एक ग्राम-निशा का बायस्कोप / बायस्कोप / सुशोभित

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एक ग्राम-निशा का बायस्कोप
सुशोभित


बस चार डग चली और झटका खाकर रुक गई। फिर दो-चार बार खड़खड़ाकर गुर्राई और अंत में मौन होकर बंद हो गई । हमने खिड़की से झांककर देखा- वायु में मद्धम सुर का शीत था । झींगुर राग झिंझौटी में निशागीत गा रहे थे। जंगली झाड़ियों की वानस्पतिक महक फुफ्फुसों में समा गई। चार जन नीचे उतरे कि माजरा क्या है । फिर आठ और । धीरे-धीरे सभी यात्रीगण बाहर आ गए। गाड़ी का इंजिन फेल हो गया था ।

रामनवमी का दिन। उज्जैन से आगे चिंतामण - जवासिया गांव है, जहां गणेश जी का बड़ा सिद्ध मंदिर है । प्रत्येक बुधवार यहां धर्मालुजन का तांता लगता। जवासिया से थोड़ा आगे हासामपुरा गांव था। यहां एक अलौकिक पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जैन मंदिर था । एक टेकरी थी । दो तालाब थे । मोढ़ेश्वरी माता का उपासनागृह भी था । मेरी मां और नानी मोढ़ बनिया समाज की थीं। हर रामनवमी को हासामपुरा में मेला भरता । मालवांचल से समाजजन यहां एकत्र होते । सुबह-सवेरे उज्जैन में दानीगेट पर बस खड़ी हो जाती। वो हमको हासामपुरा ले जाती । संध्यावेला में दिया बाती के समय पर वो हमें फिर दानीगेट छोड़ जाती। वहां से हम पैदल ही कार्तिक चौक चले जाते, जहां हाथी वाले पण्डे के बाड़े में हमारा मकान था । ये हर साल का अनुक्रम। ,

इससे पहले कभी वैसी गड़बड़ी नहीं हुई थी । हासामपुरा की यात्रा सुखमय जीवन के आलम्बनों में से थी । हासामपुरा टेकरी के पत्थर अपनत्व से भरे लगते । तालाब के गिर्द पेड़ों का घेरा था। उनमें एक आदिम किस्म का कौतूहल ठिठका रहता। अलौकिक पार्श्वनाथ मंदिर के समीप धर्मशालाएं थीं, जिनमें किसी स्तम्भ से टिककर हम लोग साग- पूरियां खाते। साग - पूरी के कलेवे में भला कौन-सा अनिर्वचनीय राम-पदार्थ हो सकता है? किंतु उस स्थान पर वह अत्यंत सुस्वादु मालूम होता । रस बढ़ जाता ।

जब भी हासामपुरा जाना होता, चैत्र शुक्ल का ताप परिवेश में पसरा रहता । आम्रकुंजों में बौर फूल जाते । कोकिला की कूक अकथनीय रोमांच से भरती, जो नाभिस्थल पर अनुभव होती । कुल्फी वाले आस-पड़ोस के गांवों से चले आते । घंटी बजाकर शरबत बेचा जाता । संध्यावेला में यहां पंडाल के भीतर समूहभोज होता, जिसमें तरी वाली सब्जी और पूरियों के साथ बूंदी वाला नमकीन परोसा जाता। मीठे में नुक्ती। सभी जन माता मोढ़ेश्वरी की जय बोलते छककर प्रसादी पाते। झुटपुटा होते ही बस आकर खड़ी हो जाती । हम घर को चल देते। पूरे रास्ते दिनभर की स्मृतियों की रंगशाला तब मन में फिल्म की तरह चलती रहती । वैसी ही फ़िल्म उस बार भी चालू होने को थी कि बस झटका खाकर रुक गई। मन में तो दिवस का अवसान हो चुका था और अब केवल एक तंद्रिल उपसंहार ही शेष था। किंतु जैसे ही बस रुकी, किसी ने भीतर से कहा- अभी यह दिन समाप्त नहीं हुआ है। अभी आंखें मूंद उद्भावना में खो रहने की वेला नहीं ।

बस का इंजिन फ़ेल हो गया था । इसे दुरुस्त करना ड्राइवर और क्लीनर के बस का रोग नहीं था । गाड़ी मैकेनिक अब कहां मिले? किसी ने कहा, आज तो हासामपुरा में ही रात बिताएंगे। किसी और ने कहा, टेंट हाउस से गादी - तकिये ले आते हैं। आज की रात तो आकाश ही अपना कम्बल । तब सभी जन एक सहमी-सी मुस्कान मुस्काए ।

एक जन ने कहा, यहां पास में तालोद गांव है। वहां के ग्यारसीलाल मोटर मैकेनिक को मैं जानता हूं । उसकी एक दुकान इंगोरिया में भी है। अगर गांव में मिल गया तो उसको ले आता हूं। कोई और चारा न था तो सबने हां कह दिया । उनका नाम था- गोरधननाथ जी गुप्ता । वो हासामपुरा में किसी से एक मोपेड मांगकर ले आए। जब जाने को हुए तो मैंने कहा, मैं भी चलता हूं। यहां रुककर क्या करूंगा। किसी ने इस पर आपत्ति नहीं ली । मैं उनके साथ हो लिया ।

