फुल्यारी और चेता / अशोक कुमार शुक्ला

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फुल्यारी और चेता

सुबह उठकर लान में खिले इन रंगबिरंगे फूलों को देखकर बचपन के वो दिन याद आ गए जब सम्भवत: चैत्र मास के आरम्भ होने पर एक त्यौहार आता था जिसमे प्रत्येक शाम हम बच्चों का झुण्ड आस पास के खेतो में भटककर रंग बिरंगे फूल इकट्टा करते थे और अगले दिन सुबह मोहल्ले भर के प्रत्येक दरवाजे की कोरों पर दो-दो ताजे फुल बिखेर आते थे... कुमाऊं में इस त्यौहार को "फूलदेई" कहकर संबोधित किया जाता है और चैत्र मास के आरम्भ होने वाले दिन इस छोटे गाने को सस्वर गाकर मनाया जाता था

फूल देइ छम्मा छेई,
देनो द्वार भर भकार,
ये देइ से नमस्कार,
पूजे द्वार

...गढ़वाल में इसे "फूल्यारी" कहा जाता है यह चैत्र मास में मनाया जाता है। मोहल्ले भर के दरवाजों पर ताजे फूल बिखेरने का यह क्रम पूरे माह चलता था.... मकान मालिक उदय सिंह रावत जी की बेटी का जन्म सम्भवत: इसी चैत्र के महीने में हुआ था इसीलिये उसका उसका नाम "चेता" रखा गया था... पिछली पोस्ट में मैंने बताया भी था कि दुर्गम से दुर्गम स्थान से फूल इकटठा करने में चेता की महत्क्पूर्ण भूमिका होती..हालांकि सयानी होने के बाबजूद बच्चो के साथ घूमते रहने के लिए चेता कई बार अपने पिता द्वारा डांटी जाती थी लेकिन उस डांट का कोई असर चेता पर होता नहीं दीखता था... और वो लगातार पुरे महीने हर शाम इसी तरह ह बच्चों के साथ फूल तोड़वाती रहती... उस दौर की एक घटना की धुंधली स्मृति मन में है.. । जिस घर में हम लोग रहते थे उसी के उस मकान में खाली एक कमरे में नया किरायेदार रहने के लिए आया था....सुबह दरवाजे पर फूल डालने के दौरान उसके दरवाजे पर भी फूल डालना आरम्भ किया गया था । वह सम्भवत: किसी महकमे में ड्राफ्टमैन जैसी कोई नौकरी करता था क्योकि उसके कमरे में "वीटो" की अमिट काली स्याही की कई दवातें रहती थी...और यह बात भी उसी ने बताई थी कि इस स्याही लिखने के बाद उसी पानी से धोया भी नहीं जा सकता...मुझे याद आता है कि किसी दिन अवसर पाकर हम बच्चे जब उसके कमरे में गए तो चेता को कुछ संकोच हो रहा था.....उसके कमरे में वीटो इंक से बनाई हुयी कलाकृतियो के अतिरिक्त कमरे के प्रवेश द्वार पर कोई स्लोगन लिखा था ... चैत्र माह के अंत में एक दिन सारे बच्चे उन घरों में जाकर महीने भर फूल डालने का मेहनताना मांगते थे... महीने भर तक मोहल्ले भर के घरों की देहरी पर फूल डालने का त्यौहार मनाने के बाद जब एक दिन बच्चो को मिले मेहनताने में उस नए किरायेदार "भैजी" द्वारा चेता की चुटिया खिंची गयी थी तो उनके वार्तालाप का थोड़ा सा हिस्सा हम सबने सुना था। चेता ने जब भैजी से पैसे मांगे थे तो उसने कहा था- "भैजी क्यों कहती है मुझे..?" " फिर क्या कहूँ..?" " कुछ भी ..कह .! पर भैजी नहीं....मैं तेरा भाई नहीं हूँ... " "तो तुम क्या हो मेरे...मेरी माँ के भाई हो...? मामा...कहूँ...?" चेता ने शैतानी भरे लहजे में कहा था और इसी बात पर भैजी ने चेता की चोटी इतनी जोर से खींच दी थी कि चेता गिरते गिरते बची थी...इस घटना में बच्चों के लिए कौतुहल इस बात का था कि इस शैतानी के बाद भी चेता नाराज नहीं हुयी थी और बस " उई.. मेरी व्योय..."