किताबों की दुकान में चाकरी / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
एक समय की बात है। उज्जैन के मालीपुरे में किताबों की एक दुकान हुआ करती थी । शायद आज भी हो। दुकान का नाम था- गुप्ता साहित्य भण्डार । वहां रजनीश की किताबें मिलती थीं। ऐसी-वैसी पॉकेट बुक्स नहीं, बल्कि कोरेगांव पार्क पूना से छपी महंगी सजीली किताबें । मेरा गुदरी से दौलतगंज और दौलतगंज से देवासगेट रोज़ का आना-जाना था। रास्ते में गुप्ताजी की दुकान पड़ती। दुकान में शीशे की दीवार थी, बाहर से भीतर देखा जा सकता था । तब मैं साइकिल टिकाकर उन पुस्तकों को लालसा से निहारता रहता था । एक दिन एक सज्जन भीतर से आए और पूछा, कुछ चाहिए? मैंने संकोच से कहा, कुछ नहीं, और वहां से चला गया।
बहुत दिन बीते । एक दिन हिम्मत करके दुकान में भीतर गया । इतनी सुंदर पुस्तकें वहां थीं, रजनीश के मूल व्याख्यानों के अधिकृत संस्करण - गीता दर्शन, ताओ उपनिषद, तंत्र सूत्र, एस धम्मो सनंतनो, ध्यानयोग । जेन, बौद्ध, जिन, सूफ़ी परम्परा के लुभाने वाले सूत्र और कथाएं | एक पुस्तक निकाली । शीर्षक था- मैं कहता आंखन देखी । मोटी जिल्द वाली बड़ी मनमोहक पुस्तक, लुभा देने वाला आमुख। मेरे भीतर हूक उठी कि यह मुझे चाहिए । मूल्य देखा, तीन सौ रुपया। उन दिनों मैं अख़बार बेचने वाला हॉकर हुआ करता था और मेरी मासिक आमदनी अढ़ाई सौ रुपया थी | वो किताब मेरे पूरे महीने की कमाई से ज़्यादा थी। जैसे निकाली थी, वैसे ही रख दी । किंतु मन क्षुब्ध हो गया । तृष्णा ने जकड़ लिया। मैं सोचने लगा, क्या करूं, कैसे इस सम्पदा को पाऊं ? दिल तो करता था दुकान में सेंध लगाकर चोरी कर लूं । किंतु मैं उपजा पूत कमाल नहीं था, जो कबीर के सत्संग के लिए अनाज की बोरी चुराने बनारस के हाट में चला गया था।
तब एक विचार मेरे दिमाग़ में कौंधा - अगर मैं इस दुकान में नौकरी कर लूं तो ? तब तो ये किताबें पूरे समय मेरी आंखों के सामने रहेंगी! क्या ही कमाल का विचार था वह !
सबसे पहले जब मैं रजनीश के सम्पर्क में आया, तो वह किताब नहीं थी, एक ऑडियो कैसेट थी । कहीं पर बज रही थी । मेरे कानों में वो आवाज़ पढ़ी तो मंत्रबद्ध नाग की तरह जड़ हो गया । सुनता ही रह गया । वो महावीर वाणी प्रवचन शृंखला थी । णमो अरिहंताणम् के मंत्र पर प्रवचन चल रहे थे। किंतु एक घंटे के व्याख्यान में रजनीश कहां से कहां चले गए। ऐसा लगा, संसार का कोई विषय इस व्यक्ति के लिए अवरोध नहीं है । वे मुक्त होकर समय और स्थान के पार यात्राएं कर रहे थे । फिर एक दिन किसी के यहां रजनीश की एक पुस्तक मिली। पुस्तक का शीर्षक था - चल हंसा उस देस । मेरे मन में प्रश्न गूंजा - कौन है हंस ? किस देश को जाना है ? आमुख पर रजनीश की तस्वीर थी धवल वस्त्रों में, आंखें मूंदे वे कहीं खोए हुए थे । इतनी सुंदर प्रतिमा, जैसे वे स्वयं राजहंस हों। पुस्तक के अंतिम पन्ने पर परिचय था - महासागर एक संज्ञा है, किंतु उसके अनुभोक्ता के बारे में क्या? जिसने उस असीम को अनुभव कर लिया, वही ओशो है।
रजनीश की पुस्तकों ने एक दूसरे ही संसार का द्वार मेरे लिए खोल दिया । एक-एक कर अनजाने नाम मेरे सामने आते रहे - गुरजिएफ, जरथुस्त्र, मंसूर, बायजीद, ऑस्पेंस्की, मुल्ला नसीरुद्दीन, च्वांगत्सू, लाओत्से, बाशो। इनके बारे में कभी नहीं सुना था। ये कौन लोग थे, ये कौन-सी दुनिया थी? मेरे आसपास के लोगों को इन सबकी भनक तक नहीं थी, मेरे स्कूल शिक्षक इस सबसे अनजान थे, मुझे लगा मैं एक महान सम्भावना के दरवाज़े पर खड़ा हूं । कौतूहल मेरे भीतर आवेग बन गया । मैं रजनीश से बंध गया । उनके कहे, लिखे, छपे शब्दों के अनुसंधान में मारा-मारा फिरने लगा ।
फिर एक दिन वह भी आया, जब गुप्ता साहित्य भण्डार से रजनीश की एक नई पुस्तक खरीदने का साहस जुटाया । पुस्तक थी - निर्वाण उपनिषद । बड़ा ही सुंदर, बैंजनी रंग का उसका आमुख था । जीवन में पहली बार कोई मोटी जिल्द की किताब मैंने ख़रीदी थी । उसका मूल्य एक सौ बीस रुपया था। अढ़ाई सौ रुपया महीना कमाने वाले के लिए ऐसी किताब खरीदना अय्याशी से कम नहीं था । बड़े चाव से वह पुस्तक पढ़ी। साठ के दशक के अंत में रजनीश माथेरान में ध्यान - शिविर लिया करते थे और उपनिषदों पर प्रवचन करते थे। ये उनकी आरम्भिक प्रवचन शृंखलाएं थीं, बाद में पुणे और अमरीका में सैकड़ों और विषयों, व्यक्तियों, ग्रंथों पर उन्होंने प्रवचन किए । प्रवचनों की शैली उनकी निश्चित थी - दस या बीस व्याख्यानों की शृंखला, जिसमें एक प्रश्नोत्तर का सत्र और दूसरा सूत्रों की विवेचना का । जब रजनीश अपने प्रवचन में कहते, आइए अब इन सूत्रों में उतरें, तो श्रोताओं का मन कौतूहल और रोमांच से भर जाता ।
किंतु निर्वाण उपनिषद रजनीश की सैकड़ों पुस्तकों में से केवल एक थी । गुप्ता साहित्य भण्डार में ही रजनीश की कोई दो - तीन सौ किताबें उस समय रही होंगी। मैं उनसे आविष्ट हो गया था । उन्हें पढ़े बिना मुझे शांति नहीं मिल सकती थी । तृष्णा के ऐसे ही क्षण में मैंने सोचा था कि- अगर इस दुकान में नौकरी कर लूं तो !
एक बार मन बना लिया, फिर पीछे हटने का प्रश्न नहीं । अगले दिन वहां पहुंचा। भीतर गया। प्रतिष्ठान के संचालक श्री उमेश गुप्ता थे। मैंने उनसे कहा- मुझे आपके यहां नौकरी चाहिए। वो चौंके । ऊपर से नीचे तक देखा । शायद सोच रहे हों कि अच्छा-खासा पढ़ा-लिखा युवक है, यहां पर काम क्यों करना चाहता है, किंतु कारण उन्होंने नहीं पूछा। कहा, कल से आ जाना। सुबह दस से शाम आठ तक। मैं प्रसन्न हो गया । अंधा क्या चाहे, दो आंखें? मेरे मन की मुराद पूरी हो गई । ख़ुशी के मारे उस रात सो नहीं सका । यही सोचता रहा कि कल से रजनीश की पुस्तकों और मेरे बीच कोई व्यवधान नहीं रहेगा।
अगले दिन काम पर पहुंचा । गुप्ताजी ने अनूप नाम के एक लड़के को बुलाया और कहा, आज से ये नया लड़का काम पर आया है, इसे सब समझा देना। मैं भीतर गया। वहां पहले ही तीन लड़के काम करते थे। मेरे आते ही वो सहसा दादा हो गए। व्यतिक्रम में वरिष्ठ बन गए । उन्होंने मुझसे कहा कि झाडू-पोंछा तुम करोगे, चाय-पानी तुम करोगे, किताबों की सफाई तुम्हारा काम । जो बड़े काम हैं, जैसे बोरे बांधना, बिल्टी का हिसाब रखना, मक्सीरोड डिपो से मालीपुरे तक स्कूली पाठ्यक्रम की किताबें लाना, ले जाना, नरेन टॉकिज़ स्थित प्रिंट यूनिट का काम देखना, तुम्हें काम सिखाना और तुम्हारे काम पर नज़र रखना, वो हम करेंगे ।
मैंने हामी भर दी किंतु पहले ही दिन समझ आ गया कि मैं फंस गया हूं । आया था हरि भजन को, ओटन लगा कपास ! कहां तो सोचा था कि दुकान पर बैठकर रजनीश की पुस्तकों का अध्ययन करूंगा, कहां यह झाडू-पोंछा करना पड़ रहा है। गुप्ताजी सुबह ग्यारह बजे स्कूटर से दुकान पर आया करते थे । उनका बड़ा रौब था। उनके आते ही सब कहते, भाईसाब आ गए, और दुकान में सन्नाटा छा जाता था । मैंने अपने काम करने के दिनों में यह सर और भाईसाब का द्वैत बहुत देखा है। यानी किसी प्रतिष्ठान में जो प्रबंधक क़िस्म के लोग होते हैं, वो सर कहलाते हैं, लेकिन जो सेठ लोग होते हैं, वो भाईसाब कहलाते हैं । भाईसाब हायरेक में सर से बड़े होते हैं।
मैंने कोई चार महीना गुप्ता साहित्य भण्डार पर काम किया । जीवन के बहुतेरे सबक वहां सीखे। वहां मेरा पूरा दिन दुकान के छोटे-मोटे कामों में निकल जाता । गुप्ताजी ट्वेन्टी क्वेश्चंस करके कुंजियां छापते थे, उनकी साज-सम्भाल का काम सबसे बड़ा था। उसी दौरान दिवाली की सफाई निकली। मुझे कुंजियां जमाने का काम सौंपा गया। कई दिनों तक अंधेरे, सीलनभरे कमरों में बैठकर मैं कुंजियां क्रम से जमाता रहा और मेरे फेफड़ों में धूल भरती रहती । मन ही मन सोचता, क्या करने आया था और ये क्या कर रहा हूं। एक बार मुझे देवासगेट की एक लॉज में सफाई करने भेजा गया, एक बार डिपो से किताबें लाने भेजा गया, एक बार एक ध्यान - शिविर में पुस्तकों की सेल लगी तो वहां के काम में लगाया गया। गुप्ताजी शाम आठ बजे घर चले जाते। दुकान एक घंटा और खुली रहती । वही एक घंटा मेरा था । तब जाकर मैं रजनीश की किताबें पढ़ने बैठता था- मैं मृत्यु सिखाता हूं, बिन बाती बिन तेल, मरो हे जोगी मरो, पथ के प्रदीप । ये किताबें मैंने वहीं पर पढ़ीं। इन्हें पढ़ने की यही कीमत थी ।
एक दिन की बात है। दुकान पर कोई कुंजियां खरीदने आया। उसकी भाईसाब से बातें होने लगीं । कुछ देर बाद भाईसाब की आवाज़ गूंजी - "अरे, पानी पिलाना।” यह मेरा काम था । मैं उठा और शीशे के दो गिलास में पानी भरकर लाया। बाहर पहुंचा तो काटो तो खून नहीं । जो व्यक्ति वहां कुंजियां लेने आया था, वो मेरी ही क्लास का छात्र था । मुझसे पढ़ाई में कहीं कमजोर था। मैं क्लास में सबसे आगे बैठता था, टीचर्स का चहेता था, और हमेशा अव्वल आता था। वो पीछे बैठता था और मुश्किल से पास होता था । मैंने पानी का गिलास उसकी तरफ बढ़ाया । वो मुझे देखता रह गया । तुम यहां पर कैसे, और तुम ये सब क्यों कर रहे हो ? उसने मन ही मन यह प्रश्न पूछा । मुझे बड़ी शर्म आई । मैं क्या कहता कि रजनीश की किताबें खरीद नहीं सकता था, इसलिए उन्हें मुफ़्त में पढ़ने के लालच में यहां यह नौकरी कर रहा हूं ?
किंतु उस दिन के बाद तय कर लिया कि अब यह काम नहीं करूंगा । पहली तारीख को तनख़्वाह लूंगा और ऐसे नदारद हो जाऊंगा, जैसे कभी था नहीं। ऐसा ही किया भी । बिना बताए मैं वहां से ऐसा गया कि फिर लौटा नहीं । फिर कई और वर्षों तक उज्जैन में रहा, किंतु गुप्ता साहित्य भण्डार पर नहीं गया। उस डगर पर निकलने से भी बचता रहा । किंतु अब सोचा है कि जीवन में एक बार फिर वहां अवश्य जाऊंगा। अगर भाईसाब वहां मिले तो उनसे भेंट करूंगा। अपना परिचय दूंगा, उन्हें अपनी याद दिलाऊंगा ।
वो साल उन्नीस सौ निन्यानवे था । तब मेरी उम्र सत्रह वर्ष ही थी। बाद उसके मैंने बहुत किताबें ख़रीदी हैं, बहुत किताबें पढ़ी हैं । स्वयं मेरी अनेक पुस्तकें छपी हैं। किंतु रजनीश की पुस्तकें पढ़ने के लिए जिन अनुभवों से मैं तब गुज़रा, वो तमाम अब मेरी स्मृति की निजी पूंजी बन चुके हैं।