पुनर्भव / भाग-20 / कमलेश पुण्यार्क

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हालांकि इस लम्बी वार्ताक्रम में तिवारीजी एवं विमल के प्रति कुछ अजीब सी भावनायें बनने लगी थी मीना के कोमल उर में, किन्तु इसके बावजूद घर जाने में एक अज्ञात भावी भय का आभास हो रहा था।

‘आपलोग भी यहीं क्यों नहीं ठहर जाते। रात काफी हो गयी है। इस समय इतनी दूर जाने की क्या जरूरत है? ’-आन्तरिक भय और आशंका को छिपाती हुयी मुस्कुराकर, नम्रता पूर्वक मीना ने कहा।

‘रह जाता, किन्तु यहाँ अस्पताल में.....? ’-उपाध्यायजी कह ही रहे थे कि डॉ.सेन ने कहा- ‘नहीं...नहीं...मिस्टर उपाध्याय! अस्पताल में रहने की जरूरत नहीं। आज आपलोग मेरा आतिथ्य ग्रहण करें। ’ मीना की विवशता को समझते हुये डॉ. सेन ने कहा- ‘क्यों मीना बेटी? ’

दो दिनों के सम्पर्क ने ही अजीब सा स्नेह पैदा कर दिया था। डॉ.सेन के प्रेम-पूर्ण सम्बोधन से मीना थिरक उठी- ‘ठीक कह रहे हैं, डॉ.अंकल। ’ और इस स्वीकृति के साथ ही सभी चल दिये अस्पताल-प्रांगण के बाहर बने सरकारी आवास की ओर। डॉ.माथुर और डॉ.खन्ना अपने-अपने आवास के लिये विदा हुये।

डॉ.सेन ने जम कर स्वागत किया। काफी देर तक हँसी-खुशी का दौर रहा। मीना द्वारा गाये भजनों और गीतों का कैसेट बजता रहा। फिर लोगों ने विश्राम किया। गत रात भी मीना ठीक से सो न पायी थी। आज अच्छी नींद आयी। चैन की नींद। शान्ति की नींद। हालांकि बेचारे तिवारी जी ने सारी रात आँखों ही आँखों में गुजारी। विमल भी लगभग जगा ही रहा।

प्रातः सात बजे, नास्ता के बाद ही फुरसत दिया डॉ.सेन ने। तिवारीजी एवं विमल को लेकर उपाध्यायजी चले वापस।

घर पहुँच कर जल्दी-जल्दी कई काम निबटाये। समय निकाल कर तिवारीजी चौधरी से भी मिलने गये। वस्तुस्थिति से अवगत कराये।

पुनः अपराह्न ढाई बजे प्रीतमपुर होते हुये, उपाध्यायजी एवं विमल के साथ पहुँच गये जशपुरनगर। काफी समझा-बुझा कर विमल को रोकने का प्रयास किया गया। किन्तु वह मौन बना रहा। चलते वक्त उसने कहा- ‘जशपुर तक तो साथ चलूँगा ही। डॉ.खन्ना यदि मेरा आग्रह स्वीकार कर लें तो ठीक, अन्यथा वापस आ जाऊँगा। ’

किन्तु जशपुर से जब लोग राँची के लिये प्रस्थान करने लगे, तब गाड़ी में बिना किसी को कहे, पहले ही जाकर बैठ गया। स्थिति को समझते हुये किसी ने कुछ कहना भी उचित न समझा।

सभी चल पड़े एक जुट होकर ढूढ़ने- मीना के भविष्य को।

अस्पताल के गेट पर खड़ा पीपल का पेड़ फिर एक बार अट्टहास किया। उसकी कर्कश डरावनी हँसी पर कुंढ़ कर यूकलिप्टस और झाऊ ने मुंह बिचकाया-‘बड़ा मूर्ख है। समय का ज्ञान नहीं। सभ्यता से वास्ता नहीं। दूर कहीं से आती हुयी कोयल की कूक ने भी कुछ कहा जरूर, पर किसी को पता न चला- विमल के लिये संवेदना की अभिव्यक्ति थी या कि मीना के लिए शुभ कामना! हाँ, प्रांगण के अन्य छोटे-बड़े पौधे, फूल-पत्तियों की डालियाँ झुकी हुयी जरूर देखी गयी। मीना की विदाई से उन्हें अफसोस हो रहा था शायद।

परन्तु इन प्रकृति के बेबूझ पुतलों की परवाह ही किसे थी। गाड़ी चल पड़ी। आज मीना काफी प्रसन्न नजर आ रही है। माथे पर पट्टी अब नाम मात्र की ही रह गयी है।

रात्रि आठ बजे लोग पहुँच गये राँची रेलवे स्टेशन, और कोई घंटे भर बाद वहाँ से प्रस्थान किये हावड़ा के लिए।

हटिया-राँची-हावड़ा एक्सप्रेस के थ्रीटायर स्लीपर में चला जा रहा था- यह पंच सदस्यीय शिष्ट मण्डल। सबके मस्तिष्क में अपने-अपने ढंग का तूफान मचा हुआ था। फलतः मौन का साम्राज्य व्याप्त था। बीच-बीच में रेल की पटरियों के बीच की खाली जगह- कट-कट, धुक-धुक की ध्वनि का व्यवधान इनके विचारों को काट जाया करती, या कभी तेज भोपू तोड़ जाता विचार-श्रृंखला को; किन्तु फिर पल भर में ही वापस चले जाते सब, अपने-अपने विचार-वादियों में।

