पेपर-सेठ / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
ये साल दो हजार दो की दास्तान है । मैं दैनिक अग्निपथ में रातपाली की नौकरी करता था। बड़े सवेरे घर आकर सो जाता था । किंतु दोपहर से रात तक कोई काम-धंधा नहीं था। मैंने सोचा, रात को तो काम करते ही हैं, पर आमदनी बढ़ाने के लिए दिन में भी कुछ करना चाहिए । एक मित्र को समस्या बताई और कहा कि कोई तीन-चार घंटे की चाकरी हो तो बताओ। उसने छूटते ही कहा, अरे चाकरी क्यों करोगे, जब सेठ बन सकते हो ? आओ, तुमको एक सान्ध्य दैनिक का पेपर-सेठ बनाता हूं । इस तरह इस खटकरम का आरम्भ हुआ ।
पेपर-सेठ यानी जिसके पास अख़बार की एजेंसी हो । जिसकी अपनी लाइनें हों, जहां पेपर बांटने के लिए लड़के दौड़ते हों और वो महीने के आख़िर में उगाही करके कलदार गिनता हो । मित्र ने ज्ञान - गणित दिया : दो हजार रुपया डिपॉजिट रखना होगा, पर ये पैसे बाद में एजेंसी सरेंडर करने पर मिल जाएंगे। रोज़ 250 कॉपी तुमको प्रेस से दी जाएगी। चार लाइनों में पेपर बंटेगा । एक रुपए का पेपर है, तुमको 60 पैसे में मिलेगा । अगर महीने के आख़िर में ठीक से उगाही कर सको तो एक कॉपी पर 40 पैसा तुम्हारी कमाई । तुमने महीने में 7500 रुपए का पेपर उठाया और 60 परसेंट के हिसाब से 4500 रुपया प्रेस में जमा कर दिया, तो बचा 3000 रुपया। अब इसमें से चारों लड़कों को 300-300 रुपया भी तनख़्वाह दी तो नहीं-नही करके भी तुम्हारे 1800 रुपए कहीं नहीं गए। ये अठारह सौ तुम्हारी सूखी कमाई !
गणित मुझे फ़ौरन समझ में आया । तब मेरी तनख़्वाह 900 रुपया थी और इसके लिए रात में 6 घंटे काम करता था । दिन में अगर 2-3 घंटे काम करके दोगुने नोट छाप लिए तो क्या बुरा है । ये जरूर है कि जो लम्बी तानकर सोता था, वो दोपहर की नींद अब खराब होगी, पर भरी जवानी के दिन हैं, अभी हाथ-पैर चला लिए तो आगे फिर आनंद है । यह विचार करके मैंने हामी भर दी। पूछा, पेपर कौन - सा है? मित्र ने बताया, बहादुरगंज में प्रेस है और कुल्मी -बंधु चलाते हैं । नाम है- अग्निबाण | मैंने कहा रात में अग्निपथ, और दिन में अग्निबाण : ये सही है । तब बात पक्की हो गई ।
अगले दिन राजा-बाबू बनकर प्रेस पर पहुंचा । एक एजेंसी अभी सरेंडर हुई थी। लिखा-पढ़ी हुई । पैसा डिपॉज़िट में रखा गया । फिर चारों लड़कों से परिचय कराया गया। उनको बताया कि ये भैया हैं, नमस्कार करो। उन्होंने नमस्ते की। एक का नाम अविनाश, दूसरे का नागेश- ये दोनों भाई । तीसरे का नाम जितेन्द्र, चौथे का सोनू। सब बारह-तेरह साल के छोकरे । पेपर-हॉकर के रूप में पार्ट-टाइम काम करने वाले ग़रीब-गुरबों के बच्चे। इनमें अवि और नागू बापूनगर में रहते थे। जीतू का घर दमदमे में था और उसका बाप टेम्पो चलाता था । सोनू सबसे छोटे क़द का था और उसका निवास जीवाजीगंज में था । सबने बारी-बारी से मुझे अपनी-अपनी लाइनें दिखाईं। लाइन जानना पैसों की उगाही के लिए ज़रूरी था । साथ ही अगर किसी दिन कोई लड़का ना आए तो पेपर - सेठ को खुद जाकर पेपर बांटना होता था । पेपर के धंधे में सब टाइम का खेल है । अगर शाम की चाय के टाइम पर पेपर नहीं पहुंचा तो ग्राहक अग्निबाण बंद करवाकर