पुराना गाज़ियाबाद, हिण्डन नदी और मेरा ननिहाल / अशोक अग्रवाल
बहुमंज़िला इमारतों से घिरा आज का विशालकाय गाज़ियाबाद मेरे बचपन के दिनों में दोयम दर्जे का क़स्बा था। चौपला कहे जाने वाले चौराहे के इर्द-गिर्द मुख्य बाज़ार फैला था। एक सड़क दिल्ली गेट से होती हुई दिल्ली और दूसरी हापुड़ पहुँचाती थी। गाज़ियाबाद की तुलना में उन दिनों हापुड़ ज्यादा समृद्ध क़स्बा समझा जाता था। तीसरी सड़क बुलन्दशहर की दिशा में और चौथी उस तरफ़ जहाँ नया गाज़ियाबाद धीरे-धीरे बस रहा था।
चौराहे से दिल्ली गेट की ओर आठ-दस दुकानें पार कर मेरे नाना की पंसारे की दुकान आती। मेरे नाना दो भाई थे और दोनों की दुकानें भी परस्पर सटी थीं। दोनों दुकानों को एक लकड़ी का तख्त अलग करता। दुकानों के बाहर खुला प्रांगण और बीच में खड़ा एक नीम का पेड़। बड़े नाना की दुकान पर फुटकर सामान की बिक्री होती और छोटे नाना की दुकान पर थोक में दाल, चावल और मेवों की बिक्री होती। पिता के साथ वहाँ पहुँचते ही छोटे नाना बादाम, काजू-किशमिश और तिलगोजे से भरी प्लेट हमारे सामने रख देते। छोटे नाना हम बच्चों को खूब प्यार करते, जबकि बड़े नाना गंभीर मुद्रा धारण किए रहते। संभवतः यही कारण रहा होगा कि हमें छोटे नाना अधिक प्रिय लगते। ये दुकानें दोनों नानाओं के संयुक्त नाम—‘रामरिछपाल-प्यारेलाल’ के नाम से जानी और पुकारी जाती थीं। उन दिनों गाजियाबाद शहर की नाना की यह दुकान बड़ी दुकानों में मानी जाती थी। मेरे अपने दो सगे मामा थे। छोटे मामा नाना की दुकान पर ही बैठते और उनके काम में हाथ बंटाते। बड़े मामा की बजाजे की दुकान सड़क पार नाना की दुकान के ठीक सामने थी।
छोटे नाना के तीन बेटे थे। बड़े मामा दिल्ली में किसी सरकारी विभाग में नौकरी करते और उनके पहलवान सरीखे बलिष्ठ शरीर और मूँछों से मुझे भय लगता यद्यपि वे बेहद संवेदनशील और सरल व्यक्ति थे। मंझले महेश मामा की किसी दुर्घटना में घुटने से ऊपर की एक टांग जाती रही थी। इसके बावजूद वे लाठी के सहारे जिस तेजी से दौड़ लगाते उसे देख ताज्जुब होता। नाना की दुकान के एक छोर पर सड़क से सटी उनकी सर्राफे की दुकान थी। हम बच्चों को वही सबसे अधिक लाड़ प्यार करते। हमें देख जोर से पुकारते—‘‘अरे बचवा इधर आओ।’’ देर तक दुलारने के बाद नींबू पानी की कंचे वाली बोतल मंगवाते। कंचे को उंगली से दबाकर नीचे करते ही फफक कर झाग ऊपर की ओर आते और हमें तुरंत अपना मुँह बोतल से लगाना होता। सबसे छोटे नरेश मामा की पीठ का कूबड़ निकला हुआ था जिसके कारण वे थोड़ा झुकते हुए चलते थे। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें हमेशा लाल रहतीं और मुँह में पान दबा होता। भीड़ भरे बाजार में अपनी साइकिल पर मुझे बिठाकर घंटी बजाते हुए उसे तेज गति से दौड़ाते। मैं भयभीत होकर उनसे चाल धीमी करने के लिए कहता तो वे कहते—‘‘जिसकी शामत आई होगी वही मेरी साइकिल से टकरायेगा।’’ संध्या के समय मैं बड़े मामा की दुकान पर जाकर बैठ जाता। भूसामिश्रित आटे के बड़े-बड़े लड्डूओं से भरी बड़ी परात मामा के सामने रखी होती। यह समय गायों की घर वापसी का होता। मुझे यह देख अचरज होता कि सभी गायें मामा की दुकान के सामने ठहरतीं और उनके हाथ से लड्डू अपने मुँह में रखवा आगे बढ़ जातीं। अकेले बड़े मामा की दुकान के आगे गायों का इस तरह रुकना मुझे उस उम्र में जादुई लगता।
