पुनर्भव / भाग-3 / कमलेश पुण्यार्क
‘हाँऽ...ऽहाँ’- देर से दबी योगिता की जुबान में जान आयी- ‘पर यह क्या सिर्फ मुझमें ही है? औरों में न होगी यह शक्ति जो आपको श्रान्ति दे सके? वैसे यह सच है कि आप हमें बहुत चाहते हैं। अटूट प्रेम है मेरे प्रति आपके दिल में। पर प्रेम-सरिता के नीर मात्र से परिसिंचित होकर, क्या वंश-वृक्ष विकसित होता चला जायगा? अभी जवानी है। कल बुढ़ापा आयेगा। फिर, क्या प्रेम के इस घट का कभी नाश नहीं होगा-जिसे आप अक्षय समझ रहे हैं? थोड़ी देर के लिए मान लें कि ‘न’ ही हो, फिर भी....। ’
‘फिर भी क्या? ’- अपनी तर्जनी से योगिता की ठुड्डी थोड़ा ऊपर उठाते हुए मधुसूदन ने पूछा- ‘पुम् त्रायते, पर त्रायते’ की बात ही क्या? जब ‘इह त्रायते, भूः त्रायते’ ही न हुआ? जीवन दग्ध होता रहेगा प्रेम-सहचरी-विरह-ज्वाला में, ‘इह’ ही सुखमय न हो पाया, फिर ‘पर’ की कौन कहे? कोई देखा भी है आज तक कि मरने के बाद क्या होता है? ‘अपना’ कहने लायक अनुभव है किसी के पास- इन सब बातों का? बस, सुनी-सुनायी, रटी-रटायी, घिसी-पिटी बातों को हमसब दुहराते जा रहे हैं। सन्तान को महद् महिमा-मण्डित किया जाता रहा है। अन्य पत्नी से मान लें कि सन्तान प्राप्ति हो ही जाय, फिर भी क्या होने मात्र से ही ‘तरण-तारण’ सुनिश्चित हो जाता है? कितने पुत्र हैं संसार में सच्चे अर्थों में कुल-तारण-योग्य? अंगुलिओं पर गिने जाने भर...फिर....? ’
इसी तरह की खट्टी-मीठी वाग्जाल बुनते रहे थे काफी देर तक मधुसूदन तिवारी। अन्यत्र उलझाने का प्रयत्न करते रहे, अपनी प्रिया के विषण्ण मन को; किन्तु उसके अन्तस्थल के किसी गुप्त खण्ड की दरार में जा छिपा भय- भावी प्रतिवेशिनी के आगमन का, किसी प्रकार निकल न पाया। उसका सुहाग सरेआम नीलाम होता सा प्रतीत होता रहा। और वह निरंतर सोचती रही...।
क्यों न हो! कई प्रकार के ऋण-बोझ को लेकर मानव जन्म ग्रहण करता है- देवऋण, पितृऋण, गुरुऋण, मातृभूमिऋण..आदि-आदि। इन सबसे ऊपर, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है- मातृऋण/पितृऋण। ईश्वर की आराधना, गुरु सुश्रुषा, समाज और देश की सेवा आदि द्वारा, क्रमशः अन्यान्य ऋणों से तो मुक्ति मिल जाती है। मातृ-पितृऋण से पूर्णतः मुक्ति सिर्फ ‘सेवा’ से ही पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि उनकी प्रबल लालशा होती है- अपने सन्तान के सन्तान को देखने की- यानी अपनी वंश परम्परा को सतत प्रवहमान रहने की....।
....यदि मधुसूदन पिता न बन पाये, यदि योगिता माँ न बन पायी फिर क्या समाज का ‘सेट्ठि उनके भारी ऋणमोचन हेतु सरेआम नीलाम न कर देगा- योगिता के सुहाग को? और उसे ऊँची बोली लगा कर कोई प्रबल ‘पंचम भाव’ वाली नारी खरीद न लेगी? और तब योगिता के नारीत्व का, मातृत्व का मोल ही क्या रह जायेगा? ‘मातृत्व’ अपने आप में कितना गरिमामय शब्द है। हालांकि इस पद के अर्जन में नारी का बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। क्षरण हो जाता है। परन्तु गुसाईं बाबा की उक्ति- ‘...अवगुन आठ सदा उर रहहू’-वाली नारी को गरिमामय पद प्रदान करने वाला एकमात्र मातृत्व ही है। इससे रहित नारी अस्तित्व हीन सी प्रतीत होती है।
यही कुछ सोचे जा रही थी- योगिता, पति के पास बैठी-बैठी, और अभी-हाल की घटी घटना पुनः उसकी आँखों तले घट गयी
छायाचित्र की तरह-
पड़ोस में शादी थी- योगिता के मुंह बोले देवर की। वर-यात्रा के समय मुहल्ले की प्रायः सभी स्त्रियाँ जुटी थी। वर-परिछन हो रहा था। गोबर के लोइये को उछाल-उछाल कर फेंक रही थी गोपू की माँ। परिछन में उपस्थित औरतों के समूह में गोपू की एक चाची भी थी। एक ओर माँ का आभ्यान्तर थिरकन, तो दूसरी ओर चाची का कुम्हलाया हुआ मुख-सरोज। योगिता समझ न पा रही थी-उस मौन म्लान मुख का रहस्य। सोच ही रही थी कि कंधे पर स्पर्श पा चौंक गयी-
‘इधर आओ बहू। ’- कहती हुयी योगिता का हाथ पकड़ कर एक ओर किनारे ले गयी, उस भीड़ से।
‘क्या बात है दीदी? ’- योगिता दीदी ही कहा करती थी, क्यों कि वह मैके के रिस्ते से दीदी ही थी। आश्चर्य चकित उसके चेहरे पर गौर करती हुयी, पीछे हो ली। आंगन में आने पर वह बतलायी, अपने मौन का रहस्य-
‘क्या खड़ी हो यहाँ? कौन है यहाँ हमें महत्त्व देने वाला? ’
योगिता को पुनः आश्चर्य हुआ कि दीदी किस महत्ता की बात बतला रही है।
‘क्या कह रही हो दीदी! मैं कुछ समझी नहीं? ’-आश्चर्य से विस्फारित नेत्रों को ऊपर उठाती हुयी योगिता ने पूछा।
‘तुम अभी बच्ची हो। दुनियाँ का प्रपंच तुम अभी क्या समझ पाओगी। सुबह से ही गोपू की माँ और दादी कोसती रही है मुझे। मेरी सूनी गोद को लेकर छींटाकशी करती रही है। परन्तु यह कहाँ कोई देखता है कि दोष सिर्फ औरत में ही है या मर्द में भी। ’- कहा गोपू की चाची ने, और योगिता पुनः आश्चर्यचकित हो उन्हें देखने लगी।
‘हेंऽ..! तो क्या मर्द में भी दोष होता है, जिसके कारण बच्चा न हो पाता हो? ’- योगिता की आँखें फैली हुयी थी, अद्भुत जिज्ञासु होकर।
विशाद के उस वातावरण में भी गोपू की चाची हँसती-हँसती लोट गयी, योगिता के भोले प्रश्न को सुन कर। वुत्त बनी योगिता खड़ी ताकती रही उसका मुंह। अवसाद को धो-पोंछ, हँसी की सरजना करने जैसी बात उसके दिमाग में आ न रही थी।
‘क्यों हँस रही हो दीदी? ’-पुनः सवाल किया योगिता ने। गोपू की चाची ने उसका हाथ पकड़, एक ओर एकान्त में ले गयी, और फिर ‘सहस्रानन शेषावतार भाष्यकार पतंजली की तरह सारा का सारा- कायतन्त्र- नारी-शरीर-क्रिया-विज्ञान से लेकर वात्स्यायन-कामसूत्र तक बिना ‘कौमा-फुलस्टॉप’ के समझा डाली।
उसकी बातों को सुन कर, एक ओर योगिता के पांव तले की धरती खिसकती हुयी महसूस हुयी तो दूसरी ओर निराधार व्योममण्डल में किसी ठोस आधार का दिग्दर्शन हुआ, मानों अचानक किसी अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के कंगूरे पर पांव पड़ गए हों।
योगिता सोचती रही, साथ ही साथ सुनती भी रही, जो कुछ उसे सुनाया जा रहा था। विभिन्न सिद्धान्तों को स-भाष्य सुनाया जाता रहा। फिर अचानक उसके प्रवचन का कैसेट बदल गया, और सिद्धान्त से ‘पुराण’ पर उतर आया, और फिर जा ठहरा महाभारत के पाण्डु पर। पाण्डु को सुन-जान, योगिता को याद आ गयी- शैय्या कालिक मधुसूदन के चेहरे का पाण्डु रंग।
गोपू की चाची कहे जा रही थी- ‘शास्त्रकारों ने पौराणिक चरित्र नायकों पर मोटा नकाब डाल दिया है। क्या इसी नकाब ने नपुंसक पाण्डु की परिणीता पृथा को वाध्य न किया होगा- सन्तान की कामना को लेकर ‘नियोग पद्धति के शरण में जाने को? वैसे वह एक अद्भुत सामाजिक व्यवस्था थी, जिसने सहर्ष मान्यता दी थी इस विधान को। इससे नारी के नारीत्व और सतीत्व के आंचल पर किसी प्रकार का धब्बा न लगता था, उन दिनों। थोड़ा बहुत यदि लगता भी तो मातृत्व के ‘फास्ट रिमूभर’ से उड़ंछू हो जाता था। ’
‘अच्छा! तो यह पर पुरुष सम्पर्क नहीं माना जाता था? ’- योगिता साश्चर्य पूछी, और चाची की आँखों में झांक कर उसका हल ढूढ़ने लगी।
‘था। पर पुरुष-समागम ही था, किन्तु स्मृतिकारों ने उसे सक्त ‘वर्म’ पहना रखा था- धर्म का सुरक्षित कवच। ‘धर्मस्य तत्त्वं निहिते गुहायाम्....महाजनः ये न गतः स पन्था....’ धर्म -एक मोटा आवरण है, जिसकी आड़ में बड़े से बड़े अधर्म को ढांक रखा जा सकता है। जरा तुम ही सोचो योगिता- एक ओर नारी का सतीत्व, जिसकी दुहायी की धवल चादर राजपुत्री सावित्री से लेकर ऋषिपत्नी अरुन्धती तक फैली है, तो दूसरी ओर बहुपतिगामिनी कुलबधुओं की नैतिक गाथायें भी उच्चस्वर से गायी गयी हैं। और भी जरा सोचो- क्या जरुरत थी सती साध्वी कुन्ती को एक के बाद भी क्रमशः दो और पुत्रों की? ’
‘कुन्ती को तो एक ‘कानीन’ भी था न? ’-योगिता को कर्ण की याद आ गयी प्रसंगवश।
‘हाँ....हाँ। वह तो था ही, जिसे जन्म देने के बाद भी कौमार्य भंग न माना गया, और न सतीत्व पर ही आँच आयी। सुनते हैं कि सूर्य ने कुन्ती-भोग के पश्चात वचन या कि आशीष दिया था। फिर भी एक पुरुष से तृप्ति न हुयी तो सन्तान के नाम पर कई दरवाजे झांक आयी। पर क्या करोगी? ’- अफसोस की मुद्रा में चाची ने कहा- ‘यह उदारता पूर्ण व्यवस्था थी तत्कालीन समाज की। या कहो-‘समरथ के नहीं दोष गोसाईं’। मगर अफसोस तो इस बात का है कि आज भी सन्तान की महत्ता तो वही है, वन्ध्या की सामाजिक स्थिति वही है, जब कि नियोग की अद्भुत व्यवस्था को भुला दिया गया है, या कहो मिटा दिया गया है। रोक लगा दिया गया स्मृतिकारों द्वारा। साथ ही गौर तलब है कि आज न ‘चरु’ प्रदाता ऋषि ही हैं, और न देवताओं को खींच लाने वाले मन्त्र वेत्ता ही। द्वादश सन्तान क्रम में ‘औरस’ के बाद सीधे दत्तक को स्वीकार लिया गया है। बीच के- क्षेत्रादि पुत्र व्यवस्था लुप्त हो गयी। ओफ! जी चाहता है, समाज की पैनी अंगुलियों को तोड़ डालूँ। गोल-मटोल मटकती आँखों को फोड़ डालूँ थूहर के दूध डाल कर, या फिर निकल पड़ू कुल-बधुत्त्व के महावर को मिटाकर, खुलेआम नीलाम करने सतीत्त्व के थोथेपन को- मातृत्त्व के मंच पर आरुढ़ होकर....। ’
योगिता सुनती रही चाची के प्रलाप को, उनके अन्तरमन की भड़ास को। पर उसके हृदय में तो हाहाकार मचा हुआ था। वह चुप बैठी अपने प्यारे पति मधुसूदन के शैय्याकालिक ‘पाण्डु रंग’ के रहस्य की तलाश में खोयी-उलझी हुयी थी। ....तो क्या उसका पति नपुंसक है, जैसा कि अभी-अभी दीदी सुना-समझा गयी वात्स्यायन काम सूत्रों को, जिसमें क्लीवों के कई प्रकार बतलाये गये हैं? परन्तु इसकी जाँच-परख कैसे हो? मगर जैसे भी हो करना ही होगा। ऐसा ही दृढ़ निश्चय करती उठ खड़ी हुयी योगिता।
गोपू का परिछन समाप्त हो चुका था। वारात प्रस्थान कर चुकी थी। किसी कुँआरी को परिणय-सूत्र में बाँध लाने हेतु एक और पुरुष प्रस्थान कर चुका था। ‘बच्चा कब तक होगा? बहू के गोद कब तक भरेंगे? ’ आदि सनातन प्रश्नों की कतार में एक कड़ी, कल से और जुड़ जायेगी।
योगिता के मन-मस्तिष्क में ‘काल वैशाखी’ का तूफान मचा हुआ था। चौखट की परिधि में पांव धरते ही सास की बातें कानों में आ पड़ी- पिघले हुए गर्म शीशे की तरह। दबे पांव अपने कमरे में जा घुसी। सिर में चक्कर सा महसूस होने लगा। फलतः सिर पकड़ कर बैठ गयी, खाट के नीचे ही, और घुटनों में सिर छिपा कर रोने लगी। देर तक रोती ही रही थी।
और आज- अभी भी तो सच में रोही रही थी। मधुसूदन पूछे जा रहे थे- रूदन-रहस्य; और कारण जान कर भी अनजान बने, झाड़े जा रहे थे अपना व्याख्यान।
निराधार योगिता को एक ठोस आधार सुझायी थी, गोपू की चाची-यानी योगिता की वह शुभेच्छुणी दीदी। अतः साहस संजो कर कहा उसने, जिसकी पीठ पर मधुसूदन के पुष्ट हाथ की अंगुलियाँ थिरक रही थी-
‘एक काम कीजिये न!’
‘कहो क्या कहती हो? ’- प्रसन्नता पूर्वक पूछा था मधुसूदन ने। उन्हें लगा मानों उनके मृदु हथेली के कोमल स्पर्श ने नारी उर को स्निग्ध कर दिया है। योगिता शायद अब प्रसन्न हो गयी है। माँ की कटु वाणी का नासूर भर चुका है- पति के प्यार के मरहम से।
‘माँजी को इतना ही शौक है- दादी बनने का तो क्यों नहीं दूसरी शादी कर लेते हैं आप? ’- कहा योगिता ने, और, कल्पना के मनोरम गगन में विहार करते मधुसूदन एकाएक मानों धरती पर आ गिरे।
‘कुत्ते की दुम लाख तेल मालिस के बावजूद टेढ़ी ही रह जाती है। ’ -मधुसूदन की मुद्रा अचानक बदल गयी- ‘तब से इतना समझाये जा रहा हूँ मैं। क्या उसका यही असर हुआ तुम्हारे उपर? दादी बनने की ललक और जल्दबाजी माँ को है, न कि मुझे। मैं बाप बनने को बेताब नहीं हूँ जरा भी। अभी तो सिर्फ पांच साल ही गुजरे हैं, हमारे विवाह के। कौन कहें कि उमर बीत गयी? ’
मधुसूदन अभी कुछ और कहते शायद, किन्तु योगिता बीच में ही बोल पड़ी- ‘हाँ-हाँ, कुछ दिन और देख लीजिये। मुझे बिंधने दीजिये व्यंग्य बाणों से। फिर दूसरी शादी कर लीजियेगा। ’
‘अरे भाग्यवान! मैं यह कब कह रहा हूँ? ’- हाथ मटकाते हुए मधुसूदन ने कहा।
‘तो और क्या कह रहे हैं? ’- तुनकती हुयी योगिता ने कहा- ‘कितनी बार कही आपको, किसी वैद्य-डॉक्टर से सलाह लेने के लिए, पर आप तो भाग्यवाद का चोंगा पहन कर बैठे हुए हैं। अब वह पुराना जमाना गया। एक से एक दवाइयाँ निकल गयी हैं आज कल। सुना नहीं आपने उस बार मेरी भाभी को कितने दिनों बाद बच्ची हुयी थी-प्यारेपुर के बैद्यजी की दवा से, जब कि लोग एकदम निराश हो चुके थे, और भैया दूसरी शादी करने की तैयारी कर रहे थे। ’
अन्धकार में भटकते पथिक को टिमटिमाती लौ का क्षीण प्रकाश लक्षित हुआ- योगिता के सुझाव से, और दूसरे ही दिन अपने परम मित्र पदारथ ओझा से परामर्श कर बैठे। ओझा स्वयं ही धर्मान्ध ठहरे। उन्हें कब भरोसा होता चिकित्सा-शास्त्र पर।
ज्यों ही मधुसूदन ने वहाँ पहँच कर दुखड़ा और सुझाव सुनाया, ओझा जी टांग पसार कर बैठ गये, और अपने सुझाओं का पोथा खोल डाले-
‘सुनो तिवारी! तुम भी पड़ गये इन जाहिल औरतों के फेर में? जानते नहीं ये औरत जात बड़ी ही विचित्र होती हैं। बुद्धि नाम की चीज तो ब्रह्मा ने इनके हिस्से में डाला ही नहीं है। कहीं से सुन ली होगी बैद्य-हकीम की बात, और उड़ चली -कौआ कान ले गया। बैद्य क्या भगवान धन्वन्तरी के अवतार हैं या साक्षात् अश्विनी कुमार, जो कुंए में पड़े उपमन्यु को दिव्य दर्शन से कृतार्थ कर देंगे?
वह एक और ही युग था- जब लोगों का व्यक्तिगत तेज-तपस्या बल था। आज के युग में वह ओजस्विता है कहाँ? फिर घांस-फूस की चूरन-चटनी से क्या होना है? ’
‘तो क्या करने को कहते हो पदारथ भाई? जैसा तुम कहो वैसा ही करूँ। आँखिर कुछ न कुछ उपाय तो करना ही होगा, वरना मेरी योगिता यूँ ही पिसती रह जायेगी बर्बर समाज की चक्की में। ’-कहते हुए आशा, विश्वास और श्रद्धा से भरे मधुसूदन मित्र पदारथ का मुंह ताकने लगे।
सिर हिलाते हुए पदारथ ने पूछा- ‘रामदीन पंडित का नाम तो जरूर सुने होओगे? ’
‘हाँ...हाँ, क्यों नहीं। ’- अपनी जानकारी पर गर्व पूर्वक तिवारी ने कहा- ‘वही न जो प्यारेपुर वाले वैद्यजी के समधी होते हैं? ’
‘हाँ, वही रामदीन पंडित। ’- सिर और तर्जनी दोनों ही एक साथ हिलाया पदारथ ओझा ने- ‘बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं। कितने ही निःसन्तानों की वंश-वाटिका में मनमोहक कलियाँ खिला चुके हैं। विचार हो तो कल चला जाए, उन्हीं के पास। जैसा कहेंगे, किया जायेगा। फिर दैव तो सबसे ऊपर बैठा ही है, सर्व्यक्तिमान बनकर। ’
तिवारी ने स्वीकृति-मुद्रा में सिर हिलाया- ‘हर्ज ही क्या है। एक बार अवश्य ही मिला जाय उनसे। ’
‘तो कल का ही कार्यक्रम रखा जाय। ’-कहते हुए पदारथ ओझा उठ खड़े हुए थे। कारण किसी यजमान के यहाँ सत्यनारायण की कथा कहने की हड़बड़ी थी, साथ ही ‘तीखुर’ के हलवे की काल्पनिक सुगन्ध उनके सुरंगनुमा नथुनों में बरबस ही घुसा जा रहा था। चट-पट झोला-झक्कड़ सम्हाले, चल पड़े।
अगले दिन, दोपहर के वक्त ओझा-तिवारी का युगल मित्र-मंडल पहुँच गया रामदीन पंडित के द्वार पर।
उस समय पंडित रामदीन मोटी-मोटी पुस्तकों से घिरे एक ऊँची चौकी पर आसीन थे, और उनके सर्वांग प्रायः आसीन था- गोपी चन्दन। शरीर के किन-किन अंगो पर चन्दन लगाना चाहिए, इसका मात्र ज्ञान ही नहीं रखा था महानुभाव ने, प्रत्युत उसका सम्यक् पालन भी किया था। ओझा से पूर्व घनिष्टता थी। देखते के साथ ही उनके चेहरे पर मुस्कान की गहरी रेखा खिंच आयी।
बड़े हर्षित भाव से पूछा उन्होंने-‘कहो पदारथ भाई! कैसे आना हुआ? और भीतर दरवाजे की ओर मुंह करके हांक लगायी-‘ओ मुन्ना! जरा इधर तो आना। ’
थोड़ी देर बाद ही उधर से उनका कनिष्ट पुत्र उपस्थित हुआ, उनकी चौकी के समीप। भीमकाय गौरांग रामदीन पंडित के दीनहीन सा श्याम वर्ण किशोर का पल भर में ही आपादमस्तक पर्यवेक्षण कर डाला मधुसूदन तिवारी ने, जिसके कुरते के आस्तीन नासा-निष्कासित श्लेष्मा से आक्षादित थे।
‘ये देखो’- उंगली का इशारा बताते हुए पंडित जी ने कहा- ‘पदारथ चाचा हैं। प्रणाम करो इन्हें, और माँ से कह दो- इन लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करने के लिए। ’
धन्वा सी झुक कर किशोर ने ओझा जी का चरणस्पर्श किया, और जिज्ञासा भरी दृष्टि डाला पिता की ओर, जिसका आशय समझ ओझाजी ने कहा-‘हाँ-हाँ, इन्हें भी प्रणाम करो बेटे। ये भी चाचा ही हैं। ’
‘प्रणाम पाती से संस्कार बनता है। ’-मुस्कुराते हुए कहा पंडित जी ने, फिर औपचारिकता वश बोल पड़े-‘दोपहर का समय है। इतनी दूर से आ रहे हैं आप लोग। समय भोजन का हो रहा है। ’
अभी वे कुछ और कहते शायद, कि बीच में ही ओझाजी बोल पड़े-‘नहीं पंडित जी, हमलोग सब निश्चिन्त हैं। बस, आपके दर्शन हेतु चले आए हैं। भोजन-छाजन के लिए कष्ट न करें। ’
पिता की आँखों का इशारा पा बच्चा नाक सुड़कता हुआ अन्दर चला गया। इधर तिवारी जी का परिचय दिया ओझाजी ने-‘ ये हैं, हमारे परम मित्र माधोपुर के मधुसूदन तिवारी। मेरे ही विद्यालय में शिक्षक भी हैं। बेचारे बड़े संकट में हैं। मित्र के दुःख से दुःखी होना ही मित्र का धर्म है...। ’
‘क्यों नहीं। क्यों नहीं। ’- हँसते हुए कहा रामदीन पंडित ने। तभी.बच्चा पुनः बाहर आया। हाथ में लिए था- शाहंशाह जहांगीर के जमाने का भीमकाय जलपात्र, जिस पर दग्ध ब्रण के छाले की तरह काई की मोटी सी परत जमी हुयी थी। लोटा रख कर बच्चा पुनः भीतर चला गया। तिवारी जी कभी उस लोटे को, कभी पंडित जी के तोंद को निहाने लगे, जिन दोनों में ईषत् ही अन्तर जान पड़ा। उधर से बच्चा एक विशाल कटोरे को दोनों ही हाथों से थामें, पुनःउपस्थित हुआ; और तिवारी जी का ध्यान तोंदनुमा लोटे, और लोटेनुमा तोंद की तुलनात्मक मापन से जरा हट कर कटोरे पर जा लगा, जो लोटे से भी दो-चार पीढ़ी पूर्व का होने का स्वाभिमान प्रदर्शित कर रहा था। मानों तैमूरलंग के साथ ही वह भी पवित्र आर्यावर्त में पदार्पण किया हो। साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा था कि पंडितजी का खानदान मुगल वादशाहों का भी पौरोहित्य शायद कर चुका है।
इसी निर्णय में निमग्न थे कि कटोरा सरक कर सामने आ विराजा- चौकी पर, जिसके दो छोर पर ओझा और तिवारी बैठे थे।
‘लीजिये, भोजन करने की इच्छा नहीं है, तो कम से कम जलपान ही करें। गरीब की कुटिया का कुछ तो...। ’- कहते हुए पंडित जी होऽहोऽहो...कर हँसते हुए अपनी तोंद पर हाथ फेरने लगे।
प्यास तो दोनों को ही लगी थी। फलतः दोनों आगन्तुक मित्र एक साथ झुक पड़े सुदीर्घ व्यास वाले कटोरे की ओर। परन्तु झांक कर यह पता लगाने के लिए कि क्या है उसमें रखा हुआ, बिना अणुवीक्षण यन्त्र के, शायद सम्भव नहीं जान पड़ा। वैसे था भी नहीं उन दोनों के पास। फलतः सिर उठा कर दोनों ने एक दूसरे को देखा, और फिर ‘क्षीर समुद्र में अनन्तफल ढूंढ़ने’ जैसा कर्म प्रतीत हुआ जान, दोनों मित्र पंडित जी की ओर देखने लगे।
पंडित ही अपने ही ‘भाव’ में थे।
‘हाँ-हाँ, लीजिये, जलपान कीजिये। जल्दबाजी में जो कुछ सुलभ हो सका इस निरे देहात में, वही कुछ अर्पण किया मित्र की सेवा में। ’- बगल में दाबे चावल की पोटली लिए, कृष्ण भक्त सुदामा की तरह भाव मय होकर पंडित रामदीन ने कहा। किन्तु वास्तव में वही पवित्र सखा भाव यहाँ था क्या?
तिवारी जी की सूक्ष्मदर्शी निगाहें, तब तक ढूढ़ने में सफल हो गयी थी- कटोरे के एक कोने की परिधि पर चिपका सा पड़ा मटर के दानों सा- मिश्री के दो टुकड़े, जिसे शायद भौतिक तुला... नहीं..यह तो बहुत स्थूल मापक है, रासायनिक तुला पर तौलकर एक सा आकार दिया गया था।
टुकड़े को उठा मुंह में डाल, महातृप्ति की मुद्रा में सिर झुका, हाथ बढ़ाया लोटे की ओर, जो पास ही चौकी के पाये का शागिर्द बना बैठा हुआ था। दो-चार चुल्लु किसी प्रकार, नाक बन्द कर, हलक में उतार, पुनः बैठ गये शान्त चित्त होकर दोनों मित्र तब बात आगे बढ़ायी पंडित जी ने-‘हाँ, तो आप मित्र के कर्तव्य की बात कर रहे थे न पदारथ भाई? ’
‘हाँ पंडितजी। ’- बगल में बैठे मधुसूदन तिवारी की ओर हाथ का इशारा करते हुए कहा पदारथ ओझा ने- ‘यह जो हमारे मित्र तिवारीजी हैं, बेचारे बहुत ही दुःखी हैं। वैसे तो भगवान ने इन्हें सब कुछ दिया है- माँ-बाप, घर-परिवार, नौकरी-चाकरी सब कुछ है; पर एक बड़ा सा अभाव है जीवन में। शादी के पांच साल हो गये। पर, बच्चे का मुंह न देख पाये। बेचारी बृद्धा माँ लगता है कि तरसती ही चली जायेगी पोते-पोती के लिए। ’
ओझाजी की बातें सुन पंडित जी के मुख सरोज पर प्रसन्नता के भ्रमर मंड़राने लगे, जो छोटी-छोटी निरीह मधुमक्खियों द्वारा संजोये गये मधुरस को चुरा कर पान करने के आदी हो गये थे।
अपनी दीर्घवृत्त तोंद पर सहजता से हाथ फेरते हुए पंडित जी मुस्काये-
‘ कोई बात नहीं। अब यहाँ आ गये हैं, तो सब कुछ सहज में ही ठीक हो जायेगा। ’और अगल-बगल बिखरी पुस्तकों के ढेर में से पंचांग खींच निकाले। कुछ पन्ने पलटे। बगल में पड़ा ‘श्याम-पट’ उठाये, और कुछ योगायोग करने लगे।
कोई आध घंटे के योग-बाकी के बाद पुनः बोले- ‘देखिये जी, तिवारीजी! मैंने आपके प्रश्न-कुण्डली के आधार पर गहन विचार किया। जन्म पत्रिका तो आप लाए नहीं हैं। फिर भी मैं स्पष्ट कर दूँ कि अगले चार बर्षों के अन्दर ही आपके सन्तान-भाव पति की शुभ दशा प्रारम्भ होने जारही है। यदि इधर न भी हो सका तो भी, उस काल में तो अवश्य ही सन्तान-लाभ-योग बनेगा। किन्तु यूँ ही नहीं, इसके लिए कुछ विशिष्ट उपाय करने होंगे। ’
पंडितजी की गहन भविष्यवाणी सुन दोनों मित्रों की निगाहें उनके चेहरे पर टिक गयी। तिवारी जी ने पूछा-
‘क्या उपाय करना होगा महाराज? ’
‘कुछ विशेष नहीं। ’-कहते हुए पंडितजी तिर्यक् दृष्टिपात किये ओझाजी की ओर, और बोले-‘आपकी स्थिति और आपके ग्रहों की स्थिति के अनुसार ही मैं यथासम्भव सरल-सुलभ उपचार सुझाऊँगा। आप चिन्ता न करें, ओझाजी के मित्र हैं। इनके द्वारा मेरे पास लाए गए हैं। -ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण हैं। ’
‘कहिये न। स्पष्ट कहिये। क्या करना है मुझे? ’- तिवारी जी ने उत्सुकता व्यक्त की।
‘सबसे पहले तो ‘वन्ध्या तन्त्र’ का एक प्रयोग बतलाऊँगा, जिसे
विशेष विधान से सम्पन्न करूँगा मैं। इस पर कोई पांच सौ रुपये खर्च आयेंगे। ’
रामदीन पंडित कह ही रहे थे कि बीच में ही बोल पड़े ओझाजी- ‘इतने के लिए कब भाग रहे हैं श्रद्धालु तिवारी भाई। और कहिये आगे क्या करना होगा? ’