पुनर्भव / भाग-4 / कमलेश पुण्यार्क
‘तत्पश्चात् ‘सन्तानगोपाल’ मन्त्र का ‘कलौ संख्या चतुर्गुणाः’ के अनुसार चौआलिस हजार पाठ और सपादलक्ष जप सम्पन्न कराना होगा। और सबके अन्त में कम से कम सात आवृति ‘हरिवंश’ का श्रवण करना होगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इतना कुछ कर लेने पर सहस्र जन्मों के पाप क्षय होकर वंशोद्भव अवश्य होगा, इसमें कोई दो मत नहीं। ’- कहते हुए रामदीन पंडित पुनः अपनी तोंद पर हाथ फरने लगे, जिसके पुनर्विस्तार की सम्भावना आसन्न प्रतीत हो रही थी।
इस प्रकार थोड़ी देर और उन लोगों की वार्ता चली, जिसमें कार्यक्रम सम्बन्धी समय और अर्थव्यय का हिसाब लगाया गया। अन्त में पंडित जी ने कहा- ‘समय तो सर्वोत्तम रहेगा देवोत्थान एकादशी वाला ही। जहाँ तक व्यय का प्रश्न है, तो ओझाजी के मित्र के नाते दस हजार से अधिक कहने का कोई औचित्य नहीं है। ’
‘क्यों नहीं...क्यों नहीं। ’- पदारथ ओझा ने उनके दही में सही किया।
‘इसी कारण तो दक्षिणा अति न्यून रखा मैंने। ’- कहते हुए पंडित जी उठ खड़े हुए, मानों कहीं जाने की जल्दबाजी हो। वस्तुतः उन्हें डर था कि और अधिक उलझाये रहा बातों में तो फिर दो जनों का रात्रि भोजन-विश्राम व्यवस्था का भी खतरा मोल लेना पड़ेगा।
तिवारी जी बेचारे मौन चिन्तन में थे। उन्हें दीख रहा था- दीर्घ अनुष्ठानिक व्यय-व्यवस्था का भारी बोझ। माँ कहेगी- ‘इतने में तो दूसरी शादी निपट जायेगी। क्या जरूरत, धर्म के विशात पर पाशे फेंकने के? ’ पर जो भी हो योगिता के लिए तो उन्हें सब कुछ करना ही है, सहना ही है।
वहाँ से प्रस्थान के पश्चात् रास्ते भर ओझाजी पंडित-पुराण अलापते रहे, और मौन मधुसूदन भावी खर्चों का खाका बनाते रहे मानस के तलपट पर। उन्हें सिर्फ इसी बात का सन्तोष था कि यदि सन्तान लाभ न भी हुआ, फिर भी कम
से कम आगामी चार-पांच बर्षों के लिए समाज का मुंह बन्द करने का नुस्खा मिल जा रहा है। वैसे यह रकम है तो भारी, किन्तु योगिता के सुख-शान्ति के लिए इतना त्याग तुच्छ त्याग ही कहलायेगा।
किन्तु व्यवस्था कहाँ से होगी, इस मोटी रकम की- सोच कर तिवारी जी कुछ देर के लिए काफी अशान्त हो गये, मानसिक रूप से; जिसका अन्दाजा प्रलाप-मग्न पदारथ ओझा कदापि न लगा सके।
तीब्र उच्छ्वास सहित तिवारीजी सोचने लगे- ‘और कुछ जगह-जमीन तो बचा नहीं। वह जो आम वाला बगीचा है, उसे ही बेच डाला जाय, क्यों कि ‘रेहन-इजारा’ से तो काम चलेगा नहीं। उसमें मिलेगा ही कितना? क्या फर्क पड़ता है,
बेच ही डाला जाय। ’