अक्षर - विश्व लगवा लेगा। एक बंदी ख़त्म हो जाएगी । इतना नुकसान भला कोई क्यों झेले ? तीन लाइनें समझने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। मैं खुद अतीत में पेपर-हॉकर रह चुका था और लाइन बांटने का काम अच्छी तरह जानता था । लेकिन सोनू की लाइन समझने में मेरी हालत पतली हो गई । ये आगर रोड पर शहर के बाहर बहुत दूर तक जाती थी । चिमनगंज मंडी तक तो मैंने हिम्मत रखी, फिर धीरज जवाब दे गया । और कितनी दूर जाना है, मैंने पूछा। सोनू ने कहा, भैया अभी तो बहुत आगे जाना है। पीलियाखाल में भी पांच कॉपी डलती है । पीलियाखाल सुनते ही मेरा दिल बैठ गया । ये मुख्य सड़क से कटकर अंदर की तरफ़ ईंट-भट्टे वालों की बस्ती थी । रास्ता कच्चा और उबड़-खाबड़ था । बीच में नाले पर एक टुटही पुलिया भी आती थी । भट्टे की वजह से यहां हवा में स्थायी रूप से धुएं का कसैलापन था । यहां आधा घंटा रह लो तो कंठ में कालिमा जम गई-सी लगती थी। शाम पांच बजते-बजते यहां झुटपुटा छाने लगता, मौसम में ठंडक घुल जाती। यहां पेपर पहुंचाना बहुत टेढ़ी खीर थी । मैं मन ही मन मनाता था कि बाकी तीन लड़के चाहें तो महीने में एकाध दिन छुट्टी मना लें, पर सोनू को तो बिलानागा रोज़ ही आना है । जैसे कि वो आदमी का बच्चा न हो, कोई मशीन हो ।
मेरा काम रोज़ डेढ़ बजे शुरू हो जाता । प्रेस से पेपर छपते ही मैं दो सौ कॉपियां गिनकर चारों लड़कों को बांट देता । वो साइकिल पर झोला टांगकर लाइन बांटने निकल पड़ते । फिर मैं बची हुई पचास कॉपियों के दो बंडल बनाता - एक तीस कॉपी का बंडल, कालापीपल के लिए। दूसरा बीस कॉपी का बंडल, इंगोरिया के लिए। बंडल लेकर सीधे रेलवे स्टेशन जाता। यहां दो बजकर दस मिनट पर मालवा एक्सप्रेस छूट जाती थी । मैं तुरंत बिल्टी - रसीद बनवाता और बंडल को गाड़ी में रखवा देता । शाम चार बजे तक मालवा एक्सप्रेस मेरी 30 कॉपी लेकर कालापीपल पहुंच जाती थी । फिर मैं सीधे दानीगेट का रुख करता और वहां उजड़खेड़ा रोड पर खड़े टेम्पो में से एक में इंगोरिया का बंडल रखवाता । फिर ढाबारोड पर कहीं बैठकर चाय पीता, और पांच बजे तक घर पहुंच जाता । रात दस बजे कार्यालय पहुंचने से पहले दो घंटे की नींद मुफीद साबित होती ।
लेकिन एक बार मुसीबत हो गई। सोनू नहीं आया। मैं मन मारकर उसकी लाइन बांटने गया। मन ही मन हाथ जोड़े कि भाई, कल आ जाना। दूसरे दिन भी बंदा नदारद। फिर तीसरा, फिर चौथा दिन । पांचवां दिन आते-आते मेरा पारा चढ़ गया। ये अजीब मक्कारी है । किसी से कुछ कहो नहीं तो सब सिर पर चढ़ जाते हैं। भारत-देश में जवान लड़के भी कुछ करना नहीं चाहते, कामचोरी का आलम है। जीतू से पूछा, कुछ पता चला क्या हुआ सोनू को ? कोई जवाब नहीं मिला। मैंने सोचा, आज भले पेपर लेट हो जाए, लेकिन इस बीमारी का इलाज करना ही होगा । कालापीपल - इंगोरिया के बंडल रवाना करके मैं जीवाजीगंज चला, जहां सोनू का घर था । खजूरवाली मस्जिद से नयापुरा और नयापुरा से जीवाजीगंज थाना | उसके आगे गणेश चौक तक हो आया। सबसे पूछता फिरा । तब जाकर एक ने सोनू का मकान दिखाया कि वहां रहता है । मैं पहुंचा। बहुत गुस्से में कुण्डी खड़काई- ठक, ठक, ठक...
