मेरे सामजिक सरोकार / अशोक कुमार शुक्ला
"ये डोम क्या होता है?"
छोटी बहन "बेबी" ने हमारे परिवार में आकर हम दोनों भाइयो के लिए एक खिलौना जैसा दिला दिया था। स्कूल से छुट्टी होने के तुरंत बाद हम घर पहुँच कर पलंग पर लेटी उस नन्ही मुन्नी को दुलारा करते थे। कई बार हम दोनों अपने घर पर मोहल्ले भर के बच्चों का जमावड़ा लगा देते। बचपन के उन दोस्तों में से कुछ के नाम आज भी याद है...जिनमे से शायद कोई फेसबुक से जुडा हो.... इल्ली, अज्जू और बिट्टू ये तीनो होटल हाई हिल वाले बिष्ट जी के बच्चे थे ..चेता, सत्तू, देबू और सूरी जिनमे से चेता और सत्तू तो माकन मालिक के बच्चे थे और देबू और सुरी हमारे घर के नीचे वाले घर में रहने वाले अनुसूचित जाति के एक परिवार से जुड़े थे। इसी दौर में "दलित" शब्द में छिपी भावना को अनुभव करने का अवसर भी मिला। पुराना चोपडा मार्ग पर स्थित जिस मकान के निचले हिस्से में (जिसे स्थानीय भाषा में ओबरा कहा जाता है) हमारा परिवार रहता था वह पहाडी राजपूत श्री रावत जी का मकान था। इस मकान के नीचे सडक के बाद एक और मकान था जिसमें मेरे बचपन के दोस्त सूरी, देबू आदि रहा करते थे। देबू के पास एक तीन पहिये की साइकिल थी जिसे वह और उसके अन्य कई भाई बहिन सडक पर दिन भर चलाया करते थे। बच्चों को सामूहिक रूप से खेलते देख मेरे बाल मन में भी उनके साथ जाकर खेलने की इच्छा जागृत हुयी परन्तु हमारे परिवार को मकान मलिक की ओर से यह सख्त हिदायत दी गयी थी कि सडक के नीचे जाकर इन बच्चों के साथ नहीं खेलना है और अगर ऐसा किया गया तो हमें मकान खाली करना होगा । मेरा बालमन इस बंदिश को मानने को राजी नहीं हुआ और मैं सूरी और देबू के साथ सडक पर तिपहिया साइकिल के साथ खेलने चला गया। यह क्रम अभी कुछ दिन ही चल पाया था कि एक दिन मकान मालिक ने मुझे उन बच्चों के साथ खेलते हुये देख लिया और मेरे कान पकडकर ले आये और आकर मेरी मां से बोले: "देखो मैने मना किया था कि उन बच्चों के साथ नहीं खेलना है लेकिन ये तो माने ही नहीं अब आप लोग अपने लिये कहीं और मकान देख लो।" यह कहकर मकान मालिक तो चला गया लेकिन मेरा बालमन यह न समझ सका कि इन बच्चों के साथ खेलने के लिये क्यों मना कर रहा था । मैने जिज्ञासावश अपनी मां से पूछा कि "मां! ऐसा क्या है कि हमारा मकान मालिक उन बच्चों के साथ हमारे खेलने की दशा में हमें अपने मकान में किराये पर भी नहीं रखना चाहता?" मां भी बात को टाल गयी परन्तु उसने सूरी और देबू के साथ मेरे खेलने पर कोई रोक नहीं लगायी । धीरे धीरे समय बीतता गया इस छोटी सी घटना से उठे प्रश्न ने बालमन पर ऐसी पैठ बनायी कि आखिर में मैने इस प्रश्न को किसी और से पूछने की ठान ली। एक दिन मैं देबू के घर पर उसे खेलने के लिये बुलाने गया था तो देबू चाय की चुस्कियों के साथ मंडुवे की रोटी (मंडुवा एक मोटा पहाडी अनाज है ) खा रहा था। काले रंग की उस रोटी को देखकर मुझे लालच आ गया तो मैने भी उसे खाने की इच्छा प्रगट कर दी । इस पर देबू की मां सकपका गयीं बोलीं "बेटा ! तुम हमारे यहां खाओगे तो तुम्हें घर पर डांट पडेगी।" मैने पूछा "डांट क्यों पडेगी?" अब देबू की मां का उत्तर बहुत संजीदा और संयत करने वाला था ‘‘ बेटा हम लोग डोम हैं ना! इसीलिये हमारे यहां खाने से मना करते हैं ?’’ मुझे लगा कि ऐसी कोई बंदिश तो मेरी मां ने नहीं लगायी है सो मैने आग्रहपूर्वक मंडुऐ की आधी रोटी ली और चाय के साथ उसे गटकने लगा। उस समय तक मैं नहीं जानता था कि डोम क्या होता है सो मैने फिर पूछा ‘‘ये डोम क्या होता है?’’ इस बार देबू की मां ने कोई उत्तर नहीं दिया और कहा कि ‘‘तूने हमारे यहां चाय पी है और रोटी खायी है यह बात किसी को मत बताना।’’ यह वाक्य कहते हुये देबू की मां के चेहरे पर जो भाव आये उसे मै जीवन पर्यन्त कभी नहीं भूल पाया । समय के साथ और भी अनेक आयाम आते रहे परन्तु यह घटना और देबू की मां का चेहरा मुझे कभी नहीं भूली (यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा उत्तराखण्ड के स्थानीय नागरिक मैदानी कुलीन नागरिकों को सामान्यतः देसी कहकर अनुसूचित जाति के स्थानीय नागरिको के समान दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं)