पुनर्भव / भाग-5 / कमलेश पुण्यार्क

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‘बाप रे तीन हजार रुपये! तिस पर भी कोई गारण्टी जैसी बात नहीं। मन ही मन बुदबुदाये; और स्पष्ट तौर पर बोले- ‘इतनी रकम तो अभी मेरे पास है भी नहीं। ’

‘कोई बात नहीं। दवा जब विचार हो आकर ले लें। इस पर्ची को अपने पास सुरक्षित रखें, और वैद्यजी का परीक्षण शुल्क एक सौ एक रुपये मात्र अभी जमा कर दें। ’- कहते हुए मिश्रक ने पर्ची तिवारी जी की ओर बढ़ा दी।

तिवारीजी ने जेब में हाथ डाला, ‘बख्तरबन्द’ के बत्तीसों जेबों को टटोलने पर भी बामुश्किल पचहत्तर रुपये छः आने दो पैसे मात्र निकल पाये। उन्हें ससंकोच वैद्यराज के श्रीचरणों में अर्पित कर पिंड छुड़ाया- ‘यमसोदर’ के दरवार से।

घर आकर, हताश-निराश तिवारी चारों खाने चित्त पड़ गये, आंगन में रखी झिनगा खाट पर। घबरायी हुयी योगिता पास आकर उनका कुशल-क्षेम पूछने लगी- ‘क्या कहा वैद्यजी ने? इतने उदास क्यों हैं आप? ’

‘कहेंगे क्या! वैद्य और यम में थोड़ा ही तो अन्तर है। बेचारा यम तो मात्र प्राण हरण करता है, किन्तु वैद्य तो उनके बड़े भाई हैं। पहले खून चूसते हैं- धन हरण कर, फिर जरूरत के मुताबिक प्राण भी हरण करते हैं-इस टिप्पणी के साथ तिवारी जी ने वहाँ की ‘रनिंग कमेन्ट्री’ सुना डाली।

‘तो क्या हुआ, ले लेना चाहिए था। दवा के वगैर वैद्य की दुआ से तो काम चलना नहीं है। ’- कहती हुयी योगिता पास में खड़ी होकर पंखा झलने लगी।

‘लगता है रुपयों का ‘रूख’ उगा हो आंगन में। ’-क्रोध और झल्लाहट पूर्वक तिवारी जी ने कहा- ‘कहाँ से आयेंगे तीन हजार, तुम्हारे मैके से? अब जो भी हो, सन्तान हो, ना हो; मुझे कुछ भी नहीं करना है। ’

तिवारी अभी और बकते- निकालते अपने मन की भड़ास, किन्तु अचानक उठकर बाहर चले जाना पड़ा; क्यों कि पदारथ ओझा की सुबह से तीसरी आवृत्ति थी- ‘आये हो! तिवारी भाई? ’

बाहर तख्त पर विराजते हुए ‘वैद्य-पुराण’ सुनाया गया ओझाजी को, जिसे सुन कर वे हँसने लगे- ‘अरे मित्र! कहाँ जा फँसे उस मक्कार के पास? क्या दुनियाँ में सभी रामदीन पंडित ही हैं? खैर, छोड़ो अब यह सब। अनुष्ठान-पूजा सब करा ही लिए। कोई सतयुग तो है नहीं, जो इस हाथ का दान उस हाथ का दक्षिणा हो जाए। देखो, भाग्य में जो होगा सो मिल कर रहेगा। आज न कल तुम्हें सन्तान लाभ हो कर ही रहेगा। ’

और तिवारी ने अक्षरसः पालन किया- ओझा के उपदेश का। हाथ पर हाथ धर कर, भाग्य भरोसे समय गुजारने लगे।

‘भरोसा, एक बहुत बड़ा अवलम्ब होता है, चाहे वो व्यक्ति का हो या भगवान का या कि भाग्य का।


काल का पहिया बहुत तेजी से घूम गया; जब कि तिवारी दम्पति को उसे घुमाने में सत्रह-अठारह बर्ष लग गये। तिवारी की उम्र कोई पैंतालिस बर्ष हो गयी, तदनुसार योगिता की उम्र भी चालिस से पार हो ही गया। इस बीच एक विचित्र घटना घटी-

एक दिन तड़के ही तिवारी जी को तलब हुआ- शौच का। विस्तर छोड़, चट-पट उठाये लोटा, सम्हाले धोती, और चल पड़े- मुंह अन्धेरे में ही पास के बगीचे की ओर।

अभी अपने घर से- जो मात्र अब घर कहने भर को था; असली घर से तो कब के बेघर हो चुके थे, रामदीन-पदारथ की कृपा से। चौधरी की दूरगामी व्यवस्था के तहत पुरानी खण्डहर का ही एक हिस्सा मिल गया था, उसी में झोपड़ी डाल कर गुजर कर रहे थे, दीन-हीन तिवारी दम्पति। कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक सद्यः जात शिशु का करुण क्रन्दन कानों में पड़ा। शुष्क धरा के कठोर स्पर्श से, साथ ही वातावरण के सर्द से व्यथित शिशु क्षुधा-तृषा से भी सन्तप्त हो रहा था। फलतः उच्च स्वर में क्रन्दन कर रहा था।

शिशु-क्रन्दन सुन मधुसूदन की शौच-जन्य उदर-पीड़ा प्रसवोत्तर प्रमदा की उदर-वेदना सी शमित हो गयी, मानों उनका ही प्रसव हो गया हो। तिवारी का वात्सल्य हृदय करूणा-विह्नल हो उठा। पलट पड़े उस वृक्ष की ओर, जहाँ उन्नत तरुमूल का तकिया बनाये, भूमि के पर्यंक पर चिथड़े का विस्तर डाले एक बालिका पड़ी थी।

तिवारी का हृदय हर्ष-गदगद हो आया। एक ओर उस कठोर-हृदया जननी की बात सोचने लगे, जिसने नौ मास अपने कुक्षि में वहन करने के पश्चात्, ला फेंका था- इस विजन प्रान्तर में, तो दूसरी ओर अतिशय सहृदय सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा की असीम अनुकम्पा पर रोमांच हो आया; साथ ही उन्हें आश्चर्य हुआ, वहाँ लगे पक्षियों के जमघट को देखकर।

शिशु का मुख क्षुधा-तृषा से खुला देख निर्विवेक शकुन्तगण समीपवर्ती सरिता से जल लाकर अपने चंचुओं से उसके मुंह में डाल रहे थे। प्रकृति के इस ‘दिव्य’ दृश्य को विस्फारित ‘सामान्य’ दृगों से कुछ पल तक तिवारी जी देखते रहे। फिर लपक कर उठा लिये उसे। अपने अंक में भर लिया उस अबोध बालिका को, और लौट पड़े वापस।

घर आकर उस असहाय कन्या को योगिता की गोद में डाल दिया, और शकुन्तों की अद्भुत व्यवहार की गाथा गा गये। हर्ष से विह्नल योगिता ने कहा- ‘आप कहते थे न- पूजा-पाठ, यज्ञ-याग सब ढोंग-ढकोशला है। देख लिये न यज्ञ का अक्षय फल? दयावान प्रभु के दरवार में देर तो है, पर अन्धेर नहीं। द्वापर की पृथा सन्तान की आकांक्षा लेकर गयी थी- पंचदेवों के पास। पर इस घोर कलिकाल में मुझ अभागिन को भाग्यवान बनाया, भगवान ने स्वयं आकर। साध्वी कुन्ती के कानीन कर्ण को पाकर, सुनते हैं कि सूतराज्ञी राधा के स्तनों में दूध उतर आया था। मैं भी आज माँ बन गयी, वगैर प्रसव वेदना के ही। अब देखियेगा, मेरे ढलते शुष्क मांसल पिण्ड भी अन्तःसलिला सी, पयश्विनी हो जायेंगे। ’- कहती हुयी योगिता ने अपने अपुष्ट उरोजों को विवस्त्र कर शिशु के रक्ताभ अधर से लगा दिया। नादान शिशु शुष्क, नीरस चुचुकों को सेवती की पंखुडि़यों जैसी अपने कोमल नन्हें हथेलियों से पकड़ कर महातृप्ति पाने लगा। योगिता का रोम-रोम हर्षित हो उठा।

प्राच्य क्षितिज का बाल रवि अपने स्निग्ध ज्योत्सना से पूरे माधोपुर को जगा गया, साथ ही उन्हें एक नया संदेशा भी सुना गया। फलतः पहर भर दिन चढ़ने तक मधुसूदन तिवारी के द्वार पर त्रिवेणी-संगम सा जनसमागम हो गया। हर व्यक्ति के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी- ‘हे ईश्वर तू कितना दयावान है!’

आगन्तुकों की भीड़ को चीरते पदारथ ओझा भी पहुँच गये। तिवारीजी की पीठ ठोंकते हुए भावविभोर हो बोल उठे- ‘यज्ञ का कितना मधुर फल आज तुम्हें मिला मधुसूदन भाई! रामदीन पंडित कोई साधारण थोड़े ही हैं। उनके

अनुष्ठान के सुपरिणाम से आज साक्षात् आद्याशक्ति योगमाया ने अवतार लिया

है तुम्हारे यहाँ। वंध्या योगिता यशोदा बन गयी आज......। ’

भीड़ में किसी ने भुनभुनाया- ‘मामूली थोड़े हैं रामदीन पंडित,

दस-बीस हजार चूस कर, पचीस बर्ष बाद योगमाया का अवतार- कुलक्षणी कन्या भेजे हैं....अरे ये तो किसी कुआंरी अथवा विधवा का पाप ही तो बटोर लाये तिवारी...लगता है पिण्डा देकर उद्धार ही कर देगी.....। ’

‘अब क्या है, नाचो-गाओ, खुशियाँ मनाओ। ढोल-नगाड़े बजाओ, मिठाइयाँ बाँटो। ’- कहते हुए अपनी कमर टटोले पदारथ ओझा, और धोती की गांठ खोल कड़कड़ाते एक सौ रुपये का नोट निकाल कर महामाया के उस बालरूप के चरणों में अर्पित कर दिया।

‘यह क्या कर रहे ह® पदारथ भाई’- कृतज्ञ तिवारी ने कहा।

‘कुछ मेरा भी अधिकार बनता है। या कहें, मैं अपना कर्त्तव्य कर रहा हूँ। क्यों, मेरा इतना भी हक नहीं? अभी क्या देखे हो, जरा इसे बड़ी तो होने दो। इसकी शादी-ब्याह सब कुछ मैं ही करूँगा। तुम्हारा काम सिर्फ कन्यादान करना ही रहेगा। ’-बड़े उत्साह से कहा पदारथ ओझा ने, ड्डर मद्दुसूदन की गोद से लेकर योगिता की गोद में डाल दिया नवजात को।

‘अरे! जरा इसकी आँखें तो देखो, कितनी भोली लग रही हैं। एकदम मछलियों सी चंचल आँखें। मैं तो इसे मीना कहूँगी। ’-बच्ची को गोद में लेती हुयी योगिता ने कहा था।

और अज्ञात कुल-गोत्र शिशु मीना नाम ‘लेकर’ मधुसूदन तिवारी और योगिता बाली के शयन कालिक आलिंगन की सहचरी बन गयी।

तिवारी दम्पति की दुनियाँ अब मात्र उन चंचल दृगों तक ही सिमट कर रह गयी। मधुसूदन को अब स्कूल से जल्दी घर आने की हड़बड़ी रहने लगी। पूजा-पाठ अपेक्षाकृत कम होने लगा। बस एक ही काम मुख्य रह गया- योगिता की गोद में पड़ी उस सजीव मांस-पिण्ड सी नवजात कन्या को निहारते रहना, बस निहारते रहना। सम्पूर्ण मानवी पूर्णता से रहित, नारी शरीर की आकृति के संकेत मात्र कच्ची कोमलता और अपूर्णता ही तो उस शिशु का सौन्दर्य था। पिलपिले से सिर पर भूरी रोमावली- तड़ाग-तट पर उगे ‘सेवार’ जैसे, छोटे-छोटे नीले वन्य-प्रसून से दो नेत्र, श्वांसोच्छ्वास हेतु चींटे के बिल की तरह छोटे-छोटे नासारन्ध्र, दन्त रहित- वह भी प्रायः खुला रहने वाला रक्ताभ मुख- ऐसा लगता मानों सद्यः कटे मांस में उभरे रक्त ब्रण हों। बालिका अपने छोटे-छोटे, नितान्त अक्षम-पंगु से हाथ-पांव हिला-डुला भर ही तो सकती थी, जिसकी इच्छा और आवश्यकता का सूचक- मात्र किलक वा क्रन्दन हुआ करता है। किन्तु इस दिव्य सौन्दर्य को, रूप-लावण्य की पुंज मीना में देख कर तिवारी दम्पति को महाराज उदयन के महार्घ वीणा की तारों से निकले दिव्य संगीत-झंकृति की अनुभूति होती, और, वे ब्रह्मानन्द सहोदर के सत्त्व लोक में विचरण करने लगते। शिशु को हँसाने हेतु दोनों हाथों में थामकर ऊपर उछालने लग जाते। कभी गोद में लेकर तिवारीजी सघन श्मश्रु से घिरे होठों को उसके कोमल कपोलों पर बिठा, पुचकार उठते, और बालिका का मधुर हास्य- करूण क्रन्दन में परिवर्तित हो जाता, तीखे श्मश्रु-तुणीर के घातक स्पर्श से। योगिता झपट कर उनकी गोद से ले लेती, बालिका को-

‘धत् ! आपको तो बच्चों को दुलारना भी नहीं आता। ’और मुस्कुराते हुए तिवारी अपनी मूंछ सहलाने लगते।

किलक-हास्य के इन्हीं समवेत स्वरों में काल का आवाध चक्र चलता रहा। नन्हीं बालिका कुछ बड़ी हो गयी। अब सर्प सा सरक कर चलना छोड़, अपने पुष्ट पांवों पर चलना सीख गयी। उसके दोनों हाथों को दो ओर से पकड़, तिवारी दम्पति उसे चलना सिखाते, और नन्द-यशोदा सा वाल्य-लीला-सुख-लाभ करते। कभी कभार चुपके से किया गया मृत्तिका-भक्षण पल भर के लिए माता योगिता की भृकुटि को गान्डीव की प्रत्यंचा सा तनने को विवश कर देता, और ऊखल से बँधे दामोदर की तरह अपना मुंह फाड़कर, बालिका क्षण भर में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड-दिग्दर्शन करा जाती। बच्ची को गोद में उठा, योगिता आत्मविभोर हो उठती।

‘झूठ-मूठ का तुम बच्ची पर आरोप लगाती हो। कहाँ खायी है इसने मिट्टी? ’- तिवारी जी हँसकर कहते।


किन्तु दुर्भाग्य! योगिता का यह बाल-लीला-दर्शन अधिक दिनों तक दैव से देखा न गया, शायद ईर्ष्यावश। फलतः कृष्ण-वधार्थ प्रेषित असुर, गोकुल के वजाय माधोपुर में डेरा डाल लिया, और एक दिन वकासुर के वजाय सर्पासुर का रूप धर कर, कृष्ण के स्थान पर यशोदा को ही डस गया।

तिवारी जी की दुनियाँ लुट गयी। स्वप्नों का स्वर्ग मिट गया पानी के बुदबुदे सा। शकुन्तला को छोड़कर मेनका चली गयी अपने दिव्य लोक में। काल-सर्प-दंशित योगिता चली गयी इस धरा-धाम को त्याग कर। सुकन्या-पालित उर्वशी-पुत्र आयु को जब पाया था पुरूरवा ने, उसी क्षण अभागी उर्वशी को चले जाना पड़ा था त्याग कर इस मृत्यु-भूमि को। पर वहाँ तो उसे लाढ़-प्यार देनेवाली एक और थी- औशिनरी। किन्तु यहाँ कौन है? हाँ, वहाँ गयी थी- जननी उर्वशी, यहाँ गयी- माता औशिनरी। एक और भरत के श्राप का उद्भव हुआ।

हाय! तिवारी का सर्वस्व लुट गया। रो-रोकर एक ओर आसमान सिर पर उठाये थी- तृवर्षीय मीना, तो दूसरी ओर पछाड़ खा रहे थे मधुसूदन। किन्तु कुटिल काल पर किसका बस चला है?

और फिर ?

फिर वही, जो हुआ करता है, होते रहना नियति है जो। शुक्ल पक्ष की चन्दा की तरह चन्द्रवदनी मीना अपने जीवन- सोपान पर खटाखट चढने लगी-एकाकी ही, मातृहीना होकर। पदारथ ओझा अब पदारथ काका कहलाने लगे। क्यों न कहलाते? उन्हीं के रूपल्लों से खरीदी गयी गाय का दुग्धपान कर तो इतनी जल्दी प्रस्फुटित हुयी कुमुदनी कलिका।

धूल-धूसरित बालापन आम्रकुंजों में व्यतीत हुआ, और फिर उन आम्रमंजरियों में बौर लग गये। धूल में लोटने वाली मीना, अब स्कूल जाने लगी। आस पड़ोस की कई सहेलियाँ बना ली।

प्रारम्भिक शिक्षा तो पिता के ही प्राथमिक विद्यालय में मिली-

माधोपुर में ही। किन्तु जब प्राथमिक सोपान पूरा हुआ, तब समस्या खड़ी हुयी- आगे की पढ़ाई की। क्यों कि गांव क्या, आसपास में भी माघ्यमिक विद्यालय का अभाव था। तिवारी चाहते थे- मीना को यथासम्भव उच्च शिक्षा देना। परन्तु मार्ग में अनेकानेक विघ्न थे।

माँ के गुजने के बाद मीना प्रायः गुमसुम रहा करती। वय था मात्र आठ का, किन्तु वौद्धिक प्रतिभा सामान्य जन को भ्रमित किये रहती। उसकी बातचित, हाव-भाव, कार्य-कलाप से कोई भी उसे पांच बर्ष आगे का मानने में उज्र न करता। विधाता ने अद्भुत तेज प्रदान किया था उस मातृहीना को। सान्ध्य बेला में जब सभी समवयस्क बच्चे आम्रकुंजों में गुंजार किये रहते, उस मधुर क्रीड़ाकाल में भी मीना अपनी लघु गृह-परिधि में ही घिरी, गुमसुम बैठी रहती। मात्र आठ बर्ष की बालिका, और लघु गृहस्थी का लगभग बोझ एक कुशल गृहणी की तरह सम्हाल लेती। समय पर शैय्या-त्याग, नित्य कृत्यादि से निवृत्त होकर, घर की सफाई आदि सम्पन्न कर रंधनकार्य में जुट जाती। विद्यालय प्रस्थान से पूर्व पिता को भोजन कराना, स्वयं भोजन करना, पिता के साथ ही विद्यालय जाना, पूरे दिन विद्यालय में सतत पठनशील रहना, सायंकाल पुनः पिता सहित वापस आ, गृहकार्य में लग जाना। रात्रि भोजनोपरान्त दो घंटे पढ़ना, फिर सो जाना- यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी।

तिवारीजी मन ही मन हर्षित होते रहते, और प्रभु के इस कृपा प्रसाद पर इठलाते रहते; किन्तु यदा-कदा मीना का मौन चिन्तन सहृदय पिता को आलोड़ित कर देता।

इधर जब से प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा समाप्त हुयी है, तब से घर में रहने का अधिक अवसर मिलने लगा है। इस बीच वह सारा दिन घर में रहते हुये, किसी धार्मिक पुस्तक या पिता की उच्च स्तरीय पुस्तकों का अध्ययन करती रहती।

उत्सुकता और हर्ष सहित एक दिन तिवारीजी ने पूछ दिया-‘इन पुस्तकों में क्या पढ़ती हो मीनू? समझ में आता है कुछ? ’

तपाक से मीना ने जवाब दिया- ‘क्यों नहीं समझ में आयेगा बापू? आखिर ये भी तो आदमियों के लिये ही लिखी गयी हैं। इन्हें पढ़ने कोई देवदूत थोड़े जो

आयेगा। ’

तिवारीजी चुप हो गये। उन्हें फिर कोई तात्कालिक प्रश्न न सूझा। मौन बैठे निहारते रहे, मीना के भोले मुखड़े को। उधर मीना ने अपनी समझदारी का प्रमाण स्वयं ही प्रस्तुत करने लगी- ‘अष्टाध्यायी’ के दुरूह सूत्रों को ‘वृत्ति-वार्तिक’ सहित सस्वर सुना कर।

एक दिन संध्या समय तिवारीजी स्कूल से वापस आए। साथ में पदारथ ओझा भी थे। दरवाजे पर दस्तक देने से पूर्व ही कानों में सेक्सपीयर के ‘सोनेट’ प्रवेश करने लगे। ओझाजी चौंके-

‘यह अंग्रेजी कविता कौन पढ़ रहा है तुम्हारे घर में? ’

मुस्कुराते हुये तिवारीजी ने कहा- ‘और कौन हो सकता है मेरे घर में- मीना के सिवा? वही दिन-रात यह-वह पढ़ते रहती है। समझ नहीं आता- इतनी वुद्धि इस बालपन में ही कहाँ से आ गयी, लगता है, साक्षात् वागीश्वरी ही अवतार लेली हैं मेरे घर में। ’

दरवाजा खटखटाते हुए पदारथ ने कहा- ‘मैंने कितनी बार तुमसे कहा कि इस बच्ची का जीवन बरबाद न करो। सही तरीके से इसकी पढ़ाई की व्यवस्था करो। ’

किताब एक ओर ताक पर रखती हुयी.मीना ने किवाड़ खोल दिये। वापू और काका एक साथ कमरे में प्रवेश किये। मीना अन्दर चली गयी, जहाँ कमरे के पीछे पांच-छः फुट ऊँची मिट्टी की दीवार बना कर आंगन की घेराबन्दी की गयी थी।

विस्तर पर बैठते हुये तिवारी ने कहा- ‘सुझाव तो तुम्हारा सही है पदारथ

भाई, किन्तु लाचारी भी तुम समझ ही रहे हो- गांव में स्कूल है नहींजहाँ आगे पढ़ाया जा सके। इतना अर्थ-साधन भी नहीं है कि अन्यत्र भेजा जा सके। दूसरी बात यह कि मान लो पैसे के लिए ‘देह नाप दूँ’ । पर गंवई मामला है। बच्ची का सवाल है। और सबसे बड़ी बात यह कि इसे दूर कर क्या मैं चैन से रह पाऊँगा? ’

‘नहीं रह पाओगे तो हनन करते रहो इस प्रतिभा की मूर्ति का। ’ जरा रोष पूर्वक पदारथ ने कहा- ‘इतनी तपस्या से एक बच्ची मिली है, उसकी भी लालन-पालन की समुचित व्यवस्था तुमसे नहीं हो पा रही है। ’

‘आखिर क्या करूँ? क्या मुझे इच्छा नहीं है कि समुचित विकास हो सके इसकी प्रतिभा का? पढ़े-लिखे, किसी बड़े घर की बहू बने। ’- तिवारी जी ने अपनी अन्तर्वेदना जाहिर की।

‘तो एक काम करो। ’-ओझाजी ने अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया- ‘कल ही मैं जाकर प्रीतमपुर के निर्मलजी से बात करता हूँ। आशा है कि आजकल वे गांव में ही होंगे। तुम जानते ही हो कि मेरे गांव में जो स्कूल चल रहा है, उसके संस्थापक वे ही हैं। यदि वे राजी हो जाँयें, और एक पत्र देदें- प्रधानाध्यापक के नाम, तो फिर समझो पौ-बारह। दो सौ रुपये मासिक खर्च कर आवासीय विद्यालय में रख कर बच्चों को पढ़ाना सबके बस की बात थोड़े जो है....। ’

बीच में ही तिवारी जी बोल पड़े- ‘मान लिया तुम्हारी बात मान कर निर्मल जी निःशुल्क शिक्षा की स्वीकृति देदें अपने यहाँ आवासीय विद्यालय में; किन्तु क्या बच्ची को छोड़ कर मैं चैन से रह पाऊँगा? ’

‘आखिर क्या करोगे? इसे पढ़ाना तो है ही। जहाँ तक तुम्हारे चैन-बेचैन की

बात है, तो कहो सप्ताह में एक के वजाय दो दिनों के लिए उसे स्कूल से घर लाने की इजाजत दिलवा दूँगा। क्यों अब तो खुश हो न? ’- पुलकित हो, पदारथ ने सिर हिलाते हुये पूछा।

‘ठीक है। जैसी तुम्हारी मर्जी। ’- कहते हुए तिवारी जी बैठ गये पैर पसार कर आराम से।

उधर आंगन में बरतन मांजती मीना इन दोनों की बातें सुन रही थी। प्रसन्नता हो रही थी उसे आगे की पढ़ाई की बात सुन कर; किन्तु सप्ताह में सिर्फ दो बार ही पिता के साथ घर पर रहने का अवसर मिल पायेगा, यह जान कर क्षोभ भी हुआ।

पत्नी की मृत्यु के पश्चात् यही तो एक मात्र आधार रह गयी थी, तिवारी जी के जीवन का। पल भर भी आँखों से ओझल न होने देना चाहते थे; किन्तु ममता की डोर में बाँध कर सन्तान का भविष्य अन्धकार मय बना देना भी तो उचित न लगेगा किसी पिता को।

तिवारीजी सोचने लगे- ‘दौलत तो इतनी है नहीं जो बड़े घर में भेज सकूँगा बेटी को। किसी तरह यदि कुछ पढ़-लिख गयी, तो रूप-गुणोपासक कोई सहृदय, स्वीकारने वाला मिल ही जायेगा। ’-और इस सोच ने ओझा की सोच को बल दिया- अमल करने को।

अगले ही दिन ओझाजी निर्मलजी से मिले, और स्थिति का सारा इतिहास-भूगोल सुनाकर, वाक्पटु पदारथ सायंकाल तक उनकी स्वीकृति का सुसंवाद एवं प्रधानाध्यापक के नाम, पत्र लेकर माधोपुर वापस आ गये, तिवारी जी की राम मडैया में।

वास्तव में निर्मल जी ने अपनी सहज निर्मलता का परिचय दिया। उदार चित्त, सहृदय, उच्च कुल, उच्च शिक्षा, उच्च पद- आरक्षी विभाग का पद- इतनी सारी उच्चताओं ने उन्हें फलदार वृक्ष सा झुका दिया है- अतिशय विनम्र बना दिया है। ओझाजी की बात पर, बिना मीन-मेष के स्वीकृति दे दिये।

