुर बाल विकास विद्यालय में हुआ, जहाँ श्री निर्मल उपाध्याय के कनिष्ट पुत्र विमल उपाध्याय से आपका परिचय हुआ। समय के करवट के साथ आपदोनों का परिचय प्रगाढ़ प्रेम में परिणत हो गया। इसकी साक्षी हैं ये सब तस्वीरें एवं आपकी डायरी....। ’-कहते हुये डॉ.खन्ना ने तस्वीरों को फिर से मीना के सामने रख दिया।
मीना उन तस्वीरों पर गौर करने लगी। अपने याददास्त पर जोर देने लगी। पर कुछ भी काम न आया, काफी माथा-पच्ची के बावजूद। यहाँ तक कि वह
पसीने से तर-ब-तर हो गयी।
‘ओफ डॉक्टर! मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा है। ’- कहती हुयी मीना तस्वीरों को एक ओर रख, अपने आंचल से चेहरा पोंछने लगी।
‘कोई बात नहीं। घबराने की जरूरत नहीं है। पहले आप मेरी बात सुनिये। ’- कहते हुये डॉ.खन्ना मीना की गत जीवनी-जो मीना तिवारी के रूप में गुजारी, जिसकी जानकारी इन दो दिनों के छानबीन में हासिल हुयी, शब्दशः सुना गये मीना को। मीना बड़े मनोयोग से उन्हें सुनती रही।
और अन्त में डॉ.खन्ना ने कहा- ‘यहाँ अस्पताल में भर्ती होने के बाद आप एक चुनौती बन गयी- हम चिकित्सकों के लिए और चिकित्सा विज्ञान के लिए। अन्त में हमें वरिष्ठ मनोविश्लेषक एवं आधुनिक जाँच-संयंत्रों का सहारा लेना पड़ा। इस क्रम में आपको आधुनिक पद्धति से हिप्नोटाइज करके, आपके अवचेतन को उभारा गया, जिससे यह सब रहस्य ज्ञात हुआ। यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि इस दुर्घटना के कारण माथे में गहरी चोट आयी, जिससे ‘पीट्यूट्री ग्लैंड’ यानी पीयूषग्रन्थि प्रभावित हो गया, और आप अपनी वर्तमान स्मृति खो बैठी। संयोगवश आपके अवचेतन में संचित पूर्वजन्म की स्मृति जागृत हो उठी...। ’
डॉ.खन्ना अभी कुछ और कहना ही चाहते थे कि बीच में ही बोल उठे उपाध्यायजी- ‘तब डॉक्टर, अब क्या कोई उपाय नहीं है पुनः इसकी वर्तमान स्मृति को सुधारने का? ’
‘डॉक्टर साहब! मैं आपके पांव पड़ता हूँ, कोई उपाय हो अभी बाकी तो सुझायें हमें। मेरी एक मात्र बेटी है, मेरे जीवन का सहारा। हाय! मैं इसे क्यों कर छोड़ सकता हूँ? ’-कहते हुये तिवारीजी रो पड़े फफक कर।
बगल में बैठा विमल वुत्त बना रहा। उसे कोई बात ही नहीं सूझ रही थी कि क्या कहे।
‘उपाय अब नहीं के बराबर है। पुनः ऑपरेशन करके पीयूष ग्रन्थि को छेड़-छाड़ करना बहुत रिस्की है। इससे समस्या और बढ़ भी सकती है। हाँ, बहुत बार ऐसा सुनने में आया है कि पुनः वैसी ही दुर्घटना वश स्वतः स्मृति वापस आ जाती है। पर यह ‘रेयर आफ द रेयर’ जैसा है। ’- उदास मुंह बना डॉ.खन्ना ने कहा, क्यों कि तिवारीजी की स्थिति देख उन्हें भी दया आ रही थी।
‘हमलोग को इसकी जानकारी पहले से ही मिल चुकी थी मिस्टर खन्ना। ’-निर्मलजी ने कहा। ?
‘सो कैसे? पुलिस के पदाधिकारी को क्या सी.बी.आई. का गोपनीय रिपोट मिल गया था? ’-मुस्कुराते हुये डॉ.सेन ने कहा।
‘आप कहते थे न मिस्टर खन्ना कि हम समझदार लोग भी साधु-संत के फेर में कैसे पड़ गये? ’
‘हाँ, सो तो मैं अब भी कहूँगा। मीना भी कह रही थी कि आज सपने में एक महात्मा का दर्शन हुआ, किसी प्राचीन मन्दिर में। ’-डॉ.खन्ना ने कहा।
‘तो फिर सुनिये, वह दास्तान भी- हमारे सनातन सी.बी.आई. का उच्च स्तरीय जाँच रिपोर्ट। ’ कहते हुये उपाध्यायजी ने अपनी जेब से कैसेट निकाल कर मेज पर पड़े रेकॉर्डर में लगा दिया। फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- ‘मीना बेटी! तुम अपनी आवाज तो बखूबी पहचानती होगी? अभी अभी डॉ.खन्ना बतला रहे थे, तुम्हारे स्वप्न की बात, मैं उसे टेप कर रखा हूँ, तुम्हारी ही जुबान में। तुम्हें इसे सुन कर आश्चर्य होगा। ’
‘अपनी आवाज को मैं बखूबी पहचान सकती हूँ। सुनाइये, क्या सुनाना चाहते हैं? ’-मीना ने उत्सुकता पूर्वक कहा। विमल का ध्यान भी रेकॉर्डर की ओर चला गया, जो काफी देर से अधीर हो रहा था, उस आवाज को सुनने के लिए।
‘मिस्टर खन्ना! आप भौतिक विज्ञान वेत्ता लोग, भारतीय परम्परा और अध्यात्म विज्ञान को झूठा बतलाते हैं। कोई-कोई तो इसकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। परन्तु जो शक्ति और चमत्कार अभी भी हमारे तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र-योग-ज्योतिष आदि में विद्यमान है, उसे विज्ञान का बौना बालक सहस्र शताब्दियों में भी पा सकने में सर्वथा असमर्थ है। जमीन पर खड़ी छःफुटी काया से हाथ उठा कर ऊपर आसमान को छू सकना, जितना असम्भव है, उतना ही असम्भव है- आधुनिक विज्ञान को आध्यात्मिक विज्ञान की बराबरी करना। ’-इतना कह कर उपाध्यायजी ने रेकॉडर प्ले कर दिया। विमल के मुंह से निकला मीना का स्वर, कमरे के वातावरण में गूंजकर उपस्थित लोगों को आश्चर्य चकित करने लगा। ध्यानस्थ हो, सभी सुनने लगे- उस विचित्र लौकिक-अलौकिक ध्वनि को, जो आधुनिक विज्ञान को चुनौती दे रहा था।
काफी देर तक कैसेट-स्पूल घूमता रहा, और साथ ही घूमता रहा लोगों का मन-मस्तिष्क। तिवारीजी एवं निर्मल जी के लिए उतना उत्सुकता वर्द्धक तो नहीं था, लेकिन अन्य लोगों के लिए उत्सुकता के साथ-साथ आश्चर्य को भी बढ़ाने वाला था। एक ओर आधुनिकता के लिए चुनौती थी, तो दूसरी ओर प्राचीनता के लिए श्लाघ्य। जिस समस्या का समाधन आधुनिक विज्ञान इतने मसक्कत के बाद ढूढ़ पाया, उसे ही प्राचीन विज्ञान ने चुटकी बजा कर पल भर में हल कर दिया।
मीना आश्चर्य चकित थी। यदि मात्र इह जन्म की बात होती तो उसे धोखा-फरेब कह सकती थी, किन्तु उसके साथ-साथ जुड़ी हुयी हैं- उसके गहरे अतीत की भी घटनायें। यहाँ तक कि आज जो स्वप्न की बात कह रही है, उसे भी स्पष्ट कर रही है यह पद्धति। फिर इसे झुठलाया कैसे जा सकता है? सबसे प्रमाणित बात तो यह है कि स्वर उसी का है। - सोचती हुयी मीना पल भर के लिए हर्षित हो उठी- ‘ओह! महात्माजी ने वचन तो दिया ही है। ’
विमल सोच रहा था- ‘ओफ! जब इतनी सारी बातों की जानकारी मिल ही गयी, तो इसका उपाय भी पूछ ही लेना चाहिये था। ’ फिर अफसोस करने लगा। पापा और बापू पर गुस्सा आने लगा- ‘ओफ! इतना पूछने पर भी इन लोगों ने वहाँ बतलाया क्यों नहीं? ’
फिर खीझ हो आयी महात्माजी पर- ‘आखिर वचन-वद्ध क्यों हो गये’ क्या अधिकार था उन्हें? हाय! इन लोगों ने जानबूझ कर मीना से बंचित होने का जरिया बनाया। ओफ! अब लगता है चिड़ियाँ पिंजरे का द्वार खोल चुकी है। जाल-ग्रस्त चित्रग्रीव का मित्र हिरण्यक मिल गया है। अब लघुपत्नक सा मुंह बना, मुझे भटकना पड़ेगा। चित्रग्रीव को उड़ने भर की देर है अब.....। ’
इसी तरह की बातों से विमल का मस्तिष्क झनझनाने लगा। यहाँ तक कि कैसेट पूरा होने के पहले ही अचेत हो लुढ़क पड़ा कुर्सी पर ही।
‘अरे इसे क्या हो गया? ओफ! मुझे इसी बात का भय था। ’-कहते हुये उपाध्यायजी कैसेटप्लेयर स्टॉप कर दिये, और आगे बढ़कर विमल का सिर थाम लिए।
तिवारी जी भी घबड़ा गये- ‘क्या हो गया विमल बेटे? ’
पल भर के लिए मीना के दिल में भी एक अजीब सी टीस उठी।
‘अरे! यह तो मेरे प्यार में बिलकुल पग चुका है। लगता है कहीं इसका दिमाग ...। ’-सोचती हुयी मीना के आँखों तले कुछ देर पूर्व देखी गयी युगल छवि नाच गयी। मन ही मन अजीब सी श्रद्धा हो आयी विमल के प्रति।
उठ कर विमल की नब्ज पकड़ते हुये डॉ.सेन ने कहा- ‘घबड़ाने की कोई बात नहीं। अत्यधिक संवेदन्शील, भाउक व्यक्तियों को घटनायें ज्यादा ही प्रभावित कर देती हैं। तिस पर भी यह तो मीना का प्रेमी रह चुका है। ’
मेडिसिन वाक्स से अमोनियां-एम्पुल निकाल कर, उसे तोड़ कर विमल के नथुनों में सुंघाने लगे। थोड़ी देर बाद विमल चैतन्य होकर बैठ गया। किन्तु अगले ही पल मुंह से उच्छ्वास निकला- ‘हाय मीनू! तुमने त्याग ही दिया...। ’और पुनः अचेत हो गया।
डॉ.सेन ने मेज में लगे बटन पर हाथ रखा। घंटी घनघना उठी, और परदा हटा कर अटेन्डेंट उपस्थित हुआ।
‘इन्हें बगल कमरे में ले जाने की व्यवस्था करो। ’-कहते हुये डॉ.सेन पुनः अमोनियां एम्पुल तोड़कर सुघाने लगे।
‘घबड़ाने की बात नहीं मिस्टर उपाध्याय। थोड़ी देर में स्वतः ठीक हो जायेगा। ’-कहा डॉ.खन्ना ने, और सामने बैठी मीना की ओर देखने लगे, जो सोचे जा रही थी- कभी अचेत विमल के बारे में, तो कभी बिछड़े कमल के बारे में।
थोड़ी देर में अस्पताल के दो कर्मचारी स्ट्रेचर लेकर आये, और उस पर विमल को लिटा कर दूसरे कमरे में लिए चले गये। डॉ.खन्ना पुनः अपने विषय पर आये।
‘क्या सोंच रही हैं मिसेस भट्ट? ’-कुर्सी पर बैठते हुये डॉ.सेन ने पूछा।
‘सोचूँगी क्या? आपलोग कहिये क्या सोच रहे हैं? मेरे दोनों जन्मों की कहानी तो जान ही चुके। यह भी देख ही रहे हैं कि इस जन्म की याद जरा भी नहीं आ रही है मुझे। इस स्थिति में आपलोगों की क्या राय हो रही है? ’-कहती हुयी मीना नजरें घुमाकर एक बार सभी उपस्थित लोगों पर दृष्टि डाली- आशा भरी दृष्टि, जिसके अलग-अलग बिम्ब बन रहे थे - व्यक्तियों के चेहरों पर ।
‘आपका क्या विचार है तिवारीजी? ’-तिवारी जी की ओर देखते हुये पूछा डॉ.खन्ना ने।
‘मेरा और क्या विचार हो सकता है, डॉक्टर साहब? मैं कब चाहूँगा कि मेरी एक मात्र अंधे की लाठी इस बुढ़ापे में छिन जाय? मैं तो यही निवेदन करूँगा कि कोई रास्ता निकालें, किसी और बड़े डॉक्टर से परामर्श लेकर। ’-हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुये कहा मधुसूदनजी ने, और निर्मलजी की ओर देखने लगे, जो सिर झुकाये किसी गहरे चिन्तन में निमग्न थे।
‘आप कहिये मिस्टर उपाध्याय, आपकी क्या राय है? ’-पूछा डॉ.खन्ना ने, उपाध्यायजी की ओर देखते हुये।
अपना नाम सुनकर चौंकते हुये सिर उठाये निर्मलजी।
‘ओ! मेरी राय जानना चाहते हैं? मेरी राय यही है कि तिवारी जी की आँखों की ज्योति को ‘पुनर्जन्म’ की आहुति न बननी पड़े। एक बार फिर प्रयास किया जाय किसी प्रकार। हालांकि आप पहले ही कह चुके हैं कि यह असम्भव सा है। फिर भी....। ’
‘आप लोगों की राय जान चुका। अब मेरी भी सुन लीजिये। ’- बीच में ही बोल पड़े डॉ.खन्ना, और इसके साथ ही सबका ध्यान आकर्षित हो गया उनकी ओर, जैसे बहस के अन्त में फैसला सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर सबकी निगाह चली जाती है।
‘वैसे इस केस में मेरी उत्सुकता अभी शमित नहीं हुयी है। मेरा विचार है कि पूर्वजन्म का गहरा संकेत मिल ही रहा है। मीना कह ही रही है कि स्थान मालूम है उसे सब। ’ फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- ‘क्यों मीना जी! आप अपने सही स्थान पर पहुँच जा सकती हैं न, या कुछ सन्देह हैं? ’
‘नहीं डॉ.अंकल मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं। मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर उतना ही भरोसा है, जितना कि अपने अस्तित्त्व पर। ’- मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा। क्यों कि डॉ.खन्ना की बात से आशा की रश्मि का आभास मिला उसे।
‘फिर क्यों न वहाँ चल कर देख-जाँच लिया जाय, कहाँ तक सच्चाई है इसके कथन में। वैसे भी आगे और किसी प्रकार की जाँच या उपचार के लिए नजदीक में कलकत्ता ही उचित स्थान है। मीना की बातें यदि सच निकली, फिर आगे प्रयास का प्रश्न ही नहीं उठता; और असत्य की स्थिति में, स्वयं इसने वायदा किया ही है महात्मा जी से वापस आने के लिए। इसी क्रम में कलकत्ते में और भी उच्चस्तरीय जाँच हो जायेगी। ’-कहते हुये डॉ.खन्ना एक बार सबकी ओर दृष्टि घुमा, उपाध्याय जी की ओर देखने लगे।
‘ठीक ही है। विचार तो उत्तम है। ’-सिर हिलाते हुये कहा निर्मल उपाध्यायजी ने। तिवारीजी ने भी स्वीकार किया उनकी बात को। आखिर उनके पास रास्ता ही क्या रह गया था?
‘मिसेस भट्ट! एक बात और, जैसा कि स्पष्ट है, आपके पति कमल भट्ट पूर्व विवाहित हैं। फिर क्या तुक है कि आपके निधन के बाद भी वे अपना परिवार छोड़ कर नौवतगढ़ के वजाय, कलकत्ते में रह रहे हों? ’-पूछा डॉ. खन्ना ने।
‘जी हाँ, आपका कहना सही है डॉक्टर, किन्तु वे कहाँ हैं, इसकी जानकारी यहाँ बैठे-बैठे तो नहीं ही मिल सकती है। इसके लिये कलकत्ता चलना ही श्रेयस्कर होगा। मान लीजिये वे वहाँ ना भी हों तो भी मम्मी-पापा तो होंगे। पता लग ही जायेगा। ’-मीना ने अपनी राय दी।
‘विगत मई १९६६ई. में आपके पापा-मम्मी की उम्र क्या रही होगी? ’- एक नया सवाल उठाया डॉ.सेन ने।
‘उन लोगों की जन्म तिथि तो मुझे याद नहीं, किन्तु यह याद है कि उन्हें अवकाश ग्रहण करने में चार-पांच महीने बाकी थे। ’
‘मतलब यह कि वे लोग अब काफी वृद्ध हो चुके होंगे। या हो सकता है....। ’-डॉ.सेन कह ही रहे थे कि बीच में ही मीना बोल पड़ी-
‘प्लीज डॉक्टर! हो सकता है...नहीं हो सकता है का अटकल यहाँ बैठ कर लगाना फिजूल है। ’-कहती हुयी मीना कातर दृष्टि से डॉ.खन्ना की ओर देखने लगी, मानों भय हो रहा हो- कहीं ये लोग मुकर न जांये कलकत्ता जाने से, या स्वतन्त्रता प्रदान करने से।
‘ठीक कह रही हैं मिसेस भट्ट! ऐसा ही होगा। ’-कहा डॉ.खन्ना ने, और फिर सबकी ओर देखते हुये बोले - ‘क्यों न हमलोग यथाशीघ्र यहाँ से कलकत्ते के लिए प्रस्थान करें। आपलोग में कौन-कौन साथ चलेंगे? ’
हमदोनों तो चलेंगे ही। यदि आपकी राय हो तो विमल को भी ले चला जाय, अन्यथा उसे छोड़ा भी जा सकता है। लम्बे सफर का मामला है। कहीं रास्ते में परेशानी न उठानी पड़े। ’-तिवारी जी की ओर देखकर, फिर डॉ.खन्ना की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने-
‘है तो वह बहुत ही भाउक लड़का, जैसा कि अभी सिर्फ बातें सुनकर ही अचेत हो गया। वहाँ पहुँच कर स्थिति का सामना कानों के वजाय आँखों से करना पड़े, फिर क्या होगा? अच्छा होता यदि वह ना ही जाय। ’-फिर घड़ी देखते हुये बोले- ‘अरे! साढ़े दस बज गये। काफी लम्बी बातें हुयी हमलोगों की। ’
‘मेरी एक और आरजू है। ’-हाथ जोड़ कर कहा तिवारीजी ने- ‘कल सुबह के बजाय, शाम को प्रस्थान किया जाय यहाँ से तो क्या हर्ज है? ’
तिवारीजी की बात सुन मीना कुढ़ गयी। बारह घंटे का बिलम्ब उसे बारह युगों सा प्रतीत हुआ।
‘हाँ..हाँ, ठीक ही कह रहे हैं तिवारीजी। कल दिन भर ठहर कर, रात में ही राँची-हावड़ा एक्सप्रेस से चला जाय। आज सप्ताह भर से हमलोग शादी के भीड़-भाड़ में व्यस्त रहे। कुछ मेहमान अभी भी घर पर पड़े हैं। इन सब से निश्चिन्त हो कर ही चलना चाहिये। पता नहीं उधर फिर कितना समय देना पड़े। ’-उपाध्यायजी ने सुझाव दिया, जिसे सभी ने स्वीकार किया।
‘तो फिर ठीक है। कल आपलोग अपराह्न तीन-साढ़े तीन बजे तक यहाँ आ जायें। हमलोग तैयार रहेंगे। आपलोग के आते के साथ ही चल देंगे। ’-कहते हुये डॉ.खन्ना उठ खड़े हुये। उनके साथ ही अन्य लोग भी उठ कर बाहर निकल आये। बगल कमरे से विमल को भी बुला लिया गया।
बाहर आते ही विमल ने कहा-‘ओफ! मुझे तो नींद आ गयी थी। आप लोगों ने जगाया भी नहीं। ’
विमल की बातों पर मीना मुस्कुरा दी, किन्तु अपनी मुस्कुराहट को होठों के भीतर ही कैद रखी- ‘पता नहीं क्या सोचेगा। ’
‘चलो मीना बेटी! घर चला जाय। कल तो फिर चलना ही है कलकत्ता। ’-निर्मलजी ने कहा। उनकी बात सुनकर, मीना डॉ.खन्ना की ओर कातर दृष्टि से देखने लगी, मानों बलि के बकरे को आमंत्रित किया जा रहा हो-तख्त पर चलने के लिये।