पुनर्भव / भाग-23 / कमलेश पुण्यार्क
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‘...अभी अचानक परसों शाम, ये लोग पहुँचे। गांव वालों से जानकारी मिल ही चुकी थी सारी स्थिति की। फिर भी शक्ति आयी मेरे दरवाजे पर। मैं उस समय बाहर ही बैठी थी। ये तो देखते ही लिपट पड़ी मुझसे- ‘मैना दीदी’ कहती हुयी। मैं अवाक रही। अधिक अन्धेरा होता तो भूत-भूत कह कर चीख उठती। पर न तो अन्धेरा था, और यह अकेली। फिर इसने आपबीती सुनाते हुये, मेरे रगों में भी भैया-भाभी के मधुर प्यार का सोता बहा गयी, जिस सोते में काल की मोटी काइयाँ पड़ गयी थी। विचार हुआ क्यों न चल कर मैं भी पता लगाऊँ तुम्हारा। यही सोच घर से चली थी कि भाभी मिल गयी, तो भैया को ढूढ़ ही लूंगी...। ’-मैना कह रही थी।
मैना की बातों के बीच में ही टांग अड़ाते हुये, देर से चुप बैठे ओझा जी बोल उठे- ‘आँख मिचौली के खेल में बच्चे दौड़ कर धूहा छूते हैं। जो पहले
पहुँचता है, उसकी ही जीत होती है। मीना बेटी जब पहले पहुँच चुकी है, फिर और
का सवाल ही कहाँ उठता है? ’
ओेझाजी का कथन तो सही था, पर कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि उपस्थित लोगों को कुछ अटपटा सा लगा। बेचारी मैना की तो बोलती ही बन्द हो गयी। अवाक् दृष्टि जा लगी कमल से।
ओझाजी की बात पर तुनकते हुये मृत्युंजय ने कहा- ‘मगर शक्ति तो पूर्व की ही विवाहिता है। अतः अधिकार मीना से ज्यादा है। मीना तो सिर्फ प्रेमिका भर ही रह गयी। उसके साथ कोई वैवाहिक रस्म तो हुआ नहीं। ’
‘कमल ने अन्तिम समय में मांग भरी थी- काली-मन्दिर के प्रसाद वाले सिन्दूर से। उसने ही अग्निसंस्कार भी किया था। ’ तिवारीजी ने बड़ी नम्रता पूर्वक कहा।
‘पर इसे क्या विवाह कहा जायेगा? ’-मृत्युंजय ने व्यंग्य किया।
‘क्यों नहीं? ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्रजापत्यस्थासुरः गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोधमः। आठ प्रकार के विवाह का विधान मनुस्मृति बतलाता है। खैर अब तो ‘लव-मैरेज, कोर्ट-मैरेज’ का जमाना आ गया है। फिर इस विवाह का महत्त्व नहीं कैसे होगा? पिता ने मानसिक संकल्प कर ही रखा था। बेचारे को संयोग न मिला। पदारथ ओझा ने अपना तर्क दिया।
‘चाहे जो भी कहें, किन्तु यह तर्क से परे है कि मीना मात्र प्रेमिका है, जब कि शक्ति पत्नी। ’- मृत्युंजय ने ओझाजी की बात काट कर कहा।
‘ठीक है, प्रेमिका ही सही; किन्तु मृत्युंजय जी आप यह क्यों भूलते हैं कि अब तक की सर्वश्रेष्ट प्रेमिकाओं में राधा का स्थान है। कृष्ण की अन्तरंगाशक्ति
राधा के सामने रूक्मिणी-सत्भामादि पटरानियाँ भी फीकी ही रहीं। ’-तिवारी जी ने तर्क दिया।
‘इसका जवाब तो कृष्ण ही दे सकते हैं। राधा का महत्त्व है या कि अन्यान्य विवाहिताओं का। ’- चिढ़ते हुये मृत्युंजय ने कहा।
‘साथ ही आपको यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कृष्ण की अनन्यता राधा के प्रति देख कर, ब्रह्माजी ने आकर उनका विवाह भी कराया था। हालांकि वह युग कुछ और था। देवता सीधे मनुष्य के सम्पर्क में रहते थे। आज वैसी बात नहीं है। फिर भी इतना मान लेने में क्या आपत्ति है कि दैवी प्रेरणा स्वरूप ही तो देवी के प्रसाद स्वरूप सिन्दूर से कमल ने मीना की मांग भरी। ’- कहा ओझाजी ने, और इधर-उधर देखने लगे- लोगों के मनोंभावों को परखने के ख्याल से।
इधर मीना और शक्ति कुंढ़ रही थी। कमल का मौन दोनों को खल रहा था।
‘क्यों कमलजी! आप मौन क्यों हैं? आपही निर्णय कीजिये कुछ। वैसे भी निर्णय तो आपही को लेना है। ’- निरूत्तर होते हुये मृत्युंजय ने कहा।