(उफ़ मेरी माँ) कहकर मुस्कुरा भर दी थी.। घर पहुंचकर जब माँ को यह घटना बताई तो उन्होंने भी हिदायत दी कि चोटी खींचने वाली बात किसी से बताने की जरुरत नहीं है । हालांकि यह बात मैंने किसी से नहीं बताई लेकिन हम बच्चो ने चेता के व्यवहार में नया परिवर्तन अवश्य अनुभव किया... चेता मकान मालिक की बेटी होने के कारण घर के ऊपरी हिस्से में रहा करती थी। उन कमरों के बाहर एक छज्जा था और छज्जे के कोने पर नीचे उतने के लिए सीढिया..जिस कमरे में "भैजी" रहते थे वह सीढ़ियो के ठीक बगल में था और उस कमरे के ठीक पीछे एक और कमरा था जिसमे मकान मालिक की गाय पली थी...यों तो गाय की देख रेख का जिम्मा चेता की माँ का था लेकिन कभी कभार चेता और सत्तू भी वहां जाकर चारा दाल आते थे ...शाम को जब सारे घर की बत्ती जलाई जाती तो उस गौशाला में भी दिया जलाकर रखा जाता था जिसे गौशाळा में दिया बालना कहा जाता.. .... पहाड़ी क्षेत्रो में बनने वाले परम्परागत मकान की तरह नीचे बने कमरों के सामने एक चौरस आँगन था...जिसके बीचों बीच एक बड़े समतल पत्त्थर पर ओखली बनी थी...इस आँगन का वो सिरा को सड़क की और था उसके किनारे डेढ़ दो फुट ऊँचा पैरापेट (पहाड़ी घरो की संरचना में मकान के आगे आँगन होता है और उसकी सीमा पर लगभग दो फिट चौड़ी दो फिट ऊँची दीवार जिसके लिए मैंने पेरापेट शब्द उपयोग में लाया है ...पहाड़ का कोई मित्र इसके लिए कोई और शब्द सुझा सकता है क्या..?) जिसका उपरी हिस्सा पठाल जैसे चिकने समतल पत्थरों से चौरस किया हुआ था । इस पर टायर के टुकडो में मिट्टी भरकर कुछ फूलों के पौधे सजे रहते थे... ओह मैं भी कहाँ भटक गया ...बताना चाहता था कि चुटिया खींचे जाने की घटना के बाद चेता का व्यवहार बदला सा गया था.. अब तक जो चेता अपना ज्यादातर समय हम बच्चों के साथ खेलने में बिताती थी वो अपना अधिकतर समय गाय की सेवा में बिताने लगी सुबह उठते ही गौशाला पहुंचना दिन में गाय को खोलकर आँगन में बाँधना दिन में कई बार गौशाला से पानी की बाल्टी लाकर उसे पानी पिलाना । आँगन के सामने बने पेरापेट पर अकेले बैठकर गुट्टिया खेलना... इन सबके बीच मौक़ा निकालकर मकान के ऊपरी हिस्से की ओर जाने वाली सीढियों के अगल वाले कमरे को ताकना...और सीढियों से चढ़ते उतारते समय भाई जी के दरवाजे पर ठिठककर कुछ सुनने की प्रतीक्षा जैसा करना...चेता के मन में कुछ ऐसा था जो अव्यक्त अनकहा सा था...अभी तक हम बच्चे मिलकर घर घर का जो खेल कमरे के भीतर खेलते थे उसके लिए भी चेता ने आँगन में ही नयी व्यवस्था कर दी थी।वह छत पर पड़ी एक टूटी खाट उठा लाई थी और उसे आँगन के एक कोने में खडा कर दिया। माँ से पुरानी धोई मांगकर उस खाट और दीवार को मिलाकर घर जैसी एक आकृति तैयार की गयी थी..... अब चेता खेलती तो हमारे साथ थी लेकिन उसका ध्यान हमेशा उस कमरे के आसपास ही लगा रहता...एक दिन खेल में जब चेता घर की बड्डी यानी ताई जी बनी हुई थी और उसका भाई सत्तू बोडा यानी ताऊ तो भैजी ने आकर हम बच्चो के इस घर में झांककर हमारी गृहस्थी का मुआयना जैसा कर डाला.... तो हम सारे बच्चो के मन में उत्साह सा आ गया ....हर बच्चा आगे बढ़कर खेल में बनाये रिश्तो के बारे में बताने लगा था। चेता कुछ नहीं बोली तो उन्होंने पूछा कि वो क्या बनी है...? "मैं तो बड्डी बनी हूँ इनकी....तुम्हे क्या...?" "मामी क्यों नहीं बनती इनकी...?" भैजी ने कहा... हम सबने गौर से सुना..हमें गंभीरता से लगने लगा कि बच्चो को अपने खेल के लिए एक नया रिश्ता मिलने वाला था लेकिन पता नहीं क्यों चेता बिफर पड़ी- "बिद्या कसम..! आज मैन तेरी छुई बई सन बतौंड.." यानी बिद्या की कसम मैं आज तुम्हारी बातें माँ को बताउंगी...यह सुनने कइ बाद भैजी बिना कुछ बोले चुपचाप वहाँ से चला गया...