बड़े नाना ने अपना घर नई बस रही चंद्रलोक कॉलोनी में बना लिया था। अपने संयुक्त परिवार में कुछ अनबन होने के कारण पिता डेढ़-दो साल के लिए अपनी ससुराल आ कर रहे थे। उस समय मेरी उम्र चार साल रही होगी। पिता नियमित रूप से दिल्ली स्टॉक मार्केट जाते। वे एक शेयर ब्रोकर के यहाँ काम करते थे। नाना का नया घर धर्मशाला जैसा था। प्रवेशद्वार के बाईं तरफ संडास, दाहिनी तरफ एक बड़ी बैठक जिसमें तीन दरवाजे लगे थे। यही बैठक हमारा निवास बना। घर की दहलीज पार कर बड़ा-सा आँगन आता। तीन दिशाओं में दालान बने थे और इन दालानों के भीतर बने छोटे-छोटे कमरे एक-दूसरे के भीतर खुलते थे। भीतर के कमरों में अंधकार पसरा रहता। वहाँ जाने में मुझे डर लगता। एक दालान में बने कमरों में नाना-नानी रहते और दूसरे दालान में छोटे मामा-मामी रहते। बड़े मामा और उनका परिवार दिल्ली गेट के पास एक संकरी गली में बने घर में अलग रहता था।
नानी की कमर झुकी हुई थी। वह मुश्किल से इधर-उधर चल पाती थीं। नाना भी गठिया के असाध्य रोग से पीड़ित थे और लाठी के सहारे टेढ़े-मेढ़े कदम रखते हुए चलते। रात्रि में नाना दुकान के बाहर सोते और प्रातःकाल के नियमित कार्यों से निवृत्ति के लिए घर लौटते। मैं और मेरी छोटी बहन जब सोकर उठते तो हमारे सिरहाने पुड़िया में बंधी कलाकंद होती। उस कलाकंद का स्वाद बरसों तक नाना के गुजर जाने के बाद भी मेरी जुबां पर बना रहा। जब कभी गाजियाबाद जाना होता मैं घंटाघर के करीब उस हलवाई के यहाँ कलाकंद खाना न भूलता।
छोटे मामा का चेहरा चेचक के बड़े-बड़े सियाह दागों से भरा पड़ा था। उनके विपरीत मामी चमेली के फूल जैसी श्वेतवर्णा थीं। उनके सौंदर्य से सम्मोहित मैं उनकी ओर टकटकी लगाए देखता रहता। मामा की उपस्थिति में मामी का व्यवहार रूखा होता जो मामा के जाते ही तरल हो आता। मामा और मामी के बीच अक्सर कटु और कर्कश भाषा में वार्तालाप होता। दिनों तक उनके बीच अबोला बना रहता। छोटे मामा निसंतान रहे। कुछ बड़ा होने पर मैं मामी की तिक्तता और कटुता का अनुमान लगा सका। छोटे मामा के चेहरे पर भी मैंने कभी मुस्कुराहट न देखी। वह जैसे जीवन से उदासीन से हो चले थे। प्रातः भ्रमण के लिए छोटे मामा हिंडन नदी के तट तक जाया करते थे। वहीं उनके कुछ मित्र भी मौजूद होते। वही समय ऐसा होता जब मैं उन्हें प्रफुल्लित और वास्तविक रूप में पाता। मुझे वह यदा-कदा अपने साथ ले जाते। अपने गमछे और जांघिये के साथ मेरे कपड़े भी झोले में रखते। रास्ते में एक बगीची आती जिसे प्याऊ कहकर पुकारा जाता। वहाँ रुक कर वह अपने लिए एक लोटा लेते और वापसी में उस लोटे को अच्छे से मांज कर वहीं रख देते। उसी बगीची में वह दातुन से दाँतों को मांजने के बाद हाथ-पैरों को रगड़-रगड़ कर साफ करते।
मेरे बचपन की देखी हिंडन नदी सुरम्य और आकर्षित करने वाली थी। प्रातःकाल वहाँ स्नान करने वाले अच्छी-खासी संख्या में आते। कुछ व्यक्ति तट से दूर शौच से निवृत्त होने का कार्य भी करते। छोटे मामा बताते कि इस हिंडन में घड़ियाल भी काफी मात्र में हैं। कभी-कभी नहाने वाले आदमी का शिकार भी कर लेते हैं। उनकी बातें सुन मुझे पानी के भीतर कदम रखने से डर लगने लगता।
एक नदी जो हजारों साल से प्रवाहित होती हुई असंख्य प्राणियों को जीवन प्रदान करती रही हो उसे मनुष्य सिर्फ कुछ साल में मार डालता है। इसका उदाहरण हिंडन नदी है। सहारनपुर जिले की शिवालिक की पर्वत शृंखलाओं से निकली यह नदी उत्तर प्रदेश के कई जिलों का लगभग 400 किलोमीटर का सफर करती हुई गाजियाबाद पहुँचती है और फिर दिल्ली में यमुना से मिल जाती है। यह एक बरसाती नदी है और वर्षा का पानी ही उसकी जीवनधारा है।
पिछले अनेक सालों से मोहन नगर औद्योगिक क्षेत्र की डिस्टलरी का अपशिष्ट व औद्योगिक इकाइयों का वेस्ट डिस्पोजल, धार्मिक उत्सवों की पूजन सामग्री और मल-मूत्र ने इसे दलदली कीचड़ से भरे गंदे नाले में परिवर्तित कर दिया है। हिंडन अब वर्षा ऋतु में भी जलविहीन रहती है। इसमें रहने वाले जलीय प्राणियों का अस्तित्व पूरी तरह विलुप्त हो चुका है। दस साल पहले तक दिखाई देने वाली मछलियाँ और मेंढक अब गायब हो गए हैं। पानी में ऑक्सीजन का स्तर न्यूनतम हो चुका है। जलीय जीवन के नाम पर मात्र सूक्ष्मजीवी काइरोनामस लार्वा नेपिडी परिवार के लार्वा ही शेष बचे हैं।
आज हिंडन के पुल से गुजरते हुए कार की खिड़की खोल उस ओर देखना एक त्रसद अनुभव है। हमारे देश की हिंडन जैसी न जाने कितनी नदियाँ मनुष्य की उपेक्षा और औद्योगिक हिंसा का शिकार हो असमय विलुप्त हो चुकी हैं। इन नदियों के साथ-साथ इनमें वास करने वाले जलीय प्राणियों की अनेक प्रजातियां भी सदैव के लिए नष्ट हो गई हैं। डेढ़ साल बाद पिता वापस अपने शहर हापुड़ लौट आए। ननिहाल जाना धीरे-धीरे कम होता गया। स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में, वह भी दो या तीन साल के अंतराल से ही वहाँ जाना होता।
मैं आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था जब एक बार ननिहाल जाना हुआ। गर्मियों के दिन थे। बड़े मामा की दुकान पर उनके तीसरे नंबर के बेटे और अपने हमउम्र भाई से बातें कर रहा था। मामा दोपहर का भोजन करने के बाद कुछ देर विश्राम के लिए ऊपर बने कमरे में चले जाते थे। उनके जाने के बाद वह भाई दुकान में छिपा कर रखी गई टीन की संदूकची निकाल कर लाया। संदूकची के ताले को खोल उसने गेरुए रंग के रेशमी कपड़े में लिपटा हस्तलिखित एक भारी-भरकम रजिस्टर मुझे दिखाया। उसे छूने के लिए मैंने अपना हाथ बढ़ाया तो वह डपटते हुए बोला—‘‘यह बहुत मूल्यवान रजिस्टर है। इसे मेरे परदादा ने हाथ से लिखा है। गाजियाबाद में होने वाली रामलीला इसी रजिस्टर के आधार पर खेली जाती है। जो व्यक्ति इस रजिस्टर को छापेगा वह हमें इसकी मुँहमांगी कीमत देगा।’’
वह लाला सुल्लामल के सुंदर हस्तलेख में लिखी रामायण थी। लाला सु्ल्लामल का जन्म 1836 में हुआ था। वह पारसी मंच के उस्ताद थे और उन्होंने अपने आठ शार्गिर्दों के साथ सन् 1900 में रामलीला की नींव रखी। वे आठ शागिर्द ही उनके द्वारा लिखित रामायण के आधार पर मंचित होने वाली रामलीला के मुख्य पात्रों का अभिनय करते थे। गाजियाबाद की यह सबसे पुरानी रामलीला है जो पिछले 120 वर्ष से निरंतर खेली जा रही है। लाला सुल्लामल के पोते मेरे छोटे नाना प्यारेलाल ताजिंदगी इस रामलीला के मंचन से सक्रिय रूप से जुड़े रहे।
छोटे मामा जब तक जीवित रहे नियमित रूप से तीज के त्यौहार पर माँ के लिए पारम्परिक भेंट पहुँचाने हापुड़ आते रहे। आने से पहले वापस लौटने की हड़बड़ी से भरे होते। मुश्किल से आधा घंटा ठहरते और फिर—‘‘दुकान कुछ देर के लिए किसी को सौंप कर आया हूँ,’’ कहने के साथ चल देते। छोटे मामा की मृत्यु के बाद हमारा ननिहाल जाना पूर्णतया छूट गया। ननिहाल में अब हमारे मामाओं में कोई शेष नहीं रहा था। नाना और नानी बहुत पहले ही दिवंगत हो चुके थे। छोटे मामा की मृत्यु के साथ जैसे ननिहाल से सारे सूत्र समाप्त हो गए।
कुछ साल पहले दिल्ली से हापुड़ शटल ट्रेन से आते हुए करीब बैठे एक सहयात्र से यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि गाजियाबाद में अभी भी श्रीसुल्लामल रामलीला मंचन समिति की ओर से रामलीला आयोजित की जाती है। वह स्वयं भी उस रामलीला में पार्ट करने वाला कलाकार था। मन में कहीं टीस सी हुई जब उसने बताया कि अब वह रामलीला श्रीसुल्लामल द्वारा रचित रामायण के आधार पर नहीं होती। उनके द्वारा रची रामायण तो बहुत साल पहले कभी की खो चुकी है। उसकी कोई प्रति भी किसी के पास उपलब्ध नहीं है। उनके नाम पर आयोजित रामलीला तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के आधार पर ही खेली जाती है। उस दिन यकायक मुझे अपने बचपन के दिनों में संदूकची के भीतर छिपाकर रखी गई श्रीसुल्लामल द्वारा रचित उस पांडुलिपि का स्मरण हो आया।
(कथादेश जनवरी 2022)