एक ओर डॉ.खन्ना को उत्सुकता थी विज्ञान की सफलता के दर्शन की, तो दूसरी ओर मीना के हृदय में लम्बें समय से बिछड़े प्रेमियों से मिलने की बेताबी। निर्मल जी बेटे के भविष्य की चिन्ता में थे, तो विमल भावी विरह की कल्पना मात्र से ही कांप रहा था- भीगी बिल्ली की तरह। बेचारे तिवारीजी अतीत और भविष्य की मृदु-कटु अनुभूतियों के झूले में ऊपर-नीचे हिचकोले खा रहे थे। बीच-बीच में गाड़ी की बढ़ती-घटती गति उसमें अपना साथ दे रही थी। सबके सब अपने धुन में थे। किसी को किसी से लगता है कोई वास्ता नहीं- ‘अपार्टमेंट’ के पड़ोसियों की तरह।

उधर रेल गाड़ी, बेजान लोहे की पटरियों को रौंदती हुयी चली जा रही थी-

अपने गन्तव्य की ओर, मानों अतिक्रमण उन्मूलन अभियान के क्रम में सरकारी बुलडोजर रौंदता चला जा रहा हो सड़क के अगल-बगल के मकानों को, और आस-पास के पेड़-पौधे तेजी के साथ पीछे भागते जा रहे थे उस भीमकाय बर्बर के भय से।

प्राच्य क्षितिज ने अपने लाल-लाल नेत्रों से गौर से निहारा देर से सोयी हुयी कलकत्ता महानगरी को, और उसके वदन पर पड़ी अन्धकार की चादर को खींच कर एक ओर हटा दिया। साथ ही स्वतः हट गयी- लम्बे सफर के यात्रियों की आँखों पर झुकी हुयी पलकें। सफर का संक्षिप्त सा सामान समेटा सबने, और पंक्तिवद्ध होकर खड़े हो गये हावड़ा स्टेशन के दर्शनार्थी बन कर।

इधर रक्त परिधान धारी रेलवे-कुलियों ने खटाखट अपने-अपने स्थान के आरक्षण हेुतु प्लेटफॉर्म की चौड़ी छाती पर, खड़िये से खचाखच लकीरें खींची, और चुस्ती के साथ मुडा़सा बांध कर तैनात हो गये रंगरूट लठैतों की तरह। हड़हड़ाती हुयी रेलगाड़ी आकर ठहर गयी। ठहर क्या गयी, रूक गयी- हावड़ा स्टेशन पर, और ‘कुली-कुली’ के शोर से प्लेटफार्म गूंज उठा। पल भर के लिए ऐसा लगने लगा कि अभी भी हमारे देश में बहुत से निकम्मे लोग हैं, और बहुत से पराश्रित भी।

गाड़ी से उतर कर सभी लोग बाहर आये, प्लेटफार्म पर। कुली के माथे पर संक्षिप्त सा बोझ लादा गया-शाही ताज की तरह, और भूगर्भ मार्ग पार कर लोग आ गये टैक्सी पड़ाव पर। एक टैक्सी ली गयी, जिसके पीछे की सीट पर बैठे डॉ.खन्ना के साथ पिता-पुत्र उपाध्यायजी एवं तिवारीजी। आगे की सीट पर बैठी अकेली मीना। बिना किसी के कहे ही, दिशा-निर्देश के लिए।

प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा डॉ.खन्ना ने मीना की ओर।

‘बागड़ी मार्केट। ’-कहा मीना ने, और टैक्सी चल पड़ी- चौड़ी, काली, बेशर्म सड़क

पर, जिसे इसका जरा भी परवाह नहीं कि कौन कहाँ किस हाल में जा रहा है।

विमल पहली बार कलकत्ता आया है। अतः बाहर झांक कर हसरत भरी निगाहों से कलकत्ता महानगरी को देख रहा है। बेचारे तिवारी भी कभी आये नहीं थे- कलकत्ता। पर क्या देखें? आदमियों की भीड़- भेड़-बकरियों की तरह? गरीबों के रक्त चूस कर खड़ी की गयी ऊँची-ऊँची इमारतें, और फिर से उन्हें चूसने के लिए ‘नाथा गया बंशी में चारा’- चकमक दुकानें....? यही कुछ तो है सिर्फ। कोई नई बात हो तब न देखें। - सोचते हुये, बेचारे तिवारीजी सिर झुकाये बैठे रहे, अपनी जगह पर।

हावड़ा पुल पीछे छूटा। टैक्सी मुड़ी दायीं ओर बागड़ी मार्केट की तरफ। फिर मीना के हाथ स्वयं ईंगित करने लगे टैक्सी-ड्राईवर को। बायें और दायें कई मोड़ आये, और फिर आया एक दो मंजिला मकान- मानों रास्ता रोक कर खड़ा हो नुक्कड़ पर।

मीना के इशारे पर टैक्सी रुकी। सभी नीचे उतरे। निर्मलजी ने किराया चुकाया। तिवारी का काल्पनिक स्वप्न टूटा। विमल मूक खड़ा रहा। मीना ने बतलाया- ‘यही है मेरा मकान। ’

पर यह क्या- संगमरमरी ‘ताज’ सी चमकने वाली खूबसूरत कोठी ने कोयले की कालिमा को स्वीकार कर ली है। गेट का पूर्वी पीलर वयोवृद्ध की कटि सा झुक गया है। पश्चिमी पीलर बेचारा अकाल पीडि़त की तरह औंधे मुंह पड़ा हुआ है। जब पीलर ही नहीं फिर उससे लटके रहने वाले न्योनसाइन-वाक्स का क्या अस्तित्त्व? हाँ, उसे लटकाये रहने वाला वलिष्ट अंकुश- उन्मत्त हाथी के महावत द्वारा फेंके गये अंकुश की तरह अभी भी एक ओर पड़ा था। क्यारियों में करीने से सजे रहने वाले गुल-बूटे पंचतत्त्व में विलीन हो चुके ह®। विस्तृत लॉन के चारों कोनों पर खड़े रहने वाले भेपर लाइट-पोस्ट मदोन्मत्त शराबी की तरह औंधे मुंह पड़े थे। फाटक के दोनों बगल लगाये गये यूकलिप्टस और अशोक के पुराने पेड़ मुंड मुड़ाये संन्यासी सा खड़े हैं यथास्थान। मुख्य द्वार के ठीक सामने, सीढि़यों के बगल में दीवार की छाती को चीर कर निकला हुआ व्यिाल काय अश्वत्थ वृक्ष ‘एकोहं द्वितीयो नास्ति’ के अद्वैत वाद का उद्घोष करता सा प्रतीत हुआ, जिसके शोख पत्ते पूरे लॉन में नटखट बालकों सा उछल कूद रहे थे।

कुछ देर तक बाहर गेट के पास ही खड़ी मीना ठिठकी सी रह गयी। आँखें फाड़-फाड़ कर देखती रही मकान की जीर्ण-्यीर्ण स्थिति को, जो चिर तपस्वी च्यवन के कंकाल सी प्रतीत हो रही थी।

‘क्यों मीना बेटी! मकान पहचान रही हो ठीक से? ’-पूछा निर्मलजी ने, और पास खड़े अन्य लोगों के चेहरे के बिम्ब को भी भांपने का प्रयास करने लगे।

‘अपने प्यारे निवास को पहचानने में आँखें कभी धोखा नहीं खा सकती, जिसके ईंट-ईंट में अटूट स्नेह संचित है, वृद्ध पितामह का, युवा पिता का। परन्तु आश्चर्य होता है- यह इस कदर बूढ़ा क्यों हो गया? ’- उदाश मीना ने कहा, और आगे बढ़ आयी मकान के मुख्य द्वार के समीप।

‘तुम्हारी स्मृति का ‘मीना-निवास’ सत्रह पतझड़ देख चुका है बेटी। लगता है बसन्त का एक भी झोंका नहीं आया है इस ओर- इस बीच। देख ही रही हो- भूतही हवेली सा भांय-भांय कर रहा है। ’-करूण स्वर में कहा तिवारी जी ने।

मीना की नजरें ऊपर उठ गयी बाल्कनी की ओर। उसके बगल के दोनों पूर्वी कमरों की खिड़कियाँ बन्द थी, जिसके कारनिस पर दुष्ट कौओं के बीटों ने कितने ही वरगद उगा दिये थे। नीचे की ज़ाफरी से झांक कर अन्दर देखी, जहाँ गर्द-गुब्बार का अम्बार लगा था। ज़ाफरी में भीतर से ताला पड़ा हुआ था, जिस पर जंग की मोटी पपड़ी जमी हुयी थी- मीना के मानसिक जंग की तरह।

‘भीतर से ताला क्यूं कर लगा हुआ है? मकान तो बिलकुल सुनसान है। क्या कोई और भी रास्ता है अन्दर जाने का? ’-उत्सुकता पूर्वक पूछा डॉ.खन्ना ने।

‘हाँ है। एक और रास्ता भी है, पीछे की ओर से। ’-कहती हुयी मीना बढ़ चली मकान के दायीं ओर से होकर पीछे की ओर, जहाँ लोहे की गोल चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुयी थी। इन सीढ़ियों पर गर्द अपेक्षाकृत कम था।

‘आप लोग यहीं रूकें। मैं ऊपर जाकर देखती हूँ। ’-कहा मीना ने, और गौरैया सी फुदकती.खटाखट ऊपर चढ़ने लगी।

‘पुराने मकान में इस तरह अकेले जाना ठीक नहीं है मीनू। ’- कहते हुये निर्मल जी भी पीछे हो लिए।

सीढि़याँ तय कर ऊपर पहुँची, पिछवाड़े के बाल्कनी में, जिसका एक द्वार ऊपर के आंगन में खुलता था, और दूसरा उस कमरे में जो कभी मीना का कमरा हुआ करता था। बाल्कनी में भी दो तीन न्यग्रोध जातियों ने अपना निवास बना लिया था। ऊपर छत पर मकडि़यों और चमगादड़ों का साम्राज्य मुगल सल्तनत सा फैला हुआ था। किवाड़ की एक कुंडी में जंग लगा हुआ ताला लटक रहा था, जिसने बतलाया कि विगत वर्षों में दूसरी कुंडी से मेरा मिलन न हो सका है, कारण उसमें ताली लगाने का छिद्र भी ढक चुका था, मोतियाबिन्द हुये आँखों की तरह।

‘यह भी तो अन्दर से ही बन्द जान पड़ता है। क्या कोई और भी रास्ता है? ’-

पीछे से पहुँच कर उपाध्यायजी ने पूछा।

‘नहीं। और कोई रास्ता नहीं है। एक है भी तो बहुत गोपनीय एवं जटिल। सामान्य स्थिति में उस रास्ते से अन्दर जाना असम्भव ही समझें। ’

‘तब? ’-चिन्तित मुद्रा में पूछा उपाध्यायजी ने, और किवाड़ के दरारों में से झांकने का असफल प्रयत्न करने लगे।

‘तब क्या? उस जटिल रास्ते की जरूरत ही नहीं। यह कमरा अन्दर से बन्द है। इसका मतलब है, निश्चित ही कोई है- अन्दर में। ’- कहती हुयी मीना दो तीन बार कुंडी खटखटायी; किन्तु अन्दर से कोई आवाज न मिली।

‘ठहरो मैं देखता हूँ। ’-कहते हुये नीचे झांका निर्मल जी ने- ‘लगता है अन्दर कोई है, और फिर पीछे मुड़ कर किवाड़ में कस कर दो तीन धक्के लगाये। अन्दर की निरीह अर्गला पुलिस-पदाधिकारी का पद-प्रहार सह न पायी, और पल भर में ही किवाड़ का दामन छोड़ कर अपनी बेवफाई का परिचय दे दी। दोनों किवाड़ धड़ाम की ध्वनि के साथ सपाट खुल गये। विचित्र बदबू बाहर निकल कर स्वागत किया- उपस्थित आगन्तुकों का। मीना आगे बढ़ कर कमरे में प्रवेश करना चाही। पर एक के बाद दूसरा पग उठ न पाया। जरा थम कर फिर आगे बढ़ी साहस संजो कर।

अपार धूल-धूसरित फर्श पर तिपाई के सहारे तीन वृहदाकार चौखटों में जड़े तैल-चित्र रखे हुये थे। बगल के छोटे से काष्ठ-पीठ पर मिट्टी का एक काला कलूटा धूप-दान रखा हुआ था। तीनों चित्र चौखटों पर जरी की जीर्ण माला पड़ी हुयी थी, जिसे गौर से देख कर ही ‘माला’ कहा जा सकता था। अगल-बगल बहुत सी सूखी रोटियाँ बिखरी हुयी थी- लॉन में बिखरे पीपल के पत्तों की तरह। एक ओर कोने में सुराही रखा हुआ था, जिसमें न ‘सुरा’ ही था, और न जल। ढक्कन भी नहीं। बायीं ओर की खिड़की जो भीतर आंगन की ओर थी, खुली पड़ी थी। वहीं एक चौकी रखी हुयी थी, जिसके लोक- लज्जा निवारणार्थ एक विस्तर बिछा हुआ था, मैले-कुचैले चिथड़ों सा, जिससे निकल कर सड़ाध सी बदबू ने स्पष्ट मना किया- ‘कृपया मुझ पर न बैठें। ’

पल भर में ही पूरे कमरे का निरीक्षण कर, नजरें आ गड़ गयीं उस बदबूदार विस्तर पर, जिस पर औंधे मुंह लेटा था एक औघड़ सा व्यक्ति। सिर के बेतरतीब बढ़े बाल लट से जट बन कर, नीचे पलट आये थे- भूमि-स्पर्श करते हुये। वदन पर चिथड़ों सा कुरता और पायजामा पड़ा था, जो दम तोड़ते हुये किसी तरह अपने अस्तित्त्व की जानकारी दे रहा था, पुलिस पदाधिकारी को। उसकी खुली खिड़कियों से झांक कर चमड़ी का रंग गौरव पूर्वक बतला रहा था कि -मैं किसी जमाने में गोरा भी था, यानी जन्मजात काला नहीं हूँ। बगल की चैतन्य पसलियाँ स्वांस-प्रस्वांस के आकुंचन-प्रकुंचन से प्रताड़ित होकर, स्पष्ट कर रही थी कि प्रभात के आगमन की सूचना अभी उस अभागे को नहीं मिली है। फलतः गहरी नींद की गोद में सोया हुआ है- देवासुर-संग्राम-विजयी मुचकुन्द की तरह, जिसे जगाने शायद स्वयं श्रीकृष्ण को ही आना पड़ेगा, दूसरा तो भस्म ही हो जायेगा।

उपाध्यायजी की पुकार सुन बाकी लोग भी ऊपर आ गये। कुछ देर तक देखते रहे सबके सब, कमरे की दयनीय स्थिति, और फिर सबकी निगाहें आ टिकी शैय्यासीन अवधूत पर।

प्रौढ़-प्रशासनिक स्वर में कड़क कर कहा उपाध्यायजी ने- ‘कौन सोया है? ’ आवाज इतनी ऊँची थी कि कमरे की छत और बेजान दीवारें भी कांप उठी, मानों व्याघ्र-गर्जन से सुकुमार मृगी कांप गयी हो; परन्तु उस व्यक्ति ने मात्र करवट बदली। इस बार उसका मुख प्रदेश सामने आगया।

जांगम-लता सी स्वतन्त्र विकसित काली लम्बी दाढ़ी और उसके ऊपर उतनी ही सघन मूंछें। घ्यान से देख कर ही विचारा जा सकता है कि उसके बीच मुख गह्नर भी होगा।

‘बोलते क्यों नहीं कौन हो तुम? ’-प्रश्न दुहराया, उपाध्यायजी ने- पूर्व कड़कीले स्वर में। मीना के साथ अन्य लोगों की भी टकटकी बन्धी हुयी थी।

इस बार की आवाज से, अलसायी आँखें खुल गयी। ऐसा प्रतीत हुआ मानों पलकों के क्षितिज को चीर कर एक साथ दो सूर्य उदित हो गये हों। शीघ्र ही उसकी रश्मि प्रकट हो गयी। यहाँ तक की उपस्थित व्यक्तियों के चहरे को झुलसाने सी लगी।

‘कौन हैं आप? ’- नम्र स्वर में पूछा तिवारी जी ने।

अवधूत ने गौर से निहारा उनके चेहरे को, और बोला- ‘समय की प्रतीक्षा में सोया हुआ एक इनसान। परन्तु आश्चर्य है कि आज तक किसी ने नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ। आप कौन हैं? ’-और अपने दोनों हाथों को उठा कर गौर से देखने लगा हथेली को।

स्वर में एक अजीब सा जादू था। कन्हैया की मुरली सा सम्मोहन था, जो पल भर में ही अगनित गोपांगनाओं को खींच लाने की सामर्थ्य रखता था, फिर किसी एक को क्यों न खींचे? वह भी राधा को?

पीछे खड़ी मीना, जो अब तक एक टक देखे जा रही थी, अन्तरद्वन्द्व की निगाहों से- दौड़ कर लिपट पड़ी उसके सूने सीने से।

‘हाय मेरे कमल! यह क्या रूप बना रखा है तूने? ’

कई विस्फारित निगाहें जा लगीं उस ओर। नाक पर रूमाल रखे दूर खड़े

विमल के कलेजे पर अगनित सर्प एक साथ लोटने लगे। उनका विष-दश सीने की गहराई में उतरता हुआ सा प्रतीत हुआ।

‘ओफ! तो क्या मेरी मीना इस पगले से प्रेम करती है...करेगी? ’- उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा, और सिर पकड़ कर बैठ गया, धूल भरे फर्श पर ही।

मीना को सीने से चिपटना था कि वह औघड़ सा व्यक्ति हड़बड़ाकर उठ बैठा।

‘कौन हो तुम, मुझे कमल कह कर पुकारने वाली? इस सीने से लगने का अधिकार तो सिर्फ मेरी मीना को है। तुम छलना कहाँ से आ गयी, मेरे प्रेम की परीक्षा लेने? ’-सीने से हटाते हुये कहा कमल ने, मानों जोंक को नोंच फेंकना चाहता हो, पर हटा न पाया उस बाहु लतिका को।

उपस्थित लोग एक दूसरे का मुंह देखते रहे। किसी ने कहा नहीं कुछ भी। डॉ.खन्ना ने सबको चुप रहने का इशारा किया, मुंह पर अंगुली रख कर।

‘मैं मीना ही हूँ कमल। मीना ही हूँ। आह कमल! तूने मुझे पहचाना नहीं? ’-फफक कर रो पड़ी मीना। उसके प्रसस्त छाती पर जल बिन मछली की तरह, मीना का सिर तड़प रहा था।

‘तू मीना हो? मीना कैसे हो सकती है? उसे तो आज से सत्रह वर्ष पूर्व ही सुला आया हूँ चिरनिद्रा में, धधकती चिता की गोद में- पटने के बांस घाट पर..। ’ -दोनों हाथों से मीना के मुखड़े को थाम कर सामने कर, देखते हुये कहा कमल ने।

‘ठीक कहते हो शायद, सुला दिया होगा तुमने अपनी उस मीना को; किन्तु कुछ और भी याद है? ’-मीना ने उसके यादों की पपड़ी उधेड़ी।

‘क्या’

‘तूने सिर्फ जीवन भर साथ निभाने की कशम खायी थी कमल! सिर्फ जीवन भर की; किन्तु मैं जन्म-जन्मान्तर में भी साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी। याद है? मेरी मांग में सिन्दूर भरा था तुमने, और कहा था- ‘‘मीना आज तुम्हारी मांग के साथ मैंने पूरे संसार को ही मांग लिया है। ’’- सिसकती हुयी मीना ने कहा।

‘हाँ, कही थी। कही थी मेरी मीना। मुझे याद है आज भी। सिर्फ यही नहीं, बल्कि उसके एक-एक शब्द याद हैं मुझे, आज भी आज की तरह। ’ मीना के मुखड़े को गौर से निहारते हुये कहा कमल ने।

‘जब सब कुछ याद है, तो यह भी याद होगी- मैं कही थी उस दिन- आज तुम्हारी गोद में पड़ी रहने में जो स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति हो रही है, वह कभी नहीं हो सकेगी। ’

‘हाँ, यह भी याद है; किन्तु ये सब यादों की बारात लिये विगत सत्रह वर्षों से मैं भटक रहा हूँ दुल्हन की तलाश में। मेरी दुल्हन..मेरी मीना...हाय मेरी मीना!’- लम्बी उच्छ्वास सहित कहा कमल ने, और मीना के चेहरे को गौर से फिर देखने लगा। देखते-देखते उसे आश्चर्य होने लगा- ‘अरे! वही रूप...वही लावण्य...वही आवाज...वही खनक...वही लचक...वही ठुमक सब कुछ वही, परन्तु रंग? रंग तो वह नहीं है! वह था वनमाली कृष्ण वाला रंग, और यह रंग है राधिका वाला। कहीं यह कोई छद्म रूप तो नहीं है मुझे छलने का? ’ अपने आप में बड़बड़ाया कमल ने, किन्तु मुखर ध्वनि औरों के कानों से भी टकराने से बाज न आयी।

‘घबड़ाने की बात नहीं है मेरे प्रियतम। तुम्हारी दुल्हन आ गयी है। फिर से अवतार लेकर। जानते ही हो, मानव की ऐष्णा जब तक विद्यमान रहती है, तब तक जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता। महाज्ञानी भरत को मात्र एक मृगछौने की ऐष्णा ने पुनः शरीर धारण करने को वाध्य कर दिया था। फिर, मैं तो बहुत बड़ी चाहत को लिए हुये, सुख की चिर निद्रा में सोयी थी- तुम्हारी गोद में फिर से सोने की कामना लेकर। फिर क्यों न आऊँ नया शरीर लेकर? शरीर बदल गया। रंग भी बदल गया। पहले जली विरहाग्नि में, फिर चिता की धधकती ज्वाला में तपी। तप्त कंचन का रंग कैसा होता है, तुम्हें पता ही होगा? नया रंग लेकर, नवीन शरीर में-पुरानी आत्मा को लेकर- ‘‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नारोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, नन्यानि संयाति नवानि देही। । ’’-गीता में गोविन्द ने ऐसा ही तो कहा है पृथा पुत्र से....। ’

मीना कहती रही। कमल सोचता रहा। स्वयं से ही तर्क-वितर्क करता रहा-

‘क्या ऐसा भी हो सकता है? हालांकि वासांसि जीर्णानि का तात्पर्य तो यही है। आत्मा मरती नहीं। वह तो नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः से परिभाषित है। जीर्ण वस्त्र की तरह अपने पुराने शरीर को त्याग कर, नवीन शरीर-कुन्दन सा शरीर धारण करती है। जातस्य कि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च -भी तो यही कहता है। फिर भी क्या मैं इतना भाग्यवान हूँ? मेरी मीना फिर से मुझे वापस मिल जा सकती है? - सोचता हुआ कमल अपने हथेलियों को देखने लगता है। अंगुलियों के पोरुओं को ध्यान से देखता है। प्रत्येक पर चक्र के स्पष्ट निशान नजर आते हैं। उसे याद हो आती है-

‘‘तुम तो भाग्यवान हो। ऐश्वर्यवान हो। ’’- दक्षिणी ने कहा था एक दिन, तो क्या मेरे भाग्योदय का समय आ गया? शायद ऐसा ही हो, क्यों कि ज्योतिष शास्त्र का वचन है कि शनि की कृपा का काल जीवन के छत्तीसवें वर्ष के करीब ही होता है। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे धोखा हो रहा है? किन्तु नहीं। धोखा कैसे हो सकता है? जो कुछ यह कह रही है- मेरे और मीना के सिवा इसे जान भी कोई कैसे सकता है...?

