पुनर्भव / भाग-22 / कमलेश पुण्यार्क

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खुशियों की नींद को सबके पलकों से खदेड़ कर प्रभात ने अपने आने की सूचना दी। मीना निवास में स्वर्णिम प्रभात का उदय हुआ। सुबह से ही चहल-पहल होने लगी। मीना अपने दौलत का पिटरा खोली, और साथ ही खुल गया धूम-धड़ाके से मीना निवास का भाग्य-पट। नौकर-चाकर, राजमिस्त्री, मजदूर, माली, भंगी, भिस्ती सबकी बहाली होने लगी। लोग आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे- प्रेम-प्रसाद के खण्डहर का जीर्णोद्धार होता हुआ। किसी ने कल्पना भी न की होगी कि फिर कभी इस भूतही हवेली में मानव के मधुर स्वर सुनाई पड़ेंगे।

मीना के कहने पर उपाध्यायजी ने स्वयं जाकर चितरंजन एभेन्यू स्थित ‘सन्मार्ग दैनिक’ के कार्यालय में सम्पादक से मिलकर इस अद्भुत घटना का वर्णन किया। नतीजा यह हुआ कि दोपहर होते-होते पत्रकारों का हुजूम आ जुटा मीनानिवास में। आकाशवाणी कलकत्ता ने एक विशेष कार्यक्रम का प्रसारण भी किया, इनलोगों के ‘इन्टरभ्यू’ का।

कमल और मीना यादों को कुरेद-कुरेद कर अपने पुराने परिचितों की नामावली तैयार करने लगे। दस दिनों बाद का एक बढि़या विवाह-मुहुर्त निश्चित किया गया।

मिस्टर चोपड़ा को वापस भेज दिया डॉ.हिमांशु ने- घर से लोगों को लिवा लाने के लिए। डॉ.खन्ना भी तैयार हुए जाने के लिए, इस विचार से कि विवाहोत्सव के दिन वापस आ जायेंगे; किन्तु मीना ने जिद्द करके रोक लिया उन्हें। फलतः यहाँ की स्थिति से ट्रंककॉल द्वारा अवगत कराया गया जशपुर वासियों को। विमल के दोनों भाइयों को भी सूचना दे दी गयी। पदारथ ओझा को भी आवश्यक ही समझा गया इस अवसर पर उपस्थित होना। दो-चार अन्य व्यक्तियों को भी सूचित किया उपाध्यायजी ने। डॉ.सेन से विशेष आग्रह किया गया अद्भुत विवाह में शामिल होने के लिए।

सबके सब जुट पड़े नूतन उत्साह से मीना-मीरा के परिणय-प्रासाद की सजावट में।

इधर रवि-शशि को भी शायद जल्दबाजी हो गयी। फलतः सूर्योदय और चन्द्रोदय भी जल्दी-जल्दी होने लगा। और जब प्रकृति ही साथ देने लगे, तब दस दिन गुजरने में दस दिन थोड़े जो लगते हैं! खुशियों के सुहाने सफर में किसी को पता ही नहीं चला कि समय कैसे उड़ गया कपूर की तरह।

इलाहाबाद से मीरा(ममता)की माँ के साथ अन्य कई परिवार भी आ गये। प्रीतमपुर से विमल के दोनों भाई सपत्निक पधारे। शक्ति के वगैर शिव अस्तित्त्व- हीन हैं। अतः सविता सहित उपस्थित हुये पदारथ ओझा भी। बेटी के मधुर परिणयोत्सव पर चूकते भी तो कैसे? जशपुर से डॉ.सेन भी आ गये। सूचना तो तिवारीजी दोनों बहनों को भी दिये ही थे, किन्तु न जाने क्यों कोई आया नहीं। खैर जितने आ गये, वे ही कम नहीं थे। मीना निवास ऊपर से नीचे तक खचाखच भर गया आगन्तुकों से।

आज सुबह में ही कई कनात गड़ गये, मीनानिवास के विस्तृत लॉन में।

रात्रि-प्रहरी- चारो भेपरलाइट भी नया चोंगा पहन कर खड़े हो गये अपने पूर्व स्थान पर। न्योनसाइनबॉक्स भी टंग ही गया होता, पर इस कारण नहीं टंग पाया कि मीना किंचित परिवर्तन युक्त बॉक्स बनवा लायी थी- ‘कमल-निवास’ जो कि कमल को कतई अच्छा न लगा। दुबारा ऑडर दिया गया ‘मीना-निवास’ का बॉक्स अभी तक बन कर आ न पाया। हो सकता है शाम तक आ ही जाय।

कनातों में- हलवाइयों और बैरा-बटलर की जमात है, तो किसी में तवायफों की जमघट। कहीं भोजन व्यवस्था हो रही है, तो कहीं विवाह मंडप और वेदी सज रही है। किसी में स्थानीय इष्ट मित्रों की जमात बैठी है, तो किसी में मधुर बंगीय गीतों की तैयारी में सजती बंग-बालायें थिरक रही हैं।

ढेर सारे गहने बनवाये गये हैं मीना और मीरा के लिये। कपड़ो का अम्बार लगा है, मानों वस्त्रोद्योग की प्रदर्शनी लगी हो। इन सबकी व्यवस्था में मुख्य योगदान मीना का ही है। कुछ सहयोग दिया है उपाध्यायजी ने और कुछ डॉ.भट्टाचार्या ने भी। पदारथ ओझा भी अपने औकाद भर कुछ तोहफा लाये ही हैं।

आज ही रात्रि के मघ्य प्रहर में परिणय के चार प्रहरियों का मिलन होने वाला है। विमल तो ‘विमल’ है ही, साज-सज्जा ने जीर्ण मीना निवास के साथ-साथ कमल को भी मानों सत्रह बर्ष पीछे खींच लाया है। क्यों न खींच लाये? ‘कमल’ ही तो वास्तव में ‘मीना’ का निवास है।

और ऐसे अवसर पर ही खिंचा चला आया एक और चार सदस्यीय शिष्ट- मण्डल- इस मनोरम वातावरण में कुछ अशिष्टता प्रकट करने- सियालदह-जम्बू-तवई एक्सप्रेस से सफर करते हुये।

उधर सूर्य गये अस्ताचल, इधर उदित हुयी एक टैक्सी- मीनानिवास के गेट

पर। उससे ऊतरी दो महिलायें- एक किशोरी, एक युवती; और साथ ही एक युवक, एक प्रौढ़ भी।

गेट पर उपस्थित प्रहरी से कुछ अता-पता पूछा, और फिर पहुँच गये सीधे, सामने की सीढि़यों से ऊपर बैठक में।

मीना और मीरा वहीं बैठी गप मार रही थी। एक दूसरे पर चुहलबाजी कर रही थी। तभी नवागन्तुकों के पदचाप से निगाहें जा लगी दरवाजे से, जहाँ पहुँचकर पदचाप अचानक थम गया था- सडेन ब्रेक लगी गाड़ी की तरह। एक साथ चार आँखें बड़े तीखेपन से निहारने लगी थी इन रमणियों को। अभी वह कुछ पूछना ही चाहती थी कि नवीन किशोरी के मुंह से थर्रायी हुयी आवाज निकली- ‘कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूँ? ’ और बगल खड़ी युवती का मुंह निहारने लगी।

हड़बड़ाकर दोनों बहनें उठ खड़ी हुयी।

‘आप कौन हैं? किसे ढूढ़ रही हैं? ’- एक साथ दोनों बहनों के मुंह से निकल पड़ा।

‘जिसे ढूढ़ रही हूँ, वह तो न मिला, पर मिल गयी एक नागिन- अपने दो आकृतियों में। ’- कहती हुयी किशोरी पांव पटकती, दो कदम पीछे हटकर, बालकनी में चली गयी, जहाँ दोनों नवागन्तुक पुरुष खड़े थे।

किशोरी के पीछे पलटते के साथ ही युवक ने पूछा- ‘क्यों क्या हुआ आयी इतने उत्साह से, और यहाँ आते ही सारा जोश ठंढा पड़ गया- कोकोकोला के गैस की तरह? ’

‘हुआ क्या, कुछ नहीं। चलो वापस। ’-पांव पटकती, तीव्र श्वांस छोड़ती, क्रोध में आँखें पटपटाती हुयी किशोरी ने कहा।

साथ की युवती अभी भी खड़ी थी- चित्रलिखित की तरह, बैठक के द्वार पर ही, और भीतर खड़ी दोनों बहनें उसे देखे जा रही थी- जिन्हें अभी-अभी नागिन का खिताब मिला था, नव किशोरी द्वारा- साहस कर पूछ बैठी- ‘कौन हैं आप? बतलाये नहीं। ’

‘मैं...ऽ...ऽ...मैं...। ’- हकलाती हुयी सी युवती बोली- ‘तुम...तुम मीना हो... मीना हो तुम...यह कौन हैं? ’- इशारा मीरा की ओर था। युवती पत्ते सा कांप रही थी, न जाने क्यों।

तभी भीतर के दरवाजे से कमल ने प्रवेश किया।

‘अरे तुमलोग यहीं हो? बापू कहाँ हैं? ’ और कमरे के मध्य तक पहुँचते के साथ ही निगाहें खिंच गयी बाहरी दरवाजे पर, जहाँ एक हाथ से परदा पकड़े युवती खड़ी थी। उसे देखते ही हठात् निकल पड़ा कमल के मुंह से- ‘अरे मैना! तुम यहाँ कैसे? ’

‘हाँ भैया! मैं ही हूँ, पर अकेली नहीं...। ’- कहती हुयी झपट कर लिपट पड़ी कमल के गले से। उसकी आँखों से अश्रुधार अनवरत प्रवाहित होकर, कमल के स्कन्ध को प्रक्षालित करने लगे। लम्बे अन्तराल के बाद आज भाई-बहन का मिलन हुआ। नदी के दो पाटों के बीच, जहाँ पवित्र प्रेम का अथाह जल प्रवाहित होता था, परिस्थिति ने सुखाड़ ला दिया था। परन्तु आज अचानक कल्याणकारी शिव-जटा की राह भूल, सुर-सरिता इधर ही उमड़ आयी। सुमधुर प्रेम-नीर ने आप्लावित कर दिया दोनों दिलों को।

‘...साथ में भाभी भी हैं। ’-अलग होती हुयी मैना ने कहा।

‘भाभी! कौन भाभी? ’-साश्चर्य पूछा कमल ने, और बाहर झांककर देखना चाहा,

जहाँ परदे की ओट में बाकी लोग खड़े थे।

‘मेरी भाभी..जो तुम्हारी अपनी..। ’-मैना ने उत्साह से कहा- ‘शक्ति भाभी। ’

‘शक्ति? क्या कहा- शक्ति? वाह! विधाता भी विचित्र है। खोया तो सबको, पाया तो....। ’- कहता हुआ कमल बाहर निकल, बालकनी में आ गया, जहाँ शक्ति सिर झुकाये, दीवार का टेका लगाये, खड़ी थी। पीछे से मैना, मीरा और मीना भी आ गयी।

कमल कुछ पल तक शक्ति की झुकी पलकों में झांकने का प्रयास करता रहा। शक्ति- वही शक्ति जिसकी हथेली की रेखाओं में एक दिन खो सा गया था कमल...जिसे बड़े खानदान की बहू होने की, सुखमय दाम्पत्य की स्वामिनी होने की भविष्यवाणी की थी कमल ने...जिसे बर्षों बाद काले सलवार-कुरते में देख कर अनदेखा किया था कमल ने...इस अनदेखे में ही, वगैर चाहत के ही वह चली आयी थी- एकदिन उसकी सर्वेश्वरी बनकर।

त्रेता की तरह ही कलिकाल में भी, वचन का कठोरता पूर्वक निर्वाह हुआ था; और फिर उस निर्वाह ने ही अभागे का जीवन तबाह कर दिया था।

शादी- कमल और शक्ति की शादी- मीना के हृदय में ‘शाद’ के वजाय अवशाद पैदा कर दिया था, और आवेश में आकर, जीवन से- अपने प्यार से निराश होकर मीना ने आत्महत्या कर ली थी। मीना के बाद कमल का प्रेम शक्ति में ही लय हो जाना चाहा था। शक्ति के प्यार के मरहम से मीना के गम के गहरे घाव को भरने का प्रयास किया था कमल ने; किन्तु इसी बीच एक दिन मीना की चिट्ठियाँ और तस्वीरें कमल के गुप्त बक्से से निकल कर कमल के बेवफाई का सबूत पेश कर दी थी, और सौत की अग्नि में दग्ध शक्ति ने सिर पटक-पटककर दम तोड़ दिया था।

आज काल ने करवट बदला है। सृष्टि की सारी शक्तियाँ, सारे श्रम- लगता है कि पुनर्निमाण- पुनर्जन्म में समाहित होने लगी है। एक दिन सब चली गयी थी। कमल के हृदय में बना प्रेम का नाट्यमंच सूना पड़ गया था। आज नियंता ने, रचयिता ने, स्रजक ने दया के नेत्र खोल, अमृत-वर्षण किया है। मीना आयी। मीरा आयी। फिर शक्ति क्यों न आती? वह भी चली आयी। साथ में लेती आयी-मुंहबोली बहन मैना को भी, जो किसी जमाने में कमल की राजदार हुआ करती थी। अपने दिल की बातें थोड़ी-बहुत इसे ही तो सुनाया करता था कमल।

प्रकृति भी विचित्र है। त्रिगुणात्मक सृष्टि- सत्त्व-रज-तम का सम्यक् संतुलित समावेश। तीनों स्वतन्त्र, तीनों ही परतन्त्र भी। तीनों ही अवलम्बित। तीनों निरावल्म्ब। जिनका अलग-अलग रूपों में फिर से आविर्भाव हुआ है आज- अलग-अलग प्रदेशों में। पर आज समस्या है कमल के सामने- किसे कौन सा पद प्रदान करे!

खैर, मीरा की समस्या तो टल गयी। विमल के गले में उसे लटका दिया गया- मीना की स्मृतियों का ‘लोलक’ बना कर। परन्तु शक्ति? इसका क्या समाधान है? क्या होगा शक्ति का? क्यों कि शक्ति ‘शक्ति’ है- कमल की आह्लादिनी शक्ति। किन्तु अफसोस! विधाता ने इसके स्वभाव-सृजन में ‘तम’ का मिश्रण कुछ अधिक ही कर दिया है शायद।

आत्महत्या मीना ने की थी। शक्ति ने भी। किन्तु काफी अन्तर है, दोनों की आत्महत्याओं में। नैराश्य-जलद-आच्छादित निष्कलुष मीना ने- कुंआरी मीना ने अपने को अस्तित्त्व विहीन समझकर प्राणत्याग कर दिया; किन्तु शक्ति? शक्ति को तो वह सारा कुछ मिल रहा था, मिल गया था, मिला हुआ था- जो एक नारी को चहिये। जो एक पत्नी को चाहिये। अपने प्रेम-घट का सारा अमृत शक्ति के हृदय में उढेल दिया था कमल ने। शक्ति के प्रति उसे अपरिमित प्रेम था। अकूत स्नेह था। सहानुभूति भी थी। कर्त्तव्य बोध भी था।

परन्तु इन सबका जरा भी कदर कहाँ कर पायी शक्ति?

उसकी एक भूल- छोटी सी भूल- कुंआरेपन के प्यार की भूल, जिसके एहसानों तले दबा हुआ था बेचारा। यदि उसके निधन का गम, विछोह की व्यथा-थी ही तो कौन सी गलती थी? शक्ति को अपना पद सुरक्षित रूप से मिल ही चुका, फिर भी जीवन भर एक जीवन-हीन तथाकथित सौत की कब्र खोदती रही, और अन्त में उस ईर्ष्या के कब्र में स्वयं भी दफन हो गयी, साथ ही दफन कर गयी- अभागे कमल की सुख-शान्ति-चैन।

आज वही शक्ति कमल के सामने खड़ी है- पलकें झुकाये, अपने नये कलेवर में, नये रूप में। नवीनता ने कुछ और ही परिवर्तन ला दिया है। परिष्कार ला दिया है उसके रूपश्री में। शक्ति के सौन्दर्य के सामने मीरा और मीना की तुलना चाँद और खद्योत की तुलना होगी।

कमल खड़ा है- कुछ चिन्तित मुद्रा में शक्ति के सामने एक अपराधी की तरह। इसके प्रेम की न्यायालय में शक्ति उस बार भी देर से पहुँची थी, और आज भी। मीना और मीरा की तरह शक्ति भी दौड़कर लिपटी नहीं कमल से...चिपटी नहीं...रोयी भी नहीं...चूमी भी नहीं। रोयी, मगर आँखों ही आँखों में, जिससे बहने वाले आँसू कपोलों पर आने के बजाय भीतर- प्रकृति के पम्प की ओर चले गये। उसकी धमनियों ने रक्ताल्पता महसूस की। फलतः ग्लूकोज-स्लाइन के अभाव की पूर्ति इन आँसु ने किया।

सामने खड़ा कमल अतीत और वर्तमान के महासागर में ऊब-चूब हो रहा था।

मौन के प्रशान्त-जल में प्रश्न की कंकड़ी फेंकी युवक ने- ‘आप ही हैं कमल भट्ट? ’

‘जी हाँ। आपका शुभ नाम? ’-जवाब के साथ सवाल भी किया कमल ने नजरें उठाते हुये।

‘जी, मेरा नाम मृत्युंजय पाण्डेय है। श्रीनगर का रहने वाला हूँ। आप हैं मेरे डैडी श्रीधर पाण्डेय, और यह है मेरी छोटी बहन शक्ति। ’- युवक ने परिचय दिया।

कमल ने हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया।

‘आपलोग यहाँ क्यों खड़े हैं? आइये अन्दर, बैठिये। ’-कहा कमल ने, और परदा सरका कर बैठक में आ गया। पीछे से वे सब भी चले। शक्ति ठिठकी रही क्षणभर।

‘शक्ति! क्या सोच रही हो? चलो अन्दर। ’-युवक ने कहा, तो धीरे से कदम बढ़ा दी। पलकें अभी भी झुकी ही हुयी थी। मुख-प्रसून अभी भी कुम्हलाया हुआ ही था। अन्दर आ सभी बैठ गये- सोफे, पलंग, कुर्सी आदि पर यथास्थान। मीरा भीतर वरामदे की ओर चली गयी, शायद उनलोगों के स्वागतार्थ सामग्री जुटाने।

इत्मीनान से बैठते हुये श्रीधर पाण्डे ने पूछा- ‘आप पहचानते हैं इस लड़की को ? ’

‘जी? ’-थोड़ी देर चुप रह कर कमल ने कहा-‘जी, मैं इस लड़की को तो नहीं पहचानता...। ’

कमल का जवाब सुन चौंक पड़ी शक्ति। उसका वदन एक बार कांप सा उठा, जिसका अनुभव बगल में बैठी मैना ने भी किया, और सबकी निगाहें ऊपर उठ, जा लगी कमल की ओर।

‘...मगर, इस रूप को अवश्य पहचानता हूँ। ’-कमल ने अपना वाक्य पूरा किया।

‘मतलब? ’- आश्चर्यचकित श्रीधर पांडे ने पूछा।

‘मतलब यह कि किसी जमाने में इसी रूप-रंग की मेरी पत्नी रही थी, जिसका नाम भी शक्ति था। शक्ति भट्ट। कलकत्ते के ही देवकान्त भट्ट की पुत्री थी वह। ’- कमल के इस कथन से कुछ राहत महसूस हुयी शक्ति को, साथ ही मैना को भी।

‘थी, यानी आज नहीं है? ’- पूछा युवक मृत्युंजय ने।

‘मैंने कहा न- किसी समय में वह रही थी मेरी पत्नी। उसे गुजरे तो सोलह साल हो गये। ’-कमल ने उदास सा मुंह बनाकर कहा।

‘फिर आपने शादी कब की? ’-मृत्युंजय ने पुनः प्रश्न किया।

‘शादी? शादी कहाँ की मैंने तब से? ’-चौंकता हुआ सा कमल बोला।

‘ये? ’- इशारा मीना की ओर था- ‘आपकी मिसेस हैं न? ’

‘जी, अभी तक तो ये मिस मीना हैं। आज ही कुछ देर बाद मिसेस भट्ट हो जाने की बात थी। मगर, अब लगता है......। ’- कहता हुआ कमल एकाएक चुप हो गया। बगल की कुर्सी पर बैठी मीना भी चौंक उठी। उसे लगा कि उसकी सजी-सजायी गृहस्थी फिर से ध्वस्त होने जा रही है, शक्ति के संघातिक आणविक प्रहार से।

आगे की कार्य व्यवस्था समझने के लिए कमल को ढूढ़ते हुये, विमल ऊपर आया बैठक में। थोड़ी देर में उपाध्यायजी और डॉ.खन्ना भी आ गये।

तिवारी और ओझाजी तो ऊपर मंजिल में थे ही। लगभग सभी मुख्य लोगों की जमात फिर बैठ गयी।

‘कृपया स्पष्ट शब्दों में कहें मिस्टर कमल। यह पहेली क्या बुझा रहे हैं? हम स्वयं ही परिस्थिति के मारे हुये हैं। यह लक्षणा-व्यंजना मुझे समझ नहीं आ रहा है। ’- सानुनय कहा श्रीधर पाण्डेय ने।

‘पहले मैं आपकी आपबीती तो जान लूँ। यहाँ बैठे अन्य लोग भी अचानक की उपस्थिति पर उत्सुक हैं। ’- सबकी ओर इशारा करते हुये कहा कमल ने- ‘क्या मीना और मीरा के साथ शक्ति भी पुनर्जन्म धारण कर ली और मेरी शक्ति की परीक्षा लेने चली आयी? कृपया आप मेरी शंका का समाधान करें पहले। ’

‘क्या कहा भैया! मीना का पुनर्जन्म? ’-आश्चर्य चकित मैना मीना को देखने लगी।

कमल गम्भीर सा भाव बनाये हुये, कुछ देर मौन रहा। अन्य लोग भी कमल की ओर घ्यान लगाये हुये थे-

‘हाँ मैना। यह जो मीना है, वह मीना नहीं-जिसे तुम समझ रही हो। तुम जानती ही हो कि वह बेचारी....। ’-कमल ने मैना की शंका दूर की।

‘हाँ, सो तो मालूम ही है। मैं तब से यही सोच रही हूँ कि यह क्या मामला है? और वह जो अभी-अभी साथ में खड़ी थी? ’- मैना कह ही रही थी कि मीरा आ उपस्थित हुयी, नौकरानी के साथ- जिसके हाथ में नास्ते का ट्रे था।

‘यह? ’- कमल ने कहा मीरा की ओर इशारा करके- ‘यह तो मीरा है, हमारी ‘उस’ मीना की मौसेरी बहन, किन्तु अब तो ममता है- डॉ.भट्टाचार्या की पुत्री। लगता है मेरा मकान पुनर्जन्मधारियों का अखाड़ा बन गया है, और इस बात का आश्चर्य है कि सभी पहलवानों से मुझ अकेले को ही भिड़ना है। ’

‘अब तो मुझे भी शामिल कर ही लिए इस विचित्र अखाड़े में। ’-हँसता हुआ विमल बोला- ‘एक से तो मैं निबट ही लूँगा। ’

विमल की बात पर उपाध्यायजी मुस्कुरा दिये। मीना सिर झुका कर होठों में ही कैद रखी मुस्कुराहट को। मीरा शरमा कर बाहर झांकने लगी।

‘नास्ता कीजिये। बातें भी होती रहें। ’- तिवारीजी ने कहा, और ओझाजी की ओर देखने लगे, जो बार-बार उन्हें कुरेद रहे थे- कुछ कहने के लिए।

नास्ता शुरू करते हुये श्रीघरजी ने कहना प्रारम्भ किया-‘शक्ति मेरी एक मात्र पुत्री है। बच्चे कई हुए, पर वे सब मेरे भाग्य के हिस्से न थे। मुझे मिला मात्र एक लड़का और एक लड़की। दयावान भगवान ने बहुत कुछ दिया है। करोड़ों क्या अरबों का कारोबार है, पर सुख नहीं। एक लड़का है- सो ब्लडकैंसर का मरीज। देश से सुदूर विदेश तक चक्कर मार आया, पर सफलता कोसों दूर। बस, बैठे-बैठे इसके वय की उलटी गिनती गिन रहा हूँ। भगवान से मना रहा हूँ कि इससे पहले मेरी ही अर्जी मंजूर कर ली जाय। अभी तक शादी भी नहीं किया हूँ इसकी। दरवाजे पर बाजे बजता सुनने के लिए मन अधीर रहता है, पर भाग्य के नगाड़े स्वयं बज रहे हैं। सोचा था- इस बर्ष शक्ति बेटी की शादी कर अपना शौक पूरा करूँगा। हालांकि अभी इसकी उम्र ही क्या है- बामुश्किल चौदह....। ’

जरा ठहर, पानी का घूंट भरकर पांडेजी ने आगे कहना शुरू किया- ‘...बड़े घर की बेटी है न। पढ़ाई-लिखाई में मन तो लगता नहीं। कैम्ब्रीज के चौखट पर आकर बैठ गयी है। इसे चाहिये सारा दिन पेंटिंग, फोटोग्राफी, स्वीमिंग, स्केटिंग...। कितनी बार समझाया-बुझाया, पर सब बेअसर....। ’

पांडेजी अपनी लाडली बेटी के स्वभाव की बखिया उघेड़ ही रहे थे, कि बीच में ही विमल बोल पड़ा- ‘हॉबी तो हाबी होने लायक है। ’

बैठक में बैठे लोग हँस पड़े विमल की बात पर। शक्ति की पलकें क्रोध और शर्म से थोड़ी और झुक आयी।

‘....इतना ही नहीं, एक और भूत सवार है- मेरी बेटी पर- बम्बईया भूत। इसी माह फॉर्म भरी है। ’- पाण्डेयजी कह ही रहे थे कि विमल ने पुनः टिप्पणी की- ‘ओह! क्यों नहीं, फिल्म-तारिका बनने का ख्वाब देखे आपकी शक्ति! दैवी शक्ति ने अपनी सारी शक्ति जो लगा दी है इसके रूप को सजाने-संवारने में। घर की बहू को कितने लोग देखेंगे? हिरोइनों को तो पूरी दुनियाँ देखने को व्याकुल रहती है। ’

विमल की बात पर शक्ति की पलकें ऊपर खिंच गयी, साथ ही गर्दन भी जिराफ की तरह तन गया। पैनी निगाहों से विमल की ओर देखी, फिर कमल को भी। बगल में बैठे मृत्युंजय की आँखें सुर्ख हो आयी।

‘हाँ बेटे! ठीक कह रहे हो। ’- स्वीकारात्मक सिर हिलाया पांडेजी ने- ‘नीतिकारों ने कहा है-

‘‘भार्यारूपवती शत्रुः, पुत्रः शत्रुरपंडितः। ऋणकर्त्ता पिता शत्रुः, माता च व्यभिचारिणी। । ’’ किन्तु मेरे लिए इस सिद्धान्त में किंचित परिवर्तन हो गया है। भार्या तो काफी सुन्दर थी, परन्तु कभी चिन्ता न हुयी। उसके पथभ्रष्टता का भय कभी न सताया, पर पुत्री के रूप ने तो आँखों की नींद चुरा ली है। ‘‘पुत्री रूपवती शत्रुः, स च शत्रुरपंडितः। ’’ की स्थिति हो गयी है मेरी....। ’

तुनकती हुयी शक्ति इस बार पिता की ओर टेढ़ी दृष्टि डाली। पांडेजी की

तुकबन्दी गम्भीर वातावरण को भी गुदगुदा गयी। उनका वक्तव्य जारी रहा- ‘...मेरी अन्तर्व्यथा आपलोग स्वयं समझ सकते ह®। मृत्युंजय मृत्यु से जूझ रहा है, और शक्ति शक्तिहीन हो गयी है- वुद्धि-विवेक हीन। कितनी बार समझाया इसे, किन्तु इसके लिए तो ‘विद्याधनं सर्वधनं प्रधानं का उपदेश’ ‘परोपदेशेपाण्डित्यं’ का करारा जवाब सुना जाता है। कहती है- ‘‘डैडी आप तो बिना पढ़े-लिखे इतना बड़ा व्यवसाय चला रहे हैं। पढ़ाई का इतना ही महत्त्व है, तो आपको भी पढ़ना चहिए था। पढ़ाई का उद्देश्य है- ज्ञान, सो यदि मुझे पढ़े वगैर ही मिल जाय, तो फिर पढ़ने की क्या जरूरत? अभिनय और फोटोग्राफी क्या ज्ञान नहीं है’’

पांडेजी की बात पर विमल ने फिर कहा- ‘हाँ पांडेजी, आपकी शक्ति लगता है अभिमन्यु की तरह गर्भगत ज्ञानार्जन कर आयी है। ’

शक्ति कुंढ़ उठी विमल की बात पर। जी चाहा कि उठ कर उसका मुंह नोच ले, जो बारम्बार पिता की सूत्रों का भाष्य करता जा रहा था।

डदास, मुंह बनाये पांडेजी ने कहा- ‘इसीलिए तो अभिमन्यु से भी कम ही वय में त्यागना चाह रही है मुझ अर्जुन को। अब जरा सोचो बेटे! इस मूर्खा को क्या समझाऊँ, जिसे ‘ज्ञान’ शब्द के अर्थ का भी ज्ञान नहीं है। मैं मानता हूँ कि स्वयं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, किन्तु बचपन में ही कान पकड़कर दादाजी ने ‘हितोपदेश’ और ‘अमरकोष’ जो रटा दिये हैं, उतने में तो इसकी नानी मर जायेगी। ’

‘वह तो कब की मर चुकी। ’ शक्ति भुनभुनायी, और मैना का हाथ पकड़कर बाहर निकल गयी बालकनी में- ‘ये खूसट बुड्ढाऽ...ऽ मेरा सर चाट जायेगा। ’

‘क्यों नाराज होती हो भाभी आखिर तो तुम्हारे पिता हैं। वृद्ध हैं। अपने दिल का दर्द निकाल रहे हैं। ’-कहा मैना ने बाहर आने पर।

‘खाक निकाल रहे हैं दिल का दर्द। मेरे दिल का दर्द देखने वाला है कोई? ओफ! छाती फटी जा रही है। दम घुट रहा है। ’- लम्बी सांस खींचती हुयी शक्ति, दांत पीसने लगी। फिर दीर्घ उच्छ्वास छोड़ती हुयी बोली- ‘तुम्हें भी बरज देती हूँ- अब से मुझे भाभी न कहना। मेरे भाग्य में तुम्हारी भाभी कहलाना नहीं लिखा है। उस चुड़ैल ने प्रतिज्ञा की थी- जन्म-जन्मान्तर तक साथ न छोड़ने की, और साथ ही शायद यह भी प्रतिज्ञा की होगी- पतीली में रेत डालकर मेरे भाग्य को भुट्टे सा भूनने की...। ’

शक्ति के दांत क्रोध से कटकटा रहे थे। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। जरा दम लेकर बोली- ‘...तुझे याद है न, पढ़ी थी न वह डायरी, अपने भैया वाली.जो बक्से से निकली थी, इस नागिन मीना की तस्वीर के साथ? ’

मैना अपने याददास्त पर बल लगाती, तर्जनी अंगुली से कनपट्टी ठोंकती हुयी बोली- ‘ओफ! वे सब ही तो कारण बने तुम्हारी मौत के। ’

‘वह नागिन फिर चली आयी है, अपनी प्रतिज्ञा निभाने। फेरे लगाये मैंने, और वचन निभा रही है वह। ओफ! अब मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ मैना? यह तो निश्चित है कि फिर से जान दे देना पसन्द करूंगी, पर इस बुड्ढे के साथ इसके कालेधन की स्वामिनी बनने न जाऊँगी। ब्राह्मण होकर, अस्पृश्य मदिरा का व्यापार करता है। मैं बहुत पढ़ी-लिखी नहीं हूँ; किन्तु इतना जरूर जानती हूँ कि ब्राह्मण को व्यापार नहीं करना चाहिए। अत्यन्त संकट में भी अन्य कुछ व्यापार करे तो करे, परन्तु मांस-मदिरा, दूध-दही-घी आदि का व्यापार हरगिज न करे....अच्छा हुआ मेरी स्मृति लुप्त हो गयी, पर इसे लुप्त भी कैसे कहूँ? मेरी स्थिति तो पहले से भी बदतर हो गयी। इस जन्म की बात जेहन से जा नहीं रही है, और पिछले जन्म की याद भी उभर कर ज्वालामुखी की तरह धधक रही है। न मैं मर सकती हूँ, और न जिन्दा ही रहने की स्थिति में हूँ। धोबी के कुत्ते सी मेरी हालत हो गयी है। ’- कहती हुयी शक्ति फफककर रोने लगती है। अपना सिर पीटने लगती है। केश नोचने लगती है। उसकी छाती धौंकनी की तरह चलने लगती है। आँखें अंगारे सी लाल हो आयी थी।