‘कहना तो मुझे पड़ेगा ही; किन्तु आपलोगों की बहस में दखल देना मुझे ठीक न लग रहा था। सच पूछिये तो मैं इस विषय में निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। मीना और शक्ति मेरे दो नयनों की ज्योति स्वरूप हैं। दो बाजुओं की तरह हैं। दोनों पैरों की तरह हैं। दोनों कानों की तरह हैं। अतः मैं न तो मीना को त्याग सकता हूँ, और न शक्ति को ही। उस दिन भी जब मरणासन्न मीना मेरी बाहों में पड़ी थी, मैंने यही मांगा था- माँ काली से- माँ मुझे शक्ति दो, सहेजने की इन दोनों के प्रेम को। काश! उसी दिन यह अवसर मिल गया होता तो यह सत्रह वर्षों की विरह-ज्वाला में दग्ध होने से बच गया होता; परन्तु दैव को शायद मंजूर न था। माँ ने मेरी उस प्रार्थना पर लगता है कि आज विचार की
है। अतः माँ के आशीष को अस्वीकार कैसे कर सकता हूँ? ’- कमल मौन हो गया, इतना कह कर।
कमल की बात पर डॉ.खन्ना और डॉ.भट्टाचार्या मुस्कुराये। उपाध्यायजी चुप बैठे रहे सिर झुकाये। मृत्युंजय की आँखें कुछ और सुर्ख हो आयी।
विमल भी इस बीच नीचे से आकर मीना के बगल में बैठ गया। उसे इस अवसर पर भी चुहलबाजी सूझ रही थी, पर मीना के आँख दिखाने के कारण वह मौन रहा।
‘यह तो कोई तरीका नहीं हुआ कमलजी! स्वयं को तौल कर आप तय क्यों नहीं करते कि इनमें किनका पलड़ा भारी है? आपके इस निर्णय का तो नतीजा होगा कि एक ओर आप स्वयं परेशान होंगे, और दूसरी ओर ये दोनों सौताग्नि में झुलसती रहेंगी, क्यों कि कृष्ण वाला न ये जमाना है, और न आप कृष्ण हैं। ’- देर से मौन बैठे श्रीधर पांडे ने कहा।
‘तौलने-तौलाने की ताकत मुझमें नहीं है। यदि आप यही चाहते हैं तो फिर इसका निपटारा स्वयं शक्ति और मीना ही करें। मैं उन्हें ही अपने भाग्य का निर्णायक नियुक्त करता हूँ। ’- दोनों की ओर देखते हुये कमल बोला।
‘शक्ति दीदी का अधिकार मुझसे अधिक है। ’- मीना की कांपती हुयी आवाज निकली- ‘वे आपकी विवाहिता हैं। मैं तो ‘वाग्दत्ता’ भी नहीं। उनके और आपके पिताओं ने शपथ ली थी, सम्बन्ध करने की। उन दोनों के बाद, आपकी माताजी निभायी उनके बचनों को। मेरे पापा ने न तो वचन ही दिया था, और न शपथ ही लिए थे। हाँ इतना जरूर कहा करते थे कि कर्त्तव्य कुछ अधूरा है, उसे पूरा करना है कमल के सहयोग से- जिसे वे पूरा न कर पाये। आखिर कर्त्तव्य ‘कर्त्तव्य’ है, शपथ ‘शपथ’। कर्त्तव्य तो बहुत हुआ करता है मानव का। पर समयानुसार उसमें वह स्वयं ही संशोधन करता रहता है; किन्तु वचन और शपथ का कुछ विशेष महत्त्व है। इस स्थिति में मेरा अधिकार ही कहाँ रहा? जिसके पिता ने कर्त्तव्य ही नहीं किया, उसकी बेटी को अधिकार ही क्या? ’-कहती हुयी मीना हांफने लगी।
पदारथ ओझा भुनभुनाये, जिसे औरों ने सुना हो या नहीं, मीना ने तो सुन ही लिया - ‘अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है। न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। । ’
कुछ देर तक चुप रहने के बाद हांफती हुयी मीना पुनः कहने लगी- ‘यह सही है कि मेरे प्रेम में मदहोश होकर, मेरी आत्महत्या का स्वयं को उत्तरदायी समझकर, अपने ऊपर ओढ़े गये पाप के प्रायश्चित स्वरूप, अपनी मानसिक शान्ति के लिए आपने मेरी मांग भर दी। पर वस्तुतः यह वैदिक विवाह तो हुआ नहीं। जैसा कि अभी-अभी पदारथ काका ने तर्क दिया-आठ प्रकार बतलाया विवाह का। तो दूर न जाकर इसी सिद्धान्त पर विचार करें। जहाँ एक ओर प्रेम विवाह यानी गान्धर्व विवाह का स्थान दिया गया धर्म शास्त्र में, वहीं क्रमशः अधमाधम भी तो कहा ही गया। कहाँ ब्राह्म, कहाँ आर्ष और कहाँ तुच्छ गान्धर्व! इस दृष्टि से भी शक्ति दीदी का अधिकार और पद हमसे ऊपर है। अतः मैं यही कहूँगी कि वे पदासीन होकर अपने मौलिक अधिकार का उपभोग करें, उपयोग करें। यदि उन्हें मंजूर होगा तो मैं उनके चरणों की सेविका बनकर स्वयं को धन्य समझूंगी, और यदि वे मुझे इस योग्य भी नहीं समझतीं तो उसमें भी मुझे जरा सा अफसोस नहीं...लोगों ने मुझे प्रेमिका का दर्जा दिया। पर श्रीमानों द्वारा दिया गया यह पद मात्र शरीर के धरातल पर है, जिसे मैं इससे ऊपर उठकर आत्मिक धरातल पर, सत्त्वलोक में देखना चाहती हूँ। मीरा ने राणा को त्यागा, और प्रेम की- श्याम से। श्याम उसके पति नहीं। श्याम ने न तो फेरे ही लगाये और न मांग ही भरे,