मीना उसके चेहरे को निहारे जा रही थी, जिससे अभी तक अविश्वास का दुर्गन्ध ही निकल रहा था। विश्वास का फूल इतने प्रयास के बावजूद खिल न पाया था। फलतः पल भर के लिए मीना का कोमल हृदय ऐंठ सा गया।

‘हाय कमल! तुझे कैसे विश्वास नहीं होता मेरी बातों का !! तुझे याद होगा- कालेश्वर की घटना के बाद तुम अचानक उदास हो गये थे। तुझे शयद मुझ पर क्रोध हो आया था। मेरे पवित्र प्रेम-प्रसून में वासना की दुर्गन्ध महसूस किया था शायद तुमने, और तब मैंने कहा था- नाटक के बाद तुमने सत्यवान का चोंगा उतार फेंका, पर मै तब से ही, सावित्री ही हूँ। ओह कमल! तुम अपनी उस सावित्री को कैसे भूल गये, जिसकी गोद में सिर रखकर सुख की नींद सोये थे....? ’ पागलों की तरह बकने लगी मीना, और इस क्रम में बहुत सी गुप्त बातों को भी आवेश में, आवेग में उगल गयी। यहाँ तक कि अन्त में फफक कर रो पड़ी।

मीना की बातों पर कमल गौर करता रहा, साथ ही खुद से प्रश्नोत्तर भी। धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क से अविश्वास की काई छंटने लगी। उसे लगने लगा कि मीना के कथन में यथार्थ का सुगन्ध है। पवित्र प्रेम का परिमल है। यह वास्तव में मीना ही है। इसी की प्रतीक्षा में आज सत्रह वर्षों से वह पड़ा रहा है।

ऐसा विचार आते ही, अचानक उसके शुष्क प्राय हृदय में प्यार का सोता उमड़ पड़ा। कस कर जकड़ लिया उस गौर गात को, और पागलों सा चूमने लगा उसके अंग-प्रत्यंग-सर्वांग को। मीना भी तो प्यासी थी ही। जरा भी विपरीत प्रतिक्रिया न व्यक्त की। लिपटी रही। चिपटी रही अपने प्यारे कमल से। दोनों में किसी को भी इस बात का रंचमात्र भी भान न था कि यहाँ कोई और भी है, जिसे इनका यह प्रेम-व्यवहार बुरा या असभ्य सा लगेगा। वैसे कहा जाय तो, प्रेम की गहन गुहा में ही समाधि लगती है। और फिर समाधि में किसी को वाह्य ज्ञान ही कहाँ रह जाता है? एक और दो, दो और एक में अभेद की स्थिति हो जाती है। सारी विसंगतियाँ द्वैत में हैं। अद्वैत तो अक्षुण्ण है। अखिल है।

सभी खड़े-खड़े उस दिव्य मिलन के अलौकिक दृश्य को देखते रहे। मुग्ध होते रहे। यहाँ तक कि तिवारीजी भी मन्त्र मुग्ध हो गये। सच्चे प्यार के सुमधुर परिमल ने उनके मन-मस्तिष्क के मैल को धो-पोंछ कर स्वच्छ कर दिया।

किन्तु बेचारा विमल?

ओफ! उसकी तो अजीब स्थिति थी। मीना के अंगों पर कमल के होठों का स्पर्श साम्प्रदायिक ‘तप्तमुद्रा’ की तरह उसके हर अंगों से चिपक रहा था, और मानों हर स्थान का गहरा मांस निचोड़ ले रहा था।

कमल पागलों की पंक्ति से भी कुछ आगे निकल गया था- ‘हाँ, तुम मीना ही हो। मीना ही हो तुम। उसके सिवा किसमें सामर्थ्य है कि मेरे तप्त हृदय में शीतलता प्रदान कर सके? आह मेरी मीना! मेरी मीना!!

आत्मविभोर मीना कमल की बाहों में पड़ी रही, मानों राजा दुष्यन्त की गोद में चिरविरहिणी शकुन्तला हो। देखने वाले भी आत्मविभोर थे। सब के सब अपना पद-मर्यादा और कर्तव्य विसार चुके थे। राधा-कृष्ण के से अलौकिक मिलन-दृष्य में लोग मग्न हो गये। दृष्य की सार्थकता तो द्रष्टा को भी समाहित कर लेने में ही है-सो हो गया था। वस्तुतः किसे उमीद थी इस मिलन की?

