पुनर्भव / भाग-7 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विचारों को नया झटका लगता है। मीना आँखें मलने लगती है। बाहर की ओर झांक कर देखने लगती है। सच्ची बात कही है विमल ने - बकरियाँ ही तो हैं। मृग नहीं। किन्तु यह भ्रम क्यों हुआ? बकरियाँ मृग कैसे नजर आ गयी?

गाड़ी चलती रही- सड़क पर। विचार चलते रहे- मस्तिष्क में।

मृगछौने के भ्रम का निवारण न हो सका। कारण कुछ सूझ न पाया। अभी वह सोच ही रही थी- इस समस्या का हल कि उसे महसूस हुआ- बगल में बैठा विमल ‘विमल’ नहीं है। वह कोई और है। और ही है- उसका कोई अपना ही। फलतः मुड़ कर गौर से उसे देखने लगी।

उसकी निर्निमेष दृष्टि से तिलमिला उठा विमल।

‘क्या देख रही हो मीना? ’- हड़बड़ाकर पूछ बैठा।

मीना कुछ कहना ही चाह रही थी कि गाड़ी का हॉर्न बज उठा। उसके विचार-तन्तु विखर गए। गाड़ी ठहर गयी माधोपुर मधुसूदन तिवारी के दरवाजे पर।

हॉर्न सुनकर हड़बड़ाकर बाहर आए तिवारी जी। गाड़ी में निर्मल जी के साथ ही विमल और मीना को देख कर प्रफ्फुलित हो उठे।

‘धन्यभाग्य! आप आज पधारे इस गरीब की झोपड़ी पर। ’-दोनों हाथ जोड़े तिवारीजी गाड़ी के समीप सावधान सी मुद्रा में खड़े हो गए।

‘मीना को मैं अपने यहाँ ले जा रहा हूँ। मंझलू की शादी है। कोई सप्ताह भर बाद लौटेगी उधर से। सोचा आपसे भेंट करता चलूँ। मीना से भी आप मिल लेंगे। ’-


कहते हुए निर्मल जी ने भी हाथ जोड़ लिया अभिवादन की मुद्रा में।

‘मीना तो आपकी है ही। जहाँ चाहें ले जाँए। खैर अच्छा ही किये, लेते आए। मैं सोच ही रहा था कल ही जाने को- इससे मिलने के लिए। पिछले सप्ताह भी आ न पायी थी यहाँ। ’-फिर मीना की ओर देखते हुए कहा तिवारीजी ने- ‘नीचे उतरो मीना, तुम भी उतरो बेटे। ’-पुनः निर्मल जी की ओर मुखातिब हुए-‘आइये उपाध्याय जी! इस झोपड़ी को पवित्र कीजिये। ’

तीनों जन गाड़ी से नीचे उतरे। बाहर दरवाजे पर पड़ी खाट पर आ विराजे- पिता-पुत्र, और मीना अन्दर भाग गयी- पिता का इशारा पा, उनके जलपानादि-व्यवस्था में। पीछे से तिवारी जी भी अन्दर आए।

मीना नास्ते का प्रवन्ध करने लगी। इसी बीच मौका पा संकुचित भाव से विशेष वस्त्र की आवश्यकता व्यक्त की। अगले दिन प्रीतमपुर कपड़े की व्यवस्था कर पहुँचा जाने का आश्वासन दे, तिवारी जी बाहर निकल गये, जहाँ पिता-पुत्र विराज रहे थे।

उधर तिवारी जी जब अन्दर चले गये मीना के साथ तब विमल को मौका मिला अपने पापा से मीना के बारे में कुछ कहने का। विमल से यह जान कर कि वस्त्राभाव के संकोच में मीना देर लगा रही थी छात्रावास से चलने में, उपाध्याय जी के चेहरे पर थोड़ी उदासी झलकने लगी।