मैना किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रही। उसे समझ न आ रहा था कि क्या करे। उधर कमरे में उसके डैडी का प्रलाप चल रहा था। बेटी के स्वभाव का छीछालेदर हो रहा था।

डॉ.खन्ना ने पूछा- ‘मिस्टर पाण्डेय! आप यह नहीं बतलाये कि इसकी स्मृति वापस किन हालातों में आयी? ’

पाण्डेयजी ने लम्बी सांस खीची, और सोफे की पीठ से टेका लगाते हुये बोले- ‘मैंने कहा न, वह स्केटिंग और स्वीमिंग की शौकीन है। कुछ दिन पूर्व स्केटिंग में गिर गयी थी। सप्ताह भर तक अस्पताल में रही। चौबीस घंटे बाद तो होश आया था। होश में आने पर उटपटांग बकने लगी। हम सबको पहचानने से साफ इनकार कर गयी। अपना जन्म स्थान कलकत्ता बतलायी’ और पिता का नाम...भट्ट। बस एक ही रट्ट लगाये रही- ‘‘मुझे मेरे घर पहुँचा दो। ’’ खैर घर क्या पहुँचाता, पहुँचाया- मानसिक अस्पताल। काफी दिनों तक उपचार चला। देश-विदेश का चक्कर लगाया। कुछ लाभ भी मिला। पढ़ाई-लिखाई में थोड़ा मन भी लगने लगा। मैंने निश्चिन्ता की सांस ली....

‘....परन्तु मेरी शान्ति अधिक दिनों तक बरकरार न रही। लाख लानत-मलानत के बावजूद, इसकी कोई आदत में सुधार न हुआ। दिनोंदिन उदण्डता का सीमोलंघन होता रहा। फिर एक दिन मेरे सुख का सर्वनाश कर डाली। ऊपर सीढ़ी से जोर का छलांग लगायी स्वीमिंग-पोल में, और जा टकरायी बीच में बने लाइट-पोस्ट से। और फिर...। ’- सूखे अधर को जिह्ना से तर करते हुये पाण्डेयजी ने कहा- ‘फिर पोल का पानी रक्त-रंजित हो गया। साथ की सहेलियाँ शोर मचाती हुयी, कुछ तो भाग गयीं, कुछ ने इसे किसी तरह अस्पताल पहुँचाया। सतत प्रयास के बाद होश आया, पर बेहोशी से भी बदतर स्थिति में। ’

नौकरानी चाय लेआयी। सबने प्याला उठाया। कमल ने प्याला पाण्डेयजी की ओर बढ़ाया, किन्तु लेने से इनकार कर दिये- ‘ नहीं, मैं अधिक नहीं पीता। डायबीटिक हूँ। ’

‘कहिये तो वगैर चीनी के...। ’-मीना ने कहा, पर हाथ के इशारे से मना कर दिए।

‘हाँ, फिर क्या हुआ? ’- उपाध्यायजी और डॉ.खन्ना ने एक साथ पूछा।

‘उस बार तो सिर्फ नाम-धाम ही बतलायी थी। अबर तो पूरा इतिहास ही उलट गयी। ’- कहने लगे पाण्डेयजी- ‘यहाँ तक कि स्वयं को विवाहिता बतलायी- नौबतगढ़ के कमल भट्ट की पत्नी। धीरे-धीरे मेरा घर अस्पताल और श्मशान भूमि हो गया, जहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर से लेकर, नित्य नये औघड़-तांत्रिक अपनी साधना की आजमाईश करने आने लगे। इसी तरह महीनों गुजर गये, पर न तो डॉक्टर ही सफल हुए और न उतीर्ण हो पाये सिद्ध-साधक। मनोविश्लेषक पुनर्जन्म का संशय जताते, औघड़बाबा आशेवी शिकंजा कहते, तो ज्योतिषी राहु-केतु-शनि का कुचक्र बतलाते, और सबसे बड़ी बात कहते पड़ोसी टिप्पणीकार- ‘पांड़े की लाडली लड्डु लुटा रही है.....। ’महीने-दो महीने में ही कारोबार का चूल ढीला हो गया...। ’

‘...लाचार होकर कुछ शुभेच्छुओं के सुझाव पर अमल करने निकल पड़ा- विवाहिता पुत्री के वर की तलाश में। इसके ही बतलाये पते पर, पत्राचार पहले किया था; किन्तु जवाब न मिलने के कारण, स्वयं निकलना पड़ा, इसे साथ लेकर। खोजते-ढूढ़ते पहुँचा - सुदूर श्रीनगर से सीधे ‘गयाधाम’ अपने सुख-चैन का गयाश्राद्ध करने। वहाँ से वस द्वारा परसों शाम पहुँचा नौबतगढ़- जो गया से तीस-बत्तीस मील पर है। वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि आज से काफी पूर्व भट्ट परिवार यहाँ रहता जरूर था; किन्तु अब उनका कोई अता-पता नहीं। कमल भट्ट के पिता तो बहुत पहले ही गुजर चुके थे। विजली गिरने से माँ और छोटी बहन भी मर गयी। उन्हीं के श्राद्ध से निवृत्त हो, वापस जाते, वस दुर्घटना में चाचा-चाची भी चल बसे। कमल भट्ट तो अपनी पत्नी के देहान्त के बाद ही सुनते हैं पागल हो गया...। ’

‘ओफ! चाचा-चाची भी चल ही दिये। ’-अफसोस प्रकट करते हुये कहा कमल ने- ‘दरअसल इस बीच मैं सही में विक्षिप्त सा रहा। यहाँ तक कि माँ की श्राद्ध में भी उपस्थित न हो सका। बाद में तो गांव से भी पत्राचार सम्बन्ध टूट ही गया। ’ फिर इधर-उधर देख कर बोला- ‘मैना किधर गयी? ’

आवाज सुन मैना भीतर आगयी, जो शक्ति के साथ बालकनी में खड़ी थी। उसके साथ ही शक्ति भी आकर बैठ गयी बगल में ही सोफे पर।

‘चाचा-चाची की मृत्यु की सूचना भी न दी तूने मैना? ’- मैना की ओर देखते हुये कमल ने कहा।

‘सूचना! सूचना क्या देती खाक!! जब तुम अपनी माँ की श्राद्ध में ही नहीं आये, फिर चाचा-चाची का क्या? दूसरी बात यह कि उस वक्त मैं स्वयं ही सूचना देने की स्थिति में रहती तब न!’- उदास मैना ने कहा। शक्ति उसके बगल में ही सिर झुकाए बैठी रही।

‘दरअसल, जिस समय सूचना मिली थी माँ के निधन की, उस समय मैं ‘नीमतल्ला घाट’ से तुरत लौटा ही था, मीरा की अन्तेष्टि करके। तुम खुद ही सोचो, उस समय मेरी मानसिक स्थिति कैसी रही होगी? मीना गयी। शक्ति गयी। अन्त में मीरा भी चली गयी मुझे त्याग कर, फिर माँ-मुन्नी का शव ढोने की ताकत मुझमें रह ही कहाँ गयी? खैर, सो तो हुआ, पर तुम्हें क्या हुआ जो चाचा-चाची के मृत्यु की सूचना तक न दी? ’- कमल ने मैना की ओर देखते हुये पूछा।

‘हुआ क्या, समझो तो मेरा भी सर्वनाश ही हो गया- जिस बस से चाचा-चाची सफर कर रहे थे, उसी से मेरे बापू भी जा रहे थे। ’-डबडबायी आँखों से मैना ने कहा।

‘ओफ! तो तेरे बापू भी चले ही गये, फिर तुम्हारी शादी-वादी? ’

‘वर तो बापू ने ढूढ़ ही रखा था। पर बहुत बड़ी चूक हो गयी- गंवार बिटिया के लिए दामाद ढूढ़े कौलेजिया। ’ कहती हुयी मैना ठहर गयी।

‘फिर? ’-पूछा कमल ने और विमल की ओर देखते हुए बोला-‘विमल भाई! जरा नीचे जाकर देख तो आओ एक चक्कर लगाकर- व्यवस्था सब ठीक-ठाक चल रही है न मेहमानों की? और हाँ स्पीकर क्यों बन्द हो गया? ’

‘मैंने ही बन्द करवा दी है। ’-कहा मीना ने, और विमल को साथ ले कर बाहर चल दी। बाहर बालकनी तक जाकर विमल के कान में धीरे से कुछ बोली, और फिर वापस आकर बैठ गयी वहीं।

‘हाँ फिर? ’-कमल मुखातिब हुआ मैना की ओर।

‘फिर क्या, कॉलेजियट को हवा लग गयी- परियों की। चाचा ने धूम-धाम से शादी की। शादी में सप्ताह भर ससुराल रहकर आयी। छः महीनें बाद गौना का दिन रखाया, पर गौना कराकर लेआये पति महाशय किसी और को। मुझे एक लम्बा सा पत्र भेज दिये, जिसे मंगलसूत्र की तरह सहेजे रही बहुत दिनों तक। ग्रामीण प्रतिष्ठा पर कीचड़ उछाले जाने के प्रकोप से बचने के लिए स्वसुर जी मुझे लिवाजाने को तत्पर हुये; किन्तु ‘पुत्र-दण्ड’-प्रहार स्वरूप घुटना-भंग के कारण आजतक मैं पड़ी रही मैके की ड्योढ़ी पर नौबतगढ़ में ही। ससुराल जा पति-सुख भोगने की नौबत ही न आयी। ’- कहती हुयी मैना की आँखों से अश्रुधार निकल कर कपोलों पर लुढ़क आये, जिन्हें आंचल की छोर में छिपाने का असफल प्रयास करती हुयी, बोली- ‘बड़ी इच्छा थी तुमसे मिलने की, पर चाहकर भी पत्र न लिख पायी। सोची- पता नहीं तुम कहाँ-किस हाल में हो...। ’

‘मैं और कहाँ रहूँगा? क्या करूँगा? बस तब से यहीं पड़ा हुआ हूँ। मीनानिवास को छोड़कर और जाही कहाँ सकता हूँ? अतीत को उकेर रहा हूँ...यहीं बैठे-बैठे...। ’- कमल ने कहा।