काफी देर तक यही स्थिति बनी रही। एक दूसरे का चुम्बन और दृढ़

आलिंगन...। कुछ तुष्टि के बाद अचानक मानो होश आया कमल को- ‘अरे मीनू! ये लोग कौन हैं- यहाँ पीछे खड़े? ’

सुमधुर सपनों से अचानक जाग गयी हो मानो। झट से अलग हो गयी कमल की बाहों से।

‘ओ! आई ऐम भेरी सौरी डॉ.खन्ना!’- कहती हुयी मीना इधर-उधर देखने लगी, उस धूल भरे कमरे में, जहाँ यह कहना भी मुश्किल था-

‘आप लोग बैठें। ’

मुस्कुराते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘डॉन्ट माइन्ड मीनू! माई हर्टियेस्ट कॉग्रेचुलेशन टू यू एण्ड योर कमल भट्ट। ’

नवेली दुल्हन सी शरमायी मीना, चुस्ती के साथ खड़ी होकर कमल को परिचय कराने लगी-

‘आप हैं मिस्टर खन्ना, जशपुरनगर के जिला चिकित्सा पदाधिकारी, और आप हैं अवकाश प्राप्त आरक्षी अधीक्षक मिस्टर निर्मल उपाध्याय जी, मेरे होने जा रहे पति श्री विमल उपाध्याय के पिता।

अगला इशारा था-‘और आप हैं माधोपुर के श्री मधुसूदन तिवारी, मेरे बापू। ’

मीना के मुंह से निकला ‘मेरे बापू’ शब्द तिवारी जी का रहा सहा मानसिक मैल भी धो डाला। उनके लिये तो गत तीन दिनों का विलगाव और परित्याग असह्य हो गया था। स्वयं को रोक न पाये अब।

‘मीना बेटी!’-कहते हुये लपक कर मीना को गले लगा लिये। विस्तर पर से उठ कर कमल हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया- ‘ओफ! मुझसे बड़ी भूल हुयी, अभी

तक आपलोगों को बैठने के लिए भी नहीं कहा। ’

‘कोई बात नहीं। कोई हर्ज नहीं। ’-मुस्कुराते हुये कहा उपाध्याय जी ने, और आगे बढ़ कर चिथड़े-से विस्तर पर ही बैठ गये। उनके साथ ही डॉ. खन्ना भी आ विराजे। फिर मीना की बाहों से अलग हो तिवारी जी भी।

प्रेमानन्द के फौब्बारे में सभी स्नात हो चुके थे। अब दुर्गन्ध कहाँ? गन्दगी कहाँ? वस्तुतः वस्तु के होने, न होने का कोई खास महत्त्व नहीं होता। महत्त्व होता है- मन की मौजूदगी का। वह जहाँ है, वस्तु भी वहीं है। मन प्रेम में है या कि घृणा में- यह उसी का विषय है।

विमल अभी भी नीचे ही जड़वत बैठा रहा।

‘विमल बेटे! विमल! क्या सोच रहे हो? आओ, इधर बैठो। ’- बड़े स्नेह से कहा उपाध्यायजी ने।

‘ठीक है पापा। कोई बात नहीं। ’- कहते हुये पास में पड़े खन्ना साहब की बेडिंग पर उठ कर बैठ गया।

तिवारी जी से लिपटने के क्रम में मीना का ध्यान फिर से उन तसवीरों पर गया, जो वृहदाकार चौखटों मे कैद थी। अगल-बगल श्री वंकिम दम्पति की तसवीर थी, और बीच में उनकी दिवंगता पुत्री मीना की। मीना के साथ ही अन्य लोगों की निगाहें भी उस तसवीर से जा लगी।

निर्मलजी की ओर देखते हुये उॉ.खन्ना ने कहा- ‘देख रहे हैं मिस्टर उपाध्याय! चेहरे की बनावट में भी रंच मात्र फर्क नहीं है। ’

‘रियली। क्या कोई कह सकता है कि यह मीना की तसवीर नहीं है? ’- कहा


उपाध्यायजी ने फिर सामने खड़े कमल की ओर देखते हुये बोले-‘ मिस्टर कमल! खड़े क्यों हैं आप? बैठिये न। ’

इधर-उधर देखते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘यहाँ आप अकेले ही रहते हैं? और लोग? ’

‘रहने वाले थे, सो चले गये वर्षों पहले ही। ’-ऊपर की ओर हाथ का इशारा करते हुये कहा कमल ने, और नीचे फर्श पर ही पलथी मार कर बैठ गया, मानों गुदगुदे कालीन पर ही बैठा हो।

कमल के मुंह से निकला शब्द- ‘चले गये’ मीना का ध्यान खींच लाया कमल की ओर, जो अब तक कहीं और ही घूम रहा था। हड़बड़ाकर बोल पड़ी- ‘क्या कहा, मम्मी-पापा अब नहीं रहे? ’

‘नहीं मीनू! तुम्हारे जाने के पांच-छः महीने बाद ही कार दुर्घटना में मम्मी चली गयी, और उनके एक वर्ष बाद पापा भी चले गये गम में घुल-घुल कर। ’- कमल ने इस सहज भाव से कहा जैसे कोई अति सामान्य बात हो। वस्तुतः उसके लिए तो ‘मौत’ एक सहज घटना ही बन कर रह गयी थी विगत वर्षों में।

एक बार हाय! करके मीना झुक गयी पास रखी तस्वीरों पर।

‘जाने वालों को कोई रोक नहीं सका है आज तक मीनू। सिर्फ वे ही नहीं, बल्कि न जाने कितने ही गये इस बीच। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शचितुमर्हसि। । आने वाले जाते ही हैं मीनू, और जाने वाले आते भी हैं। आवागमन का यह अद्भुत अनन्त क्रम यदि नहीं रहता तो आज इतने काल बाद तुम्हें कैसे पा सकता था मैं? ’ मीना की बांह पकड़ कर उठाते हुये कहा कमल ने- ‘अब उनके लिये शोक करके क्या होगा मीनू? बीती ताही विसार दे, आगे की सुधि ले। आज हमारे द्वार पर इतने लोग पधारे हुये हैं। इन सबका स्वागत करना चाहिये। ’- कहता हुआ कमल अपने हाथों को निहारते हुये मलने लगा, पश्चाताप की मुद्रा में।

निर्मल जी उसका आशय समझ गये।

‘चिन्ता करने की बात नहीं है, कमल बेटे। ’- कहा निर्मलजी ने, तो कमल एकटक उन्हें देखने लगा। वे कह रहे थे- ‘....तुम इसी बात की चिन्ता में हो न कि आगन्तुकों की सुश्रुषा हेतु तुम्हारे पास साधन का अभाव है। जो कुछ भी था, सो अतीत-गह्नर में दफन हो गया। ’