सोच तो लिया। मन ही मन निर्णय भी कर लिया- बेंच डालने का, किन्तु एक मात्र शेष पैत्रिक सम्पदा के भावी वियोग की मात्र कल्पना ही काफी था- मधुसूदन के मृदु कलेजे में ऐंठन पैदा करने के लिए। और याद आ गयी- मरणासन्न पिता की बात-‘बेटा! चाहे कितना भी कष्ट झेलना पड़े, उस बगीचे को मत गंवाना, क्यों कि उसके पत्ते-पत्ते से मेरी कोमल भावनायें जुड़ी हैं। ’
सच में वृद्ध तिवारी ने कितना श्रम किया था, उस बगीचे के पोषण में। उन दिनों नजदीक में कोई जलस्रोत भी न था। दूर तड़ाग से माथे पर जल भरी गगरी उठा लाते थे बेचारे वृद्ध तिवारी, और बड़े स्नेह से उन पौधों का सिंचन करते थे, मानों माता अपने नवजात शिशु को स्तनपान करा रही हो। पिता के स्नेह-सलिल से सिंचित उस रसाल-बाग को, जिसमें दो-चार अन्य फलदार वृक्ष भी मौजूद हैं, आज बेंचना पड़ेगा- सोच कर ही मधुसूदन का कलेजा मुंह को आने लगा। किन्तु योगिता के लिए यह सौदा भी इन्हें महंगा नहीं लग रहा था। फलतः निर्णय को पुष्ट कर मन ही मन उचित ग्राहक की भी तलाश करने लगे। पांडे से लेकर चौधरी तक -कई आए, उनके दिमाग में। अदेश काले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते। असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्। । - पर भी गम्भीरता से विचार किए, और अन्त में मन आ टिका परम मित्र पदारथ पर- दान नहीं, विक्रय ही करने की बात है, फिर भी सतपात्रता विचार तो करना ही चाहिए।
विगत बर्षों में कई बार ओझा ने कहा है उन्हें- उस रसभरे रसालों के बगीचे के बारे में। पदारथ जब कभी भी उस ओर से गुजरते- पतझड़ में खाली ठूंठ को भी देख कर, उनकी जिह्ना से लार टपकने लगती। उन्हें भी खूब पता था कि तिवारी के पास उस प्रिय रसाल-बाग के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं, जिससे इतनी मोटी रकम जुटायी जा सके। अब उन्हें वह सुनहला अवसर स्वतः ही आता प्रतीत हुआ- वगैर ‘हींग-फिटकिरी’ के।
‘तब पदारथ भाई! रूपयों का प्रबन्ध करना होगा न? कैसे हो पायेगी व्यवस्था? समय बहुत कम है। कोई महीने भर बाद ही तो कार्यक्रम प्रारम्भ करने को कहा है पंडित जी नें। ’- गांव के समीप पहुँचने पर तिवारी जी ने कहा मित्र ओझाजी से।
‘उसकी चिन्ता छोड़ो मदुसूदन भाई। मैं जब तक जीवित हूँ, कोई काम बिगड़ने नहीं दूँगा तुम्हारा। कहो तो कल ही रुपये का प्रबन्ध कर दूँ कहीं से। हालाकि इतने के लिए मुझे भी मामूली पापड़ नहीं बेलना पड़ेगा। ’-कहते हुए ओझाजी अपने गांव की ओर चल दिये। क्यों कि शाम होने को आयी। अभी कोई मील भर पैदल जाना भी तो है उन्हें और आगे।
पदारथ के पैर चलते रहे पगडंडियों पर, और विचार चलता रहा था- उनके छोटे-कुटिल-लोभी-मस्तिष्क में। मन ही मन हुलसते रहे। बर्षों की चाहत पूरी होने जा रही है आज। इस सुअवसर पर भला क्यों कर चूका जा सकता है!
करवट बदलते किसी तरह आँखों ही आँखों में रात गुजरी। खुशी के क्षणों में भी नींद गायब ही हो जाती है, गम तो नींद का शत्रु है ही।
होत प्रात, पदारथ पहुँचे- रुपयों का बन्डल धोती में लपेटे, मित्रता का प्रमाणपत्र लेकर- मधुसूदन तिवारी के द्वार पर।
क्षण भर के लिए तिवारी की आँखों में बाल-सुलभ चंचलता छा गयी, साथ ही कामना पूर्ति की प्रौढ़ प्रसन्नता भी चमक उठी। लगा, मानों एक पुत्र क्या, पुत्रों की जमात अठखेलियाँ कर रही हों उनके प्रांगण में। पल भर के लिए भूल बैठे, धर्मभीरू-धर्मान्ध हो कर कि पुत्र पैदा करने में सामर्थ्य हीन हैं। उनका हृदय आनन्दातिरेक से आप्लावित हो उठा। लपक कर आगे बढ़े, और ओझा को गले लगा लिए।
‘धन्य हो पदारथ भाई। धन्य हो। आज तुम्हारे बदौलत ही मुझे भी भावी सुख का सद्यः आभास मिल गया। तुम न होते तो सही में सरेआम नीलाम हो जाता- मेरी योगिता का सुहाग। वह मेरी रह कर भी ‘न’ रह पाती। ’
तिवारी का उत्साह देख ओझा का मुखमण्डल भी पूनो की चाँद सा चमक उठा। हँसते हुए बोले- ‘क्या कहते हो तिवारी भाई!भूल गए गोसाईं जी की बात- धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपत काल परीखिये चारी। मेरा तो यह कर्तव्य बनता है, कोई एहसान थोड़े जो लाद रहा हूँ तुम्हारे ऊपर? ’
‘हाँ पदारथ भाई! ठीक कहते हो तुम। तुम्हारे जैसे ही मित्र होंगे गोसाईं जी
के भी। तभी तो कहा है, उन्होंने-
‘जे न मित्र दुःख होहीं दुखारी, तिनहीं बिलोकत पातक भारी। ’
आह! कितना ही गहन परख था, उन्हें मित्रों का। आज के घोर कलिकाल में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना वाले लोग कहाँ मिलते हैं? ’-गदगद कंठ से तिवारी ने कहा।
‘इसका नतीजा देख रहे हो? दुनियाँ रसातल में जा रही है। छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े परमाणविक युद्ध के व्यूह रचे जा रहे हैं। मित्र का कर्त्तव्य और सन्धिवार्तायें मात्र ‘कागजी’ हो कर रह गयी हैं। कल तक हम हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते थे। आज वही हमारा प्रबल प्रतियोगी और शत्रु बन कर चैन की नींद हराम किये हुए है। ’- गम्भीर भाव से पदारथ ने कहा।
‘अब देखो न पदारथ भाई! बाहरी तो बाहरी है, देश के अन्दर ही कितनी दरारें हैं- प्रान्तीयता, जातियता, क्षेत्रीयता, भाषा, रंग, धर्म, सम्प्रदाय- अगनित खाइयाँ, अगनित दरारें। ‘गणतन्त्र ’ ‘स्वतन्त्र ’ ‘जनतन्त्र ’ सब सिर्फ शब्दजाल भर रह गये हैं, तथ्यहीन, दिशा हीन, विचार हीन। भगत, आजाद की लहु से सने तिरंगे का दर्द हम भूल बैठे हैं। राष्ट्रीय एकता के विखण्डन का बीज इसी प्रकार पनपा था एक दिन, और चरकी चमड़ी के सिर पर पवित्र आर्यावर्त का राजमुकुट ‘सरक’ कर चला गया था, वह राजमुकुट जिसमें हमारा प्यारा ‘कोहीनूर’ भी जड़ा है। ’
‘बात तो लाख टके की कहते हो तिवारी भाई। ’
‘हाँ, हम सिर्फ बातें ही न कर रहे हैं। हो क्या रहा है, सो तो देखो- पछुआ वयार पुनः तेज हो रहा है। बंगाली भाई कहते हैं- बंगाल मेरा है। तमिलों को तमिल चाहिए। मराठियों को मराठा। नागाओं को नागादेश। सिक्खों को खालिस्तान चाहिये। असमियों को असम। क्या यह सब राष्ट्रीय एकता का घुन नहीं है? विहार कहता है-सारी भू- सम्पदा मेरे पास है। कोई कहे- फैक्ट्रियाँ मेरे राज्य में हैं। हम गैरों को क्यों इसमें प्रवेश दें? क्या यही गणतन्त्र बनाया था ‘पटेल’ ने? अब जरा सोचो- हर प्राणी के पास एक पेट है। हाथ-पांव जी तोड़ कर कमाता है, और पेट निठल्ला बैठे खाता है। तोंद सहलाने को भी हाथ को ही कहता है। पर यदि हम उस पेट को भोजन देना बन्द कर दें, तो क्या यह शरीर चलेगा? ’
‘हर अंग का अपना महत्त्व है, तिवारी भाई। ’- दांत निपोरते हुए ओझा ने कहा- ‘सबमिल कर एक शरीर बनता है। अलग-अलग वे सभी महत्त्वहीन, ओजहीन, तेजहीन, शक्तिहीन हैं। पंजाब का गेहूँ हो या बंगाल का चावल, केरल का नारियल हो या झारखण्ड का खनिज, इन सब अंगुलियों की एकत्र बन्द मुट्ठी का नाम भारत है। ’
हामी भरते हुए तिवारी ने कहा- ‘पंजाब सिर्फ गेहूं फांक कर नहीं रह सकता, और न बंगाल का काम ‘पानता भात’ से पूरा हो जायेगा, डाभ का पानी पीकर केरल सिर उठाये रह सकेगा? असम के लिए किरासन तेल ही काफी है क्या? नहीं न? राष्ट्र के सर्वांगीर्ण विकास में इन सबका योगदान जरूरी है। इतना ही नहीं, इस लघु परिधि से बाहर सुदूर सागर पार तक निगाहें दौड़ानी होंगी। जहाँ तक मानव जाति है, मानवता का नियम वहाँ तक फैला है। इसका जड़ प्रशान्त महासागर के अतल जल में है, तो फुनगी- शनि लोक से भी ऊपर। ’
‘बिलकुल सही कह रहे हो तिवारी भाई। ’- ओझा ने सिर हिलाते हुए कहा।
‘किन्तु पदारथ भाई! चौकी पर बैठ कर गप्पें लगाने से, खादी पहन कर गांधी को माल्यार्पण करने से, लालकिला के प्राचीर पर सिर्फ भाषण देने से सब कुछ नहीं हो जायेगा। होगा तब, जब हम सच्चे अर्थों में जगेंगे। हमारे अन्दर एक राम है, एक अर्जुन है; तो एक रावण और एक दुर्योधन भी है। हमें उस आसुरी सम्पदा युक्त तमोगुण को परास्त करना होगा। पहले स्वयं को सुधारना होगा, फिर विश्ववन्धुत्व की बात की सार्थकता सिद्ध होगी। या यूँ कहें कि हर कोई यदि स्वयं को सुधारने में तत्पर हो जाय, फिर ऊँचे मंचों के प्रलाप का कोई औचित्य ही नहीं रह जायेगा। ’
‘इसीलिए तो मैं अपना कर्त्तव्य याद किया- मित्र की सहायता। ’- पदारथ अपने मुंह ‘मियां मिट्ठु’ बनने लगे- ‘इसी तरह हर कोई अपना ‘कर्म’ समझ ले तो फिर वापू का रामराज्य दूर थोड़े जो रहेगा? ’
इसी तरह के राग अलापे जाते रहे। देशप्रेम और मानवता का धुन बजता रहा काफी देर तक। फिर पदारथ ओझा अपने गांव चले गये। इधर तिवारी जी ने नोटों की गड्डी को बाँधा अंगोछे में और चले योगिता की आंचल में खुशियों का खजाना सौंपने।
पैत्रिक आम का बगीचा अब ‘आम’ हो गया। उस शस्यश्यामला भूमि पर मधुसूदन का अधिकार समाप्त हो गया। बगीचे के चारों ओर ईंट-गारे की मदद से घेराबन्दी होने लगी। ओझा के मुंह से बरबस चू पड़ने वाले लालारस, अब जिह्वा में ही लटपटाये रहेंगे। सहृदय ग्रामिणों के मुंह से यदाकदा निकल पड़ता- ‘बेचारे तिवारी का रहा-सहा बपौती जायदाद भी ओझा की अनूठी कलावाजी से समाप्त हो गया...अब तो मकान भर रह गया सिर्फ। ’
इधर तिवारी जी के मकान के सामने फूस-पतेले गिरने लगे। पुत्रेष्ठि यज्ञ समारोह के सम्यक् सम्पादन हेतु ओझा जी-जान से प्रयत्नशील हो गये। यज्ञमण्डप का निर्माणकार्य प्रारम्भ हो गया। बड़े-बड़े पंडित, याज्ञिक, होता, अग्निहोत्री, त्रिदण्डी, नारद- सबका जमात चील- कौए सा मड़राने लगा- माधोपुर के निरभ्र व्योम मण्डल के तल में। कम से कम दो महीने का आश्रय तो हो ही गया माधोपुर।
ओझाजी बारम्बार ढाढ़स बन्धाये जा रहे थे- ‘देखो मधुसूदन!घबराना नहीं चाहिए। बड़े काज-प्रयोजन में भीड़भाड़ होती ही है। हर कोई अपना अंश ग्रहण करता है। किसी और का हिस्सा किसी और ने खाया नहीं है आज तक। दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है। मान लो पैसे कम पड़े तो निःसंकोच मांग लोगे। मुझे अपने से भिन्न न समझो। मेरा-तुम्हारा कुछ अलग नहीं है। ’
‘मैं कब कह रहा हूँ कि तुम गैर हो। ’-मधुसूदन ने कहा।
निर्धारित समय पर यानी एकादशी से यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ हो गया। कोई इक्कीस दिनों बाद प्रथम चरण का समापन हुआ। और उसके बाद सप्ताहान्त तक सम्पन्न हो गया वृद्ध माता जी का इहलौकिक प्रवास। बेचारे मधुसूदन का अन्तः कराह उठा माँ के निधन से। परन्तु पदारथ की मधुर सान्त्वना की थपकी से दब कर रह गयी बेचारे की ‘आह’। किसी प्रकार आँसू पोछते हुए श्राद्धादि सम्पन्न किया गया, और लगे हाथ ‘वार्षिकी’ भी निपटा ही डाला गया। कारण कि आगे अनुष्ठान का अगला चरण बाधित होने की चिन्ता भी थी।
तिवारी का अन्तःस आलोड़ित हो रहा था- प्रथम चरण की आहुति बनी माँ। पता नहीं आगे क्या अनिष्ट होनेवाला है!
किन्तु कलेजे पर पत्थर रख कर अगला चरण भी पूरा किया ही गया। फिर शेष दो चरण भी किसी प्रकार पूरे करके ‘कलौ संख्या चतुर्गुणाः’ को सार्थक किया गया। यज्ञान्त तक कोई पांच-छः हजार के ऋणबोझ-तले आ दबे तिवारी जी, और ढाढ़स के ‘बेलचे’ से उनके साहस के ‘ढूह’ का मलवा हटाते रहे कलियुगी मित्र पदारथ ओझा। किन्तु उनके अल्प प्राण बेलचे में इतनी सामर्थ्य
कहाँ जो पूरी तौर पर बोझ-मुक्त कर सके बेचारे तिवारी को। हुआ यह कि तिवारी शनैः-शनैः और भी फँसते गए दलदल में। नतीजा यह हुआ कि एक दिन पुस्तैनी मकान से भी हाथ धोना पड़ा।
समय गुजरता गया। तीब्रगामी यान में सवार होने पर, जिस प्रकार अगल-बगल के पेड़-पौधे पीछे भागते हुए नजर आते हैं, उसी प्रकार समय भागता रहा- वैसे भी ‘वह’ आज तक किसी के लिए ठहरा थोड़े जो है, और जर्जर गृहस्थी के भारी बोझ को सिर झुकाये मूक ‘वैशाख नन्दन’ की तरह ढोते रहे बेचारे तिवारी।
यज्ञानुष्ठान सम्पन्न हुए भी तीन साल गुजर गये। इन्तजार के लिए तीन साल बहुत होते हैं। अब तो राह चलते भी कोई न कोई टोक बैठता- ‘क्यों तिवारीजी! कब बजा रहे हैं ढोल-तासा? कब खिला रहे हैं हलवा-हल्दी-सोंठ-ओछवानी? ’- पूछने वालों को क्या लगना था! बस जरा सी जुबान हिलानी पड़ी। पर यहाँ तो तिवारी के नाक पर प्याज कट रहे थे।
एक दिन योगिता ने कहा- ‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि यह सब ढोंग-ढकोसला है। अब त्रेता-द्वापर नहीं रहा। पुत्रेष्ठियज्ञ का सिद्धान्त वूढ़ा हो गया है। न वे याज्ञिक रहे, न वे कर्मकाण्डी। फिर फिजूल का अन्धेरे में तीर चलाने से क्या होना-जाना है? पर आपकी बुद्धि और विवेक तो बिक चुका था पदारथ ओझा के हाथों। फिर मेरी कौन सुनता!
‘सुनाओ, तुम्हारी भी सुन लें। ’- मायूस मधुसूदन ने कहा।
योगिता ने याद दिलायी फिर वही प्यारेपुर के वैद्यजी की-‘उस बार भी कही थी आपसे, फिर कह रही हूँ- प्यारेपुर के वैद्यजी से मिलकर एक बार परामर्श लेने में क्या हर्ज है? मुर्दे पर जैसा मन भर, वैसा ही सवा मन। कल ही आप जायें वहाँ। हो सकता है यश
उन्हीं के हाथ से मिलना हो। ’
‘ठीक है। सुन लिया, तुम्हारी भी...। एक समधी से निपट चुका, पदारथ के कथनानुसार, अब दूसरे से भी निपट ही लूँ तुम्हारे कथन से। ’- कहा मधुसूदन ने और दूसरे दिन की प्रतीक्षा किये वगैर, चल दिये उसी दिन प्यारेपुर जो माधोपुर से कोई पांच-छः मील की दूरी पर था।
थकेमादे, अस्ताचल गमनोद्यत सूर्य के साथ-साथ मधुसूदन तिवारी पहुँच गये प्यारेपुर- ग्रामिणों के प्यारे वैद्य साक्षात् अश्विनी कुमार के पास। मन ही मन तिवारी जी वैद्यजी के अभिनन्दनार्थ एक श्लोक सोच रखे थे-
‘वैद्यराज नमस्तुभ्यं, यमराजस्य सोदरः।
यमो हरति वै प्राणः, त्वं तु प्राणान् धनानि च। । ’
गत धार्मिक आडम्बरों ने तिवारीजी को प्रायः तोड़ कर रख दिया था। अब न श्रद्धा रही थी, और न विश्वास। फिर भी किये जा रहे थे सब कुछ अकर्तृत्त्व भाव से।
दरवाजे पर पहुँचते ही खल-बट्टों की खन-खन, टुन-टुन की ध्वनि कानों को तृप्त करने लगे थे, किसी मन्दिर के घंटे-घलियालों की तरह।
विस्तृत प्रांगण- जिसमें एक से एक जड़ी-बूटियाँ- हड़जोड़ से लेकर कमरतोड़ तक लगी हुयी थी। उन्हें पार कर ऊपर वरामदे में पधारे, जहाँ कोई दस-बारह व्यक्तियों से घिरे बैठे थे- यमराज के सहोदर- महाशय वैद्यराजजी, जो बारी बारी से आतुरों की नाड़ी परीक्षा कर औषधि-निर्देश देते जा रहे थे। बगल में ही बैठे थे, एक छोटी सी चौकी पर, स्तूपाकार छोटे-बड़े मृत्तिका-पात्रों से घिरे, एक सज्जन जो सम्भवतः धन्वन्तरी-दरवार के ‘मिश्रक’ रहे होंगे। कुशल सम्वेष्ठक सा शीघ्रातिशीघ्र औषध-निर्देशिका का निरीक्षण करते हुए औषधियों की पुड़िया बनाते जा रहे थे। उनके ठीक बगल में लिपिकनुमा एक व्यक्ति उन पुडि़यों पर यथावश्यक - खाने से पहले, और खाने के बाद, सोने से पहले और सोने के बाद, जगने से पहले- और पता नहीं क्या-क्या निर्देश अंकित करता जा रहा था। एक ओर कोने में वृहदाकार कड़ाह में तेल खौल रहा था, मानों धन्वन्तरी के वारातियों के स्वागतार्थ पकौड़ियाँ तलनी हों। छोटे-बड़े मृत्तिका पात्रों में विभिन्न प्रकार के चूर्ण-वटी, अवलेह आदि सजे पड़े थे-‘औषधि-कूट’ की प्रदर्शनी की तरह। वरामदे के पिछले भाग में रूग्णों की शैय्यायें थी, करीने से सजी- कोई बीस-पचीस। एक धवलधारिणी प्रवया कुप्पी से ढाल-ढाल कर कोई खास आसव-पान प्रायः प्रत्येक रोगियों को कराती जा रही थी। बीच-बीच में दरवार की भीड़ को भी निहारती जा रही थी।
कुछ देर तक तिवारीजी एक कोने में खड़े होकर, निरीक्षण करते रहे- वैद्य-दरवार का, और दरवारियों का भी। फिर एक ओर तख्त पर आसन ग्रहण किए।
कोई घंटे भर बाद उनकी भी बारी आयी। आतुरों में सबसे पीछे पहुँचे थे। फलतः बारी आने तक सान्ध्य कालीन दरबार करीब खाली हो गया था। इनकी ओर मुखातिब होते हुए वैद्यजी ने पूछा-
‘कहिये, कैसे आना हुआ? ’
हालाकि तिवारी जी को पहले भी एक-दो दफा मुलाकात थी, परन्तु परिचय प्रगाढ़ नहीं था। श्रद्धा-अश्रद्धा के झूले में झूलते हुए तिवारीजी आद्योपान्त अपनी रामकहानी सुना गए। ध्यानस्थ हो वैद्यजी सुनते रहे, बीच-बीच में कभी दायीं, कभी बायीं नाड़ी का परीक्षण भी करते रहे। अन्त में बोले-
‘आप एक काम करें तिवारी जी- सन्तानोत्पत्ति का एक अति सामान्य परीक्षण हम पहले करायेंगे; तत्पश्चात् ही कुछ स्पष्ट निर्देश दे पायेंगे। ’
‘कहिये, मुझे क्या करना होगा, इसके लिए? ’-तिवारीजी ने पूछा।
वैद्यजी ने विधि बतलायी-‘मिट्टी के दो प्याली ले लें। उन दोनों प्यालों मंण मूंग, चना, और गेहूं के कुछ दाने डाल दें। प्यालों के पहचान के लिए पति-पत्नी अपना नाम अंकित कर दें। अब, लागातार तीन दिनों तक, नित्य प्रातः शैय्या त्याग के पश्चात् अपने-अपने प्यालों में मूत्र त्याग करें। चौथे दिन उन प्यालों को लेकर हमारे पास आवें। ’
रात हो ही चुकी थी। अब प्रभात की प्रतीक्षा है। आतुरालय के नियमानुसार मूंगदाल और पुराने चावल की खिचड़ी, अन्य लोगों के साथ-साथ तिवारी जी को भी मिली। खा-पीकर एक चौकी पर आसन लगाये, सुबह के इन्तजार में।
घर पहुँच कर वैद्यराज का नुस्खा बतलाये योगिता को- ‘उधर, बर्षों तक तिल, जौ, अक्षत, घी ढोया; अब ढोना है मल-मूत्र। ’
‘कितना हूँ कुछ ढोना पड़े, बांझपन के असह्य बोझ से कम ही है- कुछ और। ’- कहती हुयी योगिता पति के स्नान के लिए जल लाने कुएं की ओर चली गयी।
तीन दिनों तक वैद्यजी के निर्देश का पालन हुआ। चौथे दिन, प्रथम प्रहर में ही प्रस्थान किये उनके पुनर्दर्शन हेतु।
वैद्य-दरवार में पहुँचते के साथ ही आज बुलावा आ गया। प्यालों की पोटली लिए तिवारीजी समीप पहुँच कर, दर्शन-पात्र की तरह समक्ष प्रस्तुत किये।
कुछ देर तक दोनों सिकोरों को गौर से देखते रहे वैद्यजी। फिर बोले- ‘यह बड़ा सिकोरा आपका है न? ये देखिये, इसमें पड़े किसी भी दाने में जरा भी अंकुरण नहीं है। एक दाना अंकुरित होने का संघर्ष भी किया है, तो अंकुरण काला पड़ कर रह गया है। और दूसरी ओर आपकी पत्नी वाले सिकोरे में लगभग सभी दाने अंकुरित हैं।
जिज्ञासु भाव से मधुसूदन ने प्रश्न किया- ‘इसका क्या अर्थ लगाया अपने महाराज? ’
और, जो कुछ अर्थ बतलाया वैद्यराज ने, उसे जान कर तिवारी को स्वयं का जीवन अर्थहीन लगने लगा। उन्होंने कहा- ‘आपके प्याले में काले अंकुर या अंकुरण का सर्वथा अभाव यह स्पष्ट करता है कि आपमें सन्तानोत्पादन क्षमता का अभाव है; जब कि पत्नी पूर्ण उत्पादन-क्षमता वाली है। अतः आपको पुनर्विवाह से भी कोई लाभ नहीं मिल सकता। बीज ही नहीं फिर अंकुरण क्या? पौधा क्या? ’
उदास होकर तिवारीजी ने पूछा-‘इसका कोई उपचार महाराज? ’
‘खैर उपचार तो हर बीमारी का है, किन्तु देर बहुत हो गयी है। वैसे मैं कुछ दवा दे देरहा हूँ आपको। कम से कम एक बर्ष तक इसका सेवन अनिवार्य है। इस बीच यथासम्भव ब्रह्मचर्य व्रत का सम्यक् पालन भी होना चाहिये। साथ ही अन्य छोटे-मोटे परहेज भी जरूरी हैं- जैसे खट्टा-तीता तो बिलकुल ही नहीं खाना है; साथ ही एक और बात-जो सर्वाधिक ध्यातव्य है, वह यह कि मेरी औषधि को मात्र औषधि न समझें, प्रत्युत एक धार्मिक अनुष्ठान समझें। वस्तुतः मैं जो दे रहा हूँ वह सब मन्त्र-पूरित तान्त्रिक योग है। इसे निरा घास-पत्ता न जान लें। अतः इसे सेवन करते रहने तक बाहर का कोई सामान नहीं खाना है। ’
‘बाहर का सामान? ’-तिवारी जी चौंक कर पूछे।
‘हाँ, कहने का मतलब है कि बाहर का बना बनाया खाद्य पदार्थ वर्जित है। किसी समारोह में खाने-पीने से भी बचें। ’-कहते हुए वैद्यजी ने अपने मिश्रक की ओर एक पुर्जा बढ़ायी। मिश्रक महोदय ने कुछ जोड़-घटाव किया। दो बार अपनी नाक-कान भी खुजलाये। फिर थोड़ी देर बाद उसका हिसाब लगाकर उन्होंने बतलाया- साढ़े सात सौ रुपये मात्र, तीन माह के लिए, यानी पूरे बर्ष की दवा की कीमत हुयी तीन हजार रुपये।
कीमत सुन कर बेचारे तिवारी जी मानो आसमान से गिर कर खजूर पर अटक गये।