दरवाज़ा खुला। एक अधेड़ औरत दिखाई दी । मैंने सख़्त लहज़े में उससे पूछा, सोनू किधर है? उसने सकुचाते हुए कहा, आप? तभी मेरी नज़र चारपाई पर गई, जहां सोनू पड़ा था । पीला, विवर्ण, सूखा हुआ चेहरा, जैसे कोई बड़ा रोग जकड़ लिया हो। तुरंत मेरा स्वर बदल गया । ऐ सोनू, ये क्या हो गया, करके आवाज़ लगाई। वो चौंककर उठा और बोला, अरे भैया आप, यहां पर ? मालूम हुआ बालक को मोतीझरा हुआ है और चार दिन से बिस्तर से लगा हुआ है ऐसे में अब मैं क्या बोलता? किंतु भैया शब्द सुनते ही मेरी आवभगत शुरू हो गई। कप-बशी में कड़क - मीठी चाय आ गई। सोनू ने बुशर्ट पहनी और ग़रीब का बच्चा बीमारी में चौक से बिस्कुट लेकर आया।
इधर उसकी मां की रामायण शुरू हुई - तो आप हैं भैया? हमारे घर में तो रात-दिन अखण्ड भैया-भैया ही चलता रहता है। भैया ये, भैया वो। भैया बहुत पढ़े-लिखे हैं, भैया बहुत अच्छे हैं। भैया रातपाली की नौकरी करते हैं, दिन में ठीक से सो नहीं पाते। भैया रोज़ परेशान हो रहे होंगे, बहुत दूर पेपर डालने जाते होंगे। आज का दिन तो निकल गया, पर मम्मी, कल से काम पर चला जाऊं? बस चार दिन से मेरे घर में यही चल रहा है । मैं मुस्कराकर सुनता रहा । चाय पी, बिस्कुट खाया । फिर उठा और सोनू से बोला, बेटा तुम आराम करो, मैं फिर आता हूं ।
मां बाहर तक छोड़ने आई । बोली, भैया, आपने बताया नहीं कैसे आए थे ? मैंने कहा, बस ऐसे ही, पता चला कि बच्चा बीमार है तो हाल-चाल पूछने चला आया था। वो पसीज गईं । बोलीं, भैया, हमने तो अपना बच्चा आपके हवाले कर दिया, इसको आप काम से लगाकर आदमी बना दो। अपने जैसा समझदार बना दो। पढ़-लिख ले, कहीं काम-धंधे पर पक्के से लग जाए तो हम गंगा नहाएं । मैंने उनके हाथ जोड़े और कहा, आप बेफिकर रहिए, आपका बेटा, मेरा छोटा भाई। मुझसे जो बनेगा, उसके लिए करूंगा । फिर जेब से सौ रुपए का नोट निकाला और बोला, बीमारी का सुना तो यह उसकी तनख़्वाह का एक-तिहाई पेशगी बतौर देने आया था, रख लीजिए । रोग-शोक में काम आएगा। मां ने सिर पर हाथ रखकर आशीष दिया। मैंने नमस्ते किया, अपना झोला उठाया, और सुदूर पीलियाखाल की तरफ़ पेपर डालने चल दिया!