स्वागत में असमर्थता की बात सुन मीना मानों चैतन्य होकर बैठ गयी। उसे पुरानी बातें याद आने लगी। कुछ देर यूँही शून्य में ताकती सोचती रही। फिर कमल की ओर देखती हुयी बोली- ‘कमरों की चाभी कहाँ है? ’

‘यहीं कहीं होंगी। ’- कहते हुये कमल ने विस्तर पलट कर चाभियों का एक पुराना गुच्छा निकाल कर मीना की ओर बढ़ाया- ‘क्या करोगी? अब है ही क्या इस सूने मकान में, पुराने वरतन और टूटे फर्नीचर के सिवा? ’

‘बहुत कुछ होना चाहिये इस महल में कमल! यहाँ तक कि हमसब बैठे-बैठे जीवन आराम से गुजार लें। ’- चाभी का गुच्छा कमल के हाथ से लेते हुये मीना ने कहा- ‘पापा अपनी कमाई के- वह भी सिर्फ कागजी नोट खर्च किये होंगे। दादा जी की अमानत तो अछूता ही होगा। ’

मीना उठकर खिड़की के बगल के बन्द दरवाजे को खोलने का प्रयास करने लगी, जिसमें जंग लगा भारी भरकम ताला पड़ा था। यह द्वार भीतर के वरामदे में खुल कर अन्य कमरों में जाने का रास्ता खोलता था।

‘मगर कहाँ है मीनू? मम्मी के गुजरने के बाद तुम्हारी मौसेरी बहन मीरा इस घर की देखभाल किया करती थी। प्रायः सभी बक्सों में मैं भी देख चुका हूँ। कपड़े-वासन, थोड़े आभूषणों के सिवा उनमें कुछ भी नहीं था। ’- कमल कह ही रहा था कि मीना बोल पड़ी- ‘मीरा कहाँ गयी? ’

‘वहीं, जहाँ सभी लोग। ’- सहज भाव से कमल ने कहा-‘ उसी के श्राद्ध में वे आभूषण भी चले गये। ’ मीना के हाथ से चाभियों का गुच्छा लेते हुये बोला-‘लाओ, मैं खोलता हूँ। ’

मीरा की मौत का संवाद पल भर के लिए मीना को फिर तड़पाया- ‘ओफ! सबका सर्वनाश ही हो गया!’- दीवार से सिर टिकाकर खड़ी होगयी। सिर में चक्कर सा आ गया।

‘हाँ मीनू! मौसा के निधन के बाद मीरा आयी थी यहाँ, खुद का सहारा लेने और पापा को सहारा देने, किन्तु मुझे भी बेसहारा बनाकर चली गयी। ’- ताला खोलते हुये कमल ने कहा।

‘तुम्हें बेसहारा...? शक्ति दीदी? ’- साश्चर्य पूछा मीना ने, कारण कि अपना घर-वार छोड़ कर यहाँ रहने का प्रयोजन समझ न आ रहा था।

‘वह तो और भी पहले जा चुकी थी, फिर लेती गयी माँ और मुन्नी को भी। मौत का ताण्डव देखते-देखते मेरी आँखें पथरा गयी हैं। चारों ओर से हताश होकर शरण बनाया- मीना की स्मृतियों के ‘ताज’ इस मीनानिवास को। यहाँ पड़े-पड़े कुरेदता रहा अतीत को, स्मृतियों के पैने नाखून से। पर अब तो वह भी भोथरा गया। मैं भी धीरे-धीरे महाशून्य की ओर अग्रसर होने लगा हूँ। इसी क्रम में रात के अन्धेरे में कई बार गया हावड़ा पुल पर, कभी उससे भी पार कर रेल की पटरियों तक, कभी डलहौजी टावर....किन्तु हर बार कोई अदृश्य शक्ति मुझे खींच कर ला-बिठा देती फिर से इसी घोसले में। मुझे धीरे-धीरे आशा बनने लगी। विश्वास जमने लगा, और समय की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे लगने लगा- एक न एक दिन तुम आओगी। जरूर आओगी, और मुझ विरही को अंगिकार करोगी। बन्द कमरों की दीवारों से उब कर कभी-कभार बाहर निकलता हूँ। परन्तु बाहरी बातावरण काटखाने को दौड़ता है। लोग मुझे पागल समझते हैं। ’-फिर मुस्कुराते हुये कमल ने कहा- ‘हाँ, पागल ही तो हूँ। लोग दिमाग के पागल होते हैं। मैं दिल का पागल हूँ। पर आज मेरा पागलपन दफा हो गया। अब मुझे कोई पागल कैसे कह सकता है? मजनू पागल ही तो था? महिवाल पागल ही तो था? किन्तु आज मेरी लैला, मेरी सोनी, मेरी मीना मुझे मिल गयी है; तब मैं पागल कैसे रह सकता हूँ? ’

ताला खुल चुका था। दरवाजा खुलते ही अजीब सी बदबू का भभाका अन्दर से आकर, कमरे में प्रवेश किया, और विवश कर दिया उपस्थित लोगों को नाक पर अंगुलियाँ रखने को।

‘तुम इनलोगों के स्नान-ध्यान का प्रबन्ध करो। मैं तब तक नीचे के कमरों का निरीक्षण करती हूँ। तुम इस कमरे के आलमीरे और बक्से मात्र को ही सम्पत्ति समझ रहे थे। तुम्हें याद नहीं इसके निचले भाग में एक छोटा सा तहखाना भी हैं- जहाँ पुरानी जमींदारी का अपार वैभव सुरक्षित है।’-भीतर कमरे में प्रवेश करती हुयी मीना बोली।