‘यही है बेटे अर्थाभाव की विवशता। हम अमीर लोग सोच क्या, कल्पना भी नहीं कर सकते कि अभाव क्या चीज है। रूपये-दो रूपये के अभाव में किसी गरीब का सर्वनाश भी हो सकता है- इसका अन्दाजा हम अमीरों को कहाँ हो पाता है? पूँजीवाद का हौआ, कनक-कामिनी की हबश ने हम मनु-सन्तति को मानवता की परिधि से परे खदेड़ दिया है। ‘मानव’ मात्र सभ्य ‘आदमी’ बन कर रह गया है, या कहो ‘अदिति’ के वंशज...। अभाव, गरीबी, भूख- यह कई तरह का हुआ करता है बेटे- एक होता है धन का अभाव, और उससे भी खतरनाक है- बुद्धि-विवेक का अभाव। भूख एक कटु सत्य है, जो सब कुछ करने को वाध्य कर देता है। ’-निर्मलजी विमल को समझा रहे थे, इसी बीच तिवारी जी आगये। अतः - ‘खैर, उसके लिए कपड़े की व्यवस्था मैं कर दूँगा। ’- कहते हुए उपाध्यायजी ने प्रसंग बदला-’

‘कहिये तिवारीजी और सब तो ठीक ठाक है न? ’

‘जी हाँ। आपके आशीर्वाद से सब कुशल ही है। ’ हाथ जोड़ कर तिवारीजी ने कहा। निर्मलजी कुछ कहना ही चाहते थे कि मीना तीन तस्तरियों में जलपान लिए आ गयी।

‘ये सब क्या करने लगे तिवारी जी, इसकी अभी क्या आवश्यकता थी? औपचारिकता तो गैरों के लिए निभाना जरूरी होता है। ’-कहते हुए उपाध्यायजी मीना की ओर देखने लगे जो तस्तरी रख कर वापस मुड़ रही थी- ‘मीना बेटी! कपड़े आदि के लिए बापू को परेशान न करना। इसकी व्यवस्था मैं कर दूँगा। ’

तिवारी जी संकोच में सिर झुकाए सोचने लगे- शायद इन्होंने सुन लिया है भीतर बातचित करते हुए। और अभाव के पैने नाखून से खुजाते रहे अपने अन्तर्मन को। उधर निर्मलजी पिता-पुत्र ने जलपान सम्पन्न किया।

थोड़ी देर बाद सभी पुनः गाड़ी में सवार हुए, और चल पड़े अपने गन्तव्य की ओर।

अचानक विमल को ध्यान आया। उसने मीना की ओर देखते हुए कहा- ‘क्यों मीना! उस समय तुम मुझे अजनवी की तरह क्यों देख

रही थी? और वहाँ बगीचे में बकरियाँ तुझे हिरन दिखलाई पड़ रही थी? ’

विमल की बात पर मीना चौंकती हुयी बोली- ‘धत्! क्या कहते हो, बकरियाँ हिरन दिखलाई पड़ रही थी मुझे? इतनी उमर निरे देहात में गुजारी हूँ। क्या बकरी और हिरन का अन्तर नहीं पता है मुझे?

विमल की बात का समर्थन उसके पिता ने भी किया। किन्तु मीना को कुछ याद न आयी कि ऐसा भी कुछ कही हो कभी। अतः बात बदलती हुयी बोली- ‘आज बापू की तबियत ठीक नहीं थी। दो दिनों से स्कूल भी नहीं गये हैं। ’

‘तो घर में पड़े रहने से काम थोड़े जो हो जाना है। किसी डॉक्टर से दिखा कर दवा वगैरह लेनी चाहिए। ’- मीना की ओर देखते हुए विमल ने कहा।

‘दवा लेनी चाहिए वीमार होने पर- यह सिद्धान्त की बात है, विमल बाबू। ’ -सिर झुकाए मीना ने कहा, जिसकी व्याख्या विमल के पल्ले न पड़ी। स्टियरिंग घुमाते निर्मलजी आहिस्ते से सिर हिलाये। उन्हें यह सिद्धान्त बिना भाष्य के ही समझ आ रहा था।

पुनः बात विमल ने प्रारम्भ की- ‘अच्छा मीना! तुम्हारे बापू तो काफी उमरदार हो गये हैं। अभी कितने दिनों की सेवा शेष है? ’

मीना से प्रश्न करते हुए विमल अपने पिता की ओर देखने लगा था, मानों इसका उत्तर वेही सही रूप से दे सकते हैं।

‘नहीं विमल, बापू की उम्र ज्यादा नहीं है। अभी दो-ढाई साल शेष हैं सेवा के। ’-मीना ने विमल की शंका का समाधन किया। उसकी बातों का स्पष्टीकरण देते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘गरीबी और अभाव बड़ी खतरनाक बीमारी है। इस बीमारी का वैक्टीरिया कम उम्र में ही बूढ़ा बना देता है इन्सान को। नित अभाव के अल्कोहल में घुल-घुल कर आदमी, अपनी आयु को स्वयं ही पीछे घसीट लाता है। इसीलिए तो चिन्ता की तुलना चिता से की गयी है....। ’

निर्मलजी कहे जा रहे थे। मीना उनकी बातों को सुनती हुयी भी अनसुनी किए जा रही थी। क्यों कि वह अपने ही विचारों में निमग्न थी। उम्र तो महज ग्यारह-बारह की है उसकी, परन्तु परिस्थितियों ने काफी प्रौढ़ बना दिया है उसे। उससे कोई चार-पाँच साल बड़ा है विमल; किन्तु स्वभाव और सोच में मीना से भी चार-पाँच साल छोटा प्रतीत होता है। उसे कब चिन्ता हो सकती है कि उसके घर में कब क्या हो रहा है। वस्तुतः अभाव इन्सान को असमय में प्रौढ़ बना देता है।

मीना जब कोई तीन साल की थी, तभी उसकी माँ का देहान्त हो गया था। पर उसे अच्छी तरह याद है- जब माँ की अर्थी निकाली जा रही थी, बापू पछाड़ खाकर रोरहे थे उसके शव पर। पदारथ काका कह रहे थे-‘सांप काटे को तो जलाना नहीं चाहिए। ’ फिर सुदूर किसी गांव से मांत्रिक बुलाया गया था, जो बहुत देर तक झाड़-फूंक करता रहा था। पर नतीजा कुछ न निकला था। उसने यह भी आशंका जतायी थी कि उसका मंत्र तो स्वयंसिद्ध है, पर सर्प ही स्वाभाविक न होकर कृत्या-प्रेषित जान पड़ता है। और अन्ततः अग्नि-संस्कार सम्पन्न कर दिया गया गया था.......।

मीना सोचे जा रही थी। गाड़ी चली जा रही थी। यदा-कदा बज उठता गाड़ी का हॉर्न मीना के अतीत-चिन्तन को तोड़, वर्तमान-वीथियों में ला खड़ा कर देता। थोड़ी सुगबुगाहट होती, किन्तु फिर हॉर्न के चुप्पी के साथ भूत-चिन्तन प्रारम्भ हो जाता। उसे याद आ गयी अपने पड़ोसन चाची की बात, जो अनबूझे ही अपरिपक्व मस्तिष्क-घट में उढेल दी थी- इसके जन्म-पूर्व के बृतान्त-

‘तुम्हारी माँ को बहुत ही तकलीफ दी जाती थी घर में। उसे सभी बांझी कह कर पुकारते थे। आस-पड़ोस शादी-ब्याह के अवसरों पर शामिल होना भी वह लगभग छोड़ चुकी थी। हमेशा घर में ही गुमसुम बैठी रहा करती थी। धीरे-धीरे कोई घातक बीमारी उसे घर कर गयी। वैसे वास्तव में वह तुम्हारी....। ’-कहती-कहती अचानक वह ठहर गयी थी। आगे के शब्द किसी अज्ञात कारण से अटके ही रह गए थे उसके मुंह में। मीना ने काफी जिद्द किया था, पर बतलायी नहीं। यूँहीं बात बदल कर रह गयी। उसके मौन ने मीना के सुकोमल मस्तिष्क में अज्ञात भ्रम भर दिया। वह उसका निवारण ढूढ़ने लगी- ‘वह तुम्हारी......’ के बाद अनेकानेक शब्दों को बैठा-बैठाकर अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास करने लगी।

तिवारीजी के सन्दूक में एक तसवीर रखी हुयी रहती थी, जो उनकी पत्नी की थी- मीना के हाथ लग गयी एक दिन; और उसके मस्तिष्क के कनवैश पर कितने सारे तसवीरों की रचना कर गयी। वह चित्र योगिता के युवत्यावस्था का चित्रण करता था। तिवारी जी जब कभी बाहर होते- मौका पाकर मीना, बापू की पेटिका खोल, तसवीर निकाल, बैठ जाती, घंटों निहारा करती- ममतामयी माँ की चित्रमूर्ति को।

फिर आईना उठा, उसमें झांक कर ढूढ़ती- अपनी तसवीर को। पर मूर्ख दर्पण उसकी ‘माँ की बेटी’ की तसवीर न दिखाकर किसी और की ही दिखा जाता। दर्पण के बिम्ब और माँ की तस्वीर में पर्याप्त वैसम्य पाती। माँ-बेटी का चेहरा इतना अन्तर रख सकता है- यह क्यों कर सम्भव है? इसका कोई कारण, कोई निदान उसे ढूढ़े न मिलता। आखिर इसका जवाब पूछे भी तो किससे?

इन्हीं विचारों की झाडि़यों में उलझी चली जा रही थी कि विमल ने कंधे पर दस्तक दी-‘मीना! कहाँ खोयी हो? देखो तो हम हमलोग कहाँ पहुँच गए? ’


मीना पहुँच गयी थी प्रीतमपुर। पहुँची ही नहीं, वल्कि हँसी-खुशी गुजार दी सप्ताह भर। आने के दूसरे दिन ही उपाध्यायजी ढेर सारे कपड़े ले आए थे- विमल और मीना के लिए। एक साधारण सा फ्रॉक लेकर तिवारीजी भी आए थे।

एक दिन मीना नहा-धोकर, निर्मलजी द्वारा लाए गए वस्त्रों से सुसज्जित, आईने के सामने खड़ी, अपने केश संवार रही थी; तभी अचानक विमल आ पहुँचा उस कमरे में। कुछ देर, दर्पण में बनते आदमकद प्रतिविम्ब को देखता रहा। फिर सामने आ, मीना को निहारने लगा- आपादमस्तक। मीना ताड़ गयी- उसकी इस बेतुकी हरकत को।

‘क्या देख रहे हो विमल, कहीं कुछ.....? ’-झेंपती हुयी मीना ने कहा, और झटपट बालों में बैंड लगाने लगी।

अचानक के इस प्रश्न से विमल सकपका गया। उसकी चोरी पकड़ी गयी थी।

‘कुछ नहीं मीना। यूँहीं देख रहा था। यह सलवार-फ्रॉक बड़ा ही फब रहा है तुम पर। ’- मुस्कुराते हुए विमल ने अपनी झेंप मिटायी।

‘तो फबने दो। ’-तपाक से मीना ने कहा-‘तुमको क्या इसके निरीक्षण के लिए बुलायी थी कि मेरा ड्रेस कैसा है? ’

विमल की बातों का मुंहतोड़ जवाब देकर मीना झटपट कमरे से बाहर निकल गयी थी; किन्तु उसकी हरकत का प्रभाव सारा दिन उसके मस्तिष्क से निकल न पाया था। विमल का ध्यान भी बारम्बार मीना के श्रृंगार पर ही टिका रहा, जब कि श्रृंगार के नाम पर कुछ भी नहीं था-सफेद सलवार, नीली फ्रॉक, बैंड लगा- हॉर्स-टेल-हेयर न क्रीम, न पाउडर; और ‘गोंद’ का तो सवाल ही नहीं, जो चिपका ले किसी की नजर को। पर चिपक गया था- बेचारे विमल का मन।

मीना भी कनखियों से देख लिया करती, कभी-कभार उसकी हरकतों को। जब भी देखी, विमल को इधर-उधर चलते-फिरते- उसकी निगाहों को खुद से चिपकी

हुयी ही पायी। हर बार वह शरमा कर परे हट जाती। फिर सोचती- अबर देखूँगी,

क्या करता है- पर फिर वही पुरानी हरकत।

प्रीतमपुर का साप्ताहिक प्रवास काफी परिवर्तन ला दिया मीना में। साथ ही विमल में भी। हालांकि स्कूल में दोनों नित्य ही मिला करते थे, पर इतना अवसर कहाँ मिल पाता था- साथ गुजारने का! मिलता भी था जो कुछ, वह विद्यालयीय वातावारण में बंधा हुआ सा- घिसा-पिटा सा अवसर। पर यहाँ, सप्ताह भर साथ की स्वतन्त्रता दोनों को ही एक दूसरे को समझने का काफी मौका दे गया। विमल तो चाह रहा था- शादी का यह रस्म अभी और सप्ताह-दो सप्ताह चलता रहे। नयी-नवेली ‘समवया’ भाभी आयी थी। छोड़कर क्षण भर भी अलग हटने की इच्छा न हो रही थी। सारा दिन धेरे बैठे रहता। साथ में मीना भी होती; और समय कब फुर्र हो जाता, पता भी न चलता। दिन गुजर जाता, रात आती। भोजनोपरान्त दस बजे बड़ी भाभी या पापा कहते- ‘क्यों विमल! सारी रात बैठे गप्पें ही लगाते रहोगे? जाओ सोओ न अब...। ’

मन ही मन कुंढ़ उठता, और धीरे-धीरे पांव उठाते दूसरे कमरे में चला जाता। उसके पीछे मीना भी उठ खड़ी होती, अपने शयन कक्ष की ओर जाने को; और सबके पीछे ‘मंझलू’ धीरे से जा घुसता ‘उस’ कमरे में, जहाँ से औरों को विवश होकर हटना पड़ा था।

सप्ताहोपरान्त कुछ दिन और बीते। कुछ क्या, एक और भी नया सप्ताह गुजर गया। तब एक दिन पापा ने कहा-‘ विमल, आज तुम लोगों को स्कूल पहुँचा देना है। बहुत दिन हो गये। सप्ताह भर का ही अवकाश लिया था....। ’

और, अपराह्न भोजनोपरान्त चल देना पड़ा दोनों को ही-प्रीत की नगरी को त्याग कर, उछृंखलता की नगरी में।

विद्यालय में पहुँच कर पुनः ढल गए- उस परिवेश में। जुट गए दोनों अपनी

पढ़ाई पर। विमल इधर कुछ अधिक ही ध्यान देने लगा पढ़ाई-लिखाई पर, कारण कि जल्दी ही उच्चत्तर माध्यमिक की ‘वोर्ड’ परीक्षा में शामिल होना है। साथ ही पायलट बनने का ख्वाब भी पूरा करना है। इस विषय पर फिर एक दिन मीना से जम कर चर्चा छिड़ी थी- कॉलेज में दाखिला लेकर ‘कोरे’ स्नातक बनना विमल को कतयी मंजूर न था। पिता या अन्य के दबाव में आकर यदि यही करना पड़ा तो बात ही और है। उसके लिए दुनियाँ का सर्वश्रेष्ट नौकरी है- हवाई जहाज उड़ाना। विमल की बात मीना हमेशा काटती, और कहती-‘इससे तो खराब कोई नौकरी ही नहीं है...कहाँ से यह भूत सवार हो गया है तुम्हारे सर पर? ’


समय कुछ और सयाना हुआ, साथ ही सयानी हुयी मीना। विमल ने भी साथ दिया समय का। पायलट बनने का सपना साकार न हो सका। इसमें सर्वाधिक वाधक रही मीना, कुछ अन्य शुभेच्छु भी। फलतः डिग्री कॉलेज में दाखिला लेना पड़ा। और सबसे बड़ी दुःखद घटना यह थी कि मीना से बहुत दूर हो जाना पड़ा। कमरे की दूरी जहाँ भारी पड़ती थी, वहाँ बीस मील का फासला...विमल के लिये असह्य सा हो गया।

बड़ी मुश्किल से दो-तीन सप्ताह पर किसी तरह मिलना हो पाता, खास कर जब मीना रविवार या अन्य अवकाश का लाभ लेकर माधोपुर पिता के पास होती। छुट्टी के दिन सबेरे-सबेरे ही विमल अपनी सायकिल सम्हाले पहुँच जाता; और फिर सारा दिन धमाचौकड़ी में निकल जाता।

कॉलेज का जीवन लड़कों को एकाएक बौद्धिकता की तराई से खींच कर सीधे चोटी पर ला बिठाता है। फिर विमल इससे अछूता क्यों रहे? मीना से कोई पाँच-छः साल पहले वह आया है- इस हरीभरी धरती पर। सत्रह वसन्त देख भी चुका है। फिर क्यों न पड़े छाप- इन सारे सुरम्य चित्रों की, उसके मन-मस्तिष्क पर? मीना अभी बारह से थोड़ी ही ऊपर आयी है, पर कितनी नजाकत आ गयी है

उसमें। यही कोई एक साल हुआ होगा- उस दिन आइने के सामने केश संवारती मीना कैसे भाग खड़ी हुयी थी, जब गौर से देखा था विमल ने उसके ‘गौर’ मुखड़े को और सीधे कहने की साहस न जुटा पा सकने के कारण ही तो उसके कपड़ों की प्रशंसा करने लगा था।

इस बार जब दशहरे की छुट्टी में विमल माधोपुर आया, कोई चार-पांच महीनों बाद भेंट हो पायी मीना से, तब अचानक मीना ने कह दिया- ‘चन्द पांच महीनों में ही बहुत बदल गये हो विमल। नाक के नीचे होठों के ऊपर काजल की लकीरें सी खिंच आयी हैं। चेहरे पर अजीव सा सलोनापन छा गया है। पल-पल छलकता बचपना लगता है, जबरन प्रौढ़त्व ओढ़ लिया है। ’

मीना की बात पर विमल को हँसी आ गयी थी, पर कुछ कहने के वजाय अपनी नजरों को मीना के चेहरे के हवाले कर दिया था। कुछ देर बाद ही चेहरे के चिकनेपन से फिसल कर लाचार नजरें नीचे जा गिरी थी- जहाँ फ्रॉक के उर्ध्वांग पर पर्दानसीन नूतन प्रस्फुटित दाडिम द्वय दृष्टिगोचर हो रहे थे। देखने-परखने का यह अंदाज विमल ने अपने मंझले भैया से सीखा था; और इस अभिनव ज्ञान का प्रयोग भी ‘उन्हीं’ नयी भाभी पर किया था। नारी-सहज स्वभाव वश भाभी का ध्यान अनचाहे ही अपने श्रीफल-द्वय पर चला गया था, और आंचल सम्हालने लग गयी थी। मीना के सीने पर आंचल तो न था, और सम्हालने-सहेजने जैसी कोई स्थिति भी तो न थी। पर सहज-स्वभाव, सहेजने से बेपरवाह भी न होने दिया। विमल की पैनी निगाहें उसे अपने सीने पर चुभती हुयी प्रतीत हुयी, जो भीतर

घुसकर कर कुछ टटोलती सी लगी, फलतः सटाक से सम्हाल ली ओढ़नी को खींच कर सीने पर।

मीना की हरकत देख विमल को हँसी आ गयी- ‘तुम भी तो बहुत बदल गयी हो मीना। चार-पांच महीने पहले मिला था तब यह ओढ़नी भी नहीं थी। अबकी दफा यदि मिलूंगा तो हो सकता है कि यह फ्रॉक भी अपनी जगह बदल लिया हो, तुम्हारे शरीर का साथ शायद इसे भी तब रास न आए। ’

और सही में हुआ भी कुछ ऐसा ही। दशहरे की लंबी मुलाकात के बाद अगले आठ-नौ महीने गुजर गये। चाह कर भी विमल आ न पाया माधोपुर, और न मिलना ही हो सका किसी तरह मीना से।

उस बार जब मध्यवर्ती परीक्षा देकर ग्रीष्मावकाश में घर आया तो बरबस ही मीना की याद खींच लायी माधोपुर। भाभी के लाख मना करने पर भी ठहरा नहीं, चला ही आया मीना के गांव। महीने भर की लम्बी छुट्टी पर मीना भी घर आ गयी थी। उसे देखते के साथ ही विमल कुछ पल तक ठिठका खड़ा रह गया। अपनी खुली आँखों पर भी यकीन न रहा था। वह सोचने लगा था- ‘क्या यह वही मीना है जिसे....? ’

मीना में परिवर्तन सच में हो गया था- मोर छाप चौड़े पाड़ की धवल साड़ी, ऊपर में चटकीला लाल ब्लाउज, माथे पर काला सा बेणी-सर्पिणी सा कुण्डली मारे, केश-गुच्छों को सहेजे, लिपटा हुआ था। मिट्टी के मटके में गोबर-मिट्टी-घोल लिए ‘पोतन’ से घर के बाहरी भाग में बने चबूतरे को लीप रही थी- विमल जिस समय पहुँचा, उसके दरवाजे पर। वह तो अपने काम में म्शगूल थी। अचानक ही विमल सामने आकर खड़ा हो गया जो काफी देर से पीछे खड़ा, पीठ निहारे जा रहा था।

सामने आने पर दोनों की आँखें मिली। कुछ देर के लिए वाणी मूक हो गयी- गिरा अलिनी मुख पंकज रोकी, प्रकटि न लाज न्यिा अवलोकि -की तरह। कुछ देर मौन बना, मीना के नेत्र दर्पण में झांक कर, विमल अपने विम्ब की तलाश करता रहा। वह ढूढ़ता रहा-

आज और अभी भी क्या कुछ अस्तित्त्व शेष है, मीना के अन्तरतम में या कि....। किन्तु अधिक देर तक टिक न पायी उसकी निगाहें- मीना के मीन दृगों से लम्बा साक्षात्कार न हो सका, फलतः चारों ओर घूम कर सर्वांगीण सर्वेक्षण कर डाला; और तब पाया उसने कि इसके सौन्दर्य के सामने ‘सहस्राक्ष’ की दरबारी अप्सरायें भी फीकी पड़ जांयें। वैसी ही फीकी जैसे कि अगनित तारागण का चमक भी मात्र एक- हिमांशु की ज्योत्सना का मुकाबला नहीं कर सकता। मीना के काय-सौष्ठव पर चम्पा और केशर का सामन्जस्य नजर आया। नेत्रों और कपोलों पर ठहर कर पंकज और पाटल ने भी अपने भाग्य की सराहना की थी, क्यों कि मीना के सौन्दर्य में उनका भी योगदान लिया गया था। बिम्बा अपनी रक्तिमा ला छोड़ा था- मीना के अधरोष्ठों पर, किन्तु अभागा मुक्ता अपनी कठोरता के कारण कोमलांगी के वाह्य काय पर कहीं भी शरण न पा सका। फलतः लजाकर जा छिपा था भीतर दन्त-पंक्तियों में। इस अनोखे, अनदेखे सौन्दर्य को देखकर बरवस ही उसके होठों ने बुदबुदाया-

‘इन्दीवरेण नयना, मुखम्बुजेन, कुन्देन दन्तमधरम् नव पल्लवेन।

अंगानि चम्पक दलै सविधाय वेधा, कान्ते कथं घटित वानुपलेन चेतः। । ’

‘आदत नहीं बदली तुम्हारी, जमाना कितना भी क्यों न बदल गया हो। मुझे क्यों कोस रहे हो क्या मेरा हृदय काठोर है या तम्हारा? इतने दिनों तक कहाँ थे? क्या किसी कॉलेजियट परी...। ? ’-कहती हुयी मीना अपनी जीभ- शरमायी काली की तरह निकाल दी। आज अचानक उसे क्या हो गया, इतने दिनों बाद विमल को देख कर? किस अधिकार से उसे उलाहना देरही है? ’- सोचती हुयी मीना स्वयं ही शर्म से लाल हो गयी।

विमल का ध्यान अभी भी मीना के चेहरे पर टिका था। गोबर-मिट्टी के छींटे जहाँ-तहाँ पड़ कर और भी सलोना कर दिये थे चेहरे को - लगता है, सफेद-लाल वुन्दकियों से दुल्हन के कपोलों को सजाया गया हो। रस-लोलुप चंचरीक सा काफी देर तक मण्डराता रहा- उसकी निगाहों के श्याम भ्रमर, चम्पा के उस प्रसून पर। फिर पूछ बैठा- ‘क्यों मीना नाराज हो क्या? ’-और जवाब का इन्तजार किये वगैर, इधर-उधर देखते हुए बोला- ‘वापू किधर हैं? ’

‘आते ही होंगे अब। सुबह से ही निकले हैं, कुछ लकड़ी-बांस के जुगाड़ में। ’- मीना ने कहा।

‘लकड़ी-बांस? ’- चौंकते हुए विमल ने कहा-‘क्या करना है? ’

‘मेरी अर्थी सजाने के लिए। ’-हँस कर कहा मीना ने।

‘तेरी या मेरी? क्या बकती हो? यह कोई तरीका है, बात करने का? ’- बनावटी रोष पूर्वक विमल बोला।

‘बात करने का मेरा ‘सलीका तो गलत है, परन्तु निहारने का तुम्हारा....? ’-विमल की लोलुप दृगों से तंग आकर मीना ने कहा।

मुस्कुराते हुए विमल ने सर से सरका ली अपनी प्यासी नजरों को, और नीचे पड़े मिट्टी के मटके को देखने लगा।

विमल को चिढ़ाती हुयी, मीना ने कहा- ‘तुम्हें क्यों दुःख होता है, मेरी अर्थी का नाम सुन कर? मैं जीऊँ या मरूँ, इससे तुम्हें क्या वास्ता? ’- और हाथ का

मटका एक ओर रख कर, बगल में रखी हुयी बालटी के पानी से हांथ-पांव धोने लगी।

‘तुम्हारी आदत नहीं सुधरी। कभी तो गुमसुम वुढ़िया बन जाओगी कभी मसखरी, छल्लो रानी। यह क्या वेष बना रखी हो साड़ी लपेट कर छः गज वाली? ’

‘तो क्या करूँ, जिन्दगी भर कच्छी-वनियान में ही रहूँ? जानते हो एक बात? ’- आंचल से हांथ पोंछती मीना ने कहा।

‘क्या? ’-आँखें तरेर, हाथ मटकाते हुए विमल ने पूछा, और पास ही पड़ी हुयी खाट पर बैठ गया, यह कहते हुए-‘अब स्वयं ही बैठना पड़ेगा। इतनी देर से खड़ा हूँ, तुमने मुझे बैठने को भी नहीं कहा। ’

‘तुम क्या कोई मेहमान हो, जो.....? ’-तपाक से मीना बोली।