अब मैं था और मेरे सामने थी वो तिमिरनिशा - उसका निभृत निकुंज । एक आदिम अनुभूति ने मुझको ग्रस लिया । हम मनुष्यों का वैसी तिमिरनिशाओं से नाभिनाल सम्बंध है। अतीत के युगों में जब सभ्यताएं नहीं विकसी थीं, हमने उनको कालरात्रि से कम नहीं जाना है । बनैले पशुओं की हुंकार से हमारे हृदय कांपे हैं। आग जलाकर उसके गिर्द घेरा बनाकर हम बैठे रहे हैं । समुदाय की भावना भय से ही मनुज के मन में उपजी है कि मिलकर रहें तो जीते रहेंगे । वैसी रातों में भोर की प्रतीक्षा हमारी आत्मा में आकुलता का जैसा रंगमंच रचती, उसे आज भी कुरेदने भर की देरी है - हम फिर से ताम्रयुगीन अनुभूतियों से भर जावैंगे I

सिर के ऊपर रत्नजड़ित थाल था। नगर की उज्ज्वल निशा में ये नक्षत्र कभी वैसे दिखाई नहीं देते थे । तारों का वह जलसा देख एकबारगी हृदय कांप उठा। ऐसा लगा जैसे सहस्रों आंखें आकाश से मुझको घूर रही हैं । और केवल आज से नहीं, जाने कितने सहस्र वर्ष हो चुके । मैं उनके द्वारा देखी जा रही एक नन्ही इकाई भर हूं। मैंने पूछा, गोरधननाथ जी, ये तालोद गांव कितना दूर है । उन्होंने कहा, बस ये रानाबाद के आगे । वो दूर बत्ती देखते हो । वो तालोद के हनुमान मंदिर का उजेरा है ।

रानाबाद में तेजाजी महाराज का मंदिर था । चार जन बैठ कथा बांच रहे थे। कहां तो मुझको बस में बैठकर उज्जैन जाना था, घर में घुसकर सो रहना था, और कहां मैं अभी ये रानाबाद की तेजाजी कथा सुन रहा था। क्या कभी सोचा भी था कि जीवन में इस दिशा आना होगा? या अब फिर कभी यहां लौटूंगा ? इस रोमांच ने तब मेरी आंतों को उद्वेलित कर दिया कि यह अनागत क्षण अनन्य भी है, यह अब फिर कभी घटित नहीं होगा ।

हमारे मालवे में गांव को खेड़ा कहते हैं । छोटा गांव खुर्द कहलाता है, बड़ा गांव कलां। जैसे छोटी खरसोद ख़रसोदखुर्द कहलाएगी, बड़ी खरसोद खरसोदकलां । और खेड़ा तो खुर्द से भी छोटा गांव होता, जैसे नाना - खेड़ा। नन्हा गांव । तालोद खेड़ा था। गांव के सीमान्त पर ही हनुमान जी मंदिर था, जहां रामनवमी का कीर्तन चल रहा था। घी- सिंदूर की वैसी गंध ने मुझको आप्लावित कर लिया, जो भारत - देश के गांव-देहात के हनुमान मंदिरों में ही अनुभव की जा सकती है । गुलुप ( बिजली के लट्टू) की एक झालर मंदिर के आंगन में झिलमिला रही थी ।

गोरधननाथ जी ने जाते ही राम - राम की । ग्यारसीलाल का पूछा तो पता चला, ग्यारसी महाराज तो यहीं मंदिर पर कीर्तनियों के बीच विराजे हैं। ढोलक - टिमकी बजा रहे हैं । गोरधननाथ जी उनके पास गए। हाथ जोड़े। अपनी विपत्ति का विवरण दिया । बोले, आपके हाथ में जंतर है । मरी हुई मोटर को भी छू भर दें तो वो सजीव - सप्राण हो जावै । हमारी गाड़ी जंगल बीच खड़ी हो गई है। आज रामजी का दिन है और आप हनुमान जी के भगत हैं । ये बेड़ा आप ही पार लगवाइये।

ग्यारसीलाल जी उठे और बोले, अरे भाई, वैसी भी क्या बात है । मैं तनिक अपनी आले की पेटी उठा लाऊं। वो गांव में गए और पांच मिनट में औजार लेकर लौटे। फिर हमारे साथ चल दिए । एक मोपेड पर तीन सवार । डगमग डगमग डार। कहीं मोपेड पंक्चर न हो जाय, मैंने सोचा और मन ही मन हाथ जोड़कर रामदरबार से प्रार्थना की कि दयादृष्टि रखना ।