फिर भी मीरा उनके नाम की माला जपती, जीवन धन्य कर ली। मैं भी ‘कमल’ नाम की माला जपती, जीवन गुजार दूंगी। मैंने प्रतिज्ञा की थी- जन्म-जन्मान्तर में साथ निभाने की। एक जन्म...दो जन्म...दस जन्म...हजार जन्म...कभी न कभी मीरा होकर रहेगी श्याम की...मीना होकर रहेगी कमल की। ’- हांफ-हांफकर बोलती मीना, पत्ते सा कांपने लगी।
‘बहुत हुआ...बहुत हुआ...बन्द करो अपनी बकवास। भाषण-सिद्धान्त और उपदेश सुनते-सुनते कान पक गये। ’- शक्ति फुफकार उठी एकाएक- ‘नहीं चाहिये मुझे...नहीं चाहिये ‘विषकुम्भ पयोमुखं’ कमल से विवाह कर एक बार भुगत चुकी हूँ। सौताग्नि में दग्ध होकर, झुलस-झुलसकर, तड़प-तड़पकर प्राण त्यागी हूँ। अब क्या उसी डाल को फिर से पकड़ लूँ , जिसमें सौत का ‘घुन’ लगा हुआ है? उसबार तो धोखा हुआ था- अनजान में। अब जानबूझकर कैसे सम्भव है? मुझे पत्नी का अधिकार देकर, तुम अपने को सेविका कहती हो। हुँऽह! बाज आयी ऐसी सेविका से...सम्राट अशोकवर्द्धन ने परिचारिका श्रेष्ठी तिष्यरक्षिता से ‘राश’ रचाया था, और उसका शिकार बनी.....। क्या आज मैं वैसी ही पुनरावृत्ति का अवसर पैदा करूँ? मैं पदासीन हो जाऊँ पत्नी बनकर पति के हृदसिंहासन पर, और उसके अन्दर घुस कर चुप-चुप बैठी रहे सेविका के प्रेम की नागिन? पति को बाहों में भरकर सोयी रहूँ मैं- पत्नित्त्व के पर्यंक पर, और उसकी कल्पना के आगोश में सोयी रहेगी एक प्रतिवेशिनी, ओफ...ओफ!!’- शक्ति के होठ फड़कने लगे। सांस तेज हो गयी।
‘ओफ..ऽ..ऽ.पुरुष!’ गेहुमन सी फुफकार छोड़ती शक्ति कह रही थी- ‘विधाता का भोंड़ा करिश्मा पुरुष! वासना का कीट! कमल का भ्रम देने वाला ‘निलोफर’ ...ओफ! मुझे अब इस पुरुष जाति से ही घृणा हो रही है रचयिता, नियंता से लेकर वपक और भर्ता तक सबके सब तो पुरुष ही हैं...इन ‘कापुरुषों’ ने नारी को कठपुतली बना डाला है...सबला को अबला बना डाला है...‘पुंसत्त्व-महल’ की ‘गन्दगी’ को निकालने वाली नाली समझ रखा है...ओफ! बाज आयी इस छली बेवफा पुरुष से, जिसके रोम-रोम में धोखा और फरेब भरा है....। ’
‘पुरुष जाति मात्र पर कीचड़ क्यों उछाल रही हो शक्ति? तुम इसका एक ही रूप क्यों देख रही हो? ’- शक्ति की ओर देखकर, अफसोस जाहिर करते हुये कहा कमल ने।
‘हूँऽह! मैं देख रही हूँ या तुम पुरुष वाध्य कर रहे हो देखने के लिये इसी दृष्टि से? पुरुषों ने सिर्फ एक ही दृष्टि से नारी को देखा है- कुल्हड़ में पड़ी सोंधी चाय की तरह, जिसकी मधुर चुस्की के बाद कुल्हड़ को परे फेंक दिया जाता है। वह अभागा पत्तल जैसा भी नहीं- जिसे कम से कम कुत्तों की कोमल जीभ तो मिलती है। उसे मिलता है- सिर्फ किसी का पादुका प्रहार और चकनाचूर होकर विखर जाना पड़ता है। ’- कमल की ओर घृणा की दृष्टि से देखती हुयी शक्ति ने कहा।
‘नारी होकर नारी की गरिमा को न समझना तुम्हारी भूल है शक्ति! शक्ति के वगैर तिनका भी नहीं हिल सकता। नारी माता है। नारी भगिनी है। नारी तो देवी है। अनेक रूप हैं नारी के। पत्नी के रूप में भी वह सिर्फ ‘रमणी’ और ‘भोग्या’ नहीं। बहुत से कर्म हैं उसके। बहुत से धर्म भी हैं। तुम स्वयं परखो-अपने में तलाशो, कितने रूपों में हो तुम? इनमें कौन सा गुण है तुममें? दूसरी बात यह कि हो सकता है, मैं दुर्गुणों की खान होऊँ। पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि तुम पुरुष मात्र को ही दोषी ठहरा दो। मुझे न चाहो, मुझसे असन्तुष्ट हो, तो कोई बात नहीं। भगवान ने फिर मौका दिया है। इस बार पिताओं के वचनवद्धता की लक्ष्मण रेखा भी नहीं है। इसका यह अर्थ न समझ लेना कि मैं अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए ऐसा कह रहा हूँ। आज भी मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति उतना ही स्नेह है। प्रेम है। श्रद्धा भी है, और विश्वास भी। काश! तुम मेरे दिल में झांक कर देख पाती...। ’-कातर स्वर में कहा कमल ने। उसकी आवाज भर्रा रही थी। कंठ अवरूद्ध हो रहा था।
‘क्या झांकने को कहते हो उस दिल के गवाक्ष से जिसमें नुकीले बरछे लगे हैं, और उसके भीतरी प्रकोष्ठ में किसी और के प्यार की सड़ांध है? ’- नाक-भौं सिकोड़ती शक्ति ने क्रोध पूर्वक कहा, मानों सच में बदबू आ रही हो।
‘आखिर क्या सोचती हो अपने बारे में? अपने भविष्य के बारे में? ’-पूछा कमल ने, किन्तु शक्ति कुछ बोल न पायी। उसके नथुने फड़क रहे थे। होठ थर्रा रहे थे। छाती धौंकनी सी चल रही थी। आँखें सुर्ख अंगारे सी दमक रही थी। अपलक, कमल के चेहरे पर ताकती रही। कमल के लिए यह अपलक दृष्टि नयी नहीं थी। ऐसी ही दृष्टि का सामना सत्रह साल पहले भी वह कर चुका था।
शक्ति एकाएक चीख उठी- ‘मेरे लिए बस एक ही रास्ता है...एक ही रास्ता...बस एक ही...। ’- कहती हुयी सामने के मेज पर धड़ाधड़ सिर पटकने लगी - ‘आत्महत्या के सिवा मेरे लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं...। ’
शक्ति की अचानक की हरकत देख सबकी मुखाकृति बदल गयी, किन्तु किंकर्त्तव्यविमूढ़, जढ़ बने यथास्थान ठगे से रह गये सभी- द्रौपदी-चीर-हरण के समय हस्तिनापुर राजदरबारियों की तरह, जिनमें पिता-पुत्र पांडेजी भी थे।
पदारथ ओझा फिर भुनभुनाये- ‘ नारी स्वभाऊ सत्य मह कहऊ, अवगुन आठ सदा उर रहऊ। ’
शक्ति सिर पटकती जा रही थी। लोग बैठे रहे- या तो किसी को कर्म सूझ नहीं रहा था या कि....?
तभी अचानक आंधी की तरह, एक अनजान युवक ने कमरे में प्रवेश किया परदा उठाकर, जो शायद देर से परदे की ओट में खड़ा इस नाटक का श्रव्यानुभूति कर रहा था, और लपक कर शक्ति को उठा लिया- बच्चों की तरह।
एक कड़कभरी रौबदार आवाज कमरे में गूंज गयी- ‘खबरदार शक्ति! खबरदार, जो तुमने आत्महत्या का प्रयास किया। तुम्हें शायद पता नहीं कि मैं शक्ति का एक पुराना उपासक हूँ। ’
युवक के फौलादी आगोष का स्पर्श शक्ति में मानों नयी शक्ति का संचार कर दिया। विस्फारित नेत्रों से देखने लगी उस हिप्पीनुमा व्यक्ति को। क्रोध अचानक काफूर हो गया। अन्य व्यक्ति भी मानों चैतन्य हो गये, जो कुछ पल पूर्व तक जढ़ बने हुये थे। उस व्यक्ति ने बड़े सहज भाव से शक्ति को उठा कर यथास्थान बैठा दिया, और बगल में शेष थोड़े सी जगह में ही जबरन घुसबैठा, जैसे लोकल ट्रेनों में तीन आदमी की सीट पर छः बैठ जाते हैं। भौचंकी, शक्ति उसका मुंह देखती, अपने स्मरण पर जोर दे रही थी। और लोगों के चेहरे भी आश्चर्य और प्रश्न चिह्नित थे।
जरा गौर फरमाते हुये, कमल और मीना अचानक एक साथ बोल उठे-
‘अरे बसन्त! तुम कहाँ से आ टपके? ’
‘यमराज यमपुरी छोड़कर और कहाँ से आ सकता है? ’- हँसते हुये कहा बसन्त ने और जेब से चुरूट और लाइटर निकाल, सुलगाने लगा।
‘तुम्हारा मसखरापन अभी तक नहीं छूटा। आगे बढ़कर हाथ मिलाते हुये कमल ने कहा।
‘अरे यार! यही तो एक बचा हुआ है, बाकी तो अशेष ही है। ’
‘कब लौटे ओशाका से? टॉमस कहाँ है? ’- मीना ने पूछा और बगल में बैठी मीरा को इशारा की नौकरानी से नास्ता आदि के प्रबन्ध की।
‘बस, आज सुबह की फ्लाइट से। ’- कहा बसन्त ने और पल भर पूर्व के मसखरेपन को खदेड़, उसके चेहरे पर किसी ज्ञाताज्ञात गम और कसक की स्याही पुत सी गयी। मौन, सूने छत को निहारता हुआ चुरूट का कस खींचने लगा।
‘मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तुमने? ’- बसन्त के चेहरे पर गौर करती हुयी मीना ने कहा। शक्ति की निगाहें भी चिपकी हुयी थी बसन्त के चेहरे पर।
नौकरानी नास्ता रखकर पीछे मुड़ ही रही थी कि बसन्त ने मीना की ओर देखते हुये कहा- ‘ इसकी अभी जरूरत नहीं, पर तुम्हारी चाय अवश्य पीऊंगा। ’
और फिर गर्दन घुमा शक्ति की ओर देखने लगा, जो बगल में ही दुबकी सी बैठी थी।
एक जमाना था, जब शक्ति को मन ही मन प्यार किया करता था- किशोर बसन्त। हाँ, स्कूल के छात्र को बालक और फिर किशोर ही तो कहा जा सकता है, युवक नहीं। भले ही वह खुद को कितना हूं बड़ा प्रेमपुजारी क्यों न समझता हो।
बेचारा बसन्त बेहद चाहता था शक्ति को, किन्तु उम्र ने कभी इजाजत न दी इजहार की। साहस का तो सवाल ही नहीं, और चलता रहा एकचक्रीय प्रेमयान।
शक्ति, उसकी भाभी की चचेरी बहन शक्ति ने शक्ति पूर्वक खींच लिया था बेचारे बसन्त के कोमल कमजोर दिल को, और छिपा कर रख ली थी अपने हृदय में, जिसे ढूढ़ पाने में वह सफल न हो पाया। आखिर शक्ति के दिल को टटोलने के लिए भी तो शक्ति चाहिये, और साहस भी; जो था नहीं इसके पास।
जमाने ने पलटा खाया। मातृ-पितृ विहीन हो, शक्ति चली गयी कलकत्ता छोड़कर अपने ननिहाल की रोटी तोड़ने। इधर बेचारा बसन्त शक्ति-मन्दिर के कंगूरे ही ताकता रह गया। उधर कमल पग चुका था मीना के मुहब्ब्त में। बेचारे बसन्त को हाथ लगी- बिना नाक-भौं वाली टॉमस। वह इसे उड़ा ले गयी सुदूर सागर पार जापान के ओशाका नगरी में।
इधर जमाना कहाँ से कहाँ चला गया। कितने आये, कितने गये। कितने मिले, कितने बिछड़े - इसका हिसाब किसी ने न लगाया।
...और अब? जाने वाले फिर से आने लगे। मीना आयी। मीरा आयी। आने वालों का तांता सा लग गया। और आना ही पड़ा- शक्ति को भी। और जब शक्ति आयी, तो बसन्त क्यों न आता? किन्तु सभी आये नया रूप लेकर, पर बसन्त आया पुराने रूप पर ही नयापन का खोल ओढ़कर, नयी दुनियां को पुरानी आँखों से देखने के लिए। स्वदेशी आया विदेशी बनकर।
‘क्यों बसन्त क्या सोचने लगे? ’- उसे चुप्पीसाधे देखकर कमल ने सवाल किया। मीरा तब तक चाय ले आयी।
‘कुछ नहीं, सोचूंगा क्या? ’- प्याला बायें हाथ में पकड़ लिया। दायें हाथ में जलता हुआ चुरूट था। चाय की गहरी घूंट भरी। चुरूट के धुएं से उसे भीतर पहुँचाया ठेल कर आंतों तक। फिर कस खींचते हुये बोला- ‘सोच रहा हूँ कि अठारह पर्वों वाला महाभारत कहाँ से शुरू करूँ? ’
बसन्त की बात पर अन्य लोग सोचने लगे- अजीब आदमी है। कोई बात
सीधी तौर पर करता ही नहीं। कभी मसखरापन तो कभी गम्भीरी का लबादा।
किन्तु कमल समझ रहा था उसके कथन का अभिप्राय। वस्तुतः आज अठारह वर्षों बाद ही तो कमल और मीना से मुलाकात हो रही थी। अतः बोल पड़ा- ‘ कोई बात नहीं। ज्यादा दिक्कत हो तो अठारह अध्यायों वाला सर्वशास्त्रों का निचोड़ गीता ही सुना डालो। ’
‘पर मेरे लिए तो दो-चार अध्याय अधिक ही कहना पड़ेगा। ’- आशय समझती हुयी शक्ति ने कहा- ‘कारण कि मैं तो कुछ पहले ही चली गयी थी कलकत्ता छोड़कर। दीदी ने बतलाया था कि तुम किसी लड़की के साथ जापान भाग गये हो। ’
बसन्त के आने से पतझड़ समाप्त हो गया था। मुरझायी शक्ति में नव चेतना संचरित हो आयी थी। क्रोध में जलते शक्ति के होठों पर किंचित मुस्कुराहट खेलने लगी थी। तब से बेचारी स्वयं को अकेली महसूस कर रही थी। पर अब एक चिर परिचित के आगमन से मन ही मन प्रसन्नता हो रही थी। कम से कम एक पक्षधर तो आ ही गया।
‘ठीक है, तुम्हारी गीता बाइस अध्यायों वाली ही होगी। ’- प्याला खाली कर मेज पर रखते हुये बसन्त ने कहा- ‘तो ऐसा करते हैं कि ‘परिशिष्ट’ ही पहले सुना डालते हैं। तुमसे तो उस बार ही भेट थी जब कमल के भैया की शादी में तुम्हारे मामा के घर गया था। ’
‘हाँ..हाँ, फिर कहाँ मिलना हो पाया? एक दो बार तुम्हें चिट्ठी भी दी थी, पर...। ’- शक्ति कह ही रही थी कि गोल होठों से चिमनी सा धुआं छोड़ता हुआ बसन्त बोल पड़ा- ‘ चिट्ठियां तो मिली थी तुम्हारी जब तक कि यहाँ कलकत्ते में था, किन्तु कुछ सोच कर पत्रोत्तर देना उचित न जान पड़ा। ’ कहता हुआ बसन्त, शक्ति की आँखों में झांकने लगा। बगल में बैठे मृत्युंजय को बसन्त की इस हरकत से अजीब सा चुभन महसूस हुआ, जो पल भर के लिए तिलमिला गया, पर लाचार, कुछ कह न सका।
‘सोचना क्या था पत्रोत्तर देने में? ’-साश्चर्य पूछा शक्ति ने, और बसन्त की आँखों में हसरत भरी आँखें डाल दी। आज तैंतीस वर्षीय बसन्त उसे उस दिन सा ही नजर आ रहा था, जब कि वह पहली बार उसकी दीदी की शादी में सहबाला बनकर आया था, अपने दूल्हे भैया के साथ।
‘बहुत कुछ सोचना होता है शक्ति। तुम कुंआरी लड़की, मैं कुंआरा लड़का। पता नहीं कौन कब क्या कह डाले। फिर भी मेरा तो कुछ नहीं, पर तुम्हारा बहुत कुछ बिगड़ सकता था। यह सही है कि तुम्हारे प्रति निस्सीम प्यार का सागर उमड़ता रहा मेरे दिल में, पर चाहकर भी चाहत उगल न सका। होठों को खोल न सका। औरों से तो दूर, तुमसे भी न कह सका। इसी बात का भय बना रहा कि कहीं परोक्ष में पत्र के परदे पर मन की बातों का बिम्ब न उभर आये...। ’- चरूट के अस्क को मेज पर पड़े खाली कप में झाड़ता हुआ बसन्त, अपने दिल के कोने में छिपे प्रेम-मुत्ताओं को निकालता रहा।
‘तुम भी अजीब हो बसन्त। ’- शक्ति की निगाहें अभी भी बसन्त के चेहरे पर गड़ी हुयी थी। कहने लगी- ‘सच पूछो तो मैं भी मन ही मन तुम्हें खूब चाहती थी, पर लड़कियां कितनी बुझदिल होती हैं तुम जानते ही हो। तिस पर भी जातिय संस्कार की अमिट छाप। फलतः मैं भी साहस न कर सकी। यहाँ तक कि तुम जब भी मेरे घर आये, मैं भीतर छिप जाया करती तुम्हारी नजरों से, और झीने परदे की ओट में खड़ी निहारती रहती, इस इन्तजार में कि कब पापा आवाज दें- चाय लाने के लिए। बहुत बार तुम चाय पिये वगैर ही चले जाया करते थे, और जानते हो- उस दिन मेरी कैसी हालत होती? काश!.....कभी भी कहे होते तुम इशारों में भी। मुझे नहीं तो अपनी भाभी से ही कम से कम। ओफ! मेरा जीवन दग्ध होने से बच गया होता। ’
शक्ति की आँखें डबडबा आयी थी। ओढ़नी के छोर से पोंछने का प्रयास करती हुयी नजरें नीचे झुका ली।
‘तुम शायद नहीं जानती शक्ति!’- बचे टुकड़े से दूसरा चुरूट जलाते हुये बसन्त ने कहा- ‘मैंने कही थी अपने मन की बात तुम्हारी दीदी से एक बार। उन्होंने मेरा प्रस्ताव तम्हारे पापा तक पहुँचाया भी था, पर जानती हो तुम्हारे पापा ने क्या कहा था? ’
गम्भीर मुस्कान विखेर, कस खींचा बसन्त ने।
‘क्या? ’- शक्ति चौंकी।
‘मुस्कुराते हुये तुम्हारे पापा ने कहा था- ‘‘ओह! तो अब समझा, क्यों बसन्त रोज-रोज मड़राता है इस ओर। हालांकि कोई हर्ज नहीं है उससे शादी कर देने में, किन्तु मैं वचनवद्ध हूँ किसी और से। ’’ कहा बसन्त ने, और लम्बा कस खींच, इस भांति छोड़ा कि शक्ति का चेहरा उस धुएं में छिप सा गया।
‘हुंऽह! वचनवद्ध थे, महाराज दशरथ की तरह। तभी तो राम के वजाय शान्ता का सर्वनाश कर गये। त्रेता के दशरथ ने राम का सर्वनाश किया, और कलयुगी दशरथ ने शान्ता का। ’- शक्ति के होठ फिर कांपने लगे क्रोध से।
‘दरअसल राशि संयोग भी जुट गया- उधर दशरथ की बेटी शान्ता, इधर देवकान्त की बेटी शक्ति। एक ओर सौम्य शुभ ग्रह राशीश गुरू, तो दूसरी ओर क्रूर पाप ग्रह शनि...। ’- हो-हो कर हँस पड़े पदारथ ओझा अपनी ही टिप्पणी पर। कमल भी मुस्कुरा दिया।
‘क्या यूँही हर समय मजाक करते रहते रहते हैं ओझाजी? ’- खीझते हुये निर्मलजी ने कहा। फिर घड़ी देखते हुये बोले- ‘साढ़े सात बजने लगे। ’
‘खतम करो न यार अपना चार अध्याय। मुख्य गीता अभी बाकी ही है। ’-वातावरण की गम्भीरता में बदलाव के ख्याल से कहा कमल ने।
अधजले टुकड़े को खाली कप में डालते हुये बसन्त ने कहा- ‘अब मुख्य ही समझो। शक्ति की ओर से मैं निराश हो ही चुका था। कमल का पथ प्रसस्त ही देख रहा था मीना के द्वार तक। लाचार टॉमस को गले लगाया। काश! मुझे यह पता होता कि तुम्हारे पापा की वचनवद्धता की गांठ कमल ही है, जो मीनाक्षी के तड़ाग में खिलने वाला है, तो उसे शक्ति के गले में पड़ने से अवश्य ही बचा लिया होता, उन्हें सही जानकारी देकर। पर अब पछताने से लाभ ही क्या? खैर, देर आया, दुरूस्त आया। ’
‘मतलब? ’-चौंकते हुये कमल ने पूछा, और साथ ही चौंक पड़ी मीना और शक्ति भी।
‘मतलब ही तो बतला रहा हूँ। तुम्हारी बात की हड़बड़ी में चुरूट भी फेंक दिया, अब फिर से लाइटर निकालना पड़ेगा, जो मेरे वसूल के खिलाफ है। ’-कहते हुये बसन्त ने दूसरा चुरूट मुंह में धर, लाइटर निकाल, जलाते हुये, बात आगे बढ़ायी- ‘उस बार परीक्षा के तुरत बाद ही, यानी कालेश्वर यात्रा से लौटने के महीने भर बाद ही उड़ चला जापान एयरलाइन्स के विमान से। ’- फिर कमल की ओर देखकर बोला- ‘तुम कहा करते थे न कि यह परी उड़ा ले जायेगी अपने पंखों पर बिठा कर। सही में उड़ा ले गयी मुझे वह जापानी परी। मेरे पास तो इतने
पैसे भी न थे, जो वहाँ जाने की कल्पना भी करता। उसने ही सारी व्यवस्था की। उसके डैडी ने काफी संरक्षण दिया हमदोनों को। ओशाका में जाकर उसके पुस्तैनी निवास में हमलोग रहने लगे। बाद में मैंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली...। ’
‘अच्छा, तो उसी दीक्षा में चुरूट पीने का उपदेश मिला होगा? ’- हँसती हुयी मीना ने कहा- ‘यही मैं सोच रही थी कि ब्रह्मचारी जी इतना धूम्रपान कब से करने लगे!’
‘अरे यह तो बहुत बाद में पकड़ा। ’- हाथ में पकड़े चुरूट को निहारता हुआ बोला- ‘पकड़ा क्या, पकड़ना पड़ा। अब तो कुछ नहीं है। इससे भी कुछ ऊपर स्तर में पीया करता था। ’- कहता हुआ बसन्त लागातार कई बार कस खींचा..छोड़ा... कमरे में कृत्रिम मेघों का गुच्छा सा बन गया। कप में शेष टुकड़े को डालते हुये बोला - ‘अरे यार चाय तो पिलाओ। क्या कंजूसी सवार है? अच्छा हाँ तो मैं दीक्षा की बात कर रहा था। सच पूछो तो इस दीक्षा में ही प्यार की भिक्षा मिली। वहाँ की रीतिनुसार विवाह-सूत्र में बंधा, और फिर उस बन्धन में गांठ लगाया पूरे पांच साल बाद। टॉमस कहती थी- बच्चे क्या करेंगे? अभी तो हम खुद ही बच्चे हैं। अतः उसकी बात मान एक जुट होकर हमदोनों ने जवानी का लुफ्त उठाया, और साथ ही विजनेश मैनेजमेन्ट की डिग्री हासिल की। टॉमस का विचार था पुनः भारत न लौट कर, वहीं अपना स्वतन्त्र व्यवसाय खड़ा करने का। फलतः सही में नहीं लौटी। पांच वर्ष बाद, छठे वर्ष शादी की वर्षगांठ के साथ नये मेहमान के स्वागत की तैयारी करने लगे हमदोनों....। ’
नौकरानी चाय ले आयी। प्याला पकड़ होठों से लगाते हुये कहने लगा- ‘...पर कैसा स्वागत...किसकी आगवानी? आने वाला आया नहीं...रहने वाले को भी बुला लिया...। ’
बसन्त की बात सुन कमल और मीना अवाक् उसका मुंह देखने लगे। शक्ति का चेहरा भी देखने लायक था, जिसपर अनेक बिम्ब बन रहे थे, मानों तेजी से घूमता प्रोजेक्टर हिल रहा हो, और कोई भी चित्र स्थिर न हो पा रहा हो।
प्याला खाली कर मेज पर रखा, और दूसरा चुरूट जलाते हुये कहने लगा-‘...मेजर ऑपरेशन जच्चा-बच्चा दोनों को ले गया...। ’
‘ओफ टॉमस!’- एक साथ कमल और मीना के मुंह से निकला।
बसन्त कह रहा था- ‘...उस बार मैं नाटक में यमराज बना था। तुम मुझे उसी नाम से चिढ़ाती हो न मीना? जरा ठहर कर फिर बोला- ‘किसी और के प्राण तो मैं कलयुगी यमराज न हर पाया, किन्तु ‘मृत्यु’ के ही प्राण ले लिए मैंने...यम की पत्नी मृत्यु...बसन्त की पत्नी टॉमस...अफसोस! यदि टॉमस को गर्भवती होने से मैं रोका होता, तो आज यह बिछोह न सहना पड़ता...। ’-कुछ देर मौन आँखें बन्द किये बैठा रहा कुर्सी का टेका लगाये हुये, फिर कहने लगा- ‘...उसके बाद फिर समय कैसे गुजरा, कहने में भी समय की बरबादी है। कुछ गुजरा मयखाने में, कुछ गुजरा मठों में। उसके बाद भी शान्ति न मिली तब, उस मनहूस टापू को ही छोड़कर उड़ा चला आया वापस स्वदेश। आज सुबह ही देश की प्यारी धरती पर पांव धरते ही याद सताने लगी- पुराने प्रेमियों की, और खिंचा चला आया ‘मीनानिवास’। सोचा था- बच्चों की मधुर किलकारियां मिलेंगी यहाँ, पर अभी देखता हूँ- यहाँ तो शहनाइयाँ भी नहीं बजी हैं। ’
‘जब तुम आ ही गये हो, तो बजाओ शहनाई, जितना बजाना हो। ’- हँस कर कहा कमल ने।
‘तुम नहीं बजाओगे क्या? ’-बसन्त ने पूछा।
‘बजाने तो जा ही रहा था। मीना और मीरा का निपटारा कर ही चुका था, किन्तु बीच में ही शक्ति का दर्शन हो गया। ’- गम्भीरता पूर्वक कहा कमल ने।
‘तो चिन्ता किस बात की है? मैं तो उनके अभिनन्दनार्थ घुटना टेके ही हुये हूँ। ’- कहता हुआ बसन्त नाटकीय ढंग से हड़बड़ाकर कुर्सी से उठ, घुटना टेक दिया, दोनों हाथ जोड़कर- ‘या देवी सर्वभूतेषु, पत्नी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै नमो नमः। । ’ चुरूट अभी भी उसके हाथ में था। ऐसा लग रहा था मानों हाथों में अगरबत्ती पकड़े, शक्ति का सच्चा साधक साक्षात् देवी के सामने घुटना टेके खड़ा हो। चुरूट का धुआं सीधे ऊपर उठ कर सामने बैठी शक्ति के नथुनों में घुसा जा रहा था।
बसन्त की नाटकीय मुद्रा पर सभी ठहागा लगाकर हँस दिये। काफी देर तक हँसी का पटाका छूटता रहा कमरे के वातावरण में और अपने धुऐं के साथ उड़ा ले गया- क्रोध, ईर्ष्या और गमों की धूल को।
हर्ष और उल्लास का वातावरण बन गया। फिर एक बार बसन्त का आगमन सही में रंग गया सबको अपने मोहक रंग में।
‘शादी का मुहुर्त कब है महादेवी जी? ’ -शक्ति की ओर देखते हुये बसन्त ने पूछा।
‘तुम्हें मुहुर्त से क्या लेना-देना? तुम तो मठ में चलकर शादी करोगे न? ’- खिलखिलाती हुयी शक्ति ने कहा, और बांह पकड़कर बसन्त को ऊपर उठा, कुर्सी पर बगल में बिठा दी।
‘तुम्हारा हठ मान लिया। फिर मठ जाने का क्या काम। अब यहीं सब करमठ होगा। ’- हँसते हुये बसन्त ने कहा।
लम्बे समय से जारी सभा का विसर्जन किया उपाध्यायजी ने अध्यक्षीय भाषण से - ‘विवाह मण्डप सजा हुआ है। आठ बजने ही वाले हैं। मुहुर्त में अधिक विलम्ब नहीं है। सब लोग यहाँ से चलें नीचे, और शेष कार्य का श्री गणेश करें। ’
दबी जुबान पदारथ ओझा ने कहा- ‘एक मंडप में तीन शादी? ’
‘आपकी बुद्धि की भी दाद देनी चाहिये ओझाजी। अरे भाई! जब यह सृष्टि ही त्रिगुणात्मक है, फिर तीन से इतना ‘खीन’ क्यों हैं आप? मैं कहता हूँ कि तीन से बढ़कर कोई पवित्र संख्या ही नहीं है। ’- कहा तिवारीजी ने-
"मंगलं भगवान विष्णुः मंगलं गरूड़ध्जः।
मंगलं पुण्डरीकाक्षः मंगलाय तनो हरिः। । "
शहनाइयों की मधुर घ्वनि मीनानिवास और आसपास के वातावरण को आप्लावित करने लगा। वैदिक मन्त्रोच्चार के बीच नूतन सृष्टि की संरचना का शुभारम्भ होने लगा।
कमल भट्ट अपनी दोनों हथेलियों को खोलकर गौर से निहार रहा था, जिसके दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान थे। मीना ने कंधे पर हाथ रखा-
‘क्या देख रहे हो अब, इन हथेलियों में? ’
‘और क्या देखूँगा? तुम्हारे मुखड़े के सिवा सृष्टि में और है ही क्या देखने लायक? ’-कहता हुआ कमल खींच कर मीना को अपनी बाहों में भर लिया।
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