पेन की चोरी / अशोक कुमार शुक्ला
तभी चोर को निकाला जाएगा..
बात उसी दौर की है जब मैं घर घर खेलने की उम्र में ही था और हम लोगो के बीच सबसे बड़ी मकान मालकिन की बेटी चेता थी....जिसके साथ माह भर चलने वाले फूलों के पर्वतीय त्यौहार "फ़ुल्देई" के समापन पर एक ऐसी घटना घटी थी कि तब तक जो चेता अपना ज्यादातर समय हम बच्चों के साथ खेलने में बिताती थी वो अब अपना अधिकतर समय गाय की सेवा में बिताने लगी थी... सुबह उठते ही गौशाला पहुंचना .....दिन में गाय को खोलकर आँगन में बाँधना .....दिन में कई बार गौशाला ....अब चेता खेलती तो हमारे साथ थी लेकिन उसका ध्यान हमेशा उस कमरे के आसपास ही लगा रहता..जिसमें वो नया किरायेदार "भैजी" रहा करते थे।....एक दिन हम बच्चों के खेल में जब चेता घर की बड्डी यानी ताई जी बनी हुई थी और उसका भाई सत्तू बोडा यानी ताऊ तो भैजी ने आकर हम बच्चो के द्वारा बनाए इस घर में झांककर हमारी गृहस्थी का निरिक्षण जैसा कर डाला.... जिससे हम सारे बच्चो के मन में उत्साह जैसा आ गया ....हर बच्चा आगे बढ़कर इस खेल में बनाये रिश्तो के बारे में बताने लगा था। चेता कुछ नहीं बोली तो उन्होंने पूछा कि वो क्या बनी है...? "मैं तो बड्डी बनी हूँ इनकी....तुम्हे क्या...?" "मामी क्यों नहीं बनती इनकी...?" भैजी ने कहा...आपको याद दिला दूँ की इस घटना से कुछ दिन पूर्व जब चेता ने भेजी को भाई कहा था उसने उसे आग्रह पूर्वक मना करते हुए कहा था कि- "भाई मत कहो मुझे..! मैं तुम्हारा भाई नहीं हूँ..!!" इस पर चेता ने कहा था- "तो किसके भाई हो तुम...? क्या मेरी माँ के..? मामा जी!!" चेत की इस शैतानी पर भैजी ने चेता की छोटी पकड़कर जोर से खींच लिया था...चेता चोटी छुड़ाकर भाग आयी थी...। हम सबने उस दिन के घटना क्रम को भी गौर से देखा और सुना था तथा आज की घटना को भी ..अब हमें....हमें गंभीरता से लगने लगा कि बच्चो को अपने खेल के लिए एक नया रिश्ता मिलने वाला था लेकिन पता नहीं क्यों चेता बिफर पड़ी- "बिद्या कसम..! आज मैन तेरी छुई बई सन बतौंड.." यानी बिद्या की कसम मैं आज तुम्हारी बातें माँ को बताउंगी...यह सुनने के बाद भैजी बिना कुछ बोले चुपचाप वहाँ से चला गया... बात आयी गयी हो गयी लेकिन मेरे बालमन में यह बात तो गहरे बैठ गयी कि भैजी और चेता के बीच कुछ ऐसा जरुर है जिसके खुल जाने का डर भेजी के मन में जरुर है वरना इतनी सुगमता से भैजी सर झुकाकर न चले जाते। बहरहाल उन भैजी के कमरे में हम बच्चों का बेहिचक जाना बदस्तूर जारी रहा। भैजी के कमरे में एक टेबल थी जिस पर करीने से सजी रंग बिरंगे कई पेन रखे रहते थे...हम जब भी उनके कमरे में जाते तो मुझे उनके कमरे में सजे वो पेन बहुत आकर्षित करते थे ....हम छोटे बच्चों को तब तक पेन से लिखने की छुट नहीं थी...और हमारे पास तब तक लिखने के लिए पेंसिल थी तथा अंग्रेजी की चार रुल वाली कापी पर लिखने के लिए इंक वाला होल्डर इस्तेमाल में लाना होता था...। उन रंग बिरंगे पेनों के प्रति मेरा आकर्षण इतना बढ़ा कि मुझे उन्हें पाने की चाहत होने लगी। इस मंसूबे ने एक दिन मेरे मन में इन्हें चोरी करने का साहस भी पैदा कर दिया। आज सोचता हूँ कि अगर मैं भैजी से मांगता तो भी शायद वो पेन मुझे दे देते लेकिन पता नहीं क्यों मैंने मौक़ा देखकर उनके कमरे से एक पेन चुरा लिया और उसे चुपके से अपने बस्ते में रख लिया.। स्कूल जाकर चुपके से पेन निकाला और साथी बच्चों में उसे दिखाकर रोब गांठने लगा...शिकायत कक्षा अध्यापक तक पहुँची कि मैं होल्डर से लिखने की बजाय पेन से लिख रहा हूँ ....पेशी हुई और चोरी पकडे जाने के डर से मैंने फिर झूठ का सहारा लिया और अध्यापक को यह बताया कि पापा का पेन उठा लाया हूँ...अगले दिन पेन न लाने की हिदायत के साथ वो पेन बस्ते में फिर दाखिल हो गया....उस पेन के प्रति आकर्षण इतना जबरदस्त था कि घर पहुंचकर चुपके से उसे निकाल कर एकांत में कुछ आदि तिरछी रेखाएं खींचने लगा.....साथ ही यह डर भी सता रहा था कि कहीं मांजी भी मुझे इस पेन से लिखते हुए न देख लें। आखिर में फिर वही हुआ जिसका डर था.... माँ ने चुपके से छुप कर लिखते देखकर यह जानने की कोशिश की कि .......आखिर ऐसा क्या है मेरे पास जिसे इतने जतन से छुपाकर रखा जा रहा है...हाथ में खुबसूरत पेन देखकर पहले तो उन्होंने सोचा कि शायद मैंने पिताजी का पेन चुराया है लेकिन कड़ी पूछताछ में सारा राज खुलकर सामने आ गया। अब माँ का रूप देखने लायक था बोलीं - "कान पकड़ो .. और अभी के अभी भैजी के कमरे में जाकर इस चोरी के लिए उनसे माफ़ी मांगो ...साथ ही यह पेन भी लौटा कर आओ" इतनी बड़ी बेइज्जती की उम्मीद नहीं थी मुझे ...जब मैंने थोड़ा आना कानी की तो वो स्वयं मेरा कान पड़कर मुझे बाहर ले आयीं साथ ही मुझे घर से बाहर निकल जाने की सजा भी बोल दी। मैं भी जिद्दी था सो कुछ देर बाहर खडा रहा... अंत में जिद टूटी और कुछ देर घर से बाहर रहने के बाद मैं रोते रोते भैजी के कमरे तक गया और वो पेन वापिस कर आया। लौटकर रोते हुए आया क्योकि इस घटना से स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रहा था। आखिर मोहल्ले के बच्चों में अब मुझे चोर समझा जाएगा....। उस रात मैं रोते रोते सोया..माँ को शायद मेरे अपमानित अनुभव होने के दंश का अनुमान था इसलिए रात में सोते समय प्यार से समझाया कि - "...चोरी कितनी बुरी आदत है....बचपन की एक छोटी सी गलती बड़े होकर कितना बुरा प्रभाव ड़ाल सकती है...वगैरह ... वगैरह....." ...वो तो अच्छा यह हुआ कि चेता और कुछ बड़े लड़के इस घटना को नहीं जान सके वरना सचमुच वो सब तो मिलकर मुझे चोर घोषित करवा कर ही मानते। कुछ दिन बीते...एक दिन बाहर आँगन में कुछ हंगामा सा सुनकर नींद खुली... उनींदी आँखों से उठकर मैं भी कमरे के बहार आया तो पाया कि बाहर कई लोग भैजी के कमरे के बाहर इकट्ठा थे.... शायद कोई चोर उनके कमरे में घुस गया था इसीलिये उनके कमरे को मोहल्ले वालों ने बाहर से कुण्डी लगाकर बंद कर दिया था....सब ओग मिलकर सत्तू के बाबा (पिता) का इन्तजार कर रहे थे.... वो जब आयेगे तभी चोर को निकाला जाएगा..