ग्यारसीलाल जी के नाम में व्यास जुड़ा होना चाहिए था । कारण- वो एक नम्बर के कथावाचक थे । हमारे मालवे में मूरख आदमी को कहते हैं- बेंडो बले । फिर उसमें जोड़ देते हैं - गेली ग्यारस । लेकिन ग्यारसीलाल जी न तो बेंडे थे, न गेले । उनका ज़ेहन तो जैसे उम्दा ऑइल की गई मोटर की तरह फर्राटे से चलता था। दुनिया-जहान का कुशल- समाचार उनके पास था। पूरे रस्ते उनकी कैसिट चलती रही। गांव में गए साल कितना पानी पड़ा । कहां पर कितना बटला हुआ, कहां पर कितने छोड़ ( हरा चना ) हुए । ब्रजराजखेड़ी में इस बार कितने मोर मरे। जवासिया में गए बुधवार कितने का चढ़ावा आया । शिप्रा नदी का लाल पुल किस साल की पूर में खतरे के निशान के नीचे आ गया था । उजड़खेड़ा में क्या नई - जूनी । उण्डासा में क्या उत्पात | त्रिवेणी संगम पर सोमती अमावस को पनौती की कितनी चप्पलें छोड़ी गईं । चार कोस के रास्ते में चार लोक की कथा उन्होंने बांच दी ।

फिर बोले, इंगोरिया वाली दुकान का काम ठीक से जम जाए तो बिटिया को ब्याह दूं। सिलोदा रावल में एक जगह बात चलाई है । पर अभी हाथ तंग है। बिटिया अभी घर में निश्चिंत सो रही होगी - मैंने सोचा । क्या स्कूल जाती होगी ? कैसी लूगड़ - चुनरी पहनती होगी? उसके मन में एक संगी की क्या कल्पना होगी? एक पूरे का पूरा जनपद मेरी भावना में सजीव हो उठा। जो जन नगर में जागकर सो रहते हैं, उन्हें इसकी भनक नहीं लगती। जो जन नवमी के मेले में हासामपुरा आकर नगर लौट जाते हैं, वो भी अछूते ही रह जाते हैं जो मेरे जैसे ऐसे दुर्योग से इस दिशा चले आएं तो हजार चित्र आंख के आगे सजल हो उठें।

बाद के सालों में जाने कितनी बार मैंने गूगल के मानचित्र से भारत-देश के अपार भूखंड को निहारा है । सात लाख गांवों के इस महादेश में हर गांव में एक ग्यारसीलाल होगा, जिसके पास दुनिया-जहान का ब्योरा, जिसके हृदय की एक अंतर्कथा। ऊपर से देखो तो यह धरती हरे और भूरे की पंचमेल दिखती है । और भीतर धंस जाओ तो मनुष्यता का एक राग अगणित अंतर में धड़क रहा है, जिसमें बिटिया चैन की नींद सोती है तो बाबा उसके ब्याह की चिंता में गलता है- हाथ में सम्भाले पाने - हथौड़ी - पेंचकस से भरी औजारों की पेटी ।

चुटकी बजाते ही ग्यारसीलाल जी ने बस की बीमारी पकड़ ली । देखते ही देखते उसको चंगा कर दिया। ड्राइवर अपने आसन पर विराजा और बस स्टार्ट कर दी। उसका इंजिन मक्खन की तरह घरघरा रहा था। टेंट हाउस से दरी - चादर लाने की ज़रूरत नहीं थी । हम आज उज्जैन जाकर सोएंगे ।

बोल मोढ़ेश्वरी माता की जय का एक सुदीर्घ उद्घोष हुआ । पीपल-बरगद पर सोये सुग्गों की नींद में इससे अवश्य व्यवधान आया होगा, किंतु झींगुरों के समवेत पर कोई अंतर नहीं पड़ा । मैंने सोचा - जब संसार में सबकुछ समाप्त हो जावैगा, तब भी ये झींगुर यों ही राग झिंझौटी में निशागीत गाते रहेंगे। कौन जाने, कितने मृतकों का यह शोकगीत !

बस चल दी। मैंने खिड़की से मुंडी निकाली तो सुदूर अंधकार में ग्यारसीलाल जी की प्रतिमा धूमिल होती दिखाई दी । मैंने उत्साह से हाथ हिलाया । अंधेरे में किसी को क्या दिखा होगा, किंतु मुझको लगा जैसे उधर से हिलते हुए हाथ की एक उद्भावना मुझ तक चली आई है। मैं मुस्करा दिया। बस की सीट में धंसकर बैठ गया और आंखें मूंद लीं। मन में पूरे दिन की फिल्म चलने लगी- टेकरी, पत्थर, तलैया, साग- पूड़ी, तेजाजी कथा, तालोद गांव में गुलुप की लड़ी- एक-एक कर इसी क्रम में ।

बीती सदी के एप्रिल के एक नामहीन दिन पर धीरे-धीरे झीनी तंद्रा का पटाक्षेप हो गया !