नेमि चंद्र की कथा / बायस्कोप / सुशोभित

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नेमि चंद्र की कथा
सुशोभित


रजनीश के निमित्त उज्जैन में जिन विलक्षण लोगों से मेरा मिलना हुआ, उनमें सबसे उल्लेखनीय थे- नेमि चंद्र | वो मुझे मनसुखभाई वढेरा के यहां मिले थे। मनसुखभाई रजनीश के संन्यासी थे और डाबरीपीठे में उनकी जूतों की दुकान थी। दुकान पर टेप कैसेट में रजनीश के प्रवचन चलते रहते । मैं पूरा दिन वहां डेरा डाले रहता, दोपहर का भोजन भी मनसुखभाई के साथ ही करता । लगे हाथ दुकान के काम भी करता । तब मैंने वहां जूता बनाना भी सीख लिया था । संत रैदास ने जूता बनाते-बनाते परम पदार्थ पा लिया था, मैं परम-पदार्थ के अन्वेष में पादुकाएं बनाने लगा था ।

जिस दिन पहली बार मनसुखभाई की दुकान पर नेमि चंद्र को देखा, तुरंत ही लगा यह व्यक्ति कुछ विशिष्ट है । आयु कोई तीसेक साल की रही होगी । वो तेरापंथी थे। ढीली-ढाली कमीज - पतलून पहनते | पैरों में सादा चप्पलें । बाल संवरे हुए । उनके हाथ में पुस्तकें थीं। कुछ देर वो मनसुखभाई से बतियाते रहे, फिर चले गए। मैंने मनसुखभाई से पूछा, स्वामीजी, ये कौन थे? वो बोले, ये बहुत पहुंचे हुए हैं। रजनीशी हैं, लेकिन संन्यास नहीं लिया है । किसी से मिलते-जुलते नहीं, स्वयं को अप्रकाशित ही रखते हैं। बड़े सात्विक जीव हैं । पक्के श्वेताम्बरी हैं । जिमीकंद तक नहीं खाते। नमकमण्डी के स्थानकवासी और ज्ञान के भण्डार हैं।

मुझे लगा, जैसे मोहनदास करमचंद को श्रीमद् राज चंद्र मिले थे, ऐसे ही मुझे ये श्रीमद् नेमि चंद्र मिल गए हैं । इनका सान्निध्य पाना चाहिए। मैं उनके नमकमण्डी स्थित निवास पर जा धमका । मुझे देखकर चौंके । तुम तो मनसुखभाई के यहां काम करते हो ना, यहां कैसे? मैंने कहा, मैं वहां काम नहीं करता, सत्संग करता हूं। आपके पास ज्ञानचर्या हेतु चला आया हूं। उन्होंने कहा अभी समय नहीं है, परसों आना । मैं नियत समय पर फिर जा धमका। उन्होंने फिर टाल दिया। बहुत दिनों तक यही चलता रहा । धीरे-धीरे उन्हें अनुभव हुआ कि यह बालक मुमुक्षु है। इसमें आत्मतत्व के लिए सच्चा कौतूहल है । कालान्तर में मुझको लेकर वो सदाशय हुए। आगे चलकर उनसे प्रगाढ़ मैत्री हो गई।

नेमि चंद्र संसार से पूर्णतया निर्लिप्त थे । केवल दो ही आसक्तियां उन्हें थीं- एक तो मिष्ठान, और दूसरा क्रिकेट । चाहें तो इस सूची में रजनीश की पुस्तकों को भी जोड़ लें। रजनीश की दुर्लभ पुस्तकों की खोज में वो पूरे देश की ख़ाक़ छानते फिरते थे, जहां भी किसी अप्राप्य किताब का पुराना संस्करण मिलता, उसे ले आते। उन दिनों मैं घी मण्डी, दौलतगंज स्थित दैनिक अग्निपथ कार्यालय में रातपाली की नौकरी करता था । चार बजे मेरा काम ख़त्म होता। मैं सीधा अपनी साइकिल उठाकर नेमि चंद्र जी के घर जा धमकता । उनकी कुण्डी ऐसे खड़काता, जैसे यह रात के नहीं सन्ध्या के चार बजे हों। वो उनींदी आंखों से दरवाज़ा खोलते। मुझे देखकर भीतर बुलाते । स्टील का एक डिब्बा मेरी ओर बढ़ा देते। उसमें गरिष्ठ मिठाइयां होतीं - घृत में निबद्ध शेंगदाना चिक्की, उन्हेल का दूधपाक, खोवे से भरी गुझिया, मूंग हलवा | मैं मिठाइयों का भोग लगाता । उनकी तंद्रा धीरे-धीरे टूटती । हम सुबह छह-सात बजे तक बातें करते रहते। कभी कैसेट पर बांसुरी या सितार वादन सुनते । ख़ूब रजनीश - चर्चा होती। उन्होंने मुझे अपनी नींद ख़राब करने की पूरी छूट दे रखी थी ।

मैं अकसर कहता- मैं घी मण्डी में काम करता हूं, और काम समाप्त कर नमकमण्डी चला आता हूं। यानी नौकरी - चाकरी से घी भले मिल जाए, नमक तो सत्संग से ही मिल सकता है । तब हम दोनों यह सुनकर हंसने लगते ।

हमारी बातों के विषय बड़े विचित्र होते । मुख्यतया हम झेन परम्परा के प्रतीकों के इर्द-गिर्द मंडलाते रहते । जैसे कि बाशो के प्राक्तन पोखर में जब दादुर छलांग लगाता है और सदियों के निविड़ सन्नाटे को भंग करता है तो वह ध्वनि कैसी होती होगी? कोई उसे रुद्रवीणा पर बजाएगा तो कौन - सा सुर लगाएगा ? या यह कि नो वॉटर नो मून, इस झेन कथन का क्या आशय है? जब जल नहीं होगा, तब चंद्रमा भी नहीं होगा ? तो क्या चंद्रमा का अपने प्रतिबिम्ब के अलावा कहीं भौतिक अस्तित्व नहीं? एक दिन मैंने उनसे कहा, रजनीश की एक पुस्तक है- एन्शेन्ट म्यूजिक इन द पाइन्स । यानी चीड़ के पेड़ों में पुरानी धुन । क्या यह शीर्षक सुनकर आपके भीतर रोमांच नहीं हो आता? कैसा होता होगा वह प्रागैतिहासिक स्वरमण्डल ?

एक दिन हम रजनीश की एक पुस्तक पढ़ रहे थे। उसमें यह कथा थी कि एक सम्राट ने एक चित्रकार से वैसा चित्र बनाने को कहा, जो सम्पूर्ण कृति हो । चित्रकार ने चित्र बनाकर प्रस्तुत किया । सम्राट कलावन्त था, उसे देखकर मुग्ध हो गया। चित्र में सघन अरण्य का दृश्य था, एक वृक्ष के पीछे पगडण्डी बांक पर मुड़ जा रही थी । राजा ने कहा, सचमुच सम्पूर्ण कृति है, किंतु यह तो बताओ, यह पगडण्डी कहां जा रही है ? चित्रकार ने कहा, आइए हम मिलकर पता लगाते हैं । कथा कहती है कि राजा और चित्रकार दोनों ही उस चित्र में प्रविष्ट हो गए, पगडण्डी पर मुड़े और खो गए, फिर लौटकर नहीं आए।

मैं और नेमि चंद्र यह कथा पढ़कर अवाक् रह गए। रोमावलियों में सिहरन हो आई। फिर नेमि जी ने धीरे से कहा- “ सम्पूर्णता से कोई वापसी सम्भव नहीं । जहां-जहां लौटकर आना है, वहां-वहां अपूर्णता है ।" भोर हो चली थी । पाखी बोलने लगे थे। हमें पता ही नहीं चला था, कब नभ में उजेरा फैल गया था ।

एक बार की बात है। मैं अपने दैनिक अग्निपथ स्थित कार्यालय में बैठा था। रात के तीन बजे होंगे । अचानक किसी ने आकर कहा, कोई तुमसे मिलने आया है। इस समय ? मैं चौंका । नीचे जाकर देखा तो नेमि जी साइकिल टिकाए खड़े थे। उनके हाथ में एक अख़बार था । मैंने इस समय आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा, तुमने अख़बार देखा नहीं होगा, इसलिए स्वयं ही चला आया हूं । ये देखो। अख़बार में इश्तेहार छपा था- दैनिक भास्कर को नए सम्पादकीय सहयोगियों की आवश्यकता है । भाषा पर अधिकार रखने वाले नौजवान सम्पर्क करें- घड़ीवाला कॉम्प्लेक्स, फ्रीगंज, उज्जैन । नेमि जी ने कहा, यह तुम्हारे लिए है, इस अवसर को मत गंवाओ। तुम एक बड़े संस्थान में कार्य करने के अधिकारी हो, तुम्हारी प्रतिभा दुनिया को पता चलना चाहिए । यह नौकरी तुम्हारे लिए एक प्रवेशद्वार सिद्ध होगी ।

मैं वह दृश्य कभी भूल नहीं सकता- नीमअंधेरे में साइकिल टिकाए परछाईं जैसे नेमि जी, और उनके हाथों में इश्तेहार वाला अख़बार। वो रात को तीन बजे मुझे ये बताने आए थे कि मेरे लिए एक अच्छी नौकरी का अवसर है !

कहने की आवश्यकता नहीं, अगले दिन मैंने दैनिक भास्कर में साक्षात्कार दिया और अनेक अभ्यर्थियों में से मेरा ही चयन हुआ। नेमि जी से मेरा अंतिम संवाद फरवरी, 2010 में हुआ था। उनका मुझे फोन आया। मैंने फ़ोन उठाते ही कहा, बधाई हो । उधर से उन्होंने भी कहा, तुमको भी बधाई। उस दिन सचिन तेंडुलकर ने एक दिवसीय क्रिकेट का पहला दोहरा शतक लगाया था। रजनीश के बाद सचिन ही हम दोनों को सबसे ज़्यादा एक-दूसरे से बांधता था। सचिन की सफलताओं से हमारा गहरा आत्मीय लगाव था । बाद उसके, नेमि जी अचानक कहीं गुम हो गए। उनका कुछ पता नहीं चला। वो नीमच के रहने वाले थे, उज्जैन के विक्रमादित्य कपड़ा बाज़ार में उनकी एक दुकान भी थी। किंतु वहां और नमकमण्डी वाले घर पर उसके बाद ताला ही मिला। उनका फ़ोन भी बंद हो गया । उनके व्यक्तित्व में सदैव ही रहस्य का अंश था। आध्यात्मिक अभीप्सा उन्हें जाने कहां-कहां दौड़ाए फिरती थी, और संसार में ऐसा कोई नहीं था, जो उन्हें पूरी तरह से जानने का दावा कर सकता था। सम्भवतया मैं ही उनके सर्वाधिक निकट था, किंतु तब मुझे लगा कि एक सीमा के बाद मैं भी उन्हें जान नहीं पाया था ।

या शायद, सच में ही, सम्पूर्णता से कोई वापसी सम्भव नहीं होती !

आज दस वर्ष हो गए। जब मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, तब मैंने नेमि जी को बहुत याद किया। वो मेरी छोटी-छोटी सफलताओं का उत्सव मनाते थे और मुझे आशीष देते थे, यह देखकर उन्हें अत्यंत प्रसन्नता होती कि मेरी पुस्तक छपी है। मुझे आज भी बारम्बार यह लगता है कि वो स्वस्थ - सानंद हैं किंतु अज्ञातवास में हैं, और मेरी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए हैं। बहुत सम्भव है, वो यह पुस्तक भी पढ़ रहे होंगे। इन पंक्तियों को पढ़कर कदाचित् वो मुस्करा भी रहे होंगे। वो कम से कम यह तो जान ही चुके होंगे कि मैं इतने वर्षों के बाद भी उन्हें भूला नहीं हूं ।