‘मैं चाहता हूँ ओझाजी कि मेरे देश के हर बच्चे-बच्चियाँ सिर्फ साक्षर ही नहीं, प्रत्युत उच्च शिक्षा प्राप्त करें। हालांकि हमारी सरकार इस कार्य में सतत प्रयत्नशील दीखती है, पर ये सब हाथी के दांत हैं। नारा तो है- ‘गरीबी हटाओ’ ‘निरक्षरता मिटाओ’ किन्तु होता क्या है? हो क्या रहा है? मर रहे हैं, मर नहीं- आत्महत्या कर रहे हैं- किसान, गरीब, भूखे, नंगे, पढ़े-बेपढ़े। हमारा बाहरी दांत बहुत सुन्दर, चिकना, खूबसूरत है। मगर अन्दर झांको तो सब पोलमपोल है। भ्रष्टाचार का कीड़ा जड़ से फुनगी तक लगा हुआ है। जनतन्त्र के चारों स्तम्भ कमोवेश रोग ग्रस्त हैं। और बीमारी कोई नयी नहीं है। दरअसल स्वतन्त्रता हासिल ही दूषित सोच से हुयी है। फिर विकृत बीज से अंकुरित पौधे से कितना आश लगायें। यही सब सोच विचार कर, मैंने यह योजना बनायी। गांव ही हमारा मेरूदण्ड है, अतः इसे मजबूत किया जाय। गांव में शिक्षा का विकास- मैंने अपना जीवन-लक्ष्य रखा है। आपके गांव उधमपुर का यह आवासीय बाल-विकास विद्यालय मेरे लक्ष्य पूर्ति का एक ‘माइलस्टोन’ है। ’- निर्मल जी ने अपने उद्देश्य और कार्य-कलाप पर टिप्पणी की, जिसे सुन कर ओझाजी गदगद हो गये।

आज गांव शहरों की ओर भाग रहा है। पर इसके विपरीत हमारे निर्मल उपाध्याय जी शहरी सभ्यता को लात मार गांव में आ गये हैं। अवकाश का ज्यादा हिस्सा गांव में ही गुजारते हैं। अपने छोटे बेटे- विमल का नामांकन भी अपने उसी विद्यालय में करा दिये हैं। कहते हैं- शहर में रह कर लड़के पढ़ते कम हैं, घुमक्कड़ी ज्यादा करते हैं। दूसरी बात यह कि गांव में रहने से गांव का महत्त्व समझ में आयेगा। आजकल के बच्चे तो भूल ही गये हैं कि हमारे भारत की आत्मा तो गांवों में ही बसती है। ये गांव ही हमारा आधार स्तम्भ है। इसे ही हर तरह से संवारना है पहले। ’

निर्मल उपाध्याय के पत्र प्राप्ति के तीसरे दिन ही मीना का नामांकन ‘‘उपाध्याय आवासीय बाल विकास विद्यालय, उधमपुर " में हो गया। ओझाजी के सहयोग और तत्परता से मीना फिर एकबार घर-गृहस्थी के दायरे से निकल कर सरस्वती की सम्यक् सेवा में आ जुटी। किंचित कुंठाओं से मुक्ति मिली। अतिशय प्रसन्नता हुयी। परन्तु पिता से अलगाव की वेदना भी सतायी।

कुछ ही दिनों के विद्यालय-प्रवास क्रम में सम्पूर्ण शिक्षक समुदाय पर अपनी तेजस्विता की मुहर लगा दी। प्रत्येक के मुंह पर बस एक ही नाम रहता- मीना।

मीना का नामांकन पंचम वर्ग में हुआ था, और अष्टम् वर्ग में था- विमल उपाध्याय। एक समय था, जब विमल के व्यक्तित्त्व की तूती बोलती थी विद्यालय भर में। रूप, गुण, प्रतिभा, ऐश्वर्य सब कुछ था उस बालक में; किन्तु मीना के आगमन के बाद उसके व्यक्तित्त्व और प्रतिभा की चमक थोड़ी फीकी पड़ गयी। ऐसा लगने लगा मानों उसकी प्रतिभा मौलिक न हो, बल्कि विद्यालय-कर्णधार-पुत्र का प्रभुत्व मात्र हो, जब कि मीना की प्रतिभा ‘दैविक’ सी प्रतीत होती थी-ऐसा ही कहने लगे थे, सब लोग।

था भी कुछ ऐसा ही। पांचवीं कक्षा के किस बच्चे को सोनेट, गीतांजली, अमरकोष और अष्टाध्यायी- सब कण्ठस्त होते हैं? क्या इसे दैवी सम्पदा स्वीकारना